बुधवार, 30 नवंबर 2011

देसिल बयना - 107 : अपना ब्याह हुआ जय गंगा

 

-- करण समस्तीपुरी

तोतरी सिंघ और चतुरी सिंघ का चर्चा होते ही उ आल्हा का गीत याद आ जाता था, “अकरा लागा या देहिया में, बीजा चाट गया तलवार। रण का तेगा कबहुँ बाजी रे दुई हाथ खेलो तलवार...॥ सब का शादी गवना हुआ, भैय्या रह गए बारि कुमार। कनिया उपजी नैनागढ़ में वा को सोना पड़ गए नाम...॥”

चौंतीस साल के चतुरी सिंघ का शरीर हट्ठा-कट्ठा था। भुल्ली भैंस के सबा सेर दूध सांझ और सबा सेर सबेरे बिना उबाले छांक लगाकर सबा सौ दंड पेलते थे। उ सस्ती का जमाना भी था। पाव भर देसी घी तो चतुरिया की रोटिये पर चुपड़ा जाता था। आज का आदमी विश्वास नहीं करेगा मगर हमलोग तो देखे हुए हैं। हे... कटही गाड़ी में शीशम के सिल्ली लाद के बैल छोड़ अपने खींच लेते थे दुन्नु भाई।

चतुरी सिंघ कुश्ती के भी नामी खिलाड़ी। जब हुंकार भर के अखाड़ा में कूदते थे तो पूरा जवार गनगना जाता था। जौन अटैक पर रहे तब दे धोबिया-पछाड़। चाकर-चौरस पहलवान चार मिनिट में चारो-खाने चित। वैसे खेल खेलाने में भी बेजोर थे। देस-परदेस के सब पहलवान के दांव-पेंच का जवाब था उनके पास...। जवाब अगर नहीं था तो बस ई बात का, “बौआ....! ब्याह कब करोगे?” बेचारे बड़े शरमा कर कहते थे, “पहिले भैय्या का करि लें फिर...। पहिले भौजाई तब लुगाई...।” यही एक मिसरा में एक युग खेप गए सिंघजी।

गंगा किनारे का गाँव भगीरथपुर। उहां का लोहना पहलवान स्वयंबर का घोषणा कर दिया। जौन कुश्ती में उको पछाड़ देगा उकी बहिनिया बागमती वही से बियाहेगी। बंगाल से लेकर बनारस तक के पहलवान का जुटान।

लोहना पहलवान का देह-दशा तो जबदगर नहीं था मगर जो भी था सच्चे में लोहे जैसा और फ़ुर्ती तो बाप रे बाप...! बिजलियो से तेज। केतना पहलवान तो जब तक हाथ मिलाए तभिये में चित।

गंगा मैय्या के घाट पर तीन दिन तक भोर से लेकर सांझ तक दंगल चलता रहा मगर लोहना को चित करे वाला कौनो माई का लाल नहीं हुआ। ससुर ऐसन-ऐसन पेंच देखाए कि पहलवान गिरें दांत निपोर के और दर्शक मारे पिहकारी ताली फोर के। दुई दिन से चतुरिया भी तमाशा देख रहा था मगर गया नहीं अखाड़ा में। शायद दांव परीख रहा होगा।

चौथा दिन एक पहर बीत गया। लोहना वैसहि अखाड़ा में लहलहा रहा था। आज लोहना का टक्कर है मगहिया पहलवान से। ऊं... हूँ...! मगहिया पहलवान भी बराबर का टक्कर दे रहा है। ओ देखो... दोनो के बांहों में मछलियां कैसे पड़ रही हैं...! लगता है जैसे भीम-जरासंध का मल्ल-जुद्ध हो। हई देखो...! मगहिया ने मारा छिटकी...! ओह तोरी के...! लोहना तो हवे में चक्करघिरनी घूम गया। आइ हो दद्दा...! हई ई को कहते हैं लोहना पहलवान। ससुर हवे में घूम के मगहिया के गर्दन में टंगरी फ़ंसाया और दे धराम पटका... कलेजा पर सवार...! जौन लोहना एक बार कलेजा पर चढ़ जाए तो फिर हल्दी-चूना बोला के ही दम लेगा।

लोहना पहलवान जिंदावाद...! दे ताली, पिहकारी और लोहना के जयजयकार। लोहना भी आँख ललाकर बोला, “अरे है कोई माइ का लाल तो आ बढ़ के... सब हिजरा है तो बजा ताली और भरुआ है तो देख जा कोठे पे....! लोहना अखाड़ा में चारो दिश घुम-घुम के हुंकार भर रहा था।

चतुरिया सारा तमाशा देख रहा था। चुपचाप उठा और पहिले गंगाजी मे डूबकी। और दौड़ते हुए आया और “बोल गंगिया माई की जै...” करते हुए अखाड़ा में कूद के बालू में लोट गया। पूरा देह बालुए-बालू। उठा लोहना से हाथ मिलाया और फिर शुरु मल्ल-जुद्ध।

हाँ...! ई है जोर का पहलवान। दर्शकों को खूब मजा आ रहा था। लोहना का काट चतुरी के पास और चतुरी का काट लोहना के पास। घंटा भर तक गुत्थम-गुत्थी। एक बार इधर का दर्शक उछले, “हई देखो... लोहना का दाव...!” तो अगली वार उ तरफ़ के दर्शक कहे, “वाह खिलाड़ी... किला हिला दो भगीरथपुर के।” खूब उठा-पटकी हुआ मगर... चित कौनो नहीं हो रहा था।

अचानके चतुरी का दाव उपर हुआ कि पहलवान खट से लोहना का डांर पकड़ के लगा गोल-गोल करिया-झुम्मर खेलाय। अब लगा कि खेल खतम हुआ कि धायं से लोहना चतुरी के गर्दन में दोनों हाथ फ़ंसाकर पैरों को ऐसन झटका दिया कि चतुरिया फ़ेंकाया पूरब और लोहना अपने पच्छिम। फिर बीच में दुन्नु में गलबहियां। लेकिन चतुरी सिंघ के ताकत को भी मानना पड़ेगा। एक हाथ लोहना के गर्दन में दूसरा हाथ पीठ पर ऐसे दबाए कि बेचारा लोहना टें बोल गया। खटाक दे पटकनिया चित और दस तक के गिनती और फिर... चतुरी सिंघ की जय-जयकार।

लोहना की आँखों में आँसू छलक आए। हार के नहीं खुशी के। बहन के हाथ पीले होने की खुशी के। उसे बगमतिया के लिये योग्य वर मिल गया था। दोनों गले मिले। गंगाजी में स्नान किये। फिर लोहना के देहरी पर चूरा-दही के भोजन। लोहना आदर के साथ चतुरी को बागमति का हाथ सौंप रहा था मगर चतुरी ने मना कर दिया, “नहीं भाईजी...! हमरे बड़े भैय्या अबहि कुमारे हैं। पहिले भैय्या का घर बसा दें...! बागमति आपके पास हमरी अमानत रही।”

“लेकिन उ कब तक तुम्हरा इंतिजार करेगी चतुरी?... वैसे तुम तो वीर भलमानस हो मगर आज-कल किसका भरोसा है....?” चतुरी लोहना को फिर से खींच लाया था गंगा किनार। घुटना भर पानी में खड़े हो चुल्लू में गंगाजल भर के बोला, “भरोसा करिए भाई जी...! हम जल्दिये भैय्या क घर बसा के बागमति के साथ ब्याह कर दोनो पराणी गंगा मैय्या को पूजेंगे। ई हमरा परतिगिया रहा कि अब गंगा नहाएंगे तो गेठी जोरिये कर।”

दुनु जने लोहना के घर आए। पान-सुपारी हुआ। फिर चतुरी अपना मिरजई पहन और लाठी उठाकर चलने लगा तो लोहना ने उसे गले लगा लिया। चतुरी चल दिया। जाते हुए चतुरी को बागमती अपने फ़ुसही घर के फ़ाटक वाले खिड़की से एकटक निहार रही थी। चतुरी भी एकाध बार पलट कर देखा था। शायद बागमति की लोराई आँखों में अधीर निमंत्रण था और चतुरी की आँखो में मूक आश्वासन।

रेवाखंड पहुँचते ही चतुरी रिश्ता-नाता, यार-दोस्त, पाहुन-कुटुम, गांव-जवार सब में बात छिटवा दिया...! तोतरी सिंघ का ब्याह करना है छः महीना के भीतर। दान-दहेज का कौनो लफ़रा नहीं...। दोनों खर्च एहि तरफ़ से।

चतुरी की आँखों से बागमति का चेहरा ओझल होने का नाम नहीं ले रहा था। महीना लगते-लगते कौनो बहाना से एक बार फिर से घूम आया था भगीरथपुर। इधर महीना पर महीना बीता जा रहा था तोतरी के लिये कहीं से रिश्ता का कौनो उम्मीदे नहीं।

संयोग से बीच में कातिक महीना पड़ गया था। गंगा-स्नान के बहाने भगीरथपुर जाने का मौका लग गया। ई बार तो पूरा गुरूप गया था। लेकिन चतुरी सिंघ गंगा नहिये नहाए। झिगुनिया बहुत जिद किया तो बोले, “नहीं रे दोस्त! हम कीरिया खाए हैं कि जब तक दोनो भाई का बिआह नहीं हो जाता गंगा नहीं नहाएंगे। गंगा माई का कीरिया... झिगुनी, पचुआ, बकटु सब मान गए।

लौटती में लोहना के घर भी गए थे। बागमती और लोहना ने सबका बड़ा मान आदर किया था। लोहना ने चतुरी को याद दिलाया कि अब तो छः महीना बीतने वाले हैं। वो बागमती का हाथ पकड़ कर उसे अपना वचन निभाने का मौका दे। चतुरी तोतरी सिंघ के ब्याह का हील-हवाला दिया मगर लोहना के अनुनय-विनय और इस डर कि बागमति का ब्याह कहीं किसी और से न हो जाए... उसने उसी रात ब्याह की अनुमति दे दी।

ब्याह हो गया। झिगुनी, पांचू, बकटु, फटाकी, लोहना और भगीरथपुर के लोग चतुरी और बागमति के ब्याह के साक्षी बने। लोहना के आग्रह पर चतुरी सिंघ ससुराल में ही रह गए। फटाकी भी रुक गया था। बांकी दोस्त के साथ भगीरथपुर के पंडीजी टपकू मिसिर न्योत लेकर चले आए रेवाखंड।

चतुरी के ब्याह का खबर सुनकर रेवाखंड में उल्लास हो गया। वर-दुल्हिन को विदाकर लाने की तैय्यारी शुरु हो गयी। किसी को तोतरी के ब्याह की सुध भी न रही... खुद तोतरी को भी नहीं।

उ गांव के टपकू मिसिर और रेवाखंड के लपकू झा दोनों मिलकर लगन उचार दिये। गीत-नाद के साथ पांचो जन चले वर-दुल्हिन को विदा कराने गंगा पार। लोहना ने अपने औकात के अनुरूप बड़ा सत्कार किया। अगली सांझ में विदाई का मुहुरत था।

गंगा तट आते ही चतुरी को गंगा माई से अपना वादा याद आ गया। दुई मिनिट लोहना और पंडीजी से बतियाया और फिर फ़टाफ़ट टपकू मिसिर इरिंग-भिरिंग मंतर पढ़ाते रहे और चतुरी-बागमती नमो-नमो कर के गंगाजी में फूल-अच्छत फ़ेंकते रहे। पूजा हुई फिर पंडीजी की आग्या से जय-जय गंगा करते हुए डूबकी लगाए। गंगा में डुबकी लगाते हुए चतुरी झिगुनिया को देख रहा था और झिगुनिया चतुरी को...! आँखों ही आँखों में कुछ बात हुई और झिगुनिया मुँह घुमाकर हँसने लगा।

गंगा मैय्या को पूजकर वर दुल्हिन को ले कुटुम्ब नाव पर गंगा पार करने लगे। लोहना खुदे नैय्या खेव रहा था। मौका लगते ही झिगुनिया ने पूछ ही लिया चतुरी से, “का रे भइबा...! कातिक पुरनिमा में तो बड़ा किरिया खाए रहे गंगा नहाए से...!” झिगुनिया की बात अभी जारी ही थी कि चतुरी बड़ी चतुराई से बोला, “अरे छोड़ न यार...! कीरिया तो खाए ही रहे.. मगर अब का करें... लगता है कि भैय्या के हाथ में बिआह का रेखे नहीं बना है... नहीं पूरा तो आधा सही...! भैय्या का नहीं मगर अपना ब्याह तो हुआ... अब पुरान बात छोड़ो और बोलो गंगा माई की जय!

झिगुनिया भी चोटा के बोला था, “हाँ रे कलजुगी लछमन भाई...! किरिया खाया था कि पहिले भैय्या का बिआह करेगा... और इधर अपना ब्याह हुआ कि जय गंगा...! मतलब कि अपना मतलब निकल गया तो बात खतम...! अरे कछु दिन और इंतिजार करि लेते... भैय्या का भी जोड़ा लग जाता तब गंगा पुजाते...! मगर चतुरी सिंघ तो निकले बड़े चतुर, “अपना बिआह हुआ जय-गंगा।” चुप कराने की गरज से चतुरी सिंघ आँख दबाते हुए झिगुनिया के कमर चिकोंटी काट लिये थे।

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

अंक-4 भगवान परशुराम


अंक-4
   भगवान परशुराम

आचार्य परशुराम राय

भगवान परशुराम के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है भगवान राम से भेंट। महर्षि वाल्मीकि कृत आर्षरामायण (वाल्कमीकि कृत रामायण) के अनुसार महाराज दशरथ अपने चारो पुत्रों-राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का विवाह करने के बाद जब बारात लेकर जनकपुर से अयोध्या वापस लौट रहे थे, रास्ते में उनका सामना भगवान परशुराम से हुआ था। उस समय के उनके स्वरूप का वर्णन करते हुए महर्षि वाल्मीकि कहते हैं-
  ददर्श   भीमसंकाशं   जटामण्डलधारिणम्। भार्गवं जामदग्न्येयं राजा राजविमर्दनम्।।
  कैलासमिव  दुर्धर्षं  कालाग्निमिव दुःसहम्। ज्वलन्तमिव तेजोभिर्दुर्निरीक्ष्यं पृथग्जनैः।।
  स्कन्धे चासज्ज्य परशुं धुर्विद्युद्गणोपमम्। प्रगृह्य शरमुग्रं च त्रिपरघ्नं यथा शिवम्।।
     अर्थात् (उस समय राजा दशरथ ने) जटामण्डलवाले और क्षत्रिय राजाओं का मान-मर्दन करनेवाले भयंकर भृगुकुलनन्दन जमदग्निकुमार को देखा। वे कैलास के समान दुर्जय और कालाग्नि की तरह दुःसह प्रतीत हो रहे थे। अपने तेजोमण्डल से इतने प्रदीप्त हो रहे थे कि सामान्य लोगों के लिए उनकी ओर देखना भी कठिन था। उनके कंधे पर परशु से सुसज्जित, हाथ में विद्युद्गण के तुल्य धनुष धारण किए हुए और भयंकर बाण लिए हुए त्रिपुर-विनाशक साक्षात् शिव के समान लग रहे थे।  

     महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं कि भगवान परशुराम को देखकर जपहोम-परायण महर्षि वशिष्ठ आदि प्रमुख विप्र एकत्र होकर परस्पर विचार करने लगे कि ये पितृ-वध के क्रोध के वशीभूत होकर कहीं फिर क्षत्रिय संहार न कर डालें, वैसे अब प्रतिकार की भावना से ये मुक्त चुके हैं, क्षत्रियों का संहार अब इनका अभीष्ट नहीं होना चाहिए, फिर भी कुछ कहना कठिन है आदि-आदि। फिर उनलोगों ने उन्हें उचित अर्घ्यदान देकर उनसे प्रेम पूर्वक बातचीत की।

ऋषियों द्वारा प्रदत्त अर्घ्य को भगवान परशुराम स्वीकरकर राम से बोले कि हे दशरथनन्दन राम, मैंने आपके अद्भुत पराक्रम को सुन रखा है, आपके द्वारा भगवान शिव की धनुष तोड़ने का समाचार भी सुन चुका हूँ। मेरी इस वैष्णव धनुष पर बाण चढ़ाइए, ताकि आपके बल का अनुमानकर आपसे आवश्यक द्वन्द्व युद्ध कर सकूँ। उनकी इस तरह की बातें सुनकर महाराज दशरथ ने दोनों हाथ जोड़कर अनुनय-विनय करते हुए उनसे अनुरोध किया कि आप भृगुकुल में उत्पन्न महान तपस्वी और ज्ञानी हैं, क्षत्रियों पर आपका रोष अब शान्त हो चुका है, आपने इन्द्र के सामने प्रतिज्ञा करके शस्त्रों का परित्याग कर दिया है। अतएव मेरे बालक पुत्रों को अभयदान देने की कृपा करें। यदि आपका क्रोध केवल राम पर है, तो उनके मारे जाने पर भी हम सभी अपने प्राण त्याग देंगे।

भगवान परशुराम ने जिस धनुष को चढ़ाने की बात की है, उसका विवरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है कि विश्वकर्मा ने दो श्रेष्ठ और दिव्य धनुषों का निर्माण किया था, जिनमें से एक को देवताओं ने भगवान शिव को त्रिपुरासुर से युद्ध करने के लिए दिया था और दूसरा धनुष भगवान विष्णु को दिया था। एक बार देवताओं ने ब्रह्मा जी से पूछा कि भगवान विष्णु और शिव दोनों में कौन अधिक शक्तिशाली है। अतएव ब्रह्मा जी को इन दोनों देवताओं में विरोध उत्पन्न करना पड़ा। परिणाम स्वरूप दोनों में भयंकर युद्ध हुआ और भगवान  विष्णु के हुंकार से भगवान शिव स्तंभित हो गए और धनुष शिथिल पड़ गया। अंत में ऋषियों और देवताओं के द्वारा शान्ति याचना के बाद दोनों शान्त हुए। क्रोधाभिभूत भगवान शिव ने अपनी धनुष विदेह देश के राजर्षि देवरात को दे दिया और भगवान विष्णु ने अपनी धनुष भृगुवंशी महर्षि ऋचीक को दे दिया। जो धनुष भगवान राम ने तोड़ी थी, वही शिव की थी और दूसरी भगवान परशुराम के पास, जिसे वे चढ़ाने के लिए राम को ललकारे।

भगवान परशुराम की ललकार को सुनने के बाद भगवान राम ने उनसे कहा कि हे भृगुनन्दन, मैंने भी आपके विषय में बहुत कुछ सुन रखा है- कैसे आपने अपने पिता के वध का बदला लेने के लिए क्षत्रियों का संहार किया और हमलोग भी उसका अनुमोदन करते हैं। मैं क्षत्रिय हूँ और आप ब्राह्मण हैं। इसलिए नम्रतावश मैं कुछ नहीं बोल रहा हूँ। फिर भी आप पराक्रमहीन और असमर्थ मानकर मेरा बार-बार तिरस्कार कर रहे हैं। यह कहकर उन्होंने परशुराम जी के हाथ से धनुष और बाण लेकर उसपर बाण चढ़ा दिया, और कुपित होकर वे बोले कि हे भृगुन्दन राम, ब्राह्मण होने के नाते आप मेरे पूज्य हैं और महर्षि विश्वामित्र के सम्बन्धी भी हैं, अतएव इस प्राण घातक बाण से मैं आपके ऊपर प्रहार तो नहीं कर सकता। तो अब क्यों न शीघ्रता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जानेवाली आपकी शक्ति अथवा तपोबल से प्राप्त आपके पुण्यलोकों इस बाण से नष्ट कर दूँ। क्योंकि शत्रुनगरी को ध्वस्त करनेवाला भगवान विष्णु का बाण कभी भी निष्फल नहीं हो सकता। महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं कि धनुष-बाण भगवान राम के हाथ में जाते ही भगवान परशुराम का वैष्णव तेज उनके शरीर से निकलकर राम के पास चला गया और परशुराम जी निस्तेज और बलहीन हो गए।

इसके बाद भगवान परशुराम ने उनसे कहा- हे रघुन्दन, सारी पृथ्वी दान करने के बाद मेरे गुरु कश्यप जी ने कहा था कि मुझे उनके राज्य से निकल जाना चाहिए। मैंनें रात में पृथ्वी पर न रहने की उनके सामने प्रतिज्ञा की थी और तभी से मैं रात में पृथ्वी पर निवास नहीं करता। इसलिए आप मेरी मन की गति से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की शक्ति को छोड़कर मेरे तपोबल से प्राप्त सभी पुण्यलोकों अविलम्ब नष्ट कर दें। हे रघुकुलनन्दन, मैं पूरी तरह अब आश्वस्त हो चुका हूँ कि आप मधु नामक राक्षस का बध करनेवाले साक्षात् भगवान विष्णु हैं।

अन्त में भगवान राम ने भगवान परशुराम के अर्जित सभी पुण्यलोकों को नष्ट कर  दिया और उनकी पूजा की। इसके बाद परशुराम जी भगवान राम की परिक्रमा करके तुरन्त महेन्द्र पर्वत पर चले गए।

इस घटना ने भगवान परशुराम की उपार्जित सभी आध्यात्मिक उपलब्धियों को छीन लिया। परन्तु उन्हें इसका जरा भी दुख नहीं हुआ। अत्यन्त शान्तचित्त होकर पुनः अपने तपोबल से वे उन्हें अर्जित किए और आज उनकी गणना सात अमर लोगों में होती है-
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमान्श्च विभीषणः।
कृपः  परशुरामश्च  सप्तैते    चिरजीविनः।।
अर्थात् अश्वत्थामा, महाराज बलि, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये सात चिरंजीवी (अमर) हैं।

रामचरितमानस में संत तुलसीदास जी ने इस घटना का वर्णन धनुष के टूटने के तुरन्त बाद किया है और इसमें लम्बा संवाद लक्ष्मण के साथ दिखाया गया है। हनुमन्नाटकम् में परशुराम-राम संवाद का पैनापन रामचरितमानस में देखने को मिलता है। परशुराम-लक्ष्मण संवाद पीयूषवर्षी जयदेव की परिकल्पना है, जो उनके प्रसन्नराघवम् नाटक में देखने को मिलती है। लेकिन इस नाटक में इस संवाद का उतना विशद रूप देखने को नहीं मिलता, जितना रामचरितमानस में। तुलसीदास जी ने प्रसन्नराघवम् के कुछ श्लोकों का बहुत सुन्दर अनुवाद किया है। इसका उल्लेख इसी ब्लॉग पर प्रकाशित एक पोस्ट पर आ चुका है। इसलिए उनकी पुनरावृत्ति न करते हुए इस अंक को यहीं विराम दिया जा रहा है।

अगले अंक में भगवान परशुराम के जीवन के कुछ और घटनाओं के साथ उनकी आध्यात्मिक देन पर चर्चा की जाएगी। इस अंक में बस इतना ही।
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सोमवार, 28 नवंबर 2011

हंसी-झरनों का राग

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Sn Mishraश्यामनारायण मिश्र

Indian-motifs-26लीला ! ओ लीला !

कोहरे में डूबा होगा घर-गांव

यादों की गलियों

घूम रहा एकाकी

      मन गीला गीला।

 

दूर,

तुमसे दूर

मीलों दूर

      लोहे की नगरी यह पिंजरा।

सीख नहीं पाता

मन यंत्रों की भाषा

तेरी उन्मुक्त हंसी-झरनों का

                  राग नहीं बिसरा।

लघुता,

स्वीकारता नहीं

आदत में बसा हुआ

      अगहन का विस्तृत

                 नभ गहरा नीला।

रातों की चुप्पी को

तोड़ रही सांसों की

      घुरुर-घुरुर चक्की।

लगता है

भीतर ही भीतर तुम

      गा गाकर पीस रही मक्की।

क्या अच्छा होता,

जो होता

      दुनिया की जगह

               सिर्फ़ इक कबीला।

रविवार, 27 नवंबर 2011

बच्चन जी के जन्मदिन पर


बच्चन जी
परशुराम राय

जी हाँ, इसी नाम से बचपन में हरिवंश राय को पहले माता-पिता, परिवार के अन्य सदस्य और फिर पड़ोसी तथा मित्र सम्बोधित करते थे। बाद में इन्होंने इसी को अपना पेन-नेम बनाकर साहित्य-सृजन किया और आज साहित्यिक जगत ही नहीं, बल्कि सभी उनके इसी नाम से परिचित हैं। उनकी संतानों ने भी अपने पारम्परिक वंशधरों के कुलनाम को छोड़कर इसी नाम को अपने लिए कुलनाम के रूप में व्यवहृत कर लिया।
आज हरिवंश राय बच्चन का 104थी वर्ष-गाँठ है। इनका जन्म आज ही के दिन 104 वर्ष पूर्व 1907 में इलाहाबाद में हुआ था। इनकी माँ सरस्वती देवी और पिता श्री प्रताप नारायण श्रीवास्तव थे। सम्भवतः इनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से प्रव्रजित होकर इलाहाबाद में बस गए थे। 19 वर्ष की आयु में इनका विवाह श्यामा जी से हुआ, जिनका 1936 में यक्ष्मा से देहान्त हो गया। बाद में फिर इन्होंने तेजी सूरी से विवाह किया। इनसे इनको दो सन्तानें- अमिताभ और अजिताभ हुईँ।
इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पी.एच.डी.। अपने कैरियर का प्रारम्भ इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन से किया। फिर स्वतंत्रता मिलने के बाद विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में काम किया। बाद में ये राज्य-सभा के मनोनीत सदस्य हुए। 18 जनवरी 2003 में मुम्बई में इनका देहावसान हुआ।  
बच्चन जी उपर्युक्त उपलब्धियों के लिए कम और अपनी साहित्यिक कृतियों के लिए अधिक जाने जाते हैं। विशेषकर उनकी कालजयी कृति मधुशाला के साथ उनका नाम सबसे अधिक जुड़ा है। उन्होंने लगभग सौ पुस्तकें लिखी हैं और इन्हें दो चट्टानें के लिए 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अतिरिक्त इन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और बिड़ला फाउंडेशन से सरस्वती सम्मान प्रदान किए गए। 1976 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया।
बच्चन जी ने वैसे तो अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें गद्य, कविता, अनूदित रचनाएँ हैं। लेकिन वे मधुशाला से जितना जाने जाते हैं, उतना अन्य के लिए नहीं।  इनकी प्रमुख रचनाएँ- मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशानिमन्त्रण, दो चट्टानें आदि हैं।
आज का उद्देश्य उनका परिचय देना नहीं बल्कि उन्हें याद करना है। बच्चन जी को बड़ी लम्बी आयु मिली थी। अपने अन्तिम दिनों में काफी लम्बे समय तक वे अस्वस्थ रहे। जब 2003 में उनका देहावसान हुआ था, उस समय मैं आन्ध्र प्रदेश स्थित आर्डनेन्स फैक्टरी, मेदक में था। उस दिन टी.वी. पर प्रायः सभी चैनल सूनी मधुशाला के नाम से उस घटना का प्रसारण कर रहे थे। इन दो शब्दों सूनी मधुशाला ने मुझे कब प्रेरित कर दिया श्रद्धा की मधुशाला लिखने के लिए, पता ही न चला।
उस दिन मुझे अपने एक मित्र के विरुद्ध चल रही अनुशासनिक कार्यवाही में बचाव अधिकारी के रूप में दिल्ली जाना था। शाम को ट्रेन में बैठा तो कोई गप-शप के लिए उपयुक्त सहयात्री नहीं मिला। अब मन में श्रद्धा की मधुशाला की पंक्तियाँ फड़कने लगीं। सोचा क्यों न मधुशाला में बच्चन जी द्वारा प्रयुक्त छंद में ही इसे लिखा जाय। अतएव दिल्ली पहुँचते ही पहले मधुशाला की एक प्रति खरीदी, उसे पढ़ा और मनन किया। वापसी में ट्रेन में ही श्रद्धा की मधुशाला लिख डाली। घर पहुँच कर मात्रा आदि ठीक कर इसका संस्कार किया। यह दस पंखुड़ियों की बच्चन जी को श्रद्धांजलि है। कई बार कवि-गोष्ठियों में इसे सुनाया, मित्रों ने काफी पसंद किया। बाद में आर्डनेन्स फैक्टरी मेदक की गृह-पत्रिका सारथ में इसका प्रकाशन हुआ और 18 जनवरी, 2010 को बच्चन जी की सातवीं पुण्यतिथि पर इसी ब्लॉग पर भी प्रकाशन हुआ। आदरणीय मनोज कुमार जी ने इच्छा व्यक्त की कि आज बच्चन जी को स्मरण करते हुए श्रद्धा की मधुशाला को पुनः आज पोस्ट किया जाए। इसी के अनुसरण में आज प्रस्तुत है श्रद्धा की मधुशाला

श्रद्धा की मधुशाला


साकी  बाला  के हाथों में
भरा  पात्र  सुरभित हाला
पीने वालों के सम्मुख था
भरा हुआ मधु का प्याला।
मतवालों के मुख पर फिर क्यों
दिखी  नहीं   थी    जिज्ञासा
पीने  वाले   मतवाले     थे
फिर  भी  सूनी  मधुशाला ।। 1 ।।
मधु का कलश भावना का था
नाम   आपका   था   हाला
पीने   वाले   प्रियजन   तेरे
कान  कान  था   मधुप्याला।
तेरी चर्चा की सुगंध सी
आती थी उनके मुख से
यहाँ बसी थीं तेरी  यादें
और सिसकती मधुशाला ।। 2 ।।   
छूट गए सब जग के साकी 
छूट  गई  जग  की हाला
छूट  गए  हैं  पीने  वाले
छूट गया जग का प्याला।
         
बचा न कुछ भी, सब कुछ छूटा
जग    की   मधुबाला   छूटी
छोड़  गए  तुम  अपनी  यादें
प्यारी  सी  यह     मधुशाला ।। 3 ।।
    
मृत्यु खड़ी साकी बाला थी
हाथ  लिए  गम का हाला
जन-जन था बस पीनेवाला
लेकर  साँसों  का  प्याला।
किंकर्तव्यमूढ़ सी महफिल
मुख पर कोई बोल न थे
चेहरों पर थे गम के मेघ
आँखों में थी मधुशाला ।। 4 ।।
पंचतत्व के इस मधुघट को 
छोड़   चले  पीकर   हाला
कूच कर गए इस जगती से
लोगों  को  पकड़ा   प्याला।
बड़ी अजब माया है जग की         
यह तो  तुम  भी जान चुके
पर चिंतित तू कभी न होना
वहाँ  मिलेगी     मधुशाला ।। 5 ।।
वहाँ मिलेंगे साकी तुमको
स्वर्ण  कलश में ले हाला
इच्छा की ज्वाला उठते ही
छलकेगा  स्वर्णिम प्याला।
करें वहाँ स्वागत बालाएँ
होठों का  चुम्बन  देकर
होगे तुम  बस पीने वाले
स्वर्ग  बनेगा   मधुशाला ।। 6 ।।
मन बोझिल था, तन बोझिल था
कंधों   पर   था    तन-प्याला
डगमग-डगमग   पग  करते  थे
पिए  विरह   का   गम   हाला।
                                  
राम नाम है सत्य न  बोला
रट  थी  सबकी  जिह्वा पर
अमर रहें बच्चन जी जग में,
अमर  रहे  यह    मधुशाला ।। 7 ।।    
दुखी न होना ऐ साकी तू             
छलकेगी फिर  से  हाला
मुखरित  होंगे  पीने वाले
छलकेगा  मधु का प्याला।
नृत्य  करेंगी मधुबालाएँ
हाथों में  मधुकलश लिए
सोच रहा हूँ कहीं बुला ले
फिर  से तुमको मधुशाला ।। 8 ।।
क्रूर  काल-साकी  कितना हूँ
भर  दे  विस्मृति  का हाला
खाली कर न सकेगा फिर भी
लोगों  की स्मृति  का प्याला।
इस जगती पर  परिवर्तन के
आएँ    झंझावात     भले,
अमर  रहेंगे  साकी  बच्चन,
अमर   रहेगी     मधुशाला ।। 9 ।।
अंजलि का प्याला  लाया हूँ
श्रद्धा  की  भरकर    हाला
भारी मन है मुझ साकी का
आँखों   में    ऑसू-हाला।
मदपायी का मतवालापन     
ठहर गया क्यों पता नहीं
अंजलि  में लेकर बैठा हूँ
श्रद्धा की यह मधुशाला ।। 10 ।।
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शनिवार, 26 नवंबर 2011

फ़ुरसत में ... आराम कुर्सी चिंतन!

फ़ुरसत में ...

 

आराम कुर्सी चिंतन!

images (67)

IMG_0568मनोज कुमार

पिछले एक महीने के भीतर ब्लॉगजगत में चार-पांच पोस्ट ऐसी आईं जिनका संबंध प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बाल-श्रम से था। सभी पोस्टों में इस सामाजिक अभिशाप के प्रति चिंता जताई गई थी और व्यवस्था के ख़िलाफ़ आक्रोश भी प्रखर था। इन पोस्टों को पढ़ते वक़्त मेरे भी मन में उथल-पुथल हुई। मन किया इस विषय पर मैं भी कुछ लिखूं, पर उस समय अपने लिखने की इच्छा को दबा गया। इसे दबाने में श्रम तो मुझे भी लगा, पर वह कहीं से भी बाल श्रम नहीं था, बल्कि बल (पूर्वक) श्रम था।

आज एक ऐसी बात हुई जिसने मुझे काग़ज़-पेंसिल उठाने पर मज़बूर कर दिया। मेरे दफ़्तर का एक कर्मचारी जिसे सरकारी भाषा में ‘चपरासी’ कहा जाता था, अब छठे वेतन आयोग के लागू हो जाने से उनकी प्रतिष्ठा (पद नाम बदल कर) बढ़ गई है। अब - MTS – मल्टी टास्किंग स्टाफ़ कहलाते हैं वे। नाम, उसका ... छोड़िए, वह काफ़ी दिनों से पीछे पड़ा था कि उसके लड़के को किसी ग्रुप ‘डी’ के पद पर बहाल करवा दूँ। पढ़ा-लिखा तो कुछ विशेष था नहीं। लेकिन पिछले कई वर्षों से सरकार ने रिक्रूटमेंट पर ‘बैन’ किया हुआ था और जब छठे वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू की गईं तो इन्हें ‘ग्रुप सी’ में डाल दिया गया, जहां न्यूनतम योग्यता मैट्रिक कर दी गई थी। मतलब उस बेचारे चपरासी के बेटे को सरकारी नौकरी मिलने की रही-सही उम्मीद भी मिट्टी में मिल गई थी। आज बातों-बातों में उससे जब पूछा, “बेटा क्या कर रहा है?” तो उसने जवाब दिया, “करेगा क्या? अब यहाँ तो नौकरी मिलने से रही, मेट्रो निर्माण कार्य चल रहा है, उसी में ईंट ढोने का काम करता है।” मैंने पूछा, “ .. और छोटा बेटा?” उसने जवाब दिया, “उसे भी वहीं बड़े भाई के साथ लगा दिया है।”

मेरे मन में आया – देश की संख्या में – एक और बाल श्रमिक की वृद्धि!

इसी बातचीत ने मुझे फिर से उन पोस्टों की याद दिला दी। मन किया इस विषय पर मैं भी अपनी बात रखूँ। शाम को जब घर आया, तो बैग आदि रखकर बिना कपड़े बदले चल पड़ा एक बार फिर से उन्हीं फूटपाथों पर जहाँ सुबह की सैर को निकलता हूँ। सुबह में तो वहाँ शांति रहती है, किन्तु इस समय मुझे हर झोपड़पट्टीनुमा फुटपाथी दुकानों में एक या उससे अधिक बाल श्रमिक प्लेटें धोने से लेकर प्याज-पकौड़ी तलने तक के काम में लगे दिखे। वापस घर आया। उन पोस्टों को एक बार फिर से पढ़ा। उस दर्द को महसूस किया, जिन्हें इन पोस्टों में दर्शाया गया था। एक टिप्पणी ने विशेष आकर्षित किया – जिसमें लिखा गया था कि इस तरह के लेखन को आराम कुर्सी लेखन का दर्ज़ा दिया जाना चाहिए। मैंने भी मन ही मन सोचा आज आराम कुर्सी लेखन ही कर लूँ। घर के दरवाज़ों को बन्द किया। ए.सी. ऑन कर दिया। एक्ज़ीक्यूटिव चेयर खींच कर उस पर बैठा और लगा करने – आराम कुर्सी चिंतन!

एक-एक कर सारी पोस्ट मस्तिष्क में घूम रहीं हैं और बज रहा है एक स्वर – हथौड़े के माफ़िक – अगर ये बालक श्रम न करें तो क्या करें?

क्या आप और हम इनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी लेंगे? क्या सरकार लेगी? .......लेती भी है कभी? ...कौन लेगा? ....इनके मां-बाप? ......होते हैं क्या वे आर्थिक रूप से इतने सक्षम? ... और भी कई प्रश्न थे तो मुझे मथते रहे।

मैं सोचता हूँ – हम चिंतन कर सकते हैं इनके ऊपर, इनकी चिंता नहीं!

सोचिए न – क्या आप अपने बच्चों को इनके साथ खेलने देंगे? क्या उन्हें ... उन्हें क्या, अपने घर में काम करने वाली बाई के बच्चे को ही लें, ... क्या अपने बेड रूम में जाने देंगे? अपने बिस्तर पर एक पल के लिए ही सही, सुलाएंगे? ... छोड़िए वह भी, ... ड्राइंग रूम में ही सही, अगर वह चला गया और वहाँ पर हग दिया, तो ...? ...? क्या आप उसे ‘हग’ करेंगे या ... ... ? छोड़िए वह भी..! सोचिए वह आपके सोफे के बगल में खड़ा है और उसकी नाक से बहता पोंटा आपके सोफे पर गिरता है – तो क्या आपकी वही प्रतिक्रिया होगी जो अपने बच्चे के साथ होती है?

मैं जो भी कह रहा हूँ, लिख रहा हूँ, वह मैंने जिया है।

ब्रह्मपुरा मिडिल स्कूल में जब मैं पढ़ता था, तो इन जैसों के साथ खेला हूँ मैं, और इनके साथ खेलते देख, प्रभात तारा स्कूल में पढ़ने वाले दोस्त मेरे साथ नहीं खेलते थे। चक्कर, मैदान का ‘प्रभात तारा’ स्कूल उन दिनों मुज़फ़्फ़रपुर का एक मात्र कान्वेन्ट स्कूल हुआ करता था। ऐसा नहीं है कि मेरे पिताजी की उतनी हैसियत न रही हो कि वे मुझे ‘प्रभात तारा’ में न पढ़ा पाते। पर देश आज़ाद हुए दो दशक भी नहीं हुए थे। आज़ादी की लड़ाई में थोड़ा-बहुत उन्होंने भी भाग लिया था। शायद उस समय की राष्ट्र-भक्ति के कारण अंग्रेज़ी हुक़ूमत के प्रतीक मिशनरी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना उन्होंने उचित न समझा होगा और सरकारी स्कूल में पढ़ाना उन्हें राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़ता होगा।

मेरे उस मिडिल स्कूल के सहपाठी दोस्तों से आपका परिचय कराऊँ – शंकर – पिता एक गल्ले की दुकान में काम करते थे, किशोर – पिता मल्लाह, मछली बेचने का धंधा, - अशोक – पिता तेल पेड़ने का काम, नन्द किशोर – ब्रह्मपुरा चौक पर पिता की पान की दुकान और दीपू – पिता मोहन राम – ब्रह्मपुरा चौक पर बुट पॉलिश का काम। ऐसे लोगों के साथ खेला-खाया, बड़ा हुआ। बड़े क़रीब से इनकी दुनिया देखी, उनके दुख-दर्द को महसूस किया। इसलिए कह सकता हूँ, कहना चाहता हूँ – सोचिए, ज़रूर सोचिए बाल श्रमिकों पर, - पर ज़रा सामाजिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रख कर सोचिए। ज़रूर सोचिए – पर व्यावहारिक होकर।

सामाजिक स्थिति कैसी रही होगी ... उन दिनों, ... और आज भी क्या बहुत परिवर्तन आ गया है? एक वाकया शेयर करना चाहूँगा। पिताजी के स्कूल के दिनों में उनके एक दोस्त थे – दास। उनके साथ उन्होंने एक थाली में खाना खा लिया था। बाबा को मालुम हुआ, तो उन्होंने उन्हें घर से निकाल दिया। फ़रमान यह ज़ारी हुआ कि रेत में गोबर मिला कर खाएगा, तो शुद्धि होगी – तभी घर में प्रवेश मिलेगा। पिताजी ने बाहर रहना ही उचित समझा।

जो मेरे उस स्कूल के क़रीबी दोस्त थे – एक से एक प्रतिभावन। अशोक की हैंडराइटिंग मोतियों जैसी थी। उतना सुंदर लेखन मैंने आज तक किसी का नहीं देखा। एक से बीस तक पहाड़ा तो वह फटाफट बोलता था। ड्योढ़ा और सवैया भी उसे याद था। किशोर जो ख़ुद अच्छी पहलवानी करता था, उसने मुझे स्कूल के सामने के अखाड़े में पहलवानी के कई गुर सिखाए। उससे सीखे दाँव आज भी लोगों को (काग़ज़ी ही सही) पटख़नी देने में बड़े काम आते हैं। नन्द किशोर की उँगलियाँ तो लाजवाब पान बनाती थीं। जब किशोर पान बनाते समय कटोरी में से चूना निकालता था और पत्ते पर डालता था, तो टन्न-टन्न की दो बार आवाज़ ज़रूर निकालता था। उस आवाज़ की मधुर ध्वनि आज भी मेरे मस्तिष्क मे गूँजती है। शंकर फ़िल्मी गीत बड़ी तन्मयता से  झूमझूम कर गाता था। हम तो उसे रफ़ी ही कहते थे।

पर, आज बात करूँगा दीपू की। दीपू से भी पहले राजकुमार की बात कर लूँ। राजकुमार से मेरा परिचय पटना में हुआ था। सिविल सर्विसेज की तैयारी करने हम छह दोस्त पटने आए थे। तीन रूम वाला एक लौज किराए पर लिया था हमने। हमारा खाना राजकुमार की माँ बनाती थीं। विधवा थीं। उसका एकलौता बेटा राजकुमार माँ के पैसों का दुरुपयोग करता था। एक दिन रहा न गया तो उससे कहा, इसको पढ़ाती क्यों नहीं? बोली पैसा कहाँ से आएगा? लोगों का बरतन-चौका कर तो किसी तरह पेट पालती हूँ। मैंने कहा फिर क्या करेगा वह? ऐसे तो सारा दिन आवारागर्दी करते घूमता रहेगा। बोली – मंटू दा (होटल का मालिक) से बोली हूँ, इसे काम पर लगा लेंगे। मेरा मन गवाही नहीं दे रहा था कि राजकुमार वह काम करे। उन दिनों एक दूरस्थ शिक्षा योजना चली थी। मैंने उसमें आवेदन कर दिया। वे किट आदि भेज देते थे, जिसमें किसी को पढ़ाने की सामग्री होती थी। मैं राजकुमार को पढ़ाने लगा।

मेरे पास एक थ्री-इन-वन ट्रांजिस्टर था। इंगलैंड से एक रिश्तेदार ने लाकर दिया था। उसकी विशेषता थी कि उसमें टीवी भी पकड़ता था। उसमें टीवी की आवाज़ ही आती थी, पर उस रामानन्द सागर वाली रामायण के ज़माने में वह एक अद्भुत चीज़ थी मेरे पास। जब रामायण सीरियल आता था, तो सड़कों पर ऐसा सन्नाटा होता था मानो कर्फ़्यू लग गया हो। मेरे घर में उस थ्री-इन-वन पर रामायण सुनी जाती थी और घर और बाहर बरामदे में भीड़ लगी होती थी, उन झोपड़पट्टी वालों की, जिनमें से एक राजकुमार और उसकी मां भी थे।

छठ में घर गया हुआ था। वापस आया तो अपने कमरे में उस थ्री-इन-वन को नहीं पाया। खोज-खबर ली तो – बाक़ी के दोस्तों ने जानकारी न होने की बात कही। लोगों की सलाह पर थाने में रपट लिखवा दी। दुखी मन से कोचिंग इंस्टीच्यूट चला गया। शाम को वापस लौटा तो मालूम हुआ कि दोपहर में पुलिस आई थी। राजकुमार को पकड़ कर ले गई। थाने में पिटाई पड़ी तो उसने क़बूला कि उसने ही उठाया था। उठाकर आगे किसी के हाथों बेच दिया। जिसे बेचा था उसने साफ़ मना कर दिया है। राजकुमार की पिटाई – मेरा मन व्यथित हो गया। थाने गया – उसके ख़िलाफ़ केस वापस ले लिया।

यह किस्सा यहीं बन्द करता हूँ। आता हूँ दीपू पर। उसके पिता जूता मरम्मत और पॉलिश का काम करते थे। पर फेमस उसकी माँ थी। उसका नाम गयतिरिया माय था। ऐसे लोग अच्छा नाम भी नहीं रख सकते थे। नाम तो उसकी बेटी का गायत्री ही रहा होगा। पर कहा जाता होगा ‘गायतिरिया’। और उसकी माँ – गयतिरिया माय। बहुत गुणी थी। पूरे ब्रह्मपुरा मुहल्ले में उसकी धाक थी। बच्चा पैदा कराने में उसे महारत हासिल थी। एक से बढ़कर एक कॉम्प्लिकेटेड प्रिगनेन्सी को सरल ढँग से कराना गयतिरिया माय के बाएँ हाथ का खेल था। पुरैन निकालने से लेकर नाल काटने तक के काम में वह एक्सपर्ट थी। कह सकते हैं कि वह कई लेडी डॉक्टर से भी बेहतर थी। बल्कि उन्हें अच्छे-अच्छे टिप्स दे दिया करती थी। एवज़ में उसे प्रसूता की साड़ी, कुछ रुपए मिल जाते थे।

दीपू के साथ खेलने में मुझे मज़ा आता था। उसके पिता टायर को जलाकर उसमें से तार निकालते थे। कुछेक टायरों को काटकर चक्का बना देते थे। जिसे एक छोटे से डंडे से मार-मार कर हम गुरकाते थे। दीपू और मैं चक्का गुरकाने का खेल खेलते। वह हमेशा मुझसे तेज़ दौड़ता था। अगर एथलिट बन गया होता, तो अवश्य ही उसका नाम होता। पर ऐसों की क़िस्मत ‘सुशील कुमार’ जैसी थोड़े होती है, जो करोड़पति बन कर नाम कमाए।

समय के साथ लोगों की आदतें बदलीं। उत्पाद की तकनीक बदली, उत्पादों की गुणवत्ता भी। चमड़े के जूते-चप्पलों की जगह प्लास्टिक के जूते-चप्पल आ गए जिन पर पॉलिश की ज़रूरत ही नहीं थी। दाम इतने कम कि यूज़-एंड-थ्रो का प्रचलन बढ़ा। समाज के द्वारा इस वर्ग के लोगों की स्थिति भी यूज़-एंड-थ्रो से बेहतर न हो सकी। लोगों को जूते-चप्पल की सिलाई और काँटा ठोकाई की ज़रूरत नहीं रह गई। फिर पॉलिश भी ऐसे-ऐसे तरल रूप में आ गईं कि लोग घर में ही करने लगे पॉलिश। जूते भी ऐसे-ऐसे आए कि उन्हें पॉलिश करना ही नहीं पड़ता, धोकर सुखा देने से काम चल जाता। मोहन राम का धंधा चौपट हो गया।

बच्चा पैदा करने के लिए भी लोग अस्पताल और डिस्पेंसरी का रुख करने लगे। गयतिरिया माय की पूछ कमती होती गई। ... और दीपू भी मुझे काफ़ी दिनों से दिखाई नहीं दिया। मैं भी तो सातवीं से आगे की पढ़ाई के लिए हाई स्कूल चला गया था। ब्रह्मपुरा मिडिल स्कूल से सिर्फ़ तीन लड़के हाई स्कूल की पढ़ाई ज़ारी रख सके। वे तीनों ही ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी वाले ही थे। एक मैं, दूसरा विजय – गार्ड साहब का लड़का और तीसरा माधव, उसके पिता माल बाबू थे। बाक़ी सब कहीं न कहीं बाल श्रम में लग गए। नन्द किशोर पान की दुकान पर बैठने लगा था। अशोक तेल पेड़ने के धंधे में पड गया। किशोर बम्बई सैलून में हेयर कटिंग करने लगा। शंकर गल्ले की दुकान पर।

दीपू...?

सुबह-सुबह टहलने की मेरी आदत बनी हुई थी। उन दिनों बस स्टैंड बैरिया आ गया था। मैं उधर से ही टहलने जाया करता था। एक दिन जब जा रहा था, तो मेरी नज़र एक बस की तरफ़ गई। देखा 12-13 साल का एक लड़का पानी से बस धो रहा था। मैं उसके पास गया। वह दीपू ही था। उसने बताया वह इस बस के क्लीनर-खलासी का काम करता है। मैं उससे और कुछ न पूछ सका। वापसी में मेरे मन में सगीना महतो का गाना गूँज रहा था,

भोले-भाले ललुआ खाएगा रोटी बासी,

बड़ा होकर बनेगा साहब का चपरासी

खेल-खेल-खेल, माटी में होली खेल

गाल में गुलाल है न ज़ुल्फ़ों में तेल ...

***

पुनश्च :

मेरे सामने अब भी प्रश्न वही है – ये बाल श्रम न करें तो क्या करें?

एक तरफ़ दीपू है – दूसरी तरफ़ राजकुमार

एक तरफ़ समाज है, दूसरी तरफ़ सरकार!

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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

शिवस्वरोदय – 69


शिवस्वरोदय – 69

आचार्य परशुराम राय

इस अंक को प्रारम्भ करने के पहले यह बता देना आवश्यक है कि निम्नलिखित श्लोकों में प्राणायाम की प्रक्रिया और उससे होनेवाले लाभ की चर्चा की गयी है। पर, पाठकों से अनुरोध है कि वे प्राणायाम किसी सक्षम व्यक्ति से सीखकर ही अभ्यास करें, विशेषकर जिनमें कुम्भक प्राणायाम को सम्मिलित करना हो। प्राणायाम की अनगिनत प्रक्रियाएँ हैं और उनके प्रयोजन भी भिन्न हैं। विषय पर आने के पहले एकबार फिर पाठकों से अनुरोध है कि कुम्भक युक्त प्राणायाम एक सक्षम साधक के सान्निध्य और मार्गदर्शन में ही करना चाहिए।

पूरकः कुम्भकश्चैव रेचकश्च तृतीयकः।

ज्ञातव्यो योगिभिर्नित्यं देहसंशुद्धिहेतवे।।376।।

भावार्थ – इस श्लोक में प्राणायाम के अंगों और उससे होनेवाले लाभ की ओर संकेत किया गया है। प्राणायाम में पूरक, कुम्भक और रेचक तीन क्रियाएँ होती हैं। योगी लोग इसे शरीर के विकारों को दूर करने के कारण के रूप में जानते हैं। अतएव इसका प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए। पूरक का अर्थ साँस को अपनी पूरी क्षमता के अनुसार अन्दर लेना है। रेचक का अर्थ है साँस को पूर्णरूपेण बाहर छोड़ना। तथा कुम्भक का अर्थ है पूरक करने के बाद साँस को यथाशक्ति अन्दर या रेचक क्रिया के बाद साँस को बाहर रोकना। इसीलिए यह (कुम्भक) दो प्रकार का होता है- अन्तः कुम्भक और बाह्य कुम्भक।

English Translation – In this verse steps of breathing exercise and its benefits have been stated. There are three steps of breathing exercise- inhaling the breath with full capacity is called Purak, exhaling it fully is called Rechak and holding the breath inside after inhaling and outside after exhaling, as much as someone can do, is called Kumbhak (Antah and Bahya Kumbhak respectively). This exercise is known to Yogis for purification the body.

पूरकः कुरुते वृद्धिं धातुसाम्यं तथैव च।

कुम्भके स्तम्भनं कुर्याज्जीवरक्षाविवर्द्धनम्।।377।।

भावार्थ – पूरक से शरीर की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषण मिलता है और शरीर की रक्त, वीर्य आदि सप्त धातुओं में सन्तुलन आता है। कुम्भक से उचित प्राण-संचार होता है और जीवनी शक्ति में वृद्धि होती है।

English Translation – Inhalation nourishes and develops the body; and maintains balance in seven primary substances, i.e. blood, fat, seminal fluid etc. Holding of the breath regulates and increases vital energy in our body.

रेचको हरते पापं कुर्याद्योगपदं व्रजेत्।

पश्चातसंग्रामवत्तिष्ठेल्लयबन्धं च कारयेत्।।378।।

भावार्थ – रेचक करने से शरीर का पाप मिटता है, अर्थात् शरीर और मन के विकार दूर होते हैं। इसके अभ्यास से साधक योगपद प्राप्त करता है (अर्थात् योगी हो जाता है) और शरीर में सर्वांगीण सन्तुलन स्थापित होता है तथा साधक मृत्युजयी बनता है।

English Translation – Exhalation removes sins from the body, it means it removes impurities from the body and mind. Its practitioner attains enlightenment and gets his body balanced in all respect and thus overcomes death.

कुम्भयेत्सहजं वायुं यथाशक्ति प्रकल्पयेत्।

रेचयेच्चन्द्रमार्गेण सूर्येणापूरयेत्सुधीः।।379।।

भावार्थ – सुधी व्यक्ति को दाहिने नासिका रन्ध्र से साँस को अन्दर लेना चाहिए, फिर यथाशक्ति सहज ढंग से कुम्भक करना चाहिए और इसके बाद साँस को बाँए नासिका रन्ध्र से छोड़ना चाहिए।

English Translation – A wise person should therefore inhale the breath through right nostril, hold it as long as he can do easily and thereafter exhale it through left nostril.

चन्द्रं पिबति सूर्यश्च सूर्यं पिबति चन्द्रमाः।

अन्योन्यकालभावेन जीवेदाचन्द्रतारकम्।।380।।

भावार्थ – जो लोग चन्द्र नाड़ी से साँस अन्दर लेकर सूर्य नाड़ी से रेचन करते हैं और फिर सूर्य नाड़ी से साँस अन्दर लेकर चन्द्र नाड़ी से उसका रेचन करते हैं, वे जब तक चन्द्रमा और तारे रहते हैं तब तक जीवित रहते हैं (अर्थात् दीर्घजीवी होते हैं)। यह अनुलोम-विलोम या नाड़ी-शोधक प्राणायाम की विधि है।

English Translation – The person, who inhales the breath through left nostril and exhales through right nostril; and again inhales through right nostril and exhales through left nostril, remains alive till the moon and stars exist. In other words his longevity goes up like anything.

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