बुधवार, 22 दिसंबर 2010

देसिल बयना - 61 : हरबरी का ब्याह, कनपट्टी में सिन्दूर !

देसिल बयना – 61

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

हरबरी का ब्याह, कनपट्टी में सिन्दूर !

-- करण समस्तीपुरी

पछिला साल नानीगाँव वाला बात याद करके हंसी दबाये नहीं दबता है..... हा.... हा... हा... हा.... ! जमुनी मौसी का सात साल का बेटा घपोचना बिजली मामी को देख कर सो ताली पीट के हंसा कि पूछिये मत। खी...खी...खी...खी..... ! ए खें....खें.....खें...खें....... ! आहि रे बा.... 'का हुआ रे घपोचना.... इन्ना खिखिया काहे रहा है.....?

"आले तोली ते...... बिजली मामी तो मलद के तलह केछ झाली हैं.... ही....ही.... ही.... ही.... देखो न कैछे जुल्फी के कात में मांग निकाली हुई है.... अदय देवगन के तलह.... हा...हा.... हा... हा.... ! मामी तो हिलो हो गयी ...... हें...हें...हें.... !

उ अबोध के ई मासूम जवाब सुन के सब जाने हँसते-हँसते पेट पकड़ लिहिस.... हा...हा... हा... हा... हा..... ! अरे बाप रे बाप...... हा.............. !

सच में गाँव-घर में तो सभी औरत बीच में ही मांग निकालती थी। बिजली मामी ही एगो अपवाद थी। सांचे... जुल्फों के बादल के बाएं भाग में लाल सिन्दूर बिजली मामी का नामे जैसा चमक रहा था। सकल सभा घपोचना के निर्मल हास में डूब गया था। लपकू मामू तो कह भी दीये थे, "हाँ... बिजली भौजी बगले से बिजली गिराती हैं... हा...हा...हा...हा..हा.... !"

बेचारी बिजली मामी झेंप कर बोली थी, "हाँ ! जरा अपने हरबरिया मामू से भी पूछ लो.... बिजली का बिजली गिराएगी... बिजलिये पर बिजली तो तोहरे हरबरिया मामू गिरा दिए... पता नहीं किन्ना धरफराए हुए थे कि बीच मांग के बदले..... !" आ... खी....खी....खी....खी...... ! बिजली मामी अंत में जौन अदा से मुँह चमकाई थी कि ठहक्का दोबारा बजर गया।

सच्चे... मामू भी कमाल हरबरिया थे। हमको अभियो यादे है उनकी बारात। सहबल्ला बन के तो हमही गए थे। यही अगहन मास था। गंगा-कमला के दियारा में तो कातिके से जाड़ा जोत देता है। नाना कहे थे कि फागुन पहिले पक्ख बारात दुआर लगायेंगे मगर मामी के घरवाले को भरोस नहीं था। हाँ भई ! बेटी का ब्याह हो जाए तो समझो कि हो गया... । उ तो ठहरे लड़की वाले इधर जोखन मामू और उनसे भी जादे हमरी नानी को बेटा ब्याह का बिगरता लगा हुआ था।

बैकुंठ एकादशी आते-आते सरदी को भी पंख लग रहा था। हमलोग तो स्वेटर के ऊपर से गांती बाँध-बाँध के मजा लेते थे। असल कसरत तो जोखने मामू का होता था। पांच रात तो कम से कम पसाहिन करना ही पड़ेगा। बाप रे बाप... वस्त्र के नाम पर बस डाँर में एगो पीरा धोती। ऊपर से पूरे देह पर उबटन की रगड़ाई। रह-रह कर बेचारे का हाड़ काँप जाता था। और फिर उ रतिया में कुइयां-स्नान। हर-हर गंगे.... ! बेचारे मामू एक लोटा पानी ढारे में पांच गो भगवान को सुमिरते थे।

पूर्णिमा रात का लगन था। झोंटा झा पंडीजी चेता दिए थे, "कल्हे से पूस चढ़ रहा है। देरी-विलम्ब किये तो हो गया त्र्यम्बकं यजामहे... सुगन्धिं पुष्टि वर्धनं..... !"

मैथिल के बरियात और सांझ से पहिले विदा हो जाए... हरि-हरि ! उ तो कहावतो है, "तीन तिरहुतिया तेरह पाक, ओहि में उठे भागम-भाग !' बैलगाड़ी के ऊपर ओहार (पर्दा - शीत से बचने के लिए) लगा कर लौडिस्पीकर बांधते-बांधते चंदा मामा भी चमक उठे। अशरफी राम का मशक बैंड एक मोडल बाजा के आराम कर रहा था। उ तो रामजी बाबा धरफराए तो जाकर अशरफिया पिपही पिपियाने लगा, "मेरा यार बना है दूल्हा और फूल खी हैं दिले के..... पें.... पें... पें...पें...पें...पें...पें.... पें... पें...पें...पें...पें...पें.... पें... पें...पें...पें...पें... !"

बारातो बूझिये महादेवे जैसा... ! अंतर यही कि उ बैल पर गए थे और ई बैलगाड़ी पर। सुखलाहा बलान नदी पार करते-करते चंद्रदेव माथा पर आ गए। उधर बराती के खोज में धम्मक गंज से भी आधा दर्जन साइकिल जोता गया था। खैर बलाने कात में भेंट हो गयी। फिर उहाँ से बराती-सराती जमे चले। हम तो जोखने मामो के पजारी में चिपके हुए थे।

images (11)पहर रात गए बारात दुआर लगी। लेकिन धम्मक गंज वाले को चाबश कहना पड़ेगा। नास्ता के साथे-साथ चाह भी परोसे थे। जादा तर बराती शीशा वाला गिलास को दुन्नु हाथ में पकर कर पंजा गरमाने की कोशिश भी कर रहे थे। दुग्ध-जल-शर्करा युक्त पर्वतीय बूटी के उष्ण मिश्रण का सेवन कर बारातियों में भी कुछ गर्मी आयी।

द्वारपूजा करा के जोखन मामू को ले गए मंडप पर। हम तो साथे-साथ थे। झोटा झा भी पछुआरा छोड़ने वाले नहीं थे। उधर लड़की पक्ष के पंडी जी 'एतानि गंगा जलानि..... ' कर रहे थे। शीत गिरे कि पला मिथिला में लगन है हास-परिहास कैसे रुकेगा। पंडीजी मामू को कहें, "हाथ में कुश लीजिये.... !" पीछे से जर-जनानी सब कहे, "डैस.... में ठूस लीजिये !" 'खी... खी.... खी...खी..... हम तो मंडप पर भी खिखिया दिए थे।

झोंटा झा उ दिश के पंडी जी को थर्ड गेयर धरा दिए थे। लेकिन उनका भी खूब स्वागत हुआ, "ई पंडित बुरबक को पोथी नहीं है.... !' हा...हा... हा..... हा.... ! हमें तो बड़ा मजा आ रहा था मगर लाल धोती और सिल्क के कुरता पहिने मामू का हाल देखने लायक था। देखने से ही लग रहा था कि बेचारे केतना हरबरी में हैं। पंडीजी जब तक 'तील-जौ' कहें तब तक मामू का हाथ 'सचंदन पुष्पं' तक पहुँच जाता था।

सब कुछ ग्यारह से दू के शो जैसा हुआ। शर्ट-कट में फटाफट मंडप के नीचे अग्नि सुलगाया गया। धान के लाबा छीटते हुए मामा-मामी सात फेरा लिए। उ तो शुकुर कहिये कनहू हजाम का कि आग सुलगा दिया। नहीं तो इहाँ भी साढ़े तीने फेरा में जय-जय श्री सीताराम हो जाता।
मामी तो भरा-पूरा कपड़ा-चादर से धनकी बैठी थी। मगर मामू आग तर से हटे सो ठंडी उनको और दुलकाने लगा। रह-रह कर दांत से झाल बज जाता था। इधर दुन्नु पंडी जी सिन्दूर दान कराने के लिए तैयार। बेचारे मामू भी दांत किटकिटाते-कंपकंपाते भर मुट्ठी सिन्दूर उठाए। पंडी जी का 'इरिंग-भिरिंग' चलिए रहा था कि आगे बैठी मामी के माथा में रगड़ दिए।

आह तोरी के.... मामू अपना विध कर के सीधा भी नहीं हुए थे कि महिला मंडल में उपहास गूंज गया, "गे मैय्या...... दूल्हा केहन हरबरिया छै गे..... देखो तो..... !" एक औरत बोली, "जा ब्याह हो गया और बिजली के मांग उदासे..... !" दूसरी बोली, "हाँ ए बहिन दाई ! जा सिन्दूर कहाँ रखि देलखिन दुल्हा.... ?' तभी तीसरी औरत ने कहा, "अरे ये देखो न.... ! मांग बीच में है और दूल्हा बाबू हरबरी में कनपट्टी में ही सिन्दूरदान कर दिए।" मामी की महतारी का तो कलेजा बैठ गया, "जा हो विधाता.... ! आब कि हेतैक.... (अब क्या होगा.....) ?

पंडीजी सारा नारी-विलाप सुन के बोले, "धत तोरी के... अरे होगा क्या... कुछ नहीं। सब ठीके है। हरबरी के ब्याह में कनपट्टी में सिन्दूर तो होगा ही। अब जो हो गया सो हो गया.... महादेव योगी थे तो पार्वती भी जोगन बनी। वनवासी राम के लिए सीता भी वन-वन भटकी। अब पाहून इसने हरबरिया मिले तो का होगा... सिंदूरदान कनपट्टी पे हुआ तो अपनी बिजली बचिया भी आज से कात में ही मांग निकालेगी.... !"

हा...हा...हा...हा.... ! ई को कहते हैं पंडित। सब समस्या का समाधान। हमको तो ई पूरा दिरिस एकदम ताजा-ताजी यादे है। प्रजेंट में भी हंसी आ गया। हँसते-हँसते ही कहे, "सच में उ रात ठंडियो ऐसन पड़ रहा था.... !"

हमरी बात खतम हो उ से पहिलही बिजली मामी चिहुक पड़ी, “हां-हां ... ठन्ढी का रहेगा ... ई न कहिये कि ठन्ढी से जादे हरबरी था। अरे थोड़ा निहुर के देख भी तो लेते ...! अगर इन्ना हरबराये हुए नहीं होते तो कनपट्टी में सिन्दूर नहीं न डालते ... और ना ही हमें ज़िन्दगी भर टेढा सीथ करना पड़ता।”

तब बड़का मौसा बोले, “हां, ई बात तो ठीक है। झट-अपट काम शैतान का होता है। हरबरी नें बड़ा गरबरी हो जाता है। अब देखिए, ‘हरबरी के ब्याह में कनपट्टी में सिन्दूर हो गया न ...। तो अब आप कोई भी काम इत्मिनान से कीजिएयेगा ... हरबरी में नहीं। समझे .... ?”

16 टिप्‍पणियां:

  1. जब भी आपका देशिल बयना देखता हूं,मेरा मन उमड-घुमड कर न जाने क्यों गांव की भूली विसरी अतीत से बरबस ही जुड जाता है। करन बाबू,एही संदर्भ में एगो भोजपुरी के गीत सुन लीजिए-
    जब-जब आवेला गउंआ के याद,करेजवा कुहुंके ला।
    "हमरे मन के तू जीत लिहल करन भाई,
    तोहार ऋण हमरा से कबहूं ना दिआई।"
    भोरे-भोरे आउर का लिखी-आशीर्वाद देत बानी कि राम जी तोहरा के वनवले रहस। नमस्कार स्वीकार करिएगा।

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  2. करन बाबू! आज हम भी हडबडी त्याग कर सबेरे तनी जल्दिये उठ गए कि बिना देसिल्बयाना पढले आज ऑफिस नहीं जायेंगे, नहीं त एक्के बार रातिये में मौक़ा भेंटाता है.
    आज फेनु बियाह का बरनन सुनकर पुरनका टाइम इयाद आ गया. हमारो बियाह अइसने टाइम में हुआ था, ऊ त कहिये भिडियो वाला का लाईट जान बचाया.. छत पर मंडवा और हवा कहे कि बेटा बस एही परिच्छा का घडी है.
    बाकी कनपट्टी में सेंदुर नहीं दिए थे हम.. कमाल का सैली है आपका. एकदम सौंसे नजारा बायस्कोप का माफिक दौड जाता है नजर के सामने से. अउर सभे पात्र त लगता है कि हमारे पड़ोस में आज भी जीबित हैं.
    गजब का सजीब चित्रण है.. हमारे तरफ से नजर उतार लीजियेगा अपना की-बोर्ड का!! जीते रहिये!!

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  3. करन आज आपका सजीव चित्रण और वर्णन देख बाबा नागार्जुन के उपन्यास के पात्रों की याद ताज़ा हो गई.. बलचनमा... बाबा बटेसरनाथ आदि... आदि..हमारे बीच सिमटते विश्व और भूमंडललीकरण के दौर में लोकसाहित्य को जीवित आप जैसे रचनाकार ही रखेंगे... अपने लय को बनाये रखें.. शुभकामना सहित..

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  4. करन बाबू,
    आज का देसिल बयना बड़ा मजेदार लगा !
    यह तो सुना था कि जल्दी का काम शैतान का होता है मगर आज नया मुहावरा
    हरबरी का ब्याह, कनपट्टी में सिन्दूर !
    पढ़कर आनंद आ गया !
    मिट्टी में दबी हमारी संस्कृति की संवाहक इन लोकोक्तियों से परिचित करा कर आप एक वन्दनीय कार्य कर रहे हैं इसके लिए आपकी जितनी भी प्रसंशा की जाय कम है !
    मेरी बधाई स्वीकार करें !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  5. mazedar post gant bandhlo Karan hadbadee me koi kaam mat karna........
    shubhkamnae.......

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  6. सभी पाठकों का कोटिशः धन्यवाद ! आदरणीय प्रेमजी, सलिल चचा, अरुण भाई, मर्मज्ञ जी, अपन्त्वा आंटी........ आप की स्नेहिल टिप्पणी पाकर मैं खुद को बड़भागी समझता हूँ. धन्यवाद भी कैसे दूँ.... मैं तो आप सब से छोटा हूँ स्नेह का स्वाभाविक अधिकारी. सो नो थैंक्स !

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  7. हड़बड़ी का काम शैतान का ....यह तो पता था पर सिंदूर की कहानी नहीं ..बढ़िया और मज्र्दार कहानी से यह देसिल बयना बताया ..

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  8. गांती....ओह !!!

    लेकिन हमको लगता है सचित्र दिखाना पड़ेगा आपको कि गांती किसको कहते हैं और यह कैसे बाँधा जाता है...

    रसमय खिस्सा मन को रस से भर गया...जियो बचवा....जुग जुग जियो !!!!

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  9. are karan bhaiya ham ka kahe, hume to kuchh likhane ko sujhata hi nahin hai. fir bhi .............

    Atisuyukt.. Sunder...

    Asha hai,
    Yun hi milta rahega padhne ko..jiske lie time nahi nikalna parta hai.

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  10. कथा प्रयु्क्त देसिल बयना पर सटीक फबती है।

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  11. यह सब हडबडी यों होती हैं कि,लोग नियमों के विपरीत चलते हैं.वस्तुतः विवाह सूर्योदय व सूर्यास्त के मध्य होना चाहिए जबकि,पोंगा-पंथी रात में करते हैं .कोई भी सच्चाई मानना ही नहीं चाहता.--विजय
    गांती बच्चों के लिए टोपी और ओवरकोट की तरह हो जाता है,क्या मजाल कि,ठंडा लग जाये.--पूनम

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  12. करण जी बहुत ही उम्दा लेखन है आपका. पहले भी आप की रचनाएँ पढ़ी है बढ़िया जमीन से जुदा रहना.

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  13. बहुत सुंदर लेख, अच्छा किया आप ने साथ साथ हिन्दी भी लिख दी वर्ना कहां समझ आता, ओर हां गिलास मै चाय देख कर गुजरा जमाना याद आ गया, जब हम सर्दियो मे हाथ गरम करने के लिये चाय के गिलास को ऎसे ही पकडते थे ओर गर्मा गरम चाय़े सुडकते थे( पीते नही) ओर मां बाप गुस्सा करते थे कि आवाज कर के चाय मत पियो, कभी कभी गाल पर चांटा भी पड जाता था, धन्यवाद

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  14. सहज प्रवाहित लोक-जीवन और चित्रात्मक भाषा -लगता ही नहीं पढ़ रहे सब जैसे सामने से गुज़र रहा है !

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