सोमवार, 20 सितंबर 2010

और समय ठहर गया!

और समय ठहर गया!

photo Gyanज्ञान चंद ‘मर्मज्ञ’

बनारस की रसमयी धरती के सपूत श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ समकालीन कविता में एक अमूल्य हस्ताक्षर के रूप में उभरे हैं। जन्म से भारतीय, शिक्षा से अभियंता, रोजगार से उद्यमी और स्वभाव से कवि, श्री मर्मज्ञ अपेक्षाकृत कम हिन्दीभाषी क्षेत्र बेंगलूर में हिंदी के प्रचार-प्रासार और विकास के साथ स्थानीय भाषा के साथ समन्वय के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। लगभग एक दशक से हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की शोभा बढ़ा रहे ज्ञानचंद जी की अभी तक एक मात्र प्रकाशित पुस्तक "मिट्टी की पलकें" ने तो श्रीमान को सम्मान और पुरस्कार का पर्याय ही बना दिया। श्री मर्मज्ञ के मुकुट-मणी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी शलाका सम्मानजैसे नगीने भी शामिल हैं। मित्रों ! मर्मज्ञ जी जितने संवेदनशील कवि हैं उतने ही सहृदय सज्जन ! आप चाहें तो +91 98453 20295 पर कविवर से वार्तालाप भी कर सकते हैं !!!

और समय ठहर गया!

गुमसुम सन्नाटों में, बिक-बिक के हाटों में,

टुकड़ों में टूट-टूट, कौन कहां किधर गया,

और समय ठहर गया!

 

ज़हरीले     नागों से,     आबाद होती है,

कैसी ये   बस्ती है,  अजगर   संजोती है,

राजा की  रानी    तो महलों में सोती है,

अंधे  गलियारों  में  भारत    मां रोती है,

सागर में ज्वार उठा आंखों में लहर गया,

और समय ठहर गया!

 

जुड़ने की कोशिश में टुकड़े हज़ार हुए,

जितने  लुटेरे  थे  यारों  के  यार    हुए,

नोच-नोच खाने के ज़ुर्म बार-बार हुए,

सोने की चिड़ियां के पंख तार-तार हुए,

पथरीले दांतों से उपवन को कुतर गया,

और समय ठहर गया!

 

माटी कलंकित है, अभिशाप अंकित है,

झूठे दिलासों का    विश्‍वास शंकित है,

इज़्ज़त है  मोहताज़  ऊँची दुकानों की,

मानवता  नाच  रही   नंगे इंसानों की,

लगता है सन्नाटा चीख़ों पर पसर गया,

और समय ठहर गया!

 

प्यासों के होठों पर   बैठा है डर देखो,

झीलों को पीते   हैं कैसे    शहर देखो,

पत्थर है तर देखो, आंसू के घर देखो,

दर्पण में बिखर गई भीगी नज़र देखो,

चेहरे को नोचा तो चेहरा उभर गया,

और समय ठहर गया!

 

रोती हैं   दीवारें,      गलियारे रोते हैं,

आंगन   के धुएं में      अंगारे रोते हैं,

दरवाज़ा सूना है, ग़म इसका दूना है,

खिड़की के पास पड़ा घायल एक कोना है,

दस्तक का ऐतबार चौखट पे बिखर गया,

और समय ठहर गया!

 

फूल अगर कोमलता छोड़ दे तो क्या होगा?

चांद अगर शीतलता छोड़ दे तो क्या होगा?

बचपन जो चंचलता छोड़ दे तो क्या होगा?

गीत अगर व्याकुलता छोड़ दे तो क्या होगा?

दर्द बड़ा ज़ालिम है घावों में उतर गया,

और समय ठहर गया!

 

लटकी है गर्दन जो   नंगी तलवारों पर,

आएगा इंक़लाब    लिख दो दीवारों पर,

अब बिगुल बजाना है, ख़ून में नहाना है,

देश के ग़द्दारों को      देश से भगाना है,

दीप चला जलने को, जलने से मुकर गया,

और समय ठहर गया!

44 टिप्‍पणियां:

  1. सामयिक और सार्थक संदेश देती रचना ।

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  2. देस का बर्तमान दसा और एक सुखमय भाविश्य का कल्पना सँजोने वाला यह कबिता एक घोष है… आप निस्चित रूप से बधाई के पात्र हैं..

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  3. देश के हालातों पर लिखी कविता बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है ..समय को ठहरना नहीं है ....अच्छी प्रस्तुति

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  4. आपकी समय ठहरा देने की व्यञ्जना स्तब्ध कर गयी। बहुत सुन्दर।

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  5. हालातों पर लिखी ....अच्छी प्रस्तुति

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  6. हालातों पर लिखी ....अच्छी प्रस्तुति

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  7. हमारे समय को रेखांकित करती इस कविता में प्रवाह और जोश भरा हुआ है। यह एक ऐसी कविता है जिसमें हमारे यथार्थ का मूक पक्ष भी बिना किसी शोर-शराबे के कुछ कह कर पाठक हो स्पंदित कर जाता है।
    बहुत अच्छी प्रस्तुति। शुभकामनाएं।

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  8. सचमुच, आपकी कविता पढते हुए लगा कि समय ठहर गया।

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  9. यूँ तो इस रचना का एक एक शब्द सार्थक और सकारात्मक सोच की ओर ले जाती है लेकिन इन पाँक्तियों का जरूर उल्लेख करूँगी
    माटी कलंकित है, अभिशाप अंकित है,

    झूठे दिलासों का विश्‍वास शंकित है,

    इज़्ज़त है मोहताज़ ऊँची दूकानों की,

    मानवता नाच रही नंगे इंसानों की,

    लगता है सन्नाटा चीख़ों पर पसर गया,

    और समय ठहर गया!
    लाजवाब और अन्त मे कवि की सोच जिस सकारात्मक बदलाव की ओर ले जाती है उससे लगता है ये कालजयी रचना बन गयी है। बहुत बहुत बधाई।

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  10. इस अप्रतिम रचना ने कुछ भी कहने की अवस्था में नहीं छोड़ा है.....
    कुछ टिपण्णी करने को इस अवस्था से,रस से बहार आ कोई शब्द खोजने को मन प्रस्तुत नहीं हो रहा...क्या करूँ...

    माता सदा आपपर अपनी कृपा बनायें रखें... सार्थक रचवायें...

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  11. सच्मुच समय ठ्हर गया है... आपकी कविता देश दुनिया के लिये आप्के सरोकार को दर्शाती है.. बहुत खूब... उर्जा और चेतना से भरपूर... शुभकामना एवम बधाई..

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  12. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    समझ का फेर, राजभाषा हिन्दी पर संगीता स्वरूप की लघुकथा, पधारें

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  13. पढते पढते सांस भी ठहर सी गई
    देश के हालातों पर बेहतरीन रचना .गहरा असर छोडती है.

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  14. gati hi jeevan ka satya hai....
    par in haalaton mein sachmuch samay thahar gaya sa lagta hai!
    dasha aur disha ki vivechna karti sundar saarthak abhivyakti!
    subhkamnayen....

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  15. आज के हालात का सजीव और सटीक चित्रण…………बेहतरीन प्रस्तुति।

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  16. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  17. लटकी है गर्दन जो नंगी तलवारों पर,
    आएगा इंक़लाब लिख दो दीवारों पर,
    अब बिगुल बजाना है, ख़ून में नहाना है,
    देश के ग़द्दारों को देश से भगाना है,

    इस बानी को जन जन की बानी बनाना है .... जोश भरी लाजवाब पंक्तियाँ ...

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  18. रोती हैं दीवारें, गलियारे रोते हैं,

    आंगन के धूएं में अंगारे रोते हैं,

    दरवाज़ा सूना है, ग़म इसका दूना है,

    खिड़की के पास पड़ा घायल एक कोना है,

    दस्तक का ऐतवार चौखट पे बिखर गया,

    और समय ठहर गया!
    गजब की पंक्तियाँ .....बार बार पढ़ रही हूँ....
    regards

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  19. आपकी कविता सोचने को विवश कर देती है , समय ठहर गया ...हाँ आपकी लेखनी में ...ठहर गई पल भर को दिल की धड़कन भी ।

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  20. फूल अगर कोमलता छोड़ दे तो क्या होगा?

    चांद अगर शीतलता छोड़ दे तो क्या होगा?

    बचपन जो चंचलता छोड़ दे तो क्या होगा?

    गीत अगर व्याकुलता छोड़ दे तो क्या होगा?
    और..........
    इंसान अगर इंसानियत छोड़ दे तो क्या होगा?
    वर्तमान परिस्थिति हमें यही अवगत कराती है कि आज इंसानों ने अपनी इंसानियत छोड़ दी है और हैवानियत को अपना लिया है । आपकी कविता वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बहुत सही message दे रही है ।

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  21. परिस्थितियां जब अनुकूल होती हैं,जी करता है,समय बस ठहर ही जाए। विपरीत परिस्थितियों का ठहराव ठीक नहीं। मगर,जैसे एकदम से बीमार आदमी खुद अस्पताल नहीं जा सकता,वैसे ही,हमारे भीतर भी इन्कलाब न जाने किस घुन का शिकार है।

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  22. कविता भाषा शिल्‍प और भंगिमा के स्‍तर पर समय के प्रवाह में मनुष्‍य की नियति को संवेदना के समांतर, दार्शनिक धरातल पर अनुभव करती और तोलती है।
    जिंदगी के कई शेड्स इस कविता में ऐसी काव्‍यभाषा में संभव हुए हैं, जो आज लगभग विरल हो चुकी है। विवाद से परे भी यह कहना उचित होगा कि आप आज के समय का समर्थ कवि हैं । दुनियां, कुछ लोग कहते हैं संवर रही है। पर दुनिया के इस तरह संवरते जाने में एक विडंबना है इस संवरती दुनिया में महज वे चंद लोग है जिन्‍होंने इस साम्राज्‍यवादी ताकतों के सामने घुटने टेक दिए और जिनके कारण ही चवे लाग हाशिये पर पड़े हैं और बहुत दयनीय स्थिति में रहने को अभिशप्‍त हैं। सांस्‍कृतिक संकट और देश के सामने उत्पन्न चुनौतियों को जिस तरह से रखा है निश्चय ही वंदनीय है।

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  23. निहायत ही सटीक और सामयिक रचना.

    रामराम.

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  24. गंभीर भाव लिए बहुत सुंदर रचना |बधाई
    आशा

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  25. सार्थक, सामयिक,यथार्थ और जोश से भरी रचना..बहुत अच्छी

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  26. samay thaer gaya
    sachmuch sochne par vivash krne wali kavita hai. bhavon ke aanusaar savd chayan or bhavnatamk gahrai, ke saath kavita samkalin sandharvon ko kaphi shasakth tarike se prastut karti hai.
    sundar rachana ke liye badhai

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  27. ज्ञानचन्द मर्मज्ञ की सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए आभार!

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  28. बहुत सुन्दर. एक-एक शब्द संवेदना के तह को उधेर कर रख देने वाला है. कवि ने अपने समाज सापेक्ष संवेदनशील भावों की अभिव्यक्ति के लिए गीत एवं ग़ज़ल के बीच की विधा को चुना है, जिसमें उनकी निपुणता पाठकों को उनके भावों से साक्षात्कार कराते हुए असीम आनंद देती है. धन्यवाद !

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  29. Wow!....bahut sundar rachanaa!...sakaaraatmak bhaav liye hue hai..... badhaai aur dhanyawaad!

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  30. इतनी सार्थक और सशक्त कविता है कि तारीफ़ के लिए शब्द नहीं मिल पा रहे हैं ! एक पंक्ति को उद्धृत करूँ तो लगता है दूसरी के साथ अन्याय है ! हर शब्द, हर पंक्ति, हर छंद लाजवाब और एक से बढ़ कर एक है ! अप्रतिम रचना ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  31. विलक्षण रचना है...शब्द शब्द प्रेरित करती हुई...इस अद्भुत रचना के लिए दिल से बधाई स्वीकार कीजिये...

    नीरज

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  32. बहुत सुंदर और सार्थक कवि‍ता

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  33. उम्दा शब्द चयन, सशक्त अभिव्यक्ति , लिखते रहिये ...

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  34. बहुत ही सुंदर रचना.... लम्बी है पर प्रवाह बना रहा.... काबिले तारीफ़
    बधाई स्वीकारें

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  35. चेहरे को नोचा तो चेहरा उभर गया,

    और समय ठहर गया!.......
    बहुत ही सारगर्भित और समसामायिक रचना.....बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....बधाई....

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  36. bhut hi samvedanshil aur sarthak kavita hai. itani sundar kavita ke liye marmagya ji ko saadhuvaad.

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