शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

विश्व पर्यटन दिवस


विश्व पर्यटन दिवस

मनोज कुमार


27 सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है। इसकी शुरुआत वर्ष 1980 में संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन के द्वारा हुई। इसी दिन वर्ष 1970 में विश्व पर्यटन संगठन का संविधान स्वीकार किया गया था। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य यह है कि संसार में इस बात को प्रसारित किया जाए कि किस प्रकार पर्यटन वैश्विक रुप से, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक मूल्यों को बढ़ाने में तथा आपसी समझ बढ़ाने में सहायता करता है। यूनाइटेड नेशन वर्ल्ड टूरिज्म ऑर्गेनाइजेशन किसी न किसी देश को इसका मेजबान बनाती है। इस बार का मेजबान देश 'भारत' है। पर्यटन दिवस की जागरुकता को लेकर भी हर साल एक थीम रखी जाती है. इस बार का थीम 'टूरिज्म एंड जॉब: ए बेटर फ्यूचर फॉर ऑल' है। पर्यटन आज दुनियाभर में लगातार बढ़ने वाला और विकासशील आर्थिक क्षेत्र बन गया है और इसीलिए यह विकासशील देशों के लिए नौकरी और आय का मुख्य स्रोत बन चुका है।
भारत सरकार द्वारा पर्यटकों का ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए 2002 में अतुल्‍य भारतयोजना की भी शुरूआत की गई थी।  देश की पर्यटन क्षमता को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने वाला अपने किस्म का यह पहला प्रयास था। इस अभियान का उद्देश्य भारतीय पर्यटन को वैश्विक मंच पर बढ़ावा करना था। इस अभियान ने हिमालय, वन्य जीव, योग और आयुर्वेद पर अंतर्राष्ट्रीय समूह का ध्यान खींचा। इस अभियान के द्वारा देश के पर्यटन क्षेत्र के लिए संभावनाओं के नए द्वार खुले हैं। भारत विश्व के शीर्ष पर्यटक स्थलों में से एक माना जाता है। भारत के विशाल तथा ख़ूबसूरत तटीय क्षेत्र, अछूते वन, शान्त द्वीप समूह, वास्तुकला की प्राचीन, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक परम्परा, रंगमंच तथा कलाकेन्द्र, जनजातीय परंपराएं,  विश्व के विभिन्न देशों के पर्यटकों के लिए ख़ूबसूरत आकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं। पर्यटन देश का तीसरा सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाला उद्योग है। इसका राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में 6.88 प्रतिशत और भारत के कुल रोज़गार में 12.36 प्रतिशत योगदान है। भारत में 2018 में एक करोड़ पांच लाख पर्यटक भारत आए थे और 1.70 अरब घरेलू पर्यटकों ने सैर की। पर्यटन मंत्रालय के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में वर्ष पिछले दस वर्षों में विदेशी सैलानियों से होने वाली कमाई में तकरीबन छह गुना की बढ़ोतरी हुई है। पर्यटन उद्योग की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर पैदा हुए हैं। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने लोगों से 2022 से पहले कम-से-कम 15 जगह की यात्रा करने का आग्रह किया है। आइए हम इस तरह के प्रयास करें कि यह देश दुनिया भर में पर्यटन के क्षेत्र में नंबर एक पर पहुंच जाए।

सोमवार, 23 सितंबर 2019

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के जन्मदिवस पर ....


रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के जन्मदिवस पर ....

मनोज कुमार
जन्म : रामधारी सिंह दिनकर का जन्म  बिहार के मुंगेर (अब बेगूसराय) ज़िले के सिमरिया गांव में बाबू रवि सिंह के घर 23 सितम्बर 1908 को हुआ था।
 
शिक्षा और कार्यक्षेत्रढाई वर्ष की उम्र में पिता जी का देहांत हो गया। गांव से लोअर प्राइमरी कर मोकामा से मैट्रिक किया। 1932 में पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज से इतिहास में बी.ए. (प्रतिष्ठा) की परीक्षा पास करने के बाद वे कुछ दिनों के लिए बरबीघा उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक का काम किए। उसके बाद सरकारी नौकरी में चले आए और निबन्धन विभाग के अवर-निबंधक के रूप में 1934 से 1942 तक रहे। 1943 से 1945 तक सांग पब्लिसिटी ऑफीसर, फिर जनसम्पर्क विभाग के उपनिदेशक पद पर 1947 से 1950 तक रहे। उसके बाद उन्होंने 1950 से  1952 तक लंगट सिंह महाविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर के हिन्दी प्रध्यापक के अध्यक्ष पद को संभाला।

स्वंत्रता मिली और पहली संसद गठित होने लगी तो वे कांग्रेस की ओर से  भारतीय संसद के सदस्य निर्वाचित हुए और राज्यसभा के सदस्य के रूप में 1952 से 1963 तक रहे। 1963 से 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। अंततः 1965 से 1972 तक भारत सरकार के गृह-विभाग में हिन्दी सलाहकार के रूप में हिन्दी के संवर्धन और प्रचार-प्रसार के लिए काफ़ी काम किया।
पुरस्कार व सम्मान : 
1. कुरूक्षेत्र के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार सम्मान मिला
2. ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया
3. 1959 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें पद्म विभूषण से किया विभूषित किया।
4. भागलपुर विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने इन्हें डी. लिट. की मानद उपाधि प्रदान की।
5. 1972 में ‘उर्वशी’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मृत्यु : 24 अप्रैल 1974 को हृदय गति रुक जाने से उनका देहांत हो गया।

:: प्रमुख रचनाएं ::
:: काव्य रचनाएँ  :: चक्रवाल, रेणुका , हुंकार, द्वन्द्वगीत, रसवंती, सामधेनी, कुरुक्षेत्र, बापू, धूप और धुआं, रश्मिरथी, नील कुसुम, नये सुभाषित, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार,आत्मा की आंख, हारे को हरिनाम, संचयिता तथा रश्मि लोक।
   :: गद्य रचनाएं :: मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर, भारतीय संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध  कविता की खोज, रेती के फूल, उजली आग, काव्य की भूमिका, प्रसाद, पंत और मैथिली शरण गुप्त, लोकदेव नेहरू, हे राम, देश-विदेश, साहित्यमुखी।

:: साहित्यिक योगदान ::
‘दिनकर’ जी के मानस पर तुलसीदास जी के ‘रामचरितमानस’ और मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं का काफ़ी प्रभाव पड़ा। देश का स्वतंत्रता संग्राम, विश्व-स्तर पर स्वातन्त्र्य-कामियों के संघर्ष, गांधी जी के कार्य और विचार, लेनिन के नायकत्व में निष्पादित क्रान्ति, भगत सिंह की और गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादतें, स्वामी सहजानन्द सरस्वती का किसान आन्दोलन, स्वामी विवेकानन्द, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, द्वितीय विश्वयुद्ध, आदि ने उनके मन पर गहरी छाप छोप छोड़ा।

‘दिनकर’ जी का मुख्य आधार है कविता। बारदोली सत्याग्रह के दौरान उनकी सर्वप्रथम प्रकाशित रचना ‘बारदोली विजय’ रीवां (मध्य प्रदेश) की ‘छात्र-सहोदर’ नामक पत्रिका में छपी थी, जिसमें राष्ट्रीयता के गीत थे।
1929 में पुस्तक रूप में ‘प्रणभंग’ नामक पहला खण्ड-काव्य प्रकाशित हुआ,  जिसमें उन्होंने लिखा था,
तोड़ी प्रतिज्ञा कृष्ण ने, विजयी बनाने पार्थ को
अघ ने क्या, नय छोड़ना लखकर स्वजन के स्वार्थ को।

‘रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।’
पंक्तियों के रचयिता राष्ट्रकवि के रूप में प्रसिद्ध दिनकर जी को राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रान्ति का उद्गाता माना जाता है। उन्होंने आज़ादी के आंदोलन के दौतान लिखना शुरु किया था। ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘सामधेनी’ आदि की कविताएं स्वतंत्रता सेनानियों के लिए बड़ी प्रेरक साबित हुईं।
श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
मां की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा-वसन बेच जब व्याज चुकाये जाते हैं,
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं,
पापी महलों का अहंकार तब देता मुझको आमंत्रण,
झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

1935 में प्रकाशित ‘रेणुका’ में ‘दिनकर’ जी के राष्ट्रीय चेतना के प्रखर स्वर के साथ ही रोमांटिकता और कोमल भावनाओं की क्षीण धारा भी प्रकट हुई है।
फूलों की क्या बात? बांस की हरियाली पर मरता हूं।
अरी दूब, तेरे चलते, जगती का आदर करता हूं।

वह कोमल भावना ‘रसवन्ती’ में सुविकसित होती है। यह इनकी वैयक्तिक भावनाओं से युक्त श्रृंगार परक काव्य-संग्रह है।
पड़ जाता चस्का जब मोहक, प्रेम-सुधा पीने का,
सारा स्वाद बदल जाता है, दुनिया में जीने का।
मंगलमय हो पंथ सुहागिनी, यह मेरा वरदान,
हरसिंगार की टहनी-से, फूलें तेरे अरमान।

वही कोमल भावना ‘उर्वशी’ के रूप में मनमोहिनी सिद्ध हुई। ‘उर्वशी’ हिन्दी साहित्य का गौरव-ग्रन्थ है। यह कामाध्यात्म संबंधी महाकाव्य है, जिसमें प्रेम या काम भाव को आध्यात्मिक भूमि पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है।
जब से हम-तुम मिले, न जानें कितने अभिसारों में
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है,
जानें, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से,
अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आयी है।

राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय स्वाभिमान का सबसे ज्वलन्त रूप प्रकट हुआ है उनकी सुविख्यात लम्बी कविता ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में। इसमें कवि ने राष्ट्रीय गौरव की रक्षा के लिए भारतीय जनता के शौर्यभाव को जगाने के लिए अत्यंत ओजभाव से युक्त वाणी का प्रयोग किया है।
वे देश शांति के सबसे शत्रु प्रबल हैं,
जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं,
हैं जिनके उदर विशाल, बांह छोटी है,
भोथरे दांत, पर जीभ बहुत मोटी है।
औरों के पाले जो अलज्ज पलते हैं,
अथवा शेरों पर लदे हुए चलते हैं।
युद्ध और शान्ति की समस्या का द्वन्द्व ‘कुरुक्षेत्र’ में व्यक्त हुआ है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो 
गद्य में भी वे अप्रतिम रहे हैं। उनका गहन अध्ययन और सुगम्भीर चिन्तन गद्य में मार्मिक अभिव्यक्ति पाता है। उनके गद्यों में विषयों की विविधता और शैली की प्रांजलता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। उनका गद्य साहित्य काव्य की भांति ही अत्यंत सजीव और स्फ़ूर्तिमय है तथा भाषा ओज से ओत-प्रोत। उन्होंने अनेकों अनमोल ग्रंथ लिखकर हिन्दी साहित्य की वृद्धि की। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ‘संस्कृति के चार अध्याय’ एक महान ग्रंथ है। इसमें उनकी गहन गवेषणा, सूक्ष्म अन्वेषण, भारतीय संस्कृति से उद्दाम प्रेम प्रकट हुआ है।
मानवता के प्रति प्रतिबद्धता, दलितों की दुर्दशा पर उत्साहपूर्ण रोष, गहन भारत-प्रेम और भारत-धर्म के परिपूर्णतम अभिव्यक्ति उनके साहित्य के सुन्दरतम लक्षण हैं।
दलित हुए निर्बल सबलों से, मिटे राष्ट्र उजड़े दरिद्र जन,
आह! सभ्यता आज कर रही असहायों का शोणित शोषण।
क्रान्ति-धात्रि कविते! जाग उठ, आडम्बर में आग लगा दे;
पतन, पाप, पाखण्ड जलें, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।

उन्होंने काव्य, संस्कृति, समाज, जीवन आदि विषयों पर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं।
ऋण-शोधन के लिए दूध-घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे,
बूंद-बूंद बेचेंगे, अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे।
शिशु मचलेंगे, दूध देख, जननी उनको बहलाएगी,
मैं फाड़ूंगा हृदय, लाज से आंख नहीं रो पायेगी।
इतने पर भी धनपतियों की उनपर होगी मार,
तब मैं बरसूंगी बन बेबस के आंसू सुकुमार।

उनका अन्तिम कविता-संग्रह ‘हारे को हरि नाम’ 1971 में प्रकाशित हुआ।
आधुनिक हिन्दी काव्य के पुरोधा, मिट्टी की सुगंध के अमर गायक, प्राची के आलोकधन्वा और युगधर्म की हुंकार राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की रचनाओं का स्वर युगधर्म की हुंकार माना जा सकता है। छायावाद की कुहेलिका को चीरकर आधुनिक हिन्दी काव्य कमल को जीवन की वास्तविकता एवं मिट्टी की गंध से परिपूरित करने वाले मानवतावादी ‘दिनकर’ ने दलितों, पीड़ितों के उद्धार का आदर्श भी प्रस्तुत किया है। वस्तुतः यही वह मूल प्रयोजन है जो आधुनिक युग जीवन को गौरव और अर्थकत्ता प्रदान करता है। साथ ही आर्थिक विषमता, रंगभेद, नीति, जाति, कुल सम्प्रदाय एवं साम्राज्यवाद से पीड़ित विश्व-मानव से रिश्ता जोड़ता है।


बुधवार, 18 सितंबर 2019

श्रीकांत वर्मा की जन्मतिथि पर ….


श्रीकांत वर्मा की जन्मतिथि पर ….
कवि, कथाकार, समालोचक एवं संसद सदस्य श्रीकांत वर्मा का जन्म छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में 18 सितम्बर 1931 को हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा के लिए उनका दाखिला बिलासपुर के एक अंग्रेज़ी स्कूल में हुआ था लेकिन वहां का वातावरण उन्हें रास नहीं आया। उन्होंने उस स्कूल को छोड़ दिया और नगर पालिका के स्कूल से शिक्षा ग्रहण की। मैट्रिक पास कर लेने के बाद आगे की शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद गए। वहां उन्होंने क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लिया। पर वहां उन्हें घर की याद सताने लगी और बिलासपुर वापस लौट आए। यहीं पर बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी की। प्राइवेट से नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। 1954 में मुक्तिबोध की प्रेरणा से बिलासपुर में नवलेखन की पत्रिका ‘नयी दिशा’ का संपादन करना शुरु किया।  1956 से नरेश मेहता के साथ प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका ‘कृति’ का दिल्ली से संपादन एवं प्रकाशन करना शुरू किया। 1956 से लेकर 1963 तक का समय उनके लिए संघर्ष का काल था। दिल्ली में वे पत्रकारिता से जुड़े। 1965 से 1977 तक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के प्रकाशन समूह से निकलने वाली पत्रिका ‘दिनमान’ में उन्होंने विशेष संवाददाता की हैसियत से काम किया। बाद में वे कॉंग्रेस की राजनीति में सक्रिय हो गए और उन्हें ‘दिनमान’ से अलग हो गए। 1969 में वे तत्कालीन प्रधानमंत्री के काफ़ी क़रीब आये और कॉंग्रेस के महासचिव बने। 1976 में वह मध्यप्रदेश से राज्य सभा में निर्वाचित हुए। 1980 में कॉंग्रेस प्रचार समीति के अध्यक्ष थे। 1985 में उन्हें महासचिव के पद से हटा दिया गया। जीवन के अंतिम क्षणों में उन्हें बीमारियों ने भी घेर रखा था। अमेरिका में वे कैंसर के इलाज कराने के लिए गए। 26 मई 1986 को न्यूयार्क में उनका निधन हो गया। उन्हे कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिसमें ‘मगध’ काव्य संग्रह पर साहित्य अकादमी तथा मध्य प्रदेश का शिखर समान भी शामिल है।

मुक्तिबोध के बाद की पीढ़ी की कविता का मिजाज़ श्रीकांत वर्मा की काव्यकृतियों से पहचाना जा सकता है। बेचैनी, तनाव, नाराज़गी, विरोध आदि उनकी कविता का प्रमुख गुण है। आरंभ में तो उन्होंने रोमांटिक आवेग वाली कविताएं लिखीं लेकिन बाद में राजनीतिक, सामाजिक विसंगतियों का अपनी कविताओं में जम कर खुलासा किया है। सातवें दशक के राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ ने कविता की दिशा को पलट दिया। नयी कविता के अभिजात्य का मिथ दूर हो गया था। इसलिए समय और समाज के यथार्थ को व्यक्त करने के लिए श्रीकांत जी को नयी काव्यभूमि की खोज करनी पड़ी। ‘मगध’ और ‘गरुड़ किसने देखा’ एक ऐसे कवि की की करुणा की पुकार है जो युग संधि पर खड़ा अपने समय के मनुष्य, समाज, राजनीति, इतिहास और काल के प्रति बेहद निर्मम होकर उसके संकट को परिभाषित करना चाहता है।

मूलतः कवि होते हुए भी श्रीकांत वर्मा ने कविता के साथ-साथ कहानियां भी लिखीं। उनकी कहानियां उनकी कविता की पूरक हैं। कहानियों के पात्र उसी यथार्थ से जूझते हैं जिस यथार्थ को श्रीकांत वर्मा कविता में व्यक्त कर रहे थे। नयी कहानी आन्दोलन से अलग हटकर उन्होंने सामाजिक यथार्थ के भीतर जूझ रहे अभिशप्त चेहरों को उजागर किया है। वे नयी कहानी के ढ़ांचे को तोडकर कहानी विधा को बदलते नये यथार्थ से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं। उनकी कहानियां नयी कहानी के दौर में प्रेम भरे खेल के मैदान से बाहर जाकर ठंड, झाड़ी, अरथी, शवयात्रा और घर जैसे सामाजिक यथार्थ की अविस्मरणीय दुनिया रचती हैं। अपने एक मात्र उपन्यास ‘दूसरी बार’ के द्वारा वे साबित करना चाहते हैं कि आज प्रेम मानवीय दुनिया से बहिष्कृत हो गया है।

श्रीकांत वर्मा ने गद्य की विभिन्न विधाओं आलोचना, डायरी, यात्रा वृत्तांत और साक्षात्कार आदि में अपनी रचनात्मकता का परिचय दिया है। उन्होंने विदेशी साहित्य का भी अनुवाद किया। श्रीकांत वर्मा की ख्याति एक ऐसे लेखक के रूप में है जिसने अपने युग के उत्थान-पतन, नैराश्य, द्वन्द्व, अवसाद तथा अन्धकार को एक जबर्दस्त आवेग के साथ पेश किया है। उनका लेखन  एक अनवरत चलने वाली बहस और जिरह है, कभी दूसरों से, कभी खुद से।

:: प्रमुख रचनाएं ::
:: काव्य रचनाएँ  :: भटका मेघ (1957), मायादर्पण (1967), दिनारंभ (1967), जलसाघर (1973), मगध (1983), और गरुड़ किसने देखा (1986)
:: उपन्यास :: दूसरी बार (1968)।
:: कहानी-संग्रह :: झाड़ी (1964), संवाद (1969), घर (1981), दूसरे के पैर (1984), अरथी (1988), ठंड (1989), वास (1993), और साथ (1994)।
:: यात्रा वृत्तांत :: अपोलो का रथ (1973)।
:: संकलन :: प्रसंग
:: आलोचना :: जिरह (1975)।
:: साक्षात्कार :: बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में (1982)।
:: अनुवाद :: ‘फैसले का दिन’ रूसी कवि आंद्रे बेंज्नेसेंस्की की कविता का अनुवाद है।

सोमवार, 16 सितंबर 2019

विश्व ओज़ोन दिवस या ओज़ोन परत संरक्षण दिवस

विश्व ओज़ोन दिवस या ओज़ोन परत संरक्षण दिवस

मनोज कुमार
यह बड़ी ही चिंता का विषय है कि ओज़ोन परत में ओज़ोन गैस की मात्रा कम हो रही है। इसका मुख्य कारण हम ही हैं। हम लगातार प्रकृति और पर्यावरण का दोहन कर रहे हैं। जंगलों और पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई कर रहे हैं। हमने प्रकृति का दोहन करके पूरे तंत्र यानी मनुष्य और प्रकृति, वायुमंडल के बीच एक असंतुलन की स्थिति पैदा कर दी है।  गाड़ियों और उद्योगों से विसर्जित गैस आदि ने हवा को प्रदूषित कर दिया है। इससे ओज़ोन की मात्रा घटती है। परिणामस्वरूप पृथ्वी पर बड़े संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
ओज़ोन एक हल्के नीले रंग की गैस गंधयुक्त गैस होती है। यह ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं (O3) से मिलकर बनती है। यह गैस वातावरण में बहुत कम मात्रा में पायी जाती है। ओज़ोन परत गैस का एक झीना सा आवरण है जो मुख्यतः स्ट्रैटोस्फियर के निचले भाग में पृथ्वी की सतह से 10 से 50 किलोमीटर की ऊंचाई के बीच वायुमंडल के समताप मंडल परत में पाई जाती है।  वायुमंडल में ओज़ोन का कुल प्रतिशत अन्य गैसों की तुलना में बहुत ही कम है। प्रत्येक दस लाख वायु अणुओं में दस से भी कम ओज़ोन अणु होते हैं।
ओज़ोन की परत की खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। इसके गुणों के बारे में ब्रिटिश मौसम विज्ञानी जीएमबी डोबसन ने पता लगाया। डोबसन ने एक साधारण स्पेक्ट्रोफोटोमीटर (डोबसनमीटर) विकसित किया था। इसकी सहायता से धरती के समताप मंडल में मौजूद ओज़ोन की मात्रा मापी जा सकती है। ओज़ोन की मात्रा को मापने की इकाई डोबसन यूनिट, का नाम उनके सम्मान में ही रखा गया। उसने दुनिया भर में ओज़ोन निगरानी स्टेशनों का नेटवर्क स्थापित किया।
ओज़ोन परत पर्यावरण का रक्षक है और पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी के लिए सुरक्षा कवच। ओज़ोन की परत सूरज से आने वाली पराबैंगनी विकिरण (अल्ट्रा वायलेट रेडिएशन) के 93 और 99 प्रतिशत भाग को अवशोषित कर  एक अच्छे फिल्टर का काम करती है और उससे मनुष्य और जीव-जंतुओं की रक्षा करती है। पराबैंगनी विकिरण पृथ्वी पर कई जीवित जीवों के लिए बहुत ज्यादा खतरनाक होती है। पराबैगनी किरणों की बढ़ती मात्रा से चर्म कैंसर, ब्लडप्रेशर की परेशानी, मोतियाबिंद के विकास के अलावा शरीर में रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। यह मनुष्य और पशुओं की डी.एन.ए. संरचना में बदलाव लाती है। यदि कोई गर्भवती महिला इनके संपर्क में आ जाए तो गर्भस्थ शिशु को अपूरणीय क्षति हो सकती है। पेड़-पौधों के साथ ही वनस्पतियों पर भी इसका बुरा असर होता है। यह प्रकाश संश्लेषण क्रिया को प्रभावित करती है जिससे से पत्तियों का आकार छोटा हो सकता है, बीजों के अंकुरण का समय बढ़ सकता है। ये किरणें समुद्र में छोटे-छोटे पौधों को भी प्रभावित करती हैं, जिससे मछलियों व अन्य प्राणियों की मात्रा कम हो सकती है। इससे तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। जिससे एक अन्य खतरा ध्रुवों के पिघलने का पैदा हो गया है। अंटार्कटिका में ओज़ोन में एक बड़ा छेद हो गया है। अंटार्कटिका क्षेत्र में बड़े हिमखंड हैं। यदि ये हिमखंड पिघलते हैं तो तटीय क्षेत्रों में बाढ़ सहित कई खतरे पैदा हो सकते हैं।
ओज़ोन परत सबसे ज़्यादा  नुकसान पहुंचाने वाली गैस क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स (CFCs) है जिसे सीएफसी के नाम से भी जाना जाता है। मुख्य रूप से रेफ्रिजरेटर व वातानुकूलित उपकरणों में क्लोरोफ्लोरो कार्बन इस्तेमाल होती है। सुपर सोनिक जेट विमानों से निकलने वाली नाइट्रोजन ऑक्साइड भी ओज़ोन की मात्रा को कम करती है।  पिछले सौ वर्षों में ओज़ोन परत मानव निर्मित रसायनों द्वारा क्षतिग्रस्त होती जा रही हैविशेष रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) द्वारा। यह ओजोन परत में छिद्र कर रहे हैं। 1996 में सीएफसी पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद भीप्रत्येक वर्ष इस छेद में लगातार बृद्धि हो रही है।  1985 में सबसे पहले अंटार्टिका में सबसे पहले इस छिद्र को देखा गया था। 1987 में 16 सितंबर को ओज़ोन में हुये छिद्र की चिंता के उपाय हेतु कनाडा के मॉन्ट्रियल शहर में 33 देशों के बीच एक मीटिंग हुई और फिर एक प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए गए। जिसमें भारत ने भी हस्ताक्षर किये। इसे मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के नाम से जाना गया। इसमें यह संकल्प लिया गया कि हमें ओज़ोन परत का संरक्षण करना होगा। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर विश्व ओज़ोन दिवस या ओज़ोन परत संरक्षण दिवस 16 सितंबर को पूरी दुनिया में मनाया जाता है। 
यह बहुत ही ज़रूरी है कि लोग ओज़ोन परत और इसके संरक्षण को लेकर जागरूक होंआज के दिन हम यह संकल्प लें कि हम अपने पृथ्वी की रक्षा के लिए हर महत्वपूर्ण कोशिश करेंगे। ज़ोन क्षरण पदार्थों पर नियंत्रण हेतु सार्थक प्रयास करेंगे। चीजों का इस्तेमाल ज़रूरत के अनुसार करेंगे और प्राक्रतिक सम्पदा का दुरुपयोग नहीं करेंगेओज़ोन परत का विनाश करने वाले पदार्थ क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.) के उत्पादन एवं उपयोग को सीमित करेंगे। हम प्रदूषण को रोने के लिए हर संभव उपाय करेंगेबिजली की बचत करेंगे, और रीसाइक्लिंग कि मदद से पुरानी चीज़ों का पुनः इस्तेमाल करेंगे हम पर्यावरण मित्र उत्पादों का इस्तेमाल करेंगे। वृक्षारोपण को बढ़ावा देंगे। जिससे हमारी पृथ्वी सुरक्षित, सुन्दर और स्वच्छ बनी रहे।  

रविवार, 15 सितंबर 2019

आओ हिंदी दिवस मनाऍं

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आओ हिंदी दिवस मनाऍं

- करण समस्तीपुरी


स्वाभिमान की भाषा हिंदी। 
जन मन की अभिलाषा हिंदी। 
सुंदर इसकी है अभिव्यक्ति। 
इसमें है सम्मोहन शक्ति। 
भारत के माथे की बिंदी। 
पुरस्कार देती है हिंदी। 
चलो कहीं भाषण कर आएँ। 
कविता दोहा गीत सुनाएं।  
आओ हिंदी दिवस मनाऍं।  

संविधान का कर लें आदर। 
मन अंग्रेजी हिंदी चादर।  
कोई मुश्किल बात नहीं है। 
न गुजरे वो रात नहीं है।  
इक दिन बस मैनेज करना है। 
कल से हमको क्या करना है। 
गौरव गान आज भर गाएँ।  
आओ हिंदी दिवस मनाऍं। 

हिंदी में रोजगार नहीं है। 
हिंदी का बाज़ार नहीं है।
जब हिंदी में "न्याय" नहीं है!
हिंदी से जब आय नहीं है। 
क्या होगा पढ़कर के हिंदी। 
फ्यूचर हो जायेगा चिंदी।  
अपने बच्चों को समझाएँ। 
आओ हिंदी दिवस मनाऍं। 
 
Hindi Diwas 2019 : Why is hindi diwas celebrated on 14th september, know history | क्या आप जानते हैं 14 सितंबर को ही क्यों मनाया जाता है हिन्दी दिवस?