tag:blogger.com,1999:blog-5482943667856126886.post6510504283315115681..comments2024-03-21T16:36:38.774+05:30Comments on मनोज: प्रेमचंद का पद्य-कौशलमनोज कुमारhttp://www.blogger.com/profile/08566976083330111264noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-5482943667856126886.post-92027291439978814932010-08-03T15:27:58.487+05:302010-08-03T15:27:58.487+05:30वाह! कहां से ढूढ लाये सागर में से मोती.वाह! कहां से ढूढ लाये सागर में से मोती. shyam guptahttps://www.blogger.com/profile/11911265893162938566noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5482943667856126886.post-79661988931674122532010-08-02T08:29:04.166+05:302010-08-02T08:29:04.166+05:30prmchand ke lekhan ke ek bhinn pahaloo se avagat k...prmchand ke lekhan ke ek bhinn pahaloo se avagat karaane ke liye aabhar. samanyata log unkei is pratibha se anabhijnya hai.<br />post shodhpoorn lagi.हरीश प्रकाश गुप्तhttps://www.blogger.com/profile/18188395734198628590noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5482943667856126886.post-18683218489080545972010-08-01T07:08:49.978+05:302010-08-01T07:08:49.978+05:30बहुत अच्छी प्रस्तुति।बहुत अच्छी प्रस्तुति।हास्यफुहारhttps://www.blogger.com/profile/14559166253764445534noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5482943667856126886.post-43209363734468115062010-07-31T23:28:14.542+05:302010-07-31T23:28:14.542+05:30मनोज जी,
आज सारे दिन जो आपने यज्ञ का आयोजन किया है...मनोज जी,<br />आज सारे दिन जो आपने यज्ञ का आयोजन किया है उसके लिए प्रशंसनीय जैसा शब्द बहुत छोटा है... प्रेमचंद जैसे कालजयी लेखक सदियों में भी नहीं जन्म लेते हैं... धन्य है यह भारत भूमि जिसने ऐसे कलम के सिपाही को जन्म दिया.<br />आपके आयोजन में जो बातें कही गईं उनके विषय में कहने की क्षमता मुझमें नहीं है... आपकी रचना से लेकर करण जी तक तथा मध्य में आचार्य परशुरा राय जी, डॉ. रमेश मोहन झा… आज के दिन को धन्य बना दिया आपने… हमारी ओर से सादर नमन खेत की मेंड़ पर बैठकर साहित्य सृजन करने वाले उस कथा शिल्पी को... और आप सबों का आभार!<br />सलिल चैतन्यसम्वेदना के स्वरhttps://www.blogger.com/profile/12766553357942508996noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5482943667856126886.post-85915830754633392132010-07-31T22:25:56.711+05:302010-07-31T22:25:56.711+05:30लाजवाब !!!!!! बहुत अच्छी जानकारीलाजवाब !!!!!! बहुत अच्छी जानकारीरचना दीक्षितhttps://www.blogger.com/profile/10298077073448653913noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5482943667856126886.post-67737652408461686912010-07-31T21:58:49.414+05:302010-07-31T21:58:49.414+05:30जानकारी देने के लिए आभार!जानकारी देने के लिए आभार!डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'https://www.blogger.com/profile/09313147050002054907noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5482943667856126886.post-47181016661386231902010-07-31T20:11:07.609+05:302010-07-31T20:11:07.609+05:30जिस पद्य को उद्धृत किया गया है,उसके कई शब्दों के अ...जिस पद्य को उद्धृत किया गया है,उसके कई शब्दों के अर्थ दिए जाने चाहिए थे। इसके अभाव में भाव सुग्राह्य नहीं रह गया है।कुमार राधारमणhttps://www.blogger.com/profile/10524372309475376494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5482943667856126886.post-88062116220800899272010-07-31T20:03:31.943+05:302010-07-31T20:03:31.943+05:30प्रेमचन्द के बारे में आज के दैनिक जागरण में भोपाल ...प्रेमचन्द के बारे में आज के दैनिक जागरण में भोपाल से निलय श्रीवास्तव लिखते हैं-"बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रेमचंद ने अपने लेखन के माध्यम से गांधीजी तथा अन्य क्रांतिकारियों को स्वराज की लड़ाई के लिए आगे बढ़ने हेतु प्रेरित किया। जब गांधी जी ने स्वराज की लड़ाई छेड़ रखी थी, तब मुंशी जी अपनी कलम लेकर मैदान में उतरे थे। इसी ख्याल से उन्होंने गोरखपुर से निकलने वाले एक उर्दू अखबार तहकीकात और एक हिन्दी अखबार स्वदेश से बाकायदा जुड़ने और उनमें नियमित रूप से बराबर लिखने की कुछ शक्ल बनानी चाही, पर वह नहीं बनी तो मुंशी जी बनारस आ गए। फिर कुछ ऐसा संयोग बना कि सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के चार महीने बाद मुंशीजी मारवाड़ी विद्यालय, कानपुर पहंुच गए। लेकिन अपने यहां प्राइवेट स्कूलों का जो हाल है, स्कूल के हेडमास्टर प्रेमचंद की स्कूल के मैनेजर महाशय काशीनाथ से नहीं बनी और साल पूरा नहीं होने पाया कि मुंशी जी ने बहुत तंग आकर 22 फरवरी 1922 को वहां से इस्तीफा दे दिया और फिर बनारस पहंुच गए। बनारस में उन्होंने संपूर्णानंद जी के जेल जाने पर कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला। फिर वहां से अलग होकर काशी विद्यापीठ पहंुच गए, जहां उन्हें स्कूल का हेडमास्टर बना दिया गया। अपना प्रेस खोलने की धुन भी बरसों से मन में समाई थी। उसकी भी तैयारी साथ-साथ चलती रही। कुछ ही महीनों बाद जब स्कूल बंद कर दिया गया, तो मुंशीजी पूरे मन-प्राण से प्रेस की तैयारी में लग गए, जो खुला भी। लखनऊ में माधुरी पत्रिका के संपादक की कुर्सी संभालने का प्रस्ताव मिलने पर उसे स्वीकार करने के सिवा गति न थी क्योंकि अपना प्रेस रोजी-रोटी देना तो दूर रहा बराबर घाटे पर घाटा दिये जा रहा था। फिर छह: बरस लखनऊ रह गए और वहीं रहते-रहते 1930 में बनारस से अपना मासिक हंस शुरू किया। 1932 के आरंभ में लखनऊ का आबदाना खत्म हुआ और मुंशी जी फिर बनारस आ गए। हंस तो निकल ही रहा था, जागरण नामक एक साप्ताहिक और निकाला। वह भी बहुत अच्छा पत्र था, लेकिन अच्छा पत्र निकालना और उसे चला पाना दो बिल्कुल अलग बातें हैं, दोनों पत्रों के कारण जब काफी कर्जा सिर पर हो गया, तब उसे सिर से उतारने के लिए मोहन भवनानी के निमंत्रण पर उसके अजंता सिनेटोन में कहानी लेखक की नौकरी करने बंबई पहंुचे। मिल या मजदूर के नाम से उन्होंने एक फिल्म की कथा लिखी और कांट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किए बिना दो महीने को वेतन छोड़कर बनारस भाग आए, क्योंकि बंबई का और उससे भी ज्यादा वहां की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। बंबई टाकीज तब हिमांशु राय ने शुरू ही की थी। उन्होंने मुंशीजी को बहुत रोकना चाहा पर मुंशी जी किसी तरह नहीं रुके। यहां तक कि बनारस से ही फिल्म की कहानियां भेजते रहने का प्रस्ताव भी नहीं स्वीकार किया। बंबई से सेहत और भी काफी टूट चुकी थी। बनारस लौटने के कुछ ही महीने बाद बीमार पड़े और काफी दिन बीमारी भुगतने के बाद 8 अक्टूबर 1936 को चल बसे। अपने बारे में उन्होंने लिखा था- मेरा जीवन एक सपाट समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गड्ढे तो हैं। पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो यहां निराशा ही होगी।"शिक्षामित्रhttps://www.blogger.com/profile/15212660335550760085noreply@blogger.com