समीक्षा
आँच-94 - प्रभुसत्ता निर्भर है कबाड़ी पर
हरीश प्रकाश गुप्त
श्री श्याम नारायण जी मिश्र एक समर्थ गीतकार हैं। उनके नवगीत इस ब्लाग पर नियमित प्रकाशित हो रहे हैं। वे सहज शब्दों को इतनी आकर्षक शब्दयोजना में व्यवस्थित कर पाठक के सामने प्रस्तुत करते हैं कि उनके बिम्ब मुखर हो उठते हैं और भाषा में नवीनता एवं लालित्य
उत्पन्न करते हैं। भावों की गहनता और प्रांजलता उनके गीतों की विशिष्टता है। उनके बिम्ब प्रायः
ग्राम्य होते हैं, इसलिए जो पाठक उस परिवेश से या उस शब्दावलि से परिचित नहीं होते उनके लिए वे दुरूह हो जाते हैं। उनका यह नवगीत “प्रभुसत्ता निर्भर है कबाड़ी पर” अभी पिछले सप्ताह ही इसी ब्लाग पर प्रकाशित हुआ था। यह नवगीत भी उनकी इसी विशिष्टि के अनुरूप तथा बहुत सरल शब्दों में वर्तमान
राजनीतिक नेतृत्व की दिशा और दशा पर तीखा व्यंग्य करता है, तथापि इस नवगीत में प्रयुक्त बिम्ब बहुत आसान हैं और परिस्थिति का बहुत ही सजीव और स्पष्ट चित्रण करते हैं।
आज की राजनीति के क्षितिज पर जो शीर्ष जो व्यक्तित्व विराजमान हैं, मिश्र जी की वक्रोक्ति उनमें से अधिकांश पर सर्वथा सत्य प्रतीत होती है। न कोई गरिमा है, न कोई गम्भीरता। बस, दूसरे को नीचा दिखाकर आगे बढ़ने, स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की वृत्ति। सदाचार और मर्यादा, जो कभी भारतीय नेतृत्व का शिष्टाचार हुआ करता था, आज उनसे नाता दूर-दूर तक छूट चुका है। स्वार्थपरता के आगे जैसे सभी प्रतिमान लुप्तप्राय हो गए हैं। योग्यता हो न हो, उन्हें बस सबसे आगे रहना है, सबसे आगे। भले ही इसके लिए उन्हें कैसे भी, कितने भी घिनौने और ओछे कृत्य ही क्यों न करने पड़ें –
कीर्ति की पहाड़ी पर
चढ़ने को आतुर हैं बौने।
उन्हें बस अपनी उच्चता साबित करनी है। आदर्शों की कौन कहे, सब एक दूसरे पर ही कीचड़ उछालने में व्यस्त हैं। अपनी खोट का गुणगान और दूसरों की अच्छाइयों में भी दोषान्वेषण ही स्वभाव बन गया है।
अपने मुंह मियां मिट्ठू बने
बात अपने पुण्य की
कहते नहीं थकते।
इसी प्रकार के भावों को राष्ट्रकवि दिनकर जी अन्य सन्दर्भ में अपने ओजपूर्ण शब्दों में कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं - सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे /
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे। हालाकि वह अपनी शैली में दिशा निर्देशन भी करते हैं क्योंकि उनकी प्रकृति मूकदर्शक की नहीं है और वह हार मानने वालों में भी नहीं हैं।
आजकल तो ऐसे लोगों के चेहरों के पीछे का छिपा सच उजागर होने की जैसे प्रतिस्पर्धा सी छिड़ गई है। आए दिन इसी तरह की एक न एक घटना से हमारा साक्षात्कार होता रहता है। तब, जिन्हें हमारा आदर्श बनना चाहिए, जिन्हें हमारी प्रेरणा का श्रोत होना चाहिए और जिनका हमें आदर और सम्मान करना चाहिए उन पर विश्वास करना कठिन हो गया है। कुसंस्कारों से सम्पन्न ऐसे व्यक्तित्वों का यह छिछलापन सर्वत्र जाहिर है। जिनका लक्ष्य लोक के प्रति त्याग, सेवा और समर्पण न होकर सिर्फ आत्मरंजना बन कर रह गया है। इसलिए जहाँ सुख, चैन और शान्ति होनी चाहिए वहाँ अशान्ति और अराजकता का साम्राज्य स्थापित है –
गंधमादन घाटियों में
जल रहीं
आयात की
बारूदी उदबत्तियां।
इन लोगों से अधिक अपेक्षा भी नहीं है क्योंकि अनाचार के मद में मग्न –
रास-रंग में डूबे
उथले मन वाले लोग -
हैं, इनकी न कोई दिशा है और न ही कोई आदर्श। इन लोगों के जो अपने संस्कार हैं, भावी पीढ़ी को उससे बेहतर संस्कार दे भी नहीं सकते।
दुधमुहों के
मृदुल अधरों पर
आचरण का एक अक्षर
धर नहीं सकते।
समग्र में उनका व्यक्तित्व, कवि के शब्दों में, व्यक्तित्व नहीं कूड़ा-करकट अर्थात ‘कबाड़’। दुर्भाग्य है कि हमारा भविष्य, मान-सम्मान और गरिमा, सभी उन्हीं पर निर्भर है, क्योंकि वे ही आज हमारे नियंता बने बैठे हैं।
पुरखों की थाती
यश-गौरव, प्रभुसत्ता
सब कुछ तो निर्भर है
आजकल कबाड़ी पर।
ऐसा लगता है कि यही हमारी नियति बन गई है। यह वर्तमान समय की सच्चाई है। सामान्य जन इनके भटकाव से आहत है, उसे इसकी पीड़ा है, छटपटाहट है।
मिश्र जी का यह नवगीत कुछ इसी भावभूमि पर रचा गया है। यह नितांत सुगम और सहज बोधगम्य है। जो सच मिश्र जी ने बरसों पहले अनुभव किया था वह आज पूर्णतया प्रत्यक्ष हो उठा है। यह जन-जन की अनुभूति है इसीलिए यह नवगीत पाठकों पर अपना प्रभाव बड़ी आसानी से छोड़ता है। पूरे गीत में नवगीत की लय है और भाव अपने उत्कर्ष पर हैं। मिश्र जी के देशज प्रयोग मन को मोह लेते हैं। वैसे तो गीत के सभी बन्द विशिष्ट हैं, लेकिन ये बन्द बहुत ही आकर्षक हैं तथा अन्तः को स्पर्श करते हैं और प्रभावित करते हैं –
दुधमुहों के
मृदुल अधरों पर
आचरण का एक अक्षर
धर नहीं सकते।
और
कीर्ति की पहाड़ी पर
चढ़ने को आतुर हैं बौने
बैठकर प्रपंचों की
पुश्तैनी गाड़ी पर
और आकर्षक बन गए हैं।
बहुत सारगर्भित प्रस्तुति, आभार.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ........
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली समीक्षा.. गीत भी बढ़िया था... समीक्षा उससे भी उत्कृष्ट है..
जवाब देंहटाएंमिश्र जी का विस्तार से परिचय अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएंनिसंदेह...मिश्र जी की कवितायेँ...प्रभावित किये बिना नहीं रह पाती...
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्द्धक आलेख !!
जवाब देंहटाएंनवगीत के केन्द्र बिन्दु को बड़े अच्छे ढंग से स्पष्ट करते हुए समीक्षा की गयी है। आभार।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा ने गीत को नए आयाम दिए ..आभार
जवाब देंहटाएंएक बहुत ही अच्छे नवगीत की लाजवाब समीक्षा।
जवाब देंहटाएंबैठकर प्रपंचों की पुश्तैनी गाडी पर ...
जवाब देंहटाएंगीत जैसी ही समीक्षा भी !
सारगर्भित समीक्षा !
जवाब देंहटाएंBeautiful review.
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