फ़ुरसत में ... 112
हम भी आदमी थे काम के
मनोज कुमार
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥
कल्पना करें - कितना अच्छा लगेगा जब एक लड़का डिग्री लेकर दौड़ता हुआ अपने माता-पिता के पास आएगा और उनके चरणों में नतमस्तक होकर कहेगा – हे माते! हे तात!! मेरी मेहनत रंग लाई और आपलोगों के अशीष और शुभकमनाओं का फल है कि आज मैं `LOVE’ में पोस्ट-ग्रैजुएट हो गया हूं। फिर जिसे वो मन ही मन चाहता था उसके पास दौड़ा हुआ जाएगा और कहेगा – हे प्रिये! इस लव में पोस्ट ग्रैजुएट इंसान का प्रेम स्वीकार करो! प्रेमिका बड़े नखरे और अदा से कहेगी, ‘अहो! तुम्हें विलम्ब हो गया! अब मुझे ‘लव’ पर रिसर्च कर चुके इंसान को अपना जीवन-साथी वरन करना है।’ इस तरह प्रेम पर पी-एच.डी. किए प्रेमी का प्रेम बाज़ार में महत्त्व काफ़ी बढ़ जाएगा। ... और प्रोफ़ेसर और प्रिंसिपल की तो चांदी ही होगी। फिर तो वह पुराना और घिसा-पिटा डायलॉग नए रूप में अपनी चमक-दमक बिखराते हुए दिखेगा –“ बच्चे! मैं उस College का प्रोफ़ेसर हूं जिसके तुम स्टुडेंट हो।” और शान से कहेंगे –
रोम-रोम रस पीजिए, ऐसी रसना होय;
‘दादू’ प्याला प्रेम का, यौं बिन तृपिति न होय।
सन्दर्भ कुछ यूँ है कि कोलकाता का एक महाविद्यालय जो देश का सबसे पुराने महाविद्यालयों में से एक था, आजकल विश्विद्यालय का दर्ज़ा पा चुका है। ख़बर है कि ‘लव’ को उसके पाठ्यक्रमों में शामिल कर लिया गया है। सुनने में आया है कि अमेरिका के मैसचुसेट्स विश्विद्यालय में ‘सोशियोलॉजी ऑफ लव’ पढ़ाया जात है। हो सकता है यह धारणा वहीं से उठा ली गई हो। हम अंधानुकरण करने में माहिर तो हैं ही। यूँ कि देखने वाली बात ये होगी कि जिस ‘प्यार’ को पढ़ाया जायेगा वह देसी होगा या विदेशी, यह उत्सुकता का विषय है। देसी प्यार तो आर्ट फ़िल्म की तरह धीरे-धीरे परवान चढ़ता है। विदेशी प्यार में जो जलवे हैं, उसे हमारे यहां बड़े चाव से देखा-सुना जाता रहा है। सो प्यार का विदेशी संस्करण ‘लव’, चाहे वह पढ़ाई के रूप में ही क्यों न हो, हमें ख़ूब भाएगा, उम्मीद तो यही की जा रही है।
घोषित (?) यह पाठ्यक्रम सभी वर्ग के स्टूडेंट्स को आकर्षित कर रहा है। कहा जा रहा है कि इस पाठ्यक्रम के ज़रिए छात्रों को प्रेम के प्रति संवेदनशील बनाया जाएगा। पाठ्यक्रम के विषय – द ट्रान्सफॉर्मेशन ऑफ इन्टिमेसी, सेक्सुअलिटी, लव एंड एरोटीसिज़्म, लिक्विड लव, द आर्ट ऑफ लविंग आदि पर तनिक ग़ौर करें तो समझ में आएगा कि इस पाठ्यक्रम से संवेदना बेचारी तो दहाड़ मारकर फूट ही पड़ेगी।
प्रेम का इतिहास और ऐतिहासिक प्रेमी और उसकी प्रासंगिकता के विषयों में पढ़ना कितना रोचक रहेगा!
लोगों का कहना है कि अब तक शिक्षा के क्षेत्र में भावनाओं को कोई जगह नही दी गई थी। इस पाठ्यक्रम के आ जाने से एक अच्छी शुरूआत हुई है, यह तो माना जा ही सकता है। कल को ईर्ष्या, नफ़रत, घृणा, धोखा, अफेयर्स-ब्रेकअप, आदि विषयों के लिए रास्ते खुलेंगे और इन्हें सीरियसली लिया जाएगा। अब तो जैसे हर सेशन के बाद दर्जनों ‘लव गुरु’ विश्विद्यालयों से निकलेंगे, वैसे ही कल को ‘ब्रेकअप गुरु’, ‘नफ़रत गुरु’ और ‘धोखा गुरु’ की भी तैयारी कराने वाले पाठ्यक्रम आ जाने से ऐसे गुरुओं की कमी नहीं रहेगी।
इस पाठ्यक्रम में दाखिला लेने की होड़ अभी से शुरू हो गई है। पहले प्यार की तरह “पहला फॉर्म” भरने का चार्म हर किसी को आकर्षित कर रहा है। हो भी क्यों नहीं, इस विषय के अकादमिक-इतिहास में उनका नाम पहले विद्यार्थी के रूप में सदा के लिए दर्ज़ जो हो जाएगा। दूसरी बात जो उभर कर सामने आ रही है वह यह सम्भावना कि लोग इस कोर्स में दाखिला लेने के बाद पास ही नहीं करना चाहेंगे।
मक़तबे इश्क़ में इक ढंग निराला देखा
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक़ याद हुआ।
क्लासेज़ इतनी रोचक होगी कि शायद ही कोई अनुपस्थित होना चाहेगा। यानी शत-प्रतिशत अटेंडेंस की गारंटी ही समझिए।
जेहि के हियँ पेम रंग जामा। का तेहि भूख नींद बिसरामा।
कितने रोचक स्पेशल-पेपर होंगे .. देसी मजनूं/लैला, या फिर विदेशी रोमियो/जुलियट ..। जब किसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में इस विषय के विद्वानों को बुलाया जाएगा तो उद्घोषक कहेगा कि हमारे बीच प्रेम के प्रकांड पंडित मौज़ूद हैं और श्रोताओं की तालियों से सारा हॉल गूंज उठेगा। इन ढ़ाई आखर वालों का सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा। सुनने में आया है कि यह विषय ‘LOVE’ के नाम से जाना जाएगा। अच्छा ही है। प्रेम या प्यार में तो ढाई आखर ही होते हैं। इसे पढ़ने वाले एक और क्रेडिट ले जाएंगे कि वे चार आखर के ज्ञाता हैं। वैसे भी LOVE में जो खुलापन है, आज़ादी है, मस्ती है, ... वह प्यार में कहां!
कॉस्मेटिक्स की बिक्री बढ़ेगी। पुरुष और महिलाएं दोनों वैनिटी बैग लेकर निकला करेंगे। सज-संवर कर घर से निकलने वाले विद्यार्थियों को भी उस तरह के अभिभावकों से मुफ़्त की डांट नहीं सुननी पड़ेगी, जो कल तक कहते रहे हैं, कि “कॉलेज में तुम यही सब (लव-शव) पढ़ने जाते हो?” बल्कि अब छात्र सिर ऊँचा कर कहेगा कि “मैं तो इसके (लव-शव) फाइनल ईयर का छात्र हूँ।”
कई विषयों को लेकर यूं ही प्रतिस्पर्द्धा रहती है कि वह प्राकृतिक विज्ञान की श्रेणी में है या सामाजिक विज्ञान की श्रेणी में। इस विषय के जुड़ जाने से यह प्रतियोगिता और भी गहरा जाएगी। छात्रों को भी उत्सुकता है कि उन्हें कला संकाय में जाना होगा या विज्ञान संकाय में। एक गुप्त सर्वेक्षण के अनुसार यह पता चला है कि छात्र भी यह चाहते हैं कि इसे विज्ञान संकाय में जगह मिले। कला तो भावना, संभावना और कल्पना पर आधारित होती है। विज्ञान तो प्रैक्टिकल के आधार पर सत्य का साक्षात्कार कराता है। इसलिये ‘लव’ में दाखिला लेने के बाद जब प्रैक्टिकल भी करने को मिल जाए तो फिर तो सोने पर सुहागा है।
इस डिग्री को पाकर यदि विद्यार्थियों को नैकरी मिल गई तो चांदी ही चांदी, वरना यह शे’र तो गुनगुना ही सकते हैं,
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया।
वरना हम भी आदमी थे काम के॥
अब उन चचा को कौन समझाए जो कह रहे हैं कि ‘सौहार्द्र, नैतिक शिक्षा की बात होती तो देश का माहौल सुधरता। प्रेम की पाठशाला खुल रही है, ... संस्कारों की अवहेलना पता नहीं हमें कहां तक ले जाएगी?’
अरे चाचा,
अकथ कहानी प्रेम की, कछू कही न जाइ।
गूंगे केरी सरकरा खावै अरु मुसकाइ॥
इसीलिए ---
दादू पाती प्रेम की, बिरला बाँचै कोई।
वेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई॥
और हमारे जैसे कई ब्रिलियेण्ट लोग, यह सोचकर, मन मसोस कर, रह गये होंगे कि काश यह कोर्स कुछ साल पहले शामिल हो गया होता, तो आज हम भी समाज की सम्वेदनशीलता में इजाफ़ा कर रहे होते। लेकिन अब पछताने से क्या लाभ जब समय की चिड़िया ने सिर की सारी खेती चुग डाली है।
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