शनिवार, 31 अगस्त 2013

फ़ुरसत में ... हम भी आदमी थे काम के

फ़ुरसत में ... 112

हम भी आदमी थे काम के

मनोज कुमार

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।

ढाई   आखर   प्रेम   का,   पढ़ै   सो    पंडित   होइ॥

कल्पना करें - कितना अच्छा लगेगा जब एक लड़का डिग्री लेकर दौड़ता हुआ अपने माता-पिता के पास आएगा और उनके चरणों में नतमस्तक होकर कहेगा – हे माते! हे तात!! मेरी मेहनत रंग लाई और आपलोगों के अशीष और शुभकमनाओं का फल है कि आज मैं `LOVE’ में पोस्ट-ग्रैजुएट हो गया हूं। फिर जिसे वो मन ही मन चाहता था उसके पास दौड़ा हुआ जाएगा और कहेगा – हे प्रिये! इस लव में पोस्ट ग्रैजुएट इंसान का प्रेम स्वीकार करो! प्रेमिका बड़े नखरे और अदा से कहेगी, ‘अहो! तुम्हें विलम्ब हो गया! अब मुझे ‘लव’ पर रिसर्च कर चुके इंसान को अपना जीवन-साथी वरन करना है।’ इस तरह प्रेम पर पी-एच.डी. किए प्रेमी का प्रेम बाज़ार में महत्त्व काफ़ी बढ़ जाएगा। ... और प्रोफ़ेसर और प्रिंसिपल की तो चांदी ही होगी। फिर तो वह पुराना और घिसा-पिटा डायलॉग नए रूप में अपनी चमक-दमक बिखराते हुए दिखेगा –“ बच्चे! मैं उस College का प्रोफ़ेसर हूं जिसके तुम स्टुडेंट हो।” और शान से कहेंगे –

रोम-रोम   रस     पीजिए,    ऐसी    रसना      होय;

‘दादू’ प्याला प्रेम का, यौं बिन तृपिति न होय।

सन्दर्भ कुछ यूँ है कि कोलकाता का एक महाविद्यालय जो देश का सबसे पुराने महाविद्यालयों में से एक था, आजकल विश्विद्यालय का दर्ज़ा पा चुका है। ख़बर है कि ‘लव’ को उसके पाठ्यक्रमों में शामिल कर लिया गया है। सुनने में आया है कि अमेरिका के मैसचुसेट्स विश्विद्यालय में ‘सोशियोलॉजी ऑफ लव’ पढ़ाया जात है। हो सकता है यह धारणा वहीं से उठा ली गई हो। हम अंधानुकरण करने में माहिर तो हैं ही। यूँ कि देखने वाली बात ये होगी कि जिस ‘प्यार’ को पढ़ाया जायेगा वह देसी होगा या विदेशी, यह उत्सुकता का विषय है। देसी प्यार तो आर्ट फ़िल्म की तरह धीरे-धीरे परवान चढ़ता है। विदेशी प्यार में जो जलवे हैं, उसे हमारे यहां बड़े चाव से देखा-सुना जाता रहा है। सो प्यार का विदेशी संस्करण ‘लव’, चाहे वह पढ़ाई के रूप में ही क्यों न हो, हमें ख़ूब भाएगा, उम्मीद तो यही की जा रही है।

घोषित (?) यह पाठ्यक्रम सभी वर्ग के स्टूडेंट्स को आकर्षित कर रहा है। कहा जा रहा है कि इस पाठ्यक्रम के ज़रिए छात्रों को प्रेम के प्रति संवेदनशील बनाया जाएगा। पाठ्यक्रम के विषय – द ट्रान्सफॉर्मेशन ऑफ इन्टिमेसी, सेक्सुअलिटी, लव एंड एरोटीसिज़्म, लिक्विड लव, द आर्ट ऑफ लविंग आदि पर तनिक ग़ौर करें तो समझ में आएगा कि इस पाठ्यक्रम से संवेदना बेचारी तो दहाड़ मारकर फूट ही पड़ेगी।

प्रेम का इतिहास और ऐतिहासिक प्रेमी और उसकी प्रासंगिकता के विषयों में पढ़ना कितना रोचक रहेगा!

लोगों का कहना है कि अब तक शिक्षा के क्षेत्र में भावनाओं को कोई जगह नही दी गई थी। इस पाठ्यक्रम के आ जाने से एक अच्छी शुरूआत हुई है, यह तो माना जा ही सकता है। कल को ईर्ष्या, नफ़रत, घृणा, धोखा, अफेयर्स-ब्रेक‍अप, आदि विषयों के लिए रास्ते खुलेंगे और इन्हें सीरियसली लिया जाएगा। अब तो जैसे हर सेशन के बाद दर्जनों ‘लव गुरु’ विश्विद्यालयों से निकलेंगे, वैसे ही कल को ‘ब्रेक‍अप गुरु’, ‘नफ़रत गुरु’ और ‘धोखा गुरु’ की भी तैयारी कराने वाले पाठ्यक्रम आ जाने से ऐसे गुरुओं की कमी नहीं रहेगी।

इस पाठ्यक्रम में दाखिला लेने की होड़ अभी से शुरू हो गई है। पहले प्यार की तरह पहला फॉर्म भरने का चार्म हर किसी को आकर्षित कर रहा है। हो भी क्यों नहीं, इस विषय के अकादमिक-इतिहास में उनका नाम पहले विद्यार्थी के रूप में सदा के लिए दर्ज़ जो हो जाएगा। दूसरी बात जो उभर कर सामने आ रही है वह यह सम्भावना कि लोग इस कोर्स में दाखिला लेने के बाद पास ही नहीं करना चाहेंगे।

मक़तबे    इश्क़    में    इक    ढंग    निराला     देखा

उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक़ याद हुआ।

क्लासेज़ इतनी रोचक होगी कि शायद ही कोई अनुपस्थित होना चाहेगा। यानी शत-प्रतिशत अटेंडेंस की गारंटी ही समझिए।

जेहि के हियँ पेम रंग जामा। का तेहि भूख नींद बिसरामा।

कितने रोचक स्पेशल-पेपर होंगे .. देसी मजनूं/लैला, या फिर विदेशी रोमियो/जुलियट ..। जब किसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में इस विषय  के विद्वानों को बुलाया जाएगा तो उद्घोषक कहेगा कि हमारे बीच प्रेम के प्रकांड पंडित मौज़ूद हैं और श्रोताओं की तालियों से सारा हॉल गूंज उठेगा। इन ढ़ाई आखर वालों का सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा। सुनने में आया है कि यह विषय ‘LOVE’ के नाम से जाना जाएगा। अच्छा ही है। प्रेम या प्यार में तो ढाई आखर ही होते हैं। इसे पढ़ने वाले एक और क्रेडिट ले जाएंगे कि वे चार आखर के ज्ञाता हैं। वैसे भी LOVE में जो खुलापन है, आज़ादी है, मस्ती है, ... वह प्यार में कहां!

कॉस्मेटिक्स की बिक्री बढ़ेगी। पुरुष और महिलाएं दोनों वैनिटी बैग लेकर निकला करेंगे। सज-संवर कर घर से निकलने वाले विद्यार्थियों को भी उस तरह के अभिभावकों से मुफ़्त की डांट नहीं सुननी पड़ेगी, जो कल तक कहते रहे हैं, कि “कॉलेज में तुम यही सब (लव-शव) पढ़ने जाते हो?” बल्कि अब छात्र सिर ऊँचा कर कहेगा कि “मैं तो इसके (लव-शव) फाइनल ईयर का छात्र हूँ।”

कई विषयों को लेकर यूं ही प्रतिस्पर्द्धा रहती है कि वह प्राकृतिक विज्ञान की श्रेणी में है या सामाजिक विज्ञान की श्रेणी में। इस विषय के जुड़ जाने से यह प्रतियोगिता और भी गहरा जाएगी। छात्रों को भी उत्सुकता है कि उन्हें कला संकाय में जाना होगा या विज्ञान  संकाय में। एक गुप्त सर्वेक्षण के अनुसार यह पता चला है कि छात्र भी यह चाहते हैं कि इसे विज्ञान संकाय में जगह मिले। कला तो भावना, संभावना और कल्पना पर आधारित होती है। विज्ञान तो प्रैक्टिकल के आधार पर सत्य का साक्षात्कार कराता है। इसलिये ‘लव’ में दाखिला लेने के बाद जब प्रैक्टिकल भी करने को मिल जाए तो फिर तो सोने पर सुहागा है।

इस डिग्री को पाकर यदि विद्यार्थियों को नैकरी मिल गई तो चांदी ही चांदी, वरना यह शे’र तो गुनगुना ही सकते हैं,

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया।

वरना हम भी आदमी थे काम के॥

अब उन चचा को कौन समझाए जो कह रहे हैं कि ‘सौहार्द्र, नैतिक शिक्षा की बात होती तो देश का माहौल सुधरता। प्रेम की पाठशाला खुल रही है, ... संस्कारों की अवहेलना पता नहीं हमें कहां तक ले जाएगी?’

अरे चाचा,

अकथ कहानी प्रेम की, कछू कही न जाइ।

गूंगे    केरी   सरकरा   खावै   अरु    मुसकाइ॥

इसीलिए ---

दादू   पाती   प्रेम   की,   बिरला    बाँचै     कोई।

वेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई॥

और हमारे जैसे कई ब्रिलियेण्ट लोग, यह सोचकर, मन मसोस कर, रह गये होंगे कि काश यह कोर्स कुछ साल पहले शामिल हो गया होता, तो आज हम भी समाज की सम्वेदनशीलता में इजाफ़ा कर रहे होते। लेकिन अब पछताने से क्या लाभ जब समय की चिड़िया ने सिर की सारी खेती चुग डाली है।

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गुरुवार, 29 अगस्त 2013

हुआ यूं कि ---

आज फिर से बहुत दिनों के बाद आपके सम्मुख हूं। अब तो यहां आने में भी, हिचक, झिझक ही नहीं शर्म भी महसूस हो रही है। इतने दिनों तक गायब जो रहा। आज भी खुद थोड़े आ रहा था। रश्मि प्रभा जी ने लगभग खींच कर ला दिया है मुझे। … और आज जब उनसे वर्तालाप हो रही थी, तो लगा कि अपने घर-परिवार से दूर इतने दिनों तक क्यूं और कैसे रहा? आज बहुत अच्छा लग रहा है।

हुआ यूं कि ---

फ़ेसबुक ऑन करके बैठा था। तभी चैट में रश्मि प्रभा जी ने एक लिंक पकड़ा दिया। इन दिनों अमूमन दिए गए लिंक्स को इग्नोर ही करता रहा था। पर न जाने क्या सूझी कि मैंने क्लिक कर दिया और अहुंच गये, भूले-बिसरे दिनों के उस रोचक संसार में जहां से जाने की कभी सोची भी न थी, लेकिन पिछले एक साल से अनियमित होकर लगभग उस दुनिया को भूल ही चुका था। यह लिंक मेरे ही एक आलेख का था, जो पिछले साल अपने ब्लॉग के तीन साल पूरे करने पर लिखा था। (लिंक यहां है)। इसमें एक कविता थी और उस कविता में मैंने विषय से हट कर उस ब्लॉग के चौथ की बात कर दी थी। उन दिनों परिस्थितियां कुछ ऐसी हो गई थीं, कि हमें लगने लगा था कि अब और ब्लॉगिंग शायद न हो पाए। और जो मन में आया उसे कविता की पृष्ठभूमि में लिख गया।

कुछ दिनों तक तो इस ब्लॉग को आगे बढ़ाने का साहस दिखाया पर एक पुस्तक (सूफ़ीमत पर) को पूरी करने के चक्कर में ब्लॉग जगत से दूर ही हो गया। (पुस्तक प्रकाशनाधीन है।)

आह! थैन्क्स रश्मि जी। आपने आभी चंद मिनटों पहले कहा कि कुछ लिख कर शुरू कर दीजिए और नहीं कुछ तो उस दिन को याद करके ही …

आज तो आपका आभार। फ़ुरसत में मेरे लिए मेरा बेस्ट होता था। आज जब फिर से पढ़ता हूं, तो खो जाता हूं, नॉस्टॉल्जिक-सा हो जाता हूं। तो मैंने सोचा है कि कुछ BEST OF फ़ुरसत में लेकर आऊंगा और साथ ही नई रचनाएं भी इस ब्लॉग पर लाऊंगा (यदि रच पाया तो)। दुर्भाग्य से विचार ब्लॉग भी खो ही गया है, सो गांधी सीरिज भी यहीं बढ़ाऊंगा।

तो आज के लिए इतना है। लीजिए आज मेरी पसंद का ..

BEST OF फ़ुरसत में …

प्रेम-प्रदर्शन

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मनोज कुमार

एक वो ज़माना था जब वसंत के आगमन पर कवि कहते थे,

अपनेहि पेम तरुअर बाढ़ल

कारण किछु नहि भेला ।

साखा पल्लव कुसुमे बेआपल

सौरभ दह दिस गेला ॥ (विद्यापति)

आज तो न जाने कौन-कौन-सा दिन मनाते हैं और प्रेम के प्रदर्शन के लिए सड़क-बाज़ार में उतर आते हैं। इस दिखावे को प्रेम-प्रदर्शन कहते हैं। हमें तो रहीम का दोहा याद आता है,

रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।

ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन॥

खैर, खून, खांसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान।

रहिमन दाबे ना दबत जान सकल जहान॥

हम तो विद्यार्थी जीवन के बाद सीधे दाम्पत्य जीवन में बंध गए इसलिए प्रेमचंद के इस वाक्य को पूर्ण समर्थन देते हैं, “जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं, केवल एक बंधन में बंध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आसक्ति मात्र है --- जिसका कोई टिकाव नहीं।”

उस दिन सुबह-सुबह नींद खुली, बिस्तर से उठने  ही जा रहा था कि श्रीमती जी का मनुहार वाला स्वर सुनाई दिया, “कुछ देर और लेटे रहो ना।”

जब नींद खुल ही गई थी और मैं बिस्तर से उठने का मन बना ही चुका था, तो मैंने अपने इरादे को तर्क देते हुए कहा, “नहीं-नहीं, सुबह-सुबह उठना ही चाहिए।”

“क्यों? ऐसा कौन-सा तीर मार लोगे तुम?”

मैंने अपने तर्क को वजन दिया, “इससे शरीर दुरुस्त और दिमाग़ चुस्त रहता है।”

अब उनका स्वर अपनी मधुरता खो रहा था, “अगर सुबह-सुबह उठने से दिमाग़ चुस्त-दुरुस्त रहता है, तो सबसे ज़्यादा दिमाग का मालिक दूधवाले और पेपर वाले को होना चाहिए।”

“तुम्हारी इन दलीलों का मेरे पास जवाब नहीं है।” कहता हुआ मैं गुसलखाने में घुस गया। बाहर आया तो देखा श्रीमती जी चाय लेकर हाज़िर हैं। मैंने कप लिया और चुस्की लगाते ही बोला, “अरे इसमें मिठास कम है ..!”

श्रीमती जी मचलीं, “तो अपनी उंगली डुबा देती हूं .. हो जाएगी मीठी।”

मैंने कहा, “ये आज तुम्हें हो क्या गया है?”

“तुम तो कुछ समझते ही नहीं … कितने नीरस हो गए हो?” उनके मंतव्य को न समझते हुए मैं अखबार में डूब गया।

मैं आज जिधर जाता श्रीमती जी उधर हाज़िर .. मेरे नहाने का पानी गर्म, स्नान के बाद सारे कपड़े यथा स्थान, यहां तक कि जूते भी लेकर हाजिर। मेरे ऑफिस जाने के वक़्त तो मेरा सब काम यंत्रवत होता है। सो फटाफट तैयार होता गया और श्रीमती जी अपना प्रेम हर चीज़ में उड़ेलती गईं।

मुझे कुछ अटपटा-सा लग रहा था। अत्यधिक प्रेम अनिष्ट की आशंका व्यक्त करता है।

जब दफ़्तर जाने लगा, तो श्रीमती जी ने शिकायत की, “अभी तक आपने विश नहीं किया।”

मैंने पूछा, “किस बात की?”

बोलीं, “अरे वाह! आपको यह भी याद नहीं कि आज वेलेंटाइन डे है!”

ओह! मुझे तो ध्यान भी नहीं था कि आज यह दिन है। मैं टाल कर निकल जाने के इरादे से आगे बढ़ा, तो वो सामने आ गईं। मानों रास्ता ही छेक लिया हो। मैंने कहा, “यह क्या बचपना है?”

उन्होंने तो मानों ठान ही लिया था, “आज का दिन ही है, छेड़-छाड़ का ...”

मैंने कहा, “अरे तुमने सुना नहीं टामस हार्डी का यह कथन – Love is lame at fifty years! यह तो बच्चों के लिए है, हम तो अब बड़े-बूढ़े हुए। इस डे को सेलिब्रेट करने से अधिक कई ज़रूरी काम हैं, कई ज़रूरी समस्याओं को सुलझाना है। ये सब करने की हमारी उमर अब गई।”

“यह तो एक हक़ीक़त है। ज़िन्दगी की उलझनें शरारतों को कम कर देती हैं। ... और लोग समझते हैं ... कि हम बड़े-बूढ़े हो गए हैं।

“बहुत कुछ सीख गई हो तुम तो..।”

वो अपनी ही धुन में कहती चली गईं,

“न हम कुछ हंस के सीखे हैं,

न हम कुछ रो के सीखे है।

जो कुछ थोड़ा सा सीखे हैं,

तुम्हारे हो के सीखे हैं।”

images (1)मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिए विषय बदला, “पर तुम्हारी शरारतें तो अभी-भी उतनी ही (अधिक) हैं जितनी पहले हुआ करती थीं ...”

उनका जवाब तैयार था, “हमने अपने को उलझनों से दूर रखा है।”

उनकी वाचालता देख मैं श्रीमती जी के चेहरे की तरफ़ बस देखता रह गया। मेरी आंखों में छा रही नमी को वो पकड़ न लें, ... मैंने चेहरे को और भी सीरियस कर लिया। चेहरे को घुमाया और कहा, “तुम ये अपना बचपना, अपनी शरारतें बचाए रखना, ... बेशक़ीमती हैं!”

अपनी तमाम सकुचाहट को दूर करते हुए बोला, “लव यू!”

और झट से लपका लिफ़्ट की तरफ़।

शाम को जब दफ़्तर से वापस आया, तो वे अपनी खोज-बीन करती निगाहों से मेरा निरीक्षण सर से पांव तक करते हुए बोली, “लो, तुम तो खाली हाथ चले आए …”

“क्यों, कुछ लाना था क्या?”

बोलीं, “हम तो समझे कोई गिफ़्ट लेकर आओगे।”

मन ने ‘उफ़्फ़’ ... किया, मुंह से निकला, “गिफ़्ट की क्या ज़रूरत है? हम हैं, हमारा प्रेम है। जब जीवन में हर परिस्थिति का सामना करना ही है (एक साथ) तो प्रेम से क्यों न करें?

लेकिन वो तो अटल थीं, गिफ़्ट पर। “अरे आज के दिन तो बिना गिफ़्ट के नहीं आना चाहिए था तुम्हें, इससे प्यार बढ़ता है।”

मैंने कहा, “गिफ़्ट में कौन-सा प्रेम रखा है? ...” अपनी जेब का ख्याल मन में था और ज़ुबान पर, जो प्रेम किसी को क्षति पहुंचाए वह प्रेम है ही नहीं। मैंने अपनी बात को और मज़बूती प्रदान करने के लिए जोड़ा, “टामस ए केम्पिस ने कहा है – A wise lover values not so much the gift of the lover as the love of the giver. और मैं समझता हूं कि तुम बुद्धिमान तो हो ही।”

उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि आज ... यानी प्रेम दिवस पर उनके प्रेम कभी भी बरस पड़ेंगे। मेरा बार बार का एक ही राग अलापना शायद उनको पसंद नहीं आया। सच ही है, जीवन कोई म्यूज़िक प्लेयर थोड़े है कि आप अपना पसंदीदा गीत का कैसेट बजा लें और सुनें। दूसरों को सुनाएं। यह तो रेडियो की तरह है --- आपको प्रत्येक फ्रीक्वेंसी के अनुरूप स्वयं को एडजस्ट करना पड़ता है। तभी आप इसके मधुर बोलों को एन्ज्वाय कर पाएंगे।

मैंने सोचा मना लेने में हर्ज़ क्या है? अपने साहस को संचित करता हुआ रुष्टा की तरफ़ बढ़ा।

“हे प्रिये!”

“क्या है ..(नाथ) ..?”

“(हे रुष्टा!) क्रोध छोड़ दे।”

“गुस्सा कर के मैं कर ही क्या लूंगी?”

“मुझे अपसेट (खिन्न) तो किया ही ना ...”

“हां-हां सारा दोष तो मुझमें ही है।”

“चेहरे से से लग तो रहा है कि अब बस बरसने ही वाली हो।”

“तुम पर बरसने वाली मैं होती ही कौन हूं?”

“मेरी प्रिया हो, मेरी .. (वेलेंटाइन) ...”

“वही तो नहीं हूं, इसी लिए ,,, (अपनी क़िस्मत को कोस रही हूं) ...”

"खबरदार! ऐसा कभी न कहना!!"

"क्यों कहूंगी भला! मुझे मेरा गिफ्ट मिल जो गया. सब कुछ खुदा से मांग लिया तुमको मांगकर!"

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