रविवार, 27 मार्च 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-59 - भाव

भारतीय काव्यशास्त्र-भाव

-आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में भाव के सामान्य स्वरूप को प्रस्तुत किया गया था। इसके अतिरिक्त काव्यशास्त्र में निम्नलिखित चार परिस्थितियों में स्थायिभावों और संचारिभावों को भाव के रूप में अभिहित किया गया है-

1. स्त्रीविषयक रति को छोड़कर देवता, पुत्र, गुरु, माता-पिता, राजा आदि समबन्धी रति को भाव कहा गया है। इसलिए इसके अनुसार भक्ति रस और वात्सल्य रस रस न होकर भाव हैं। इसकी चर्चा भक्ति रस और वात्सल्य रस के अंक में की जा चुकी है।

2. काव्य में जब संचारिभाव स्थायिभाव से अधिक प्रबल या प्रधान हो, तो उसे भी भाव कहते है। साहित्यदर्पणकार ने इसका उदाहरण दिया है कि राजा प्रधान होते हुए भी मंत्री आदि के विवाह के अवसर पर वह दूल्हे के पीछे ही चलता है। इसी प्रकार काव्य में जहाँ संचारिभाव स्थायिभाव से अधिक प्रशस्त होता है, तो दोनों ही भावरूप हो जाते हैं।

3. जहाँ काव्य में संचारिभाव व्यंग्य से अभिव्यक्त हो, तो उसे भाव समझना चाहिए।

4. जब पर्याप्त विभावों, अनुभावों और संचारिभावों के अभाव में या किसी अन्य कारण से स्थायिभाव पूर्णरूप से आस्वाद्यमान न हो पाए, अर्थात जब रस पूर्णरूप से परिपुष्ट न हो, तो स्थायिभाव भाव कहलाता है।

यहाँ देवविषयक रति का निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत है। यह उत्पलपादाचार्य जी द्वारा विरचित परमेश्वरस्तोत्ररत्नावलि से उद्धृत किया गया है। इसमें भगवान शिव आलम्बन विभाव, उनका अव्याहत (अक्षत या शाश्वत) ऐश्वर्य उद्दीपन विभाव, स्तवन आदि अनुभाव, धृति, माहात्म्य आदि संचारिभाव हैं-

कण्ठकोणविनिविष्टमीश ते कालकूटमपि मे महामृतम्।

अप्युपामृतं भवद्वपुर्भेदवृत्ति यदि मे न रोचते।।

अर्थात हे भगवान आपके कण्ठ में स्थित कालकूट भी मेरे लिए महान अमृत के तुल्य है। आपके शरीर से अलग रहनेवाला अमृत भी मुझे अच्छा नहीं लगता। यहाँ पूर्णरूप से परिपुष्ट न होने के कारण रति स्थायिभाव रसरूप न होकर पाठक या सामाजिक को भावरूप रति का बोध होता है। अतएव यहाँ रति केवल भाव है।

रामचरितमानस में गौरी पूजन के समय माता सीता द्वारा की गयी उनकी स्तुति को हिन्दी में उदाहरण के रूप में लेते हैं-

जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।

जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।

नहि तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।

भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।

इसी प्रकार ऋषि, मुनि, राजा, गुरु, माता-पिता आदिविषयक रति को भी समझना चाहिए।

निम्नलिखित उदाहरण में संचारिभाव व्यंग्य से आया है और स्थायिभाव से अधिक प्रभावशाली हो गया है-

एवं वादिनि देवर्षौ पार्श्वे पितुरधोमुखी।

लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती।।

अर्थात देवर्षि नारद के ऐसा कहने पर (शिव का पार्वती के साथ विवाह की बात) पिता के पास बैठी पार्वती नीचे मुँह किए लीला-कमल की पंखुड़ियों को गिनने लगीं।

यहाँ शिव के साथ अपने विवाह की चर्चा के कारण लज्जा, हर्ष, उत्सुकता आदि को पार्वती के द्वारा छिपाने का प्रयास व्यंजित हो रहा है, जिसे अवहित्था (एक प्रकार का संचारिभाव जिसमें भय, लज्जा, हर्ष आदि भावों को छिपाया जाय) कहते हैं। रति स्थायिभाव से अवहित्था यहाँ अधिक प्रभावी भी है। अतएव यहाँ अवहित्था भाव है।

इसके लिए हिन्दी में निम्नलिखित दोहा उद्धृत करते हैं-

सटपटाति सी ससिमुखी, मुख घूँघट पट ढाँकि।

पावक झर सी झमकि कै, गई झरोखे झाँकि।।

यहाँ लज्जा और स्मरण संचारिभाव का वर्णन प्रधान हो गया है। रति स्थायिभाव दब गया है। अतएव ये भाव कहे जाएँगे।

इसी प्रकार रामचरितमानस में परशुराम-लक्ष्मण संवाद के निम्नलिखित उदाहरण में विभाव, अनुभाव और संचारिभावों के वर्तमान होते हुए भी क्रोध स्थायिभाव केवल उद्बुद्ध होकर रह गया है। महर्षि विश्वामित्र के शील के कारण यहाँ रौद्र रस का पूर्णरूप से परिपाक नहीं हो पाया है। अतएव क्रोध यहाँ केवल भाव कहलाएगा-

कर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरु द्रोही।।

उतर देत छाँड़ौ बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे।।

अब भावाभास और रसाभास पर चर्चा करते हैं। इसके विषय में आचार्य मम्मट लिखते हैं-

तदाभासा अनौचित्यप्रवर्तिताः।

अर्थात रसों और भावों का अनुचित वर्णन क्रमशः रसाभास और भावाभास कहलाते हैं। यह अनौचित्य कई प्रकार का होता है। जैसे एक स्त्री का कई पुरुषों के साथ प्रेम या अपने पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के साथ प्रेम, अनुचित होने के कारण रसभास होगा। पशु-पक्षी आदि का प्रेम वर्णन भी इसी श्रेणी में आता है। इसी प्रकार गुरु आदि को आलम्बन बनाकर हास्य आदि का प्रयोग, संत आदि को आलम्बन बनाकर करुण आदि का वर्णन, माता-पिता को आलम्बन बनाकर क्रोध आदि का वर्णन, यज्ञ के पशु को आलम्बन मानकर बीभत्स का वर्णन, ऐन्द्रजालिक आदि विषयक अद्भुत तथा चाण्डाल विषयक शान्त रस आदि का वर्णन अनुचित कहा गया है। इसलिए इनकी गणना रसाभास में की जाती है। इसी प्रकार भावों का अनुचित वर्णन भावाभास की श्रेणी में आता है।

रसाभास का निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत है। इसमें उन राजाओं के उत्साह का वर्णन है, जो भगवान शिव के धनुष को तो उठा न पाए, लेकिन राम और लक्ष्मण से युद्ध कर सीता को पाने का उत्साह दिखाते हैं। उनका उत्साह अनुचित है। अतएव यहाँ रसाभास माना जाएगा-

उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जँह तँह गाल बजावन लागे।।

लेहु छुड़ाय सीय कह कोऊ। धरि बाँधौ नृप बालक दोऊ।।

तोरे धनुष काज नहिं सरई। जीवत हमहिं कुँवरि को बरई।।

जौ बिदेह कछु करहिं सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई।।

इसी प्रकार निम्नलिखित दोहा भावाभास का उदाहरण है-

दरपन में निज छाँह सँग, लखि प्रियतम को छाँह।

खरी ललाई रोस की, ल्याई अँखियन माँह।।

यहाँ क्रोध का भाव अनावश्यक रूप से आया है। अतएव क्रोध भावाभास है।

अगले अंक में भावोदय, भावसंधि, भावशान्ति और भावशबलता पर चर्चा की जाएगी।

11 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय परशुराम जी सतत ज्ञानवर्धन के लिए अत्यंत आभार. फिर से एक अच्छी पोस्ट.

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  2. आपकी काव्यशास्त्र सम्बन्धी पोस्ट पढ़ना प्रारम्भ कर रहे हैं, पठन का सन्तोष मिल रहा है।

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  3. राय जी एक बार फिर शुद्ध साहित्यिक पोस्ट।
    ब्लॉग जगत के लिए किसी धरोहर से कम नहीं है।

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  4. भाव पर विस्तृत वर्णन.बहुत ज्ञान वर्धक पोस्ट है.
    आभार.

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  5. सटपटाति सी ससिमुखी, मुख घूँघट पट ढाँकि।
    पावक झर सी झमकि कै, गई झरोखे झाँकि।।

    जितना सुंदर दोहा है उतनी ही सुंदर आपने व्याख्या की है...
    साधुवाद.

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  6. भाव
    के विषय में
    सब कुछ भाव-प्रधान ही है
    सब संग्रहनीय ,, मननीय .........

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  7. भारतीय काव्य शास्त्र का गहन ज्ञान हम सबके साथ साँझा करने के लिए आपका आभार

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  8. काव्यशास्त्र पर विशद चर्चा इस ब्लाग पर आभरण रूप में सुशोभित है। यह हम सब के लिए बहुत उपयोगी है। इस महती कार्य के लिए आचार्य राय का आभारी हूँ।

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  9. आचार्यवर,
    नमस्कार !
    विलम्ब से कक्षा में आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ. अस्वस्थ्य होने के कारण कल पढ़ नहीं पाया था. यह पोस्ट निहायत ही आवश्यक था. दरअसल अल्पज्ञान या अनाभ्यास के कारण भाव/रस/रसाभास/भावाभास आदि में प्रायः भ्रम हो जाया करता है. मुझे तो बहुत ही अच्छा, उपयोगी एवं ताजगी भरा लगा. धन्यवाद !!

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  10. रस , भाव और भावाभास के बारे में सीखा , अच्छा लगा ।
    आभार।

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