रविवार, 10 अक्तूबर 2010

काव्य शास्त्र-शब्द और अर्थ भेद

काव्य शास्त्र

शब्द और अर्थ भेद

आचार्य परशुराम राय

अब तक काव्य के प्रयोजन, हेतु, लक्षण और भेद की चर्चा की गयी है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि यहाँ भारतीय काव्यशास्त्र शृंखलाओं का आधारभूत ग्रंथ आचार्य मम्मटकृत काव्यप्रकाश को रखा गया है। काव्य लक्षण करते समय हमने देखा कि आचार्य मम्मट का काव्य-लक्षण है -

‘तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कृती पुन: क्वापि’ अर्थात गुण सहित शब्द और अर्थ काव्य है, भले ही कहीं-कहीं अलंकार न हो।

अतएव तदनुसार यहाँ शब्द और अर्थ के भेदों का विवेचन ही अभिप्रेत है।

शब्द के तीन भेद माने गए है- वाचक (अभिधार्थक), लाक्षणिक और व्यंजक। इसी प्रकार अर्थ के भी तीन भेद होते हैं - वाच्य (अभिधा), लक्ष्य और व्यंग्य। इसके अतिरिक्त अभिहितान्वयवादियों और अन्विताभिधानवादियों के 'तात्पर्यार्थ' को चौथे भेद के रूप में आचार्य मम्मट लेते हैं।

वाचक, लक्ष्यक और व्यंजक शब्दों के जो भेद बताए गये हैं, इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि ये अलग-अलग शब्दों का विभाजन है, बल्कि शब्दों के वाक्य में प्रयोग होने पर अर्थग्रहण की दृष्टि से विभाजन है। एक शब्द वाचक, लक्ष्यक और व्यंजक तीनों हो सकता है। इसी प्रकार वाच्यार्थ भी व्यंजक हो सकता है, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ भी व्यंजक हो सकते हैं।

वाच्यार्थ के व्यंजक होने का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है:-

मातर्गृहोपकरणमद्य खलु नास्तीति साधितं त्वया।

तद्भण किं करणीपमेवमेव न वासर: स्थायी॥

घर में आटा-दाल नहिं, तूने दिया बताय।

क्या करूँ अब तो बता, यह दिन बीता जाय॥

(हिन्दी छाया)

यहाँ वधु अपनी सास से कहती है कि हे माँ, तुमने यह बताया कि घर में सामान (आटा-दाल आदि) नहीं है, तो अब बताओ क्या करना चाहिए। क्योंकि दिन स्थायी नहीं है।

इस मुख्यार्थ से यह व्यंग्य भी निकलता है कि वधु अपने प्रेमी (उपपति) के पास जाना चाहती है। अन्यथा उसे इस प्रकार की बात करने की आवश्यकता नहीं थी।

लक्ष्यार्थ से व्यंग्य का उदाहरण -

साधयन्ती सखि सुभगं क्षणे क्षणे दूनासि मत्कृते।

सद्भाव स्नेहकरणीयसदृशकं तावद् विरचितं त्वया॥

बार-बार पति पास जा, कष्ट उठाय अधिकाय।

इतना सखि अब और कर, तू अपने घर जाय॥

(हिन्दी पद्यानुवाद)

इस श्लोक में एक वंचिता नायिका की अपनी सहेली के प्रति उक्ति है जो उसके पति को मनाने के बहाने उसके (पति) साथ रमण करती रही। इसकी जानकारी होने के बाद वह कहती है - हे सखि, उस सुंदर (मेरे पति) के पास बार-बार जाकर मेरे लिए तुमने काफी कष्ट उठाया है। पर, अब उसकी जरूरत नहीं है। सद्भावना और स्नेह के चलते जो करना चाहिए था, वह तुमने कर लिया।

यहाँ, मेरे पति के साथ रमण करके तूने सहेली जैसा नहीं, अपितु शत्रु का कार्य किया है, यह लक्ष्यार्थ है और उससे कामुकता भरे अपराध का कथन व्यंग्य है।

अब व्यंग्यार्थ से व्यंग्य का उदाहरण:-

पश्य निश्चलनिष्पन्दा बिसनीपत्रे राजते बलाका।

निर्मलमरकतभाजनपरिस्थिता शंखशुक्तिरिव॥

देखो कैसे जलज पात पर निश्चल निष्पंद बलाका सोहे।

जैसे मरकत थाल पर सजे शंख-शुक्तिका बरबस मन मोहे॥

(हिन्दी पद्यानुवाद)

यहाँ कमल के पत्ते पर निश्चल और निष्पंद बैठी बलाका (बगुली) से उसकी निडरता लक्ष्यार्थ है। उसके निडर और आश्वस्त होने से यह दूसरा अर्थ निकलता है कि वह स्थान जनशून्य है, यह अर्थ व्यंजना से आया है। यह उक्ति नायिका अपने प्रेमी से कह रही है। यहाँ यह भी अर्थ निकलता है कि नायिका यह जताना चाहती है कि उसका प्रेमी झूठ बोल रहा है। वह पहले वहाँ आया ही नहीं था, अन्यथा बगुली निश्चल और निष्पंद नहीं रह सकती थी। यह अर्थ पूर्वोक्त व्यंग्यार्थ से व्यंजना द्वारा आया है।

अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद को समझने के पहले भारतीय साहित्य में शब्द-बोध का निरूपण करने वाले शास्त्रों के विषय में जान लेते हैं। व्याकरण, न्याय तथा मीमांसा ये तीनों शास्त्र शब्द-बोध का विवेचन करते हैं। व्याकरण-शास्त्र पद और पद के अर्थ (पदार्थ) का विवेचन करता है। इसलिए इसे पद-शास्त्र भी कहते हैं। न्याय-शास्त्र प्रमाण का विशेष रूप से विवेचन करता है। अतएव इसे प्रमाण-शास्त्र भी कहा जाता है। मीमांसा-शास्त्र में वाक्यों की अर्थ-शैली का निरूपण किया जाता है। इसलिए इसे वाक्य-शास्त्र भी कहा जाता है।

अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद वाक्यार्थ के विषय में मीमांसकों के दो मत है।

अभिहितान्वयवाद के अनुसार पहले पदों से पदार्थों की प्रतीति होती है और उन पदार्थो का वाक्य के परस्पर सम्बन्ध द्वारा वाक्यार्थ का बोध होता है। पहले पदों द्वारा पदार्थ अभिहित होता है, अर्थात पदार्थ का अभिधा शक्ति द्वारा बोध होता है। तत्पश्चात वक्ता के आशय के अनुसार उनका परस्पर अन्वय (सम्बन्ध) होता है जिससे वाक्यार्थ का बोध होता है। वाक्य का अर्थ बोध वक्ता के तात्पर्य के अनुसार होने के कारण इसे 'तात्पयार्थ' भी कहा जाता है। वाक्य बोध आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि के कारण होता है। 'आकांक्षा' श्रोता की जिज्ञासा को कहते हैं, अर्थात श्रोता ध्यान से वाक्य के सभी शब्दों को जिज्ञासु की तरह सुनता है। 'योग्यता' का अर्थ है पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध में व्यवधान का अभाव। सन्निधि का अर्थ है वक्ता द्वारा वाक्य के पदों का अविलम्ब उच्चारण करना। यहाँ बताना आवश्यक है कि जब शब्द वाक्य में प्रयुक्त होता है तब उसे पद कहते हैं। उक्त मत को अभिहितान्वयवाद कहते हैं। इसका दूसरा नाम तौतातिक मत भी है। यह अत्यन्त मूर्धन्य मीमांसक आचार्य कुमारिल भट्ट और उनके अनुयायियों का मत है। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ब्रह्रमसूत्र पर अपने भाष्य टीका पर सहमति पाने के लिए इनके पास गए थे। इस पर अलग से एक अंक की आवश्यकता पडेगी अतएव इसे यहाँ छोड़ा जा रहा है।

दूसरा मत है अन्विताभिधानवाद। यह सिद्वान्त आचार्य कुमारिल भट्ट के मूर्धन्य शिष्य प्रभाकर का है। इस मत के अनुसार पहले से अन्वित पदार्थों का ही अभिधा से बोध होता है। इसलिए इस सिद्वान्त को अन्विताभिधानवाद कहते हैं। इसे और स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण लेते हैं - परिवार में छोटा बच्चा लोगों की बातें सुनता है, यथा- लोटा लाओ, पानी लाओ, लोटा ले जाओ आदि। इन वाक्यों के अनुसरण में किये गये कार्य-व्यापार द्वारा धीरे-धीरे लोटा, पानी, लाना, ले जाना, रखना, आदि का अलग-अलग अर्थ समझने लगता है। इस प्रकार व्यवहार से, शब्द से पदार्थ का संकेत ग्रहण होता है और फिर वाक्य के समष्टिभूत अर्थ का बोध होने लगता है।

अगले अंक में शब्दार्थों के उपभेदों का उल्लेख किया जाएगा।

20 टिप्‍पणियां:

  1. काव्यशास्त्र की जानकारी लिए आभार।

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  2. आदरणीय मनोज कुमा जी
    नमस्कार !

    बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख...........आभार।

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है!

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
    नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

    मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!, राजभाषा हिन्दी पर कहानी ऐसे बनी

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  5. काव्य शास्त्र कि इतनी जानकारी देने के लिए बधाई

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  6. kavye Shavad arth or bhed ki jaankari dekar aapne humaun kritarth kiya hai
    kavita ke vividh pakshon ko samajhne ke liye in lekhon ki sarthkta nishchit hi upyogi hai

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  7. बहुत अच्छी उपयोगी जानकारी है इसे भी सहेज लिया है फिर से पढने के लिये। धन्यवाद।

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  8. बहुत बढ़िया सारगर्वित ज्ञानवर्धक प्रस्तुति..... आभार

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  9. mere liye sunder shabdon ka prayog kerne ke liye dhanyavaad aur sabhi pathakon ko sadhuvaad...

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  10. कल से बाहर था इसलिए इस पोस्ट को नही देख सका!
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    आपने बहुत ही उम्दा पोस्ट लगाई है!
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    हिन्दी के प्रचार-प्रसार में
    आज की पोस्ट बहुत उपयोगी है!
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    नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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    जय माता जी की!

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  11. बहुत ही उपयोगी और सार्थक आलेख। हिंदी में ज्ञानवर्धक ब्लाग बहुत कम है । आपका श्रम स्तुत्य है। प्रत्येक हिंदीसेवी को इस आलेख श्रृंखला का अवश्य अध्ययन करना चाहिए।

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  12. भारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।

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  13. ज्ञानवर्द्धक। वर्णन भाग को थोड़ा और सरलीकृत कर लिखा जाए तथा उदाहरणों की संख्या बढ़ा दी जाए ताकि पाठक को पढ़ते ही एकदम से याद हो जाए।

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  14. बहुत ही ज्ञानवर्धक शृंखला चल रही है। काव्यशास्त्र को जन सामान्य तक पहुँचाने का महती कार्य कर रहे हैं आप। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।

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  15. अति सुन्दर ! आचार्यवर का पराक्रम अब मनभावन होने लगा है... ! धन्यवाद !!

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  16. ज्ञानवर्धक लेख के लिए आपका आभार।

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  17. बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख है. इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।

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  18. नमस्ते सर ... आपका लेख पड़ा " काव्य शास्त्र-शब्द और अर्थ भेद" अत्यंत ज्ञानवर्धक लेख है .. लेखक की बुद्धि क्षमता को तोलता हुआ लेख था...किन्तु साथ ही ये भी कहूँगी लेख सर्व सामान्य के लिए नहीं था ..!! काश की आप ये लेख और सरल बना पाते ...!!आशा करती हूँ अगला लेख किताबी नहीं होगा

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