भारतीय काव्यशास्त्र – 90
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में प्रतिकूलवर्णता, उपहतविसर्गता और विसंधि तीन वाक्य दोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में हतवृत्त, न्यूनपदत्व और अधिकपदत्व वाक्य दोषों पर चर्चा की जाएगी।
हतवृत्त का अर्थ सीधे अर्थ में छंद-भंग है। यह दीन प्रकार का होता है- 1.जहाँ छंद लक्षण के अनुरूप होने पर भी सुनने में अच्छा न लगे, अर्थात् प्रवाह का अभाव हो या यति अश्रव्य हो जाय, 2.जहाँ अन्त में लघु मात्रा गुरु-मात्रा का स्थान लेने में अक्षम हो और 3.जहाँ रस के अनुरूप छन्द का प्रयोग न हो, वहाँ हतवृत्त या छन्द-भंग दोष होता है।
पहले प्रकार के हतवृत्त दोष के लिए निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया जा रहा है-
अमृतममृतं कः सन्देहो मधून्यपि नान्यथा
मधुरमधिकं चूतस्यापि प्रसन्नरसं फलम्।
सकृदपि पुनर्मध्यस्थः सन् रसान्तरविज्जानो
वदतु यदिहान्यत् स्वादु स्यात् प्रियदशनच्छदात्।।
अर्थात् अमृत निस्सन्देह अमृत है, शहद भी अन्य प्रकार का नहीं है, मधुर रसयुक्त आम का फल भी काफी मीठा होता है। परन्तु सब रसों का आस्वादन करनेवाला व्यक्ति निष्पक्ष होकर बताए कि क्या इस संसार में प्रियतमा के अधरोष्ठ से भी अधिक स्वादयुक्त कोई वस्तु है।
इस श्लोक में हरिणी छंद है। इस श्लोक में लक्षण के अनुरूप छंद होने पर भी इसके अन्तिम चरण में यदिहान्यत् स्वादु स्यात् के बाद यति है, परन्तु यह सुनने में प्रकट नहीं हो पाती। अतएव यह सुनने में अच्छा नहीं लगता, गति या प्रवाह अवरुद्ध होता है, जिससे यहाँ हतवृत्त दोष आ गया है।
इसी प्रकार कवि भूषण की निम्नलिखित कविता में मनहरण कवित्त है। लक्षण के अनुसार यह ठीक तो है, पर प्रत्येक चरण के उत्तरार्द्ध में गति या प्रवाह अवरूद्ध होता है, विशेषकर दूसरे और चौथे चरण का उत्तरार्द्ध। अतएव यहाँ भी हतवृत्त दोष है-
एक प्रभुता को धाम, सजे तीनौ बेद काम,
रहे पंचानन षड़ानन राजी सर्वदा।
सात बार आठौ जाम जाचक निवाज नव,
अवतार बिराजे कृपान ज्यौं हरिगदा।
सिवराज ‘भूषन’ अटल रहौ तौ लौं,
जौ लौं त्रिदस भुवन सब गंग औ नरमदा।
पंडव त्रिगुन दानि रत है कलानि ऐसो,
दासरथि जा रस ता सरजा थिर सदा।
इसी प्रकार निम्नलिखित दोहे में यति रघु को बाद आ जाने से राज उसका अर्द्धांग अलग होकर दूसरे चरण के साथ हो गया है, जो सुनने में अटपटा सा हो गया है। अतएव यहाँ भी हतवृत्त दोष है।
दोउ समाज निमिराजु रघु, राज नहाते प्रात।
बैठे सब बट विटप तर, मन मलीन कृस गात।।
निम्नलिखित श्लोक में अप्राप्तगुरुभावान्तलघुरूप हतवृत्त दोष है, अर्थात् लक्षण के अनुसार चरण के अन्त में लघु वर्ण का गुरु वर्ण में परिणति का अभाव-
विकसितसहकारतारहारिपरिमलगुञ्जितपुञ्जितद्विरेफः।
नवकिसलयचारुचामरश्रीर्हरति मुनेरपि मानसं वसन्तः।।
अर्थात् आम के पेड़ों पर लदी मंजरी की दूर तक फैली मनोहर सुगन्ध और उससे उन्मत्त होकर चारणों की तरह गुंजार करते भौंरों के समूह जिसके चारण हैं और नव किसलय जिसके चँवर हैं, ऐसा ऋतुराज वसन्त मुनियों के मन को भी मोहित कर लेता है।
इस श्लोक में पुष्पिताग्रा छन्द है। छन्दशास्त्र में लघु और गुरु के लक्षण करते समय वा पादान्ते या पादान्तस्थं विकल्पेन नियम के अनुसार पाद के अन्त में आनेवाले लघु वर्ण को विकल्प से गुरु माना जा सकता है। परन्तु छन्दशास्त्रियों के अनुसार यह स्थिति केवल इन्द्रवज्रा आदि इने-गिने छन्दों तक ही सीमित है, पुष्पिताग्रा छन्द में यह नियम लागू नहीं होता। अतएव श्लोक के प्रथम चरण के अन्त में हारि पद में रि लघु है, जबकि गुरु होना चाहिए था। यदि हारिपरिमल के स्थान पर हारिप्रमुदितसौरभ पाठ होता तो रि गुरु हो जाता। क्योंकि संयुक्ताक्षर के पूर्व का वर्ण छन्द में सदा गुरु माना जाता है।
ऩिम्नलिखित श्लोक में रस के अनुरूप छन्द का प्रयोग न होने से हतवृत्त दोष है-
हा नृप! हा बुध! हा कविबन्धो! विप्रसहस्रमाश्रय! देव!
मुग्ध! विदग्धसभान्तरत्न! क्वासि गतः क्व वयं च तवैते।।
अर्थात् हे राजन, हे ज्ञानी, हे कवियों के बन्धु, हे हजारों ब्राह्मणों के आश्रय, हे देव, हे सुन्दर, हे विद्वत्-सभा के रत्न, आप कहाँ चले गये और आपके प्रिय आश्रित हम लोग कहाँ रह गए।
इस श्लोक में करुण रस प्रधान है, जिसमें बोधक छन्द का प्रयोग किया गया है। बोधक छन्द हास्य आदि रसों में प्रयोग होता है और करुण रस में मन्दाक्रान्ता आदि छन्दों का प्रयोग होता है, जो यहाँ नहीं किया गया है। अतएव यहाँ भी हतवृत्त दोष है।
जहाँ कविता में अर्थ को व्यक्त करनेवाले शब्दों की कमी हो, वहाँ न्यूनपदत्व दोष होता है। निम्नलिखित श्लोक में यह देखा जा सकता है-
तथाभूतां दृष्ट्वा नृपसदसि पाञ्चालतनयां
वने व्याधैः सार्धं सुचिरमुचितं वल्कलधरैः।
विराटस्यावासे स्थितमनुचितारम्भनिभृतं
गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुषु।।
अर्थात् उस राज्य-सभा में पांचाली की उस अवस्था (वस्त्र और बाल खींचे जानेवाली) को देखकर, वन में वल्कल वस्त्र धरण कर व्याधों के साथ रहते हुए, विराट के घर में रसोइये आदि नौकर की तरह काम करते हुए छिपकर जब हम रह रहे थे गुरु (महाराज युधिष्ठिर) को कौरवों पर क्रोध नहीं आया। जब मुझे उनपर क्रोध आ रहा है, तो मुझपर नाराज हो रहे हैं।
इस श्लोक के तीनों चरणों में कर्त्ता का अभाव है, कम से कम अस्माभिः का प्रयोग आवश्यक है। इसी प्रकार खिन्ने पद के ठीक पहले इत्थं क्रिया-विशेषण पद की कमी है। अतएव इस श्लोक में न्यूनपदत्व दोष है।
इसी प्रकार निम्नलिखित दोहे में खड्ग के साथ लता का प्रयोग अपेक्षित है। तभी उससे यश रूपी फूल विकसित होगा। अतएव यहाँ भी न्यूनपदत्व दोष है।
राज तिहारे खड्ग तें, प्रगट भयो जस फूल।
दान देइ सींचत सदा, भिक्षुकगन को मूल।।
जहाँ कविता में ऐसे शब्द प्रयोग किए गये हों जिनका कविता के अर्थ में कोई आवश्यकता न हो, वहाँ अधिकपदत्व दोष होता है। जैसे-
स्फटिकाकृतिनिर्मलः प्रकामं प्रतिसङ्क्रान्तनिशातशास्त्रतत्त्वः।
अविरुद्धसमन्वितोक्तियुक्तः प्रतिमल्लास्तमयोदयः स कोSपि।।
अर्थात् वास्तव में यह राजा कितना महान है, स्फटिक के समान अत्यन्त निर्मल जिसका व्यक्तित्व है, कठिन शास्त्रों के तत्त्व से जिसके हृदय और बुद्धि समृद्ध हैं, जिनकी वाणी तर्क-संगत और वेद आदि शास्त्रों के विरोधाभासी वचनों में समन्वय स्थापित करनेवाली है तथा अपने शत्रुओं की पराजय के मूल हैं, ऐसा कोई है, अर्थात् कोई नहीं।
यहाँ आकृति शब्द काव्य का अर्थ लेने में अनावश्यक है। इसलिए इसमें अधिकपदत्व दोष है।
इसी प्रकार निम्नलिखित दोहे के प्रथम चरण में हंसनि और अंतिम चरण में लता शब्द निरर्थक प्रयुक्त हुए हैं। दोहे के अर्थ में इनका कोई योगदान नहीं है। अतएव इसमें भी अधिकपदत्व दोष है-
कीरति-हंसिनि कौमुदी लौं फैली तुव राज।
बसै तिहारे सत्रु को, खड्गलता-अहिराज।।
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आभार इस ज्ञानवर्धक आलेख के लिये.
जवाब देंहटाएंशोध परक आलेख के लिए शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय पोस्ट
जवाब देंहटाएंआदरणीय मनोज जी अभिवादन और आभार बहुत ही सुन्दर और ज्ञानवर्धक जानकारियाँ ..आप के शब्द तो मन में घर कर लेते हैं ....जय श्री राधे
जवाब देंहटाएंभ्रमर ५
हम जैसे अपढ़ों के लिए ज्ञान गंगा है यह लेख, आचार्य !
जवाब देंहटाएंआभार आपका !
AAPKE GYAAN KE AAGE MAIN NAT MASTAK
जवाब देंहटाएंHUN .
ज्ञानवर्धक आलेख.आभार.
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