आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 20 अगस्त 2024

भुजरिया पर्व

 

भुजरिया पर्व


अच्छी बारिश, फसल एवं सुख-समृद्धि की कामना के लिए रक्षाबंधन के दूसरे दिन भुजरियां पर्व मनाया जाता है। श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन मनाया जाता है। उसके अगले दिन भुजरियां पर्व मनाया जाता है। यह पर्व मुख्य रूप से बुंदेलखंड का लोकपर्व है। इसे कजलियों का पर्व भी कहते हैं। कजलियां पर्व प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा है। सावन के महीने की अष्टमी और नवमी को छोटी-छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी की तह बिछाकर गेहूं या जौ के दाने बोए जाते हैं। इसके बाद इन्हें रोजाना पानी दिया जाता है। तकरीबन एक सप्ताह में ये अन्न उग आता है, जिन्हें भुजरियां कहा जाता है। इन भुजरियों की पूजा अर्चना की जाती है एवं कामना की जाती है, कि इस साल बारिश बेहतर हो जिससे अच्छी फसल मिल सकें। भुजरियां नई फसल का प्रतीक है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाएं पूजा-अर्चना करके इन टोकरियों को सिर पर रखकर जल स्रोतों में विसर्जन के लिए ले जाती हैं।

इस पर्व की कथा आल्हा की बहन चंदा से जुड़ी है। आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह  में ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियों ने भुजरियां से उनका स्वागत किया था। महोबे के राजा परमाल की पुत्री राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबे पर आक्रमण कर दिया था। राजकुमारी उस समय तालाब में कजली सिराने अपनी सखी-सहेलियों के साथ गई थी। राजकुमारी को पृथ्वीराज हाथ न लगाने पाए इसके लिए राज्य के वीर सपूतों ने वीरता का पराक्रम दिखलाया था। चन्द्रावलि का ममेरा भाई अभई भी उरई से आ पहुंचा। कीरत सागर ताल के पास में होने वाली इस लड़ाई में अभई वीरगति को प्राप्त हुआ, राजा परमाल का एक बेटा रंजीत भी शहीद हुआ। बाद में आल्हा, ऊदल, लाखन, ताल्हन, सैयद राजा परमाल का लड़का ब्रह्मा, जैसे वीरों ने पृथ्वीराज की सेना को हरा कर वहां से भगा दिया। महोबे की जीत के बाद राजकुमारी चन्द्रवलि और अन्य सभी लोग अपनी-अपनी भुजरियां खोंटने लगे। इस घटना के बाद सें महोबे के साथ पूरे बुन्देलखण्ड में भुजरियां का त्यौहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा है। भुजरियां पर गाजे-बाजे और पारंपरिक गीत गाते हुए महिलाएं नर्मदा तट या सरोवरों में भुजरियां खोंटने के लिए जाती हैं। हरियाली की खुशियां मनाने के साथ लोग एक-दूसरे से मिलते हैं और बड़े बुजुर्ग भुजरियां देकर धन-धान्य से पूरित होने का आशीर्वाद देते हैं।

***  ***  ***

मनोज कुमार

 

गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

सफलता बदला लेने का सबसे अच्छा तरीक़ा है

 

‘सफलता बदला लेने का सबसे अच्छा तरीक़ा है’

मनोज कुमार

1991 में रतन टाटा टाटा ग्रुप के चेयरमैन बने। तब टाटा मोटर्स की पहचान ट्रक और पैसेंजर कार (बस) बनाने की सबसे बड़ी कंपनी के तौर पर होती थी। अब तक भारतीय बाजार में जितनी भी कार थी उसकी सफलता के पीछे विदेशी कंपनियों की टेक्नोलॉजी, डिजाइन और साझेदारी थी।  रतन टाटा एक स्वदेशी कार बनाना चाहते थे। चेयरमैन बनने के बाद उन्होंने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया। परिणामस्वरूप 1998 में रतन टाटा द्वारा हैचबैक कार इंडिका लांच की गयी। इसमें कोई इम्पोर्टेड टेक्नोलोजी का इस्तेमाल नहीं किया गया था। जब कार मार्केट में लॉंच हुई तो उम्मीदें बहुत थीं, लेकिन कार उम्मीदों पर खडी नहीं उतरी और रतन टाटा का सपना टूटने लगा। लोगों ने इसे पसंद ही नहीं किया।


साल भर के अन्दर ही टाटा को लगा कि यह कोई फलदायी परियोजना नहीं है। दिल्ली - मुंबई की सड़कों पर बारिश के बीच अगर कोई कार सबसे ज्यादा ब्रेकडाउन हुई तो वो इंडिका थी। यह कार बिक्री कम होने के कारण कार मार्केट में अपनी छाप छोड़ने में असफल रही। रतन टाटा को काफी घाटा हो रहा था। कम बिक्री की वजह से टाटा मोटर्स ने कार डिवीजन को बेचने का फैसला किया। फोर्ड मोटर्स ने इस कार फैक्टरी को खरीदने में अपनी रूचि दिखाई

डेट्रायट शहर ऑटो मैन्युफैक्चरिंग के लिए मशहूर है। यह शहर मिशिगन झील के दक्षिण-पूर्व में अमेरिकी इंडस्ट्री का नगीना माना जाता है। यहीं फोर्ड का मुख्यालय है। रतन टाटा अपने पूरे बोर्ड मेम्बर्स के साथ  डेट्रायट गए। फोर्ड मोटर्स के चेयरमैन बिल फोर्ड से मिले। दोनों के बीच मीटिंग हुई। तीन घंटे तक चली बैठक में बिल फोर्ड ने रतन टाटा के साथ काफी अपमानजनक व्यवहार किया और कहा कि आप इस  कार निर्माण के धंधे में नौसिखिए हैं। इस बिजनेस इंडस्ट्री के बारे में कुछ नहीं जानते। आपको कारों की तकनीकी बारीकियों का ज़रा पता नहीं है। आपके पास जब पैसेंजर कार बनाने का कोई अनुभव नहीं था, तो आपने ये बचकानी हरकत क्यों की। कोई बच्चा भी इतना पैसा नहीं लगाएगा जहां उसे सफलता ना मिले। आपको कार डिवीजन शुरू ही नहीं करना चाहिए था। फोर्ड आपकी कार डिविजन खरीदकर टाटा मोटर्स पर एहसान कर रही है। 

रतन टाटा ने गरिमापूर्ण चुप्पी कायम रखी, डील कैंसिल किया, और उसी शाम डेट्रायट से न्यूयार्क लौटने का फैसला किया। 90 मिनट की फ्लाइट में रतन टाटा उदास से रहे। दूसरे दिन वे भारत लौट आए  फोर्ड कंपनी के मालिक के बेहद ही नकारात्मक कमेंट को भी इन्होंने सकारात्मक रूप में लिया। बिल की बातों को उन्होंने दिल पर नहीं लिया, बल्कि उसे दिमाग पर लिया और कंपनी बेचने की सोच को ना सिर्फ टाला बल्कि उन्होंने ठान लिया था कि वे कंपनी को ऊंचाइयों पर पहुंचाएंगे। रतन टाटा ने उस कंपनी को फिर से ऐसी खड़ी की उसने नया इतिहास रच डाला।  भारत लौटने के बाद उन्होंने अपना पूरा फोकस मोटर लाइन में लगा दिया उनके इरादे बुलंद थे। लक्ष्य बस एक था, फोर्ड को सबक सिखाना है। लेकिन चैलेंज बहुत बड़ा था। इसके लिए उन्होंने एक रिसर्च टीम तैयार की और बाजार का मन टटोला। फिर उस कार को फिर से लॉन्च किया।  कहते हैं न कि रेस्ट इज हिस्टरी, उसी तरह भारतीय बाजार के साथ-साथ विदेशों में भी टाटा इंडिका ने सफलता की नई ऊंचाइयों को छुआ कुछ ही समय में टाटा ने इस क्षेत्र में एक विश्वस्तरीय व्यवसाय स्थापित किया


समय का पहिया घूमा 2008 में टाटा मोटर्स के पास बेस्ट सेलिंग कारों की एक लंबी लाइन थी। 2008 में विश्वस्तरीय आर्थ‍िक मंदी हुई फोर्ड मोटर्स दिवालिएपन की कगार पर आ गयी उनकी प्रीमियम सेगमेंट कारें जगुआर और लैंड रोवर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही थीं उसे अपने जगुआर लैंड रोवर (जेएलआर) डिवीजन के लिए एक अच्छे खरीदार की तलाश थी। 

अवसर के महत्त्व को समझते हुए रतन टाटा ने फोर्ड की लग्जरी कार लैंड रोवर और जगुआर बनाने वाली कंपनी जेएलआर को खरीदने का प्रस्ताव रखा, जिसको फोर्ड ने स्वीकार भी कर लिया। बिल फोर्ड बातचीत के लिए मुम्बई आए और कहा कि रतन टाटा उनसे ये कारें खरीद कर उन पर बहुत बड़ा अहसान कर रहे हैं

रतन टाटा ने 2.3 बिलियन डॉलर में जेएलआर खरीद लिया। टाटा ने न केवल जेएलआर को खरीदा, बल्कि उन्होंने इसे अपने सबसे सफल उपक्रमों में से एक में बदल दिया। इस डील के कुछ ही सालों के बाद टाटा मोटर्स ने इसमें कुछ बदलाव लिए और आज जगुआर और लैंड रोवर्स टाटा मोटर्स की सबसे ज्यादा बिकने वाली कारों में से एक हैं।

रतन टाटा चाहते तो बिल फोर्ड का अपमान कर बदला ले सकते थे, लेकिन वे चुप ही रहे वे लकीर छोटी करने के बजाए बड़ी लकीर खींचने में यकीन रखते थे अगर किसी ने अपमान किया हो तो बेहतर है कि पहले से भे बेहतर मनुष्य बन जाइए यही उस व्यक्ति को सबसे अच्छा जवाब है कहते हैं, आम लोग अपमान का बदला तत्काल लेते हैं, पर महान उसे अपनी जीत का साधन बना लेते हैं। रतन टाटा के इस केस में यह कहावत चरितार्थ हुई कि ‘सफलता बदला लेने का सबसे अच्छा तरीक़ा है’

(चित्र साभार गूगल)

मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

फ़ॉकलैंड द्वीप समूह विवाद

 

फ़ॉकलैंड द्वीप समूह विवाद

मनोज कुमार

 

ख़बर है कि दक्षिण अमेरिका के देश अर्जेंटीना फ़ॉकलैंड विवाद के हल करने में भारत की सहायता चाहता है। अर्जेंटीना की सरकार ने रविवार, 24 अप्रैल, 2022 को भारत में इस द्वीप पर नियंत्रण को लेकर ब्रिटेन से बातचीत के लिए एक अभियान की शुरुआत की है। उन्होंने एक कमीशन गठित की है, ‘जिसका नाम द कमीशन फॉर द डायलॉग ऑन द क्वश्चेन ऑफ द माल्विनास आईलैंड्स’ है। इसमें भारत के भी सदस्य हैं। इस कमीशन का मक़सद संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के अनुरूप फ़ॉकलैंड विवाद पर ब्रिटेन से बातचीत शुरू करवाना है। ब्रिटेन और अर्जेंटीना के बीच इसकी संप्रभुता को लेकर यह विवाद वर्षों पुराना है। भोगौलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से फ़ॉकलैंड ब्रिटेन की अपेक्षा अर्जेण्टीना के काफी निकट है। अर्जेंटीना इन द्वीपसमूहों को अपना भू- भाग मानता है किन्तु ब्रिटेन उसे अपना उपनिवेश मानता है।

फ़ॉकलैंड दक्षिण अटलांटिक महासागर में स्थित एक द्वीप समूह है, जिसे माल्विनास द्वीप या इस्लास माल्विनास भी कहा जाता है। आज यह यूनाइटेड किंगडम का आंतरिक रूप से स्वशासी विदेशी क्षेत्र है। यह अर्जेंटीना से 500 कि.मी. दूर दक्षिण अटलांटिक महासागर में पेटागोनियन शेल्फ पर एक द्वीपसमूह है। इस द्वीपसमूह का क्षेत्रफल 12,000 वर्ग किलोमीटर है।  इसमें वेस्ट फ़ॉकलैंड, ईस्ट फ़ॉकलैंड और 776 छोटे द्वीप शामिल हैं। ब्रिटेन से फ़ॉकलैंड की दूरी 14,000 किलोमीटर है। यहाँ कई बिखरी हुई छोटी बस्तियाँ और साथ ही एक रॉयल एयरफोर्स बेस भी है जो राजधानी स्टेनली से लगभग 56 किमी दक्षिण-पश्चिम में माउंट प्लेजेंट में स्थित है। फ़ॉकलैंड द्वीप समूह की सरकार दक्षिण जॉर्जिया और दक्षिण सैंडविच द्वीप समूह के ब्रिटिश समुद्रपारीय क्षेत्र का भी संचालन करती है, जिसमें शैग और क्लर्क चट्टानें शामिल हैं, जो फ़ॉकलैंड के पूर्व और दक्षिण-पूर्व में 1,100 से 3,200 किमी की दूरी पर स्थित है।

यहाँ की जलवायु सर्द और  नम है। यहां का वार्षिक औसत तापमान लगभग 5 डिग्री सेल्सियस, औसत अधिकतम 9 डिग्री सेल्सियस और औसत न्यूनतम 3 डिग्री सेल्सियस है। फ़ॉकलैंड्स द्वीप पर कोई भी स्तनपायी (Mammals) पशु नहीं हैं। यहां की जंगली लोमड़ी विलुप्त हो रही है। द्वीपों पर काले-भूरे रंग के अल्बाट्रोस, फ़ॉकलैंड पिपिट्स, पेरेग्रीन फाल्कन्स और धारीदार काराकारस सहित पक्षियों की लगभग 65 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। फ़ॉकलैंड रॉकहॉपर, मैगेलैनिक, जेंटू, किंग और मैकरोनी जैसे पेंगुइन के लिए प्रजनन स्थल है। डॉल्फ़िन और पोरपोइज़ बहुतायत में पाए जाते हैं।


** चित्र साभार गूगल

सन 2012 में 2,840  की जनसंख्या वाले इस द्वीपसमूह के 98 प्रतिशत लोगों को ब्रिटिश नागरिकता प्राप्त है। यहाँ के लोगों की बोली अंग्रेजी है और इसमें मुख्य रूप से ब्रिटिश मूल के फ़ॉकलैंडर्स शामिल हैं और वे अपने को ब्रिटिश न कहकर ‘केल्पर’ (kelpers) कहते है। फ़ॉकलैंड द्वीप पर धर्म मुख्य रूप से ईसाई धर्म है, जिनमें से प्राथमिक संप्रदाय चर्च ऑफ इंग्लैंड, रोमन कैथोलिक, यूनाइटेड फ्री चर्च और लूथरन हैं। द्वीपों पर रहने का पैटर्न स्टेनली और छोटे, अलग-थलग भेड़-खेती समुदायों के बीच बंटी हुई है। आबादी का अस्सी प्रतिशत हिस्सा स्टेनली में रहता है। स्टेनली के बाहर दो मुख्य द्वीपों का लगभग पूरा क्षेत्र भेड़ पालन के लिए समर्पित है। द्वीपों पर लाखों की संख्या में भेड़ें रखी जाती हैं, जिससे सालाना कई हज़ार टन ऊन और साथ ही कुछ मटन का उत्पादन होता है। ऊन फ़ॉकलैंड्स का प्रमुख भूमि-आधारित निर्यात है और इसे ग्रेट ब्रिटेन में बेचा जाता है। 20वीं सदी के अंत में सरकार ने कॉरपोरेट-स्वामित्व वाले खेतों के बजाय छोटे, स्थानीय रूप से संचालित खेतों की संख्या में वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियां बनाई। 1987 में विदेशियों को मछली पकड़ने के लाइसेंस बेचना शुरू किया गया। 2002 में एक वध सुविधा का निर्माण किया गया और भेड़ और भेड़ के मांस को यूनाइटेड किंगडम में निर्यात किया जाने लगा। जब अध्ययनों से पता चला कि यहां अपतटीय तेल भंडार की उपस्थिति है, तो विदेशी कंपनियों को तेल की खोज के लिए लाइसेंस दिए गए। पर्यटन, विशेष रूप से पारिस्थितिक पर्यटन, यहां की अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख अंग है। स्टेनली हार्बर यहां का मुख्य बंदरगाह है; और क्रूज जहाजों को यहां खड़े किए जाते हैं।

17वी शताब्दी के पहले तक, ये द्वीप निर्जन थे। फ़ॉकलैंड द्वीप समूह पर कभी स्वदेशी आबादी नहीं थी। फ़ॉकलैंड की खोज यूरोप के लोगों ने की थी। इस बात का कोई पुरातात्विक प्रमाण नहीं है कि यूरोपीय लोगों द्वारा देखे जाने और बसने से पहले कोई भी द्वीपों पर रहता था या यहां तक कि उन द्वीपों का दौरा भी करता था। समय के साथ यह कई देशों जैसे फ़्रेंच, स्पैनिश, ब्रिटिश और अर्जेंटीना का उपनिवेश बनता रहा। पहले यह फ्रांस की बस्ती बना। ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजी नाविक जॉन डेविस 1592 में फ़ॉकलैंड्स को देखने वाले पहले व्यक्ति थे। लेकिन डचमैन सेबाल्ड डी वेर्ड्ट ने 1600 के आसपास पहली बार निर्विवाद रूप से इस द्वीप समूह की जानकारी दी। 1690 में एक अंग्रेज़ कैप्टन जॉन स्ट्रांग पहली बार यहाँ पहुँचे। फ़ॉकलैंड नाम भी उन्होंने अपने अभियान के दौरान अपने संरक्षक एंथोनी केरी, 5वां विस्काउंट फ़ॉकलैंड के नाम पर रखा था। लेकिन इस द्वीप समूह में कोइ बस्ती नहीं बसाई गयी। पहली बस्ती 1764 में फ्रांसीसी नाविक एडमिरल लुई-एंटोनी डी बोगेनविले ने पूर्वी फ़ॉकलैंड में बसाई थी। उसने द्वीपों का नाम अपने घरेलू बंदरगाह के नाम पर माल्विनास रखा। 1765 में ब्रिटेन ने  पश्चिम फ़ॉकलैंड में बस्ती बसाई।  1767 में स्पेन ने फ्राँसीसी बस्ती को खरीद लिया। 1770 में जब ब्रिटिश अपने लिए द्वीपों का दावा करने पहुंचे, तो स्पेन ने ब्रिटेन को यहाँ से खदेड़ दिया। अगले ही वर्ष ब्रिटेन ने युद्ध की धमकी दी और 1771 में वेस्ट फ़ॉकलैंड पर ब्रिटिश चौकी को बहाल कर दिया। लेकिन आर्थिक कारणों से, फ़ॉकलैंड पर अपने दावे को त्यागे बिना, ब्रिटिश 1774 में फ़ॉकलैंड द्वीप से हट गए।

स्पेन ने 1811 तक पूर्वी फ़ॉकलैंड (जिसे इसे सोलेदाद द्वीप कहा जाता है) पर अपनी बस्ती बसाए रखी। 1811 में स्पेन ने फ़ॉकलैंड स्थित किला और स्टेनली बंदरगाह को ब्रिटेन के हवाले करते हुए एक समझौता किया था। अर्जेंटीना ने 1816 में स्पेन से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। फिर 1820 में अर्जेंटीना सरकार, ने फ़ॉकलैंड पर अपनी संप्रभुता की घोषणा की। 1828 में उसने अंग्रेजों को वहां से खदेड कर अपना गवर्नर नियुक्त कर दिया। 1831 में अमेरिकी युद्धपोत लेक्सिंगटन ने पूर्वी फ़ॉकलैंड पर अर्जेंटीना की बस्ती को नष्ट कर दिया। अमेरिका ने ऐसा तीन अमेरिकी पोतों को ज़ब्त किए जाने के जवाब में किया था, जो इस क्षेत्र में सील का शिकार कर रहे थे।

1833 की शुरुआत में ब्रिटेन ने अमरीका की मदद से इस द्वीप पर फिर से अधिकार जमा लिया। 1833 की शुरुआत में एक ब्रिटिश सेना ने बिना गोली चलाए कुछ शेष अर्जेंटीना के अधिकारियों को द्वीप से निष्कासित कर दिया। 1841 में फ़ॉकलैंड में एक ब्रिटिश नागरिक को लेफ्टिनेंट गवर्नर के रूप में नियुक्त किया गया और वर्ष 1885 तक इन द्वीपों पर लगभग 1,800 लोगों का एक ब्रिटिश समुदाय बस गया। 1892 में ब्रिटेन ने इसे अपना उपनिवेश घोषित कर दिया। तब से लेकर आज तक यह ब्रिटिश उपनिवेश है। अर्जेंटीना लगातार ब्रिटेन के इस क़ब्ज़े का विरोध करता रहा।

अर्जेंटीना हमेशा से ही इन द्वीपों को अपना भाग बताता रहा है, और आज भी इस पर दावा करता है। अर्जेंटीना कई अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों तथा सम्मेलनो में अपने स्वामित्व के दावे को लगातार दोहराता रहा है किन्तु फॉकलैण्ड द्विप समूह से 12,000 कि.मी. दूर स्थित ब्रिटेन इसे अपना उपनिवेश मानता है। ब्रिटेन फ़ॉकलैंड को इसलिए अपना उपनिवेश बनाये रखना चाहता है क्योंकि फॉकलैण्ड ऑयल कम्पनी तथा तेल और प्राकृतिक गैस के विपुल भण्डारों से उसे करोड़ों पौंड का मुनाफा मिलता है। यहां का कार्यकारी अधिकार ब्रिटिश ताज (क्राउन) में निहित है, और द्वीपों की सरकार का नेतृत्व ताज द्वारा नियुक्त राज्यपाल (गवर्नर) द्वारा किया जाता है। कोई राजनीतिक दल नहीं हैं, और विधायिका के सभी सदस्य निर्दलीय के रूप में चुने जाते हैं। विधान सभा में 10 सदस्य होते हैं, जिनमें से 8 चुने हुए और दो नामित सदस्य होते हैं। सरकार को निर्णय लेने की स्वायत्तता है, लेकिन गवर्नर को रक्षा और आंतरिक सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर ब्रिटिश सेना के क्षेत्रीय कमांडर से परामर्श करना होता है। आधिकारिक मुद्रा फ़ॉकलैंड पाउंड है, जो ब्रिटिश पाउंड के बराबर है। स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक, जिसका मुख्यालय लंदन में है, यहां का एकमात्र बैंक है। स्टेनली में एक प्राथमिक और एक माध्यमिक विद्यालय और ग्रामीण क्षेत्रों में कई छोटे स्कूल हैं। स्टेनली के एक अस्पताल द्वारा नि:शुल्क चिकित्सा सेवा प्रदान की जाती है।

अर्जेंटीना ने द्वीपों पर ब्रिटेन के कब्ज़े का लगातार विरोध किया। अर्जेंटीना का मानना है कि ब्रिटेन ने खुली औपनिवेशिक कार्रवाई की नीति अपनाते हुए अर्जेंटीना से इस द्वीप को जबरदस्ती छीना था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद फ़ॉकलैंड द्वीप समूह पर संप्रभुता का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र (UN) में स्थानांतरित हो गया। 1964 में द्वीपों की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र समिति द्वारा उपनिवेशवाद पर बहस शुरू की गई। बातचीत जारी हुई लेकिन दोनों देशों के बीच इस द्वीप समूह को लेकर तनाव बने रहे। वर्ष 1965 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विवाद का शांतिपूर्ण समाधान खोजने हेतु ब्रिटेन और अर्जेंटीना को विचार-विमर्श के लिये आमंत्रित करने वाले प्रस्ताव 2065 को मंज़ूरी दी। वर्ष 1493 के एक आधिकारिक दस्तावेज़ के आधार पर अर्जेंटीना ने फाकलैंड पर अपना दावा प्रस्तुत  किया जिसे टॉर्डेसिलस की संधि (1494) द्वारा संशोधित किया गया। इस संधि के तहत स्पेन और पुर्तगाल ने द्वीपों की दक्षिण अमेरिका से निकटता, स्पेन का उत्तराधिकार, औपनिवेशिक स्थिति को समाप्त करने की आवश्यकता के आधार पर नई दुनिया को आपस में बांट लिया। ब्रिटेन ने फाकलैंड द्वीप पर अपने "स्वतंत्र, निरंतर, प्रभावी कब्ज़ें, व्यवसाय और प्रशासन" के आधार पर दावा प्रस्तुत किया जो संयुक्त राष्ट्र चार्टर में मान्यता प्राप्त आत्मनिर्णय के सिद्धांत को फाकलैंडर्स पर लागू करने के अपने दृढ़ संकल्प पर आधारित था। इस बीच जहां एक और ब्रिटेन में राजतंत्र के रहते हुए लोकतांत्रिक व्यवस्था थी, वहीं दूसरी और 1970 के दशक में अर्जेंटीना में मिलिटरी शासन जुंटा बहाल हो चुकी थी।

दोनों देशों के बीच बातचीत चलती रही लेकिन स्थिति सुधरने के वजाए बिगड़ती गयी और 1982 में नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि ब्रिटेन और अर्जेंटीना के बीच युद्ध हुआ। शुक्रवार 2 अप्रैल, 1982 को अर्जेण्टीना ने अपने 4000 नौ सैनिकों की सहायता से फॉकलैण्ड और सेट जार्जिया, आदि द्वीपो पर कब्जा कर लिया और ब्रिटिश गवर्नर रेक्स हण्ट को पोर्ट स्टेनली से बाहर कर दिया। उस समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर थीं। उन्होंने  मंत्रीमंडल की आपातकालीन बैठक बुलाई और फौरन जवाबी कार्रवाई के आदेश दिए। दूसरे ही दिन एच.एम.एस. इनविंसिबल (H.M.S Invincible) नामक युद्धपोत के नेतृत्व में ब्रिटिश नौसेना पोर्टस्माउथ बदरगाह के लिए रवाना हो गयी। विशाल ब्रिटिश नौसेना तथा वायुसेना के बमवर्षक विमानो ने फॉकलैण्ड स्थित अर्जेण्टीना के सैनिक ठिकानो पर हमला किया। प्रतिरोध में अर्जेण्टीना ने आणविक शस्त्रों से युक्‍त ब्रिटिश विध्वंसक ‘शैफील्ड’ को तारपीडो का निशाना बनाकर ध्वस्त कर दिया। अर्जेण्टीना का विशाल पोत ‘जनरल बेलग्रानों (General Belgrano) भी 368 नौ सैनिकों सहित डूब गया। अन्ततः मई के अन्त तक अर्जेंटीना के जनरल गैलतियेरी के सामने स्पष्ट हों गया कि अधिक देर तक जारी रखने से यह युद्ध आणविक युद्ध मे परिवर्तित हो सकता है, जिसका प्रतिरोध करने की क्षमता उनके पास नहीं है। इधर अमरीका ने जनरल गैलतियेरी के साथ हुए वायदों को ताक पर रखकर युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया। यह युद्ध दस-सप्ताह तक चला। लेकिन अर्जेंटीना को सफलता नहीं मिली। ब्रिटेन एक महाशक्ति था और अर्जेंटीना एक छोटा-सा देश। अर्जेंटीना की आर्थिक तथा आंतरिक परिस्थितियां भी प्रतिकूल होने लगी। 14 जून को अर्जेन्टीनी सैनिकों ने फॉकलैण्ड की राजधानी स्टेनली में ब्रिटिश मेजर जनरल जे.जे. मूर के समक्ष अर्जेण्टीना के ब्रिगेडियर जनरल मारियों बेंजामिनों मेनेदेज ने 845 सैनिकों सहित हथियार डाल दिये और अर्जेंटीना की सेना के आत्मसमर्पण के साथ  72 दिवसीय  युद्ध समाप्त हुआ। इस युद्ध में दोनों ओर से 900 से ज्यादा सैनिक मारे गए।

फ़ॉकलैंड युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश प्रशासन को बहाल किया गया था। फ़ॉकलैंड द्वीपसमूह पर ब्रिटेन का पुनः अधिकार हो गया किन्तु फ़ॉकलैंड द्विपसमूह के स्वामित्व का प्रश्न अनसुलझा ही रहा। तब से ब्रिटेन इस विषय पर कोइ बातचीत नहीं करना चाहता है। ब्रिटेन का कहना है कि जब द्वीप का समूह हमारे अधीन है तो हम इस पर क्यों बातचीत करें, और हम इस पर भविष्य में भी किसी प्रकार से कोई बातचीत नहीं करना चाहते हैं। ब्रिटेन का यह भी मानना है कि फ़ॉकलैंड के लोगों ने ब्रिटिश के साथ रहने की साफ इच्छा जाहिर की है और अर्जेंटीना की सरकार को इसका आदर करना चाहिए। हालांकि ब्रिटेन और अर्जेंटीना ने वर्ष 1990 में पूर्ण राजनयिक संबंधों को फिर से स्थापित किया, लेकिन दोनों देशों के मध्य फ़ॉकलैंड पर संप्रभुता का मुद्दा विवाद का विषय बना रहा। ब्रिटेन ने द्वीप पर करीब 2,000 सैनिकों की तैनती को जारी रखा। जनवरी 2009 में एक नया संविधान लागू हुआ जिसने फाकलैंड की स्थानीय लोकतांत्रिक सरकार को मज़बूती प्रदान की और इस  क्षेत्र की राजनीतिक स्थिति को निर्धारित करने के लिये वहां रहने वाले लोगों के अधिकारों को सुरक्षित किया। मार्च 2013 में आयोजित एक जनमत संग्रह में फाकलैंड द्वीप ने ब्रिटिश क्षेत्र में बने रहने के लिये लगभग सर्वसम्मति से मतदान किया। फ़ॉकलैंडर्स उन्हीं के वंशज थे और खुद को ब्रिटिश नागरिक के रूप में देखते थे।  ब्रिटेन ने ज़ोर देकर कहा कि औपनिवेशिक स्थिति को समाप्त करने से अर्जेंटीना के शासन और उसकी इच्छा के विरुद्ध फाकलैंड के नागरिकों के जीवन पर नियंत्रण की स्थिति उत्पन्न होगी।

अब फ़ॉकलैंड को लेकर अर्जेंटीना के विदेश मंत्री ने कैंपेन की शुरुआत की है और कहा है कि भारत पारंपरिक रूप ब्रिटेन के साथ विवाद सुलझाने का समर्थन करता रहा है। इसमें कोइ शक़ नहीं कि भारत फ़ॉकलैंड को लेकर ब्रिटेन और अर्जेंटीना के बीच के विवाद को बातचीत के ज़रिए सुलझाने का समर्थन करता रहा है और उपनिवेशवाद को ख़त्म करने में भारत की भूमिका अग्रणी रही है। कुछ लोगों का मानना है कि कमीशन का सदस्य बनने में कोइ हर्ज़ नहीं है, लेकिन फ़ॉकलैंड को लेकर भारत को तटस्थ ही रहना चाहिए। हमें न तो ब्रिटेन का समर्थन करना चाहिए और न ही अर्जेंटीना का। हालाकि उपनिवेशवाद को लेकर हमारे रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है, लेकिन जहाँ तक उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ स्पष्ट बात रखने की बात है तो हर देश अपने हित के हिसाब से ही अपनी मुखरता दिखाते हैं और भारत को भी वर्तमान हालात के अनुरूप ही नीति अपनानी चाहिए।

*** *** ***


शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की आज जन्म तिथि है।


महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की आज जन्म तिथि है।

 मनोज कुमार


जन्म :: 21 फरवरी, 1899
मृत्यु :: 15 अक्तूबर 1961 (दारागंज, इलाहाबाद)
स्थान ::
पश्चिमी बंगाल के मेदिनीपुर ज़िले के महिषादल रियासत में!
मूलतः वे उत्तर प्रदेश के उन्‍नाव जिले के बांसवाड़ा जनपद के गढ़ाकोला नामक गांव के रहने वाले थे|
शिक्षा ::
हाईस्‍कूल तक। हिंदी बंगला, अंग्रेजी और संस्‍कृ‍त का ज्ञान स्वतंत्र रूप से प्राप्त किया।
वृत्ति ::
 प्रायः 1918 ई. से लेकर 1922 ई. के मध्‍य तक महिषादल राज्‍य की सेवा में। उसके बाद से संपादन स्‍वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य। 1923 ई के अगस्त से मतवाला मंउल, कलकत्‍ता में। मतवाला से संबंध किसी न किसी रूप में 1929 ई. के मध्‍य तक। फिर कलकत्ता छोड़े तो लखनऊ आए । गंगा-पुस्‍तकमाला कार्यालय और सुधा से संबद्ध रहे । 1942-43 ई. से इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य ।
कृतियां ::
प्रमुख कृतियां   परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना, अराधना, गीत गुंज, सान्‍ध्‍य काकली (कविता) अप्‍सरा, अलका, प्रभावती, निरूपमा, कुल्‍ली भाट, बिल्‍लेसुर बकरिहा (उपन्‍यास) रवीन्‍द्र-कविता-कानन, प्रबंध-पद्म, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संग्रह (निबंध) आदि ।


            महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्‍म पश्चिमी बंगाल के मेदिनीपुर ज़िले के महिषादल रियासत में 21 फरवरी, 1899 को हुआ था। मूलतः वे उत्तर प्रदेश के उन्‍नाव जिले के बांसवाड़ा जनपद के रहने वाले थे पर बंगाल उनकी कर्मभूमि थी। निराला की आरंभिक शिक्षा महिषादल में ही हुई थी। निराला का बंगाल से जितना गहरा संबंध था, उतना ही अंतरंग संबंध बांसवाड़ा से भी था। इन दोनों संबंधों को जो नहीं समझेगा वह निराला की मूल संवेदना को नहीं समझ सकता। इन दो पृष्‍ठभूमियों की अलग-अलग प्रकार के सांस्‍कृतिक परिवेश का उनके व्‍यक्तित्‍व पर गहरा असर पड़ा जिसका स्‍पष्‍ट प्रभाव हम उनकी रचनाओं में भी पाते हैं, जब वे बादल को एक ही पंक्ति में कोमल गर्जन करने हेतु कहते हैं, वहीं वे दूसरी ओर घनघोर गरज का भी निवेदन करते हैं।
झूम-झूम मृद गरज-गरज घन घोर!
राग अमर! अम्‍बर में भर निज रोर !”
            निराला ने बंगाल की भाषिक संस्‍कृति को आत्‍मसात किया था। उन्‍होंने संस्‍कृत तथा अंग्रेजी घर पर सीखी। बंगाल में रहने के कारण उनका बंगला पर असाधारण अधिकार था। उन्‍होंने हिंदी भाषा सरस्‍वती और  मर्यादा पत्रिकाओं से सीखी। रवीन्‍द्र नाथ ठाकुर, नजरूल इस्‍लाम, स्‍वामी विवेकानंद, चंडीदास और तुलसी दास के तत्‍वों के मेल से जो व्‍यक्तित्‍व बनता है, वह निराला है।
            चौदह वर्ष की आयु में उनका विवाह संपन्‍न हो गया। उनका वैवाहिक जीवन सुखी नहीं रहा। युवावस्‍था में ही उनकी पत्नी की अकाल मृत्‍यु हो गई। उन्‍होंने जीवन में मृत्‍यु बड़ी निकटता से देखी। पत्नी की मृत्यु के पश्‍चात् पिता, चाचा और चचेरे भाई, एक-के-बाद-एक उनका साथ छोड़ चल बसे। काल के क्रूर पंजो की हद तो तब हुई जब उनकी पुत्री सरोज भी काल के गाल में समा गई। उनका कवि हृदय गहन वेदना से टूक-टूक हो गया।
            निराला ने नीलकंठ की तरह विष पीकर अमृत का सृजन किया। जीवन पर्यन्‍त स्‍नेह के संघर्ष में जूझते-जूझते 15 अक्तूबर 1861 में उनका देहावसान हो गया।
            निराला जी छायावाद के आधार-स्‍तम्‍भों में से एक हैं। गहन ज्ञान प्रतिभा से उन्‍होंने हिंदी को उपर बढ़ाया। वे किसी वैचारिक खूंटे से नहीं बंधे। वे स्‍वतंत्र विचारों वाले कवि हैं। विद्रोह के पुराने मुहावरे को उन्‍होंने तोड़ा वे आधुनिक काव्‍य आंदोलन के शीर्ष व्‍यक्ति थे। सौंदर्य के साथ ही विद्रूपताओं को भी उन्‍होंने स्‍थान दिया। निराला की कविताओं में आशा व विश्‍वास के साथ अभाव व विद्रोह का परस्‍पर विरोधी स्‍वर देखने को मिलता है।
           
उन्‍होंने प्रारंभ में प्रेम, प्रकृति-चित्रण तथा रहस्‍यवाद से संबधित कविताएं लिखी। बाद में वे प्रगतिवाद की ओर मुड़ गए। आधुनिक प्रणयानुभूति की बारीकियां निराला की इन पंक्तियों से झलकती हैं
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय संभाषण,
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन।
पर विद्रोही स्वभाव वाले निराला ने अपनी रचनाओं में प्रेम के रास्ते में बाधा उत्पन्न करने वाले जाति भेद को भी तोड़ने का प्रयास किया है। पंचवटी प्रसंग में निराला के आत्म प्रसार की अकांक्षा उभर कर सामने आई है।
छोटे-से घर की लघु सीमा में
बंधे हैं क्षुद्र भाव
यह सच है प्रिये
प्रेम का पयोनिधि तो उमड़ता है
सदा ही निःसीम भू पर
प्रगतिवादी साहित्‍य के अंतर्गत उन्‍होंने शोषकों के विरूद्ध क्रांति का बिगुल बजा दिया। जागो फिर एक बार, महाराज शिवाजी का पत्र,झींगुर डटकर बोला”, महँगू महँगा रहा आदि कविताओं में शोषण के विरूद्ध जोरदार आवाज सुनाई देती है। विधवा भिक्षुक और वह तोड़ती पत्‍थर आदि कविताओं में उन्‍होंने शोषितों के प्रति करूणा प्रकट की है। निराला के काव्‍य का विषय जहां एक तरफ श्री राम है वहीं दूसरी तरफ दरिद्रनारायण भी।
वह आता-
दो टूक कलेजे के करता, पछताता
पथ पर आता । ......
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए ।
जहों एक ओर जागो फिर एक बार कविता के द्वारा निराला ने आत्म गौरव का भाव जगाया है वहीं दूसरी ओर निराला ने विधवा को इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी पवित्र कहा है।
उनकी प्रकृति संबंधी कविताएं अत्‍यंत सुंदर और प्रभावशाली हैं। निराला की सांध्य सुंदरी जब मेघमय आसमान से धीरे-धीरे उतरती है तो प्रकृति की शांति, नीरवता और शिथिलता का अनुभव होता है। वहीं उनकी बादल राग कविता में क्रांति का स्‍वर गूंजा है।
                        अरे वर्ष के हर्ष !
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको,
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-गौरव संसार!
उथल-पुथल कर हृदय-
मचा हलचल-
चल रे चल-
निराला ने भाव के अनुसार शिल्‍प में भी क्रांति की। उन्‍होंने परंपरागत छंदो को तोड़ा तथा छंदमुक्‍त कविताओं की रचना की। पहले उनका बहुत विरोध हुआ। परंतु बाद में हिंदी साहित्‍य मानों उनकी पथागामिनी हुई। भाषा के कुशल प्रयोग से ध्‍वनियों के बिंब उठा देने में वे कुशल हैं।
धँसता दलदल
हँसता है नद खल् खल्
बहता कहता कुलकुल कलकल कलकल
उनका भाषा प्रवाह दर्शनीय है। उनकी अनेक कविताओं के पद्यांश शास्‍त्रीय संगीत और तबले पर पड़ने वाली थाप जैसा संगीतमय हैं। भाषा अवश्‍य संस्‍कृतनिष्‍ठ तथा समय-प्रधान होती है। पर कविता का स्‍वर ओजस्‍वी होता है। निराल के साहित्‍य में कहीं भी बेसुरा राग नहीं है। उनके व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व में कोई भी अंतरविरोध नहीं है। निराला जी एक-एक शब्‍द को सावधानी से गढते थे वे प्रत्‍येक शब्‍द के संगीत और व्‍यंजना का पूरा ध्‍यान रखते थे।
            बंगाल की काव्‍य परंपरा का उन पर प्रभाव है। निराला में संगीत के जो छंद हैं, वे किसी अन्‍य आधुनिक कवि में नहीं है। वे हमारे जीवन के निजी कवि हैं। हमारे दुःख-सुख में पग-पग पर साथ चलने वाले कवि हैं। वे अंतरसंघर्ष, अंतरवेदना, अतंरविरोध के कवि हैं। बादल निराला के व्‍यक्तित्‍व का प्रतीक है जो दूसरों के लिए बरसता है।
            आंचलिक का सर्वाधिक पुट निराला की रचनाओं में मिलता है, जबकि इसके लिए विज्ञप्‍त हैं फणीश्‍वर नाथ रेणु। सर्वप्रथम आंचलिकता को कविता व कहानी में स्‍थान देने का श्रेय भी निराला को ही दिया जा सकता है। निराला की रचनाओं में बंगला के स्‍थानीय शब्‍दों के अलावा बांसवाड़ा के शब्‍द भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आंचलिकता के जरिए उन्‍होंने हिंदी की शब्‍द शक्ति बढ़ाई।
            निराला की मूल संवेदना राम को ही संवेदना हैं। डा. कृष्‍ण बिहारी मिश्र का कहना है कि निराला के समग्र व्‍यक्तित्‍व को देखें तो निराला भारतीय आर्य परंपरा के आधुनिक प्रतिबिंब नजर आएंगे। आज जब संवेदना की खरीद-फरोख्‍त हो रही है , बाजार संस्‍कृति अपने पंजे बढ़ा रही है, ऐसे समय महाप्राण निराला की वही हुंकार चेतना का संचार कर सकती है।
आज सभ्‍यता के वैज्ञानिक जड़ विकास पर गर्वित विश्‍व
नष्‍ट होने की ओर अग्रसर.........
फूटे शत-शत उत्‍स सहज मानवता-जल के
यहां-वहां पृथ्‍वी के सब देशों में छलके
            निराला के व्‍यक्तित्‍व में ईमानदारी व विलक्षण सजगता साफ झलकती थी। जो भी व्‍यक्ति ईमानदार होगा, उसकी नियति भी निराला जैसी ही होगी। उनमें वह दुर्लभ तेज था, जो उनके समकालीन किसी अन्‍य कवि में नहीं दिखता। निराला ने अपने जीवन को दीपक बनाया था, वे अंधकार के विरूद्ध आजीवन लाड़ने वाले व्‍यक्ति थे। निराला ने कभी सर नहीं झुकाया, वे सर ऊँचा करके कविता करते थे। तभी उनका कुकुरमत्ता गुलाब को फटकार लगाने की हैसियत रखता है।
सुन बे गुलाब !
पाई तूने खुशबू-ओ-आब !
चूस खून खाद का अशिष्‍ट
डाल से तना हुआ है कैप्‍टलिस्‍ट !

वे अनलक्षितों के कवि थे ।
वह तोड़ती पत्‍थड़
इलाहाबाद के पथ पर ।

निराला की दृष्टि वहां गयी जहां उनके पहले किसी की दृष्टि नहीं पहुंची थी। सरोज स्मृति में जिस वात्सल्य भाव का चित्रण हुआ है वह कहीं और नहीं मिलता। निराला ने अपनी पुत्री सरोज की स्मृति में शोकगीत लिखा और उसमें निजी जीवन की अनेक बातें साफ-साफ कह डाली। मुक्त छंद की रचनाओं का लौटाया जाना, विरोधियों के  शाब्दिक प्रहार, मातृहीन लड़की की ननिहाल में पालन-पोषण, दूसरे विवाह के लिए निरंतर आते हुए प्रस्ताव और उन्हें ठुकराना, सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए एक दम नए ढ़ंग से कन्या का विवाह करना, उचित दवा-दारू के अभाव में सरोज का देहावसान और उस पर कवि का शोकोद्गार। कविता क्या है पूरी आत्मकथा है। यहां केवल आत्मकथा नहीं है, बल्कि अपनी कहानी के माध्यम से एक-एक कर सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार किया गया है।
ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
यह निराला ही हैं, जो तमाम रूढ़ियों को चुनौती देते हुए अपनी सद्यः परिणीता कन्या के रूप का खुलकर वर्णन करते हैं और यह कहना नहीं भूलते कि पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची!’ । है किसी में इतना साहस और संयम।
चुनौती देना और स्वीकार करना निराला की विशेषता थी। विराट के उपासक निराला की रचनाओं में असीम-प्रेम के रहस्यवाद की भावना विराट प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त होती है। निराला के साहित्‍य में गहरी अध्यात्‍म चेतना, वेदांत, शाक्‍त, वैष्‍णवधारा का पूर्ण समावेश है । जीवन की समस्‍त जिज्ञासाओं को निराला ने एक व्‍यावहारिक परिणति दी। एक द्रष्‍टा कवि की हैसियत से निराला ने मंत्र काव्‍य की रचना की है। विराट के उपासक निराला की रचनाओं में असीम-प्रेम के रहस्यवाद की भावना विराट प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त होती है।
            निराला के जीवन में अपने व्‍यक्तिगत दुःख तो सहे ही, उन्‍होंने दूसरों के दुःखों को भी सहा। वे दूसरों की पीड़ाओं से स्‍वयं दुःखी हुए। इसलिए संसार-भर की व्‍यथाओं ने उन्‍हें तोड़ डाला। वे अपनी पीड़ाओं से अधिक दूसरों की पीड़ाओं से व्‍यथित थे। वे केवल महान साहित्‍यकार ही नहीं थे, वे उससे भी बड़े मनुष्‍य थे। उनकी मानवता कला से ऊपर थी। वे कला और साहित्‍य का चाहे सम्‍मान न करें , किंतु मानवता का अवश्‍य सम्‍मान करते थे। उनकी महानता इस बात में थी कि वे छोटों का खूब सम्‍मान करते थे। उनका कहना था कि गुलाम भारत में सब शुद्र हैं। कोई ब्राह्मण नहीं है। सब समान हैं। यहां ऊंच नीच का भेद करना बेकार है। हमें जाति के आधार पर ऊँचा कहलाने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उनके इन्‍ही विचारों के कारण  भारत के परंपरावादी, जातीवादी, ब्राह्मणवादी लोग उनसे चिढ़ते थे। वे निराला को धर्म-भ्रष्‍टक मानते थे। परंतु दूसरी ओर, गरीब किसान और अछूत माने जाने वाले लोग उन्‍हें बहुत चाहते थे। उनकी सरलता के कारण जहां पुराणपंथी उनसे कटते थे, वहीं गरीब किसान और अछूत उन पर जान देते थे। वे चतुरी चमार के लड़के को घर पर पढ़ाते थे। इसी प्रकार वे फुटपाथ के पास बैठी पगली भिखारिन से बहुत सहानुभूति रखते थे।
            जैसे गांधीजी में कहीं बेसुरापन नहीं मिलता वैसे ही साहित्‍य के क्षेत्र में निराला में भी कहीं बेसुरापन नहीं था। जिन्‍हें भारतीय धर्म, दर्शन व साहित्‍य का पता है वह निराला को समझ सकते हैं। मनुष्‍य को नष्‍ट तो किया जा सकता है किन्‍तु पराजित नहीं किया जा सकता। निराला के साहित्‍य में हमें यही संदेश मिलता है। वे हिंदी साहित्‍य प्रेमियों के हृदय सम्राट हैं। वे बड़े साहित्‍यकार अवश्‍य थे,‍ किंतु उससे भी बड़े मनुष्‍य थे।