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बुधवार, 18 जुलाई 2012

स्मृति शिखर से – 17 : वे लोग : भाग - 6

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-- करण समस्तीपुरी

बड़ा भारी कलाकार था वह। जब से मैंने देखा हट्ठा-कट्ठा व्यस्क। नीचे लुंगी अक्सर घुटने से उपर और उपर बनियान। जाड़े में फ़टा-पुराना स्वेटर बनियान के उपर आ जाता था या एक कंबलनुमा चादर। बरसात से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। भींगता हुआ चलता था। चलते-चलते सूख भी जाता था। हमारे गाँव के पास या यूँ कहें कि हमारे गाँव के ही दूसरे हिस्से ‘रामपुर समथु’ में उसके पूर्वजों का घर था। मगर वह अजब यायावर था। हमेशा घूमता ही रहता था। कहीं एक जगह घंटा – दो घंटा टिक कर रहना मना था उसके लिए।

बोली तुतली थी। लेकिन कला उसके रग-रग में था। वह वैरागी था और अयाची भी। भूख-प्यास भी उसे नहीं लगती थी शायद। अगर किसी ने श्रद्धावश कुछ दे दिया तो ग्रहण कर लिया वरना उसका काम तो पानी से ही चल जाता था जिस पर गाँव में कोई पावंदी नहीं होती है। दो बड़े शौक थे उसके। एक गंगा स्नान और दूसरा नाटक देखना। किसी की शव-यात्रा हो यदि उसने देख लिया तो अवश्य शामिल होता था गंगा-स्नान के लोभ में। गंगा पहुँचे तो ठीक अन्यथा एक-आध घंटे में श्मसान से अपने रास्ते। वैसे उसके लिए हर नदी गंगा ही होती थी लेकिन सिमरिया-घाट और राजेन्द्र पूल उसे कुछ अधिक प्रिय थे।

नाटकों से उसे कुछ अधिक ही लगाव था। आस-पास दस मील के अंदर नाटक या विदेसिया नाच की खबर होनी चाहिए। नंदकिशोर वहाँ पहुँच ही जाएगा। इस आदत ने बेचारे को कई बार झूठी सूचना का शिकार भी बना दिया था पुनश्च उसकी आदत नहीं बदली। उसका जीवन भी तो एक जीवंत नाटक था। वैसे तो हम सब का जीवन ही एक नाटक है किन्तु उसके जीवन में नाटकों के कई चरित्र, कई रंग, कई साज सजीव थे। तुतली बोली में ही वह हर किरदार की शानदार नकल कर सकता था। किरदार ही क्यों वह तो संगीत के कई साजों के आवाज भी मुँह से निकाल लेता था। विश्वास कीजिए, उसके मुँह में सरस्वती बसती थी। उसका मुँह नहीं मल्टी-म्युजिकल-इंस्ट्रूमेंट था। तबला, हारमोनियम, सारंगी, शहनाई, बाँसुरी उसके मुँह और हाथ की कलाकारी से मुखर हो जाते थे।

आज छोटे-बड़े पर्दे पर आने वाले अनेक स्टैंड-अप कामेडियन से वह हजार-गुणा अधिक प्रभावशाली था। गजब का कैरीकेचर करता था। अनेक जानवरों के आवाज निकालने में भी माहिर। कुत्ते का छोटा पिल्ला दूध के लिए कैसे कूँ-कूँ करता है। थोड़ा बड़ा होने पर कैसे भौंकता है, बड़े और बलशाली कुत्ते कैसे आपस में लड़ते हैं। मतलब कि कुत्तों की अवस्थावार बोली का तो वह स्पेसलिस्ट था। बिल्लियाँ कैसे बोलती और लड़ती हैं, पंडीतजी की भैंस कैसे रंभाती है, घोड़ा कैसे हिनहिनाता है और तांगा चलने पर कैसी आवाज होती है। गाँव के खेतों में गीदर कैसे बोलते हैं और सिमरिया-घाट शमसान में गीदर की आवाज कैसी होती है। छोटी-लाइन की रेलगाड़ी कैसे आवाज करती है और बड़ी लाइन की रेलगाड़ी कैसे। डीजल-इंजन और कोयला-इंजन दोनों की आवाज। बारिश कैसे होती है, कबूतर कैसे उड़ते हैं वगैरह-वगैरह.... सब कुछ उसकी जिह्वा पर था।

इनके अतिरिक्त कुछ ऐसी कलाकारी थी जो मैंने सिर्फ़ नंदकिशोर में ही देखी है। वह डगरा-नचाने में भी मास्टर था। डगरा बोलते हैं बाँस का बना बड़ा सा गोल पात्र होता है जिससे अन्न को झटकने का काम किया जाता है। अगर डगरा उपलब्ध नहीं हो तो थाली या परात भी नचा देता अपनी अंगुलियों पर। घंटो-घंटा सुदर्शन चक्र की तरह नचाता रहता था। तर्जनी पर नचाते-नचाते उछाल कर मध्यमा पर ले लेता था। इसी प्रकार पाँचों अंगुलियों पर बारी-बारी से नचाता और वह भी बिना रुके। एक बार बाबू जानकी-शरण तो उसके पैर ही पड़ गए। साक्षात कृष्ण भगवान लगते हैं।

उसमें देशभक्ती की बयार भी कूट-कूट कर भरी है। हर पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को वह बड़ा सा तीरंगा एक लंबी लाठी में लहराता हुआ हर प्रभात-फेरी में शामिल हो जाता था। अंततः हमारे विद्यालय पर अवश्य आता था। खुद भीड़ में रहेगा लेकिन झंडा न छोड़ सकता था न झुका सकता था। दोनों हाथों से सर के उपर पकड़ कर रखता था तिरंगे को। गाँव में भी पार्टी-पालिटिक्स आ गया था। रैली और जुलुस भी निकलते थे। लेकिन नंदकिशोर के लिए सभी जुलुस-रैली पंद्रह अगस्त की प्रभात-फेरी जैसे ही थे। कोई पार्टी, कोई झंडा, कोई नारा....। नंदकिशोर तिरंगा लेकर ही जाता था और वही नारा लगाता था जो उसने बचपन से सीखा था, “बंदे-मातरम ! महात्मा गाँधी अमर रहें। वीर भगत सिंह जिंदावाद। भारत माता की जय।”

उसे माइक पर बोलने का भी बड़ा शौक था। एक दल-विशेष के जुलुस में मौका मिलने पर जोड़-जोड़ से नारे लगाने लगा, “हमारा नेता कैसा हो.... सुभाषचन्द्र वोस जैसा हो। महात्मा गाँधी जिंदावाद...!” आयोजकों का कोपभाजन बनना पड़ा उस निस्पृह व्यक्ति को। मार-पिटाई हुई उपर से। देशभक्ति से मोहभंग हो गया। आज-कल ईश्वरभक्ति में जुट पड़ा है। पिछली बार गाँव गया तो भेंट हुई थी, बाबा नंदकिशोरजी महाराज से। अब लुँगी नहीं धोती पहनते हैं। दाढ़ी बढ़ा रखी है। सारा कैरीकेचर भूल चुके हैं। तीन वाक्य ही बोलते हैं, “जय महादेव। ओम नमः शिवाय । हर-हर महादेव।“ समथू चौक के पास शिवजी का मंदिर बनाने का निश्चय किया है उन्होंने। अब कहीं नहीं आते-जाते हैं। उसी चौक पर रहते हैं। हर आने-जाने वाले को चंदन-टीका लगा कर मिसरी-इलायची दाना बाँटते हैं। अयाची से याचक हो गए हैं। कठोर दृढ़निश्चयी जीव हैं। पर्याप्त ईंट इकट्ठी हो चुकी है। लोग अब उनका मजाक भी नहीं उड़ाते हैं। सबको विश्वास हो गया है कि बाबा नंदकिशोर शिव-मंदिर बनाकर ही रहेंगे।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

स्मृति शिखर से– 8: वे लोग, भाग - 1

-- करण समस्तीपुरी
बिहार प्रांत का सरैसा परगना। गंगा, गंडक और बागमती की धाराओं के बीच बसा है समस्तीपुर मंडल। पूरब दिशा में रास्ते का दसवां किलोमीटरी पत्थर पार करते ही मेरा गाँव शुरु हो जाता है। बीच से गुजरने वाली पूर्वोत्तर रेलपथ उसे दो भागों में बांट देता है। ठीक उसी तरह जैसे अंबूजा सिमेंट से बनी बीच की दीवार दो भाइयों के घरों को।
मेरी गाँव की मिट्टी उर्वरा तो है ही, बड़ी मृदु भी है। पहली बार उसी की गोद में कदम बढ़ाना सीखा था। असंख्य बार गिरा... चोट कभी नहीं लगी गोया ऐसा लगा कि माँ का कोमल अंक मेरे गात को सहला रहा हो। मेरे गाँव में पेड़-पौधे भी संवेदना रखते हैं। निदाघ जेठ में जब कहीं एक पत्ती भी ना हिल रही हो, मेरे घर के कोने पर खड़ा अंवाला पेड़ की छांव में हम भर दोपहरी बड़े आराम से गिल्ली-डंडा खेलते थे। सच में गर्मी का पता तक नहीं चलता था। अब वो पेड़ नहीं रहा... अबके पेड़ों में वह प्रकृति नहीं रही।
एक और पेड़ था, बरगद का। पोखर के किनारे। ये बड़ी-बड़ी जटाएं थी। साधु वृक्ष। उसकी टहनी क्या पत्ते-पत्ते लोग लदे रहते। झटकना-झिड़कना तो दूर कभी किसी को डराता तक नहीं था। प्रलय-प्रभंजन में भी सुस्थिर रहता था। और तो और उसकी दाढ़ी जैसी लंबी जटाओं को पकर कर हम झूलते रहते थे, कभी उफ़ तक नहीं कहा बेचारे ने...! आह...! क्या वात्सल्य था उस पेड़ में... बिल्कुल दादा जी की तरह।
पुराने जमाने का पेड़ था। स्वभाव भी पुराना ही था। नयी व्यवस्था ने उसकी जड़ें क्षीण कर दी थी। एक दिन पछुआ हवा के हल्के झोकें ने उसे जड़ से उखार फेंका। तब से उसकी छाँव में सदा कल-कल बहने वाला सरोवर भी सूख गया। अब तो षष्ठी-व्रत में सूर्य देवता को अर्घ्य देने के लिए भी दमकल से पानी भरना पड़ता है।
पुराना युग नहीं रहा। पुराने लोग नहीं रहे... बहुत कुछ मैंने नहीं देखा...। जो कुछ मैंने देखा उसकी सुखद स्मृति मेरे भविष्य की संपत्ति है। मैंने बड़ी सिद्दत से उन्हे संजोए रखा है। शायद ये उनके काम आ जाए जो अब उनमें से कुछ नहीं देख पाएंगे। एक शे’र अर्ज़ करता हूँ,
“पुराने लोग ग़जब का मिज़ाज रखते थे।
खुद को बेच पड़ोसी की लाज रखते थे।
सुना है भूख से वो लोग मर गए मंजर,
मुट्ठियों में जो छुपाकर अनाज रखते थे॥”
मेरे दादा जी भी ऐसे ही थे। हम उन्हें बाबा कहते थे। घर-परिवार की फ़िक्र उन्होंने कभी नहीं की। लेकिन उनकी जानकारी में गाँव में कोई भूखा-बीमार नहीं रहना चाहिए। अपनी पेंशन, कर्ज, उधार, चंदा या अपनी नई धोती या जमीन बेचकर भी दूसरों की मदद को तत्पर रहते थे। मझली फ़ुआ बोकारो में रहती थी। अभी भी रहती हैं। कई बार आने का आग्रह की थी। बाबा हर बार पैसे की तंगी का हवाला देकर टाल जाते थे। दो-चार बार मनि-आर्डर से पैसे भी भेजी थी। वह भी समाज-सेवा में चले गए। छोटे बाबा उन दिनों मुजफ़्फ़रपुर में रेलवे में कार्यरत थे। आखिर उन्हे कह कर आरक्षित टिकट भिजवाया था।
नियत यात्रा से एक सप्ताह पहले पड़ोस में रहने वालेP5160440_thumb[6] एक सज्जन के घर पुत्रोत्पन्न हुआ। प्रातः बेचारे बाबा के सामने आ बैठे, “जच्चा-बच्चा की देख-भाल कैसे होगी? घर में तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं है।” बाबा की पेंशन महीने के पहले सप्ताह में ही समाप्त हो जाती थी। इतनी जल्दी कहीं से कर्ज-उधार मिलने की भी उम्मीद नहीं थी। बाबा ने रेल का आरक्षित टिकट उनके हाथों में देते हुए कहा, “इसे रद्द करवा लो... पचहत्तर रुपये मिल जाएंगे। अभी काम चल जाएगा। आगे के लिए और देखते हैं।” बाबा अब नहीं हैं लेकिन वह परिवार दिल्ली में सकुशल जीवन निर्वाह कर रहा है। वह नवजात अब तो व्यस्क और आत्म-निर्भर हो गया होगा।
धूसर ग्रामीण अंचल ऐसे अगणित मनुज-रत्नों से दीप्त है। जब कभी कार्य से निस्तार पाता हूँ, वो गाँव, वे दिन, वे लोग, वो बातें, वो हरे-सुनहरे खेत, खाली खेतों में चरते मवेशी, खेत के मेड़ों पर गाते चरवाहे, वो पेड़-पौधे, कुआँ-पोखर, वो आबोहवा.... सब कुछ चलचित्र की भाँति मेरी स्मृति में दौड़ने लगते हैं। इस शृंखला में ऐसे कुछ और नर-रत्नों को मैं याद करुँगा आपके साथ हफ़्ता-दर-हफ़्ता।