सोमवार, 22 सितंबर 2014

सत्याग्रह का आंदोलन फिर से …

गांधी और गांधीवाद-159

सत्याग्रह का आंदोलन फिर से …

1913

शादियां अवैध घोषित कर दी गई

उधर जनरल स्मट्स के धोखे से भारतवासियों का रोष बढ़ रहा था। इस बीच उच्चतम न्यायालय के बाई मरियम के एक मुकदमे के फैसले ने आग में घी का काम किया। इस घटना ने स्त्रियों को भी लड़ाई में शामिल कर लेने का मौका दे दिया। तीन पौंड के कर को हटा लिए जाने के गोखले को दिए गए वादे को निभाने के विपरीत, भारतीय वहां के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से और भड़क उठे, जिसके अनुसार हिंदू, मुस्लिम और पारसी रीति-रिवाज़ से सम्पन्न दक्षिण अफ्रीका में गैर-ईसाइयों की शादियां अवैध घोषित कर दी गई। भारत के अधिकांश विवाहित लोग दक्षिण अफ़्रीका गए थे और उनमें से कुछ ने वहीं विवाह किया था। भारत में सामान्य विवाहों की रजिस्ट्री कराने का क़ानून तो था नहीं। धार्मिक क्रिया ही काफ़ी समझी जाती थी। दक्षिण अफ़्रीका में भी भारतीयों के लिए यही प्रथा होनी चाहिए थी।

हुआ यह कि केपटाउन के एक मुसलमान व्यापारी हसन ईसप की पत्नी बाई मरियम भारत से आई थी। इमीग्रेशन वालों ने उसे अफ़्रीका की धरती पर उतरने नहीं दिया। उसके परिजनों ने कोर्ट में न्याय की गुहार लगाई। हाई कोर्ट के जज सरले ने फैसला दिया कि पत्नी को पति के साथ रहने का पूरा हक़ है। लेकिन यह सवाल भी उठाया कि यह महिला वास्तव में पत्नी है कि नहीं यह तभी माना जाएगा जब उसके विवाह का क़ानूनी सबूत न पेश किया जाए। दक्षिण अफ़्रीका के क़ानून में वही विवाह जायज माना जाएगा जो ईसाई धर्म की रीति से सम्पन्न हुआ हो और जिसकी रजिस्ट्री विवाह के अधिकारी के यहां करा ली गई हो। हिंदू, मुसलमान, पारसी शादियां तो धार्मिक रीति से होती है। इसका कोई क़ानूनी दस्तावेज़ नहीं होता। कोई लिखित सबूत नहीं होता। इसलिए कोई क़ानूनी सबूत न होने के कारण उस महिला को दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने वापस भारत भेज दिया।

सत्याग्रह का आंदोलन को फिर से प्रज्ज्वलित

इस फैसले ने भारतवासियों को जड़मूल से अफ़्रीका से निकाल देने की स्थिति खड़ी कर दी। इस फैसले का अर्थ यह था कि जो शादियां सरकारी क़ाग़ज़ातों में दर्ज़ हों, वही मान्य होंगी। बाक़ी शादिया अवैध मानी जाएंगी। अर्थात विवाहित पत्नी का दर्ज़ा एक रखैल के बराबर हो गया था। ऊपर से उनके बच्चों को नाजायज़ होने के नाते पिता की संपत्ति का भी कोई अधिकार नहीं रहेगा। भारतीयों की मृत्यु के उपरांत उनकी संपत्ति सरकार हड़प सकती थी। यह एक ऐसी स्थिति थी, जिसे स्त्री-पुरुष दोनों नहीं सह सकते थे। यह भारतीयों के अपमान की पराकाष्ठा थी। इस फैसले से पूरे देश में भारतीय भड़क गए। इतना तो किसी अन्य बात ने भारतीयों को आहत नहीं किया था। इस फैसले ने लगभग बंद पड़े सत्याग्रह के आंदोलन को एक बार फिर से प्रज्ज्वलित कर दिया। उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील की जाए या नहीं, इस पर विचार करने के लिए सत्याग्रह-मंडल की बैठक हुई। सभी ने निश्चय किया कि ऐसे मामले में अपील हो ही नहीं सकती। गांधी जी ने पत्र आदि लिख कर यह प्रयास किए कि सरकार अपनी भूल सुधार ले। लेकिन मदांध सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। 10 मई 1913 को गांधी जी ने सरकार के साथ हुए पत्र-व्यवहार को ‘इंडियन ओपिनियन’ में प्रकाशित कर दिया। इस पत्र के प्रकाशन से सत्याग्रह की अनिवार्यता लोगों की समझ में आ गई।

महिलाएं भी सत्याग्रह में

गांधी जी ने भारतीय समुदाय के बंधुआ मज़दूरों कुछ वीर स्त्रियां सत्याग्रह में शामिल होने की मांग पहले भी कर चुकी थीं। जब बिना परवाना दिखाए फेरी करके जेल जाना शुरू हुआ था, तब फेरी करने वालों की स्त्रियों ने भी जेल जाने की इच्छा प्रकट की थी। पर उस वक़्त परदेश में स्त्रीवर्ग को जेल भेजना गांधी जी को अयोग्य जान पड़ा था। इसके साथ-साथ यह भी दिखाई दिया था कि जो क़ानून खास तौर पर मर्दों पर लागू होता हो उसको रद्द कराने में स्त्रियों को शामिल करना उचित नहीं है। इतने वर्षों से चल रहे सत्याग्रह आंदोलन में सत्याग्रहियों की ओर से नैतिक आचार-विचार का बड़ा ऊंचा स्तर रखा गया था। उन्होंने कभी सरकार को तंग करके अनुचित लाभ नहीं लिया। हर कदम पर सरकार को मौक़ा दिया, ताकि वह अत्याचारी नीति बदल सके। इसीलिए गांधी जी ने महिलाओं को सत्याग्रह आंदोलन में शामिल नहीं होने दिया था। उनकी आड़ लेकर वे विपक्ष के साथ अन्याय नहीं करना चाहते थे। वे सरकार को बदनाम नहीं करना चाहते थे कि उसने महिलाओं को भी कष्ट दिया। लेकिन इस बार तो स्त्रियां, जिनका खास तौर से अपमान होता था, उन्हें लगा कि इस अपमान को दूर करने के लिए वे भी बलिदान हो जाएं तो अनुचित न होगा। हुआ भी यही, अब स्त्रियों को रोकना संभव नहीं था। इस बार तो, घर-घर की महिलाएं, जो अब तक आंदोलन में सक्रिय नहीं थीं, भी आंदोलन में कूद पड़ीं। उनमें बलिदान की मशाल जल उठी। इस अन्याय को सह पाना असंभव हो गया था। लोग स्वाभिमान की रक्षा में मर-मिटने को तैयार थे। अब सत्याग्रह को विशाल मंच मिल गया था।

सबसे पहले टॉल्सटॉय फार्म की महिलाओं ने अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए सत्याग्रह करने का निश्चय किया। गांधी जी ने तय किया कि महिलाओं का एक जत्था बिना अनुमति के ट्रांसवाल से नेटाल जाएगा। इनमें से कई महिलाओं की गोद में बच्चे थे, लेकिन अपनी इज़्ज़त की रक्षा के लिए वे सारे कष्ट सहने को तैयार थीं। ग्यारह महिलाओं का एक जत्था क़ानून भंग करने के आशय से ट्रांसवाल की सरहद से बिना परमिट नेटाल प्रांत में प्रवेश किया। लेकिन सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार नहीं किया। अपराध करके जेल जाना आसान है। निर्दोष होते हुए अपने-आपको गिरफ़्तार करना कठिन है। जो अपनी ख़ुशी से और निरपराध होते हुए जेल जाना चाहता है उसको पुलिस तभी पकड़ती है जब वह इसके लिए लाचार हो जाती है। उन बहनों का पहला यत्न विफल हुआ। अब उन महिलाओं के सामने यह सवाल खड़ा हो गया कि वह किस तरह अपने-आपको गिरफ़्तार कराएं।

अब गांधी जी ने सोचा कि फीनिक्स के अपने साथियों को इस आंदोलन में लगाएंगे। फिनिक्स में रहनेवाले गांधी जी के अंतरंग सहयोगी और संबंधी थे। यह सोचा गया कि अख़बार चलाने के लिए जितने आदमी चाहिए उतने आदमियों और सोलह बरस से नीचे के लड़के-लड़कियों को छोड़कर बाक़ी सबको जेल-यात्रा के भेज दिया जाए। इस सोलह आदमियों की मंडली को सरहद लांघकर ट्रांसवाल में बिना परवाने के प्रवेश करने के अपराध में गिरफ़्तार कराना था। इस कदम की बात किसी को नहीं बताई गई, नहीं तो पुलिस को पता चल जाने का ख़तरा था। यह भी तय किया गया कि पुलिस को नाम-पता भी नहीं बताना था, नहीं तो यदि वे जान जाते तो शायद उन्हें पता चल जाता कि वे सभी गांधी जी के सहयोगी हैं। इसके साथ-साथ यह भी तय किया गया कि उन बहनों को भी नेटाल में दाखिल होना है जो ट्रांसवाल में दाखिल होने का विफल प्रयत्न कर रही थीं। तय हुआ कि पुलिस इन बहनों को पकड़ें तो ये अपने-आपको नेटाल में गिरफ़्तार करा दें और यदि ना पकड़ें तो नेटाल के कोयले खानों के केन्द्र न्यूकैसल में जाकर वहां के गिरमिटिया मज़दूरों से खानों से निकल आने का अनुरोध करें। मज़दूर यदि इन बहनों की बात सुनकर काम छोड़ दें तो सरकार मज़दूरों के साथ-साथ उन्हें भी गिरफ़्तार किए बिना नहीं रहती। यह सब योजना बनाकर गांधी जी फिनिक्स गए।

कस्तूरबाई ने सत्याग्रहियों के जत्थे का नेतृत्व किया

फिनिक्स में गांधी जी ने सबके साथ बातें की। उन्होंने वहां रहनेवाली महिलाओं के साथ जेल जाने के संबंध में मशवारा किया। उन्हें डर था कि कसौटी के समय डरकर या जेल में जाने के बाद वहां के कष्ट से घबराकर माफ़ी न मांग लें। कस्तूरबा के बारे में तो उन्होंने निश्चय कर लिया था कि उनको जेल जाने के बारे में कभी नहीं कहेंगे। दूसरी महिलाओं से तो उन्होंने बात की पर इस विषय में कस्तूरबा से उन्होंने कोई बात नहीं की। महिलाओं ने तुरंत ही जेल जाने के लिए हामी भर दी और गांधी जी को विश्वास दिलाया कि कैसे भी कष्ट क्यों न सहने पड़े, वे अपनी सज़ा की मुद्दत पूरी करेंगीं। जब कस्तूरबा ने फीनिक्स आश्रम में गांधी जी को कुछ भारतीय महिलाओं के साथ उनके सत्याग्रह में शामिल होने की बात करते सुना, तो उन्होंने गांधी जी से पूछा, “मुझे दुख है कि आप मुझसे इस जेल जाने के संबंध में कुछ नहीं कह रहे। मुझमें क्या खराबी है कि मैं जेल नहीं जा सकती? जिस रास्ते पर चलने की सलाह आप औरों को दे रहे हैं उस पर मैं भी चलना चाहती हूं।”

गांधी जी यह नहीं चाहते थे कि कोई उनके कहने से जेल जाए। उनका मानना था कि सत्याग्रह तो स्व-प्रेरणा से ही टिक सकता है। भारतीय पत्नी तो पति की सब इच्छाओं को आज्ञा समझ कर पालन करती हैं। लेकिन ऐसी आज्ञाकारिता हृदय, बुद्धि से उद्भावित न हो, तो ऐन मौक़े पर हिम्मत और आस्था टूट जाएगी. तब और भी दुख की बात हो जाएगी। इसलिए गांधी जी कस्तूरबाई से कुछ भी कहने से हिचकिचाते थे। गांधी जी कस्तूरबाई के स्वास्थ्य के बारे में चिंतित थे, और उनके प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा, “तू अभी कमज़ोर है। अनाज नहीं खाती है। ऐसी हालत में तू कारावास कैसे सहेगी?”

कस्तूरबा ने कहा, “लेकिन ऐसे अधम क़ानून के सामने लड़ना ही चाहिए न।”

गांधी जी बोले, “जेल में बड़े दुख सहने पड़ते हैं। यह बच्चों से पूछ कर देख।”

कस्तूरबा ने कहा, “मगर इससे क्या? जेल में जो यातना पड़ेगी मैं सह लूंगी। सत्याग्रहियों की लिस्ट में मेरा नाम प्रथम लिखना।”

गांधी जी ने बा को इसकी इजाज़त दे दी। कस्तूरबाई ने सत्याग्रहियों के पहले जत्थे का नेतृत्व किया। गिरफ़्तारी देने के लिए जत्थे में कस्तूरबा, रामदास गांधी, छगनलाल और जेकी के अलावा बारह और शामिल थे, का एक दल बनाया गया। 16 सितम्बर 1913 को फीनिक्स से फोक्सरस्ट रवाना होने की पूर्व संध्या को सत्याग्रह के यात्रियों को गांधी जी ने अपने हाथ का पका सुस्वादु भोजन कराया। उसमें चपातियां, सब्जियां, टमाटर के चटनी और खजूर के साथ बनाया गया मीठा चावल शामिल था।

1 टिप्पणी:

  1. बैरिस्टर गान्धी अगर अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी के केस के सिलसिले में अफ्रीका न जाते तो शायद यह अद्भुत कहानी नही बन पाती । जल में रहकर मगर से बैर साधने का जो तरीका उन्होंने अपनाया उसका लोहा सारे संसार ने माना ।

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