भगवान परशुराम-3
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में हमने देखा कि हैहयवंशी राजा सहस्रबाहु अर्जुन का बध करने के कारण भगवान परशुराम पिता की आज्ञा के अनुसार पापमुक्त होने के लिए एक वर्ष तक तीर्थ-यात्रा करने के बाद पुनः अपने पिता के आश्रम वापस लौट आए।
इसके बाद की घटना है - कुछ दिनों बाद एक दिन पति के हवन-पूजन के लिए माता रेणुका कलश लेकर गंगा तट पर जल लेने गयीं। वहाँ गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ जल विहार करते देखने में वे इतना तल्लीन हो गयीं कि उन्हें समय का ध्यान ही न रहा और कहा जाता है कि वे चित्ररथ पर थोड़ी देर के लिए तो आसक्त हो गयी थीं। जब जल लेकर वे आश्रम पहुँची तो हवन-पूजन का समय बीत चुका था। माता रेणुका के चेहरे पर व्यग्रता के भाव देखकर महर्षि जमदग्नि ने उसका कारण पूछा। समुचित उत्तर न पाकर महर्षि ने ध्यान में जाकर सबकुछ जान लिया। जब उन्हें पत्नी के मानसिक व्यभिचार का पता चला तो वे बड़े ही क्रोधित हुए और अपने चार उपस्थित पुत्रों को एक-एक कर माँ का बध करने के लिए कहा। सभी ने मना कर दिया। भगवान परशुराम उस समय आश्रम में नहीं थे। जब वे आए तो महर्षि ने उन्हें माँ और चारो भाइयों का बध करने को कहा। भगवान परशुराम ने वैसा ही किया।
इससे महर्षि जमदानि अत्यन्त प्रसन्न हुए और परशुराम से वरदान माँगने को कहा। भगवान परशुराम ने वरदान स्वरूप अपनी माँ और चारो भाइयों का जीवन और जीवित होने पर और उन्हें इस घटना की विस्मृति का वरदान माँग लिया। महर्षि जमदग्नि ने सभी को जीवित कर दिया। साथ ही उनके साथ क्या हुआ, इसका उन्हें ज्ञान भी नहीं रहा। कहा जाता है कि भगवान परशुराम को अपने पिता के तपोबल पर इतना विश्वास था। अतएव पिता की आज्ञा का पालन करने में उन्होंने थोड़ा भी विलम्ब नहीं किया और अन्त में वरदान माँगकर पुनः उन्हें जीवन-दान भी दिलवा दिया।
उक्त घटना के बाद उनके जीवन में एक ऐसी दारुण घटना घटी जिसने उनके पराक्रम को नयी दिशा दे दी और उन्हें क्षत्रियों का संहारक कहा जाने लगा। पुराणों में मिलता है कि सहस्रबाहु अर्जुन के पुत्र अपने पिता के वध का बदला लेने के अवसर की तलाश में लगे थे। एक दिन भगवान परशुराम और उनके भाई आश्रम में नहीं थे। तभी वे लोग आश्रम में घुस गए और माता रेणुका के तमाम विरोध के बाद भी उन्होंने तपोधन महर्षि जमदग्नि का यज्ञशाला में ही सिर काट डाला और उसे लेकर पलायित हो गए। दूर से माँ की करुण ध्वनि भगवान परशुराम के कानों में पड़ी। वे तुरन्त आश्रम की ओर चल पड़े। पिता का जमीन पर पड़ा सिरविहीन शरीर और आश्रम की दुर्दशा देखकर उन्हें अपार दुख हुआ, उनकी क्रोधाग्नि अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी। वे बिना किसी प्रकार का विलम्ब किए उनका पीछा करते हुए माहिष्मती नगर चल पड़े। वहीं उन्होंने सहस्रबाहु के सभी पुत्रों का निर्ममता पूर्वक वध किया तथा पिता का सिर लेकर आश्रम पहुँचे। उनके सिर को धड़ से जोड़कर यज्ञों से सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान का यजन कर उनका अन्तिम संस्कार किया। महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीर प्राप्त हुआ और भगवान परशुराम से सम्मानित होकर सप्तर्षिमण्डल में सातवें ऋषि का स्थान मिला।
इसके बाद दुर्जन और मद में चूर क्षत्रियों के विनाश का क्रम उन्होंने ऐसा चलाया कि हैहयवंश समेत अन्य क्षत्रिय राजाओं का विनाश करते रहे। कहा जाता है कि इक्कीस बार उन्होंने ऐसा किया और अंत में अश्वमेध यज्ञकर समस्त भूमि ब्राह्मणों को दान कर दी, जिसमें पूर्व दिशा होता को, दक्षिण ब्रह्मा को, पश्चिम दिशा अध्वर्यु को, उत्तर दिशा साम उद्गाताओं को, अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजों को, मध्यभूमि महर्षि कश्यप को और आर्यावर्त उपद्रष्टा को दान कर दिया। अपने परशु से समुद्र पर प्रहार कर अपने लिए थोड़ी सी जमीन ली जिसे आज केरल के नाम से जाना जाता है।
इन घटनाओं ने पुनः उनके मन में उद्वेग पैदा कर दिया। वे मानसिक रूप से अशांत हो गए और वहीं महर्षि कश्यप से उसका निदान पूछा। महर्षि कश्यप ने उन्हें भगवान दत्तात्रेय की शरण में जाकर उनके निर्देशानुसार आचरण करने की सलाह दी। इसके बाद वे भगवान दत्तात्रेय से मिलने गंधमादन पर्वत की ओर चल पड़े। वहाँ भगवान दत्तात्रेय ने उन्हे दीक्षा दी और गिरनार पर्वत पर जाकर बारह वर्ष तक साधना करने के पश्चात पुनः आकर मिलने का आदेश दिया।
गुरु की आज्ञानसार बारह वर्ष के बाद पुनः भगवान परशुराम उनसे मिलने पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने गुरु से अनेक आध्यात्मिक प्रश्न पूछे जिससे उनका मन शंकारहित हो गया। भगवान परशुराम और भगवान दत्तात्रेय का यह संवाद हरितायन कृत त्रिपुरारहस्य के ज्ञानखंड में संग्रहीत है। समय मिला तो आगे इस पर चर्चा होगी। क्योंकि आध्यात्मिक रूप से यह संवाद बहुमूल्य है। कहा जाता है कि तंत्रशास्त्र की सर्वोच्च श्रीविद्या-साधना के प्रवर्तक भगवान परशुराम ही हैं। इसपर इनका लिखा परशुरामकल्पसूत्र अत्यन्त उच्चकोटि का ग्रंथ है।
भगवान परशुराम का जीवन वृत्त विभिन्न पुराणों में भरा पड़ा है। ब्ह्मवैवर्त पुराण की एक कथा के अनुसार भगवान गणेश से इनका युद्ध हुआ था। दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ, जिसमें श्री गणेश जी का एक दाँत टूट गया। तब से वे एकदंत कहे जाने लगे। इसी प्रकार इनका युद्ध शिवनन्दन कार्तिकेय से भी हुआ था और भगवान परशुराम विजयी रहे। इस महान अवतार पर एक महाशोध ग्रंथ कनखल निवासी डॉ. शर्मा ने लिखा है जिसमें लगभग एक हजार पृष्ठ हैं। मैंने प्रयास किया, पर अब तक यह ग्रंथ मुझे मिल नहीं पाया है। अगले अंक मे इनके जीवन से सम्बन्धित कुछ अन्य विवरण दिए जाने का प्रयास किया जाएगा।
इस अंक में बस इतना ही।
भगवान परशुराम के जीवन से सम्बंधित बहुत ज्ञानवर्धक और सुन्दर आलेख...आभार
जवाब देंहटाएंइस विषय पर अन्य किसी भी ब्लॉग पर मैं ने कुछ नहीं पढ़ा .....अच्छी जानकारी दी आप ने...धन्यवाद....
जवाब देंहटाएंरोचक, रोमांचक कथाएं...वाह...
जवाब देंहटाएंअद्भुद आनंद मिल रहा है ... अबाधित रखें इसे...
प्रतीक्षा रहेगी...
informative post
जवाब देंहटाएंये सब बातें किन पुस्तकों में हैं... श्रोत के बारे में भी उल्लेख कीजिये ताकि पाठक खुद भी ज्ञान अर्जित कर सके... प्राचीन ग्रंथों का बढ़िया प्रस्तुतीकरण..
जवाब देंहटाएंपरशुराम जी के जीवन का रोचक वृतांत...
जवाब देंहटाएंज्ञानपूर्ण और रोचक
जवाब देंहटाएंहम तो अपना ज्ञानवर्धन कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंभगवान परशुराम ने कोकण की भूमि को अपने सात शिष्यों से बसाया था जिनके वंशज कोकणस्थ ब्राह्मण कहलाये । लोटे परशुराम नामक स्थान पर फरशुरामजी का मंदिर है । माता रेणुका के और अपने भाइयों के वध की और पुनह जीवित कराने की कथा तो पता थी पर भगवान दत्तात्रेय और परशुराम जी के संवाद को जानने की बहुत उत्सुकता है । ज्ञानपूर्ण आलेख के लिये आभार ।
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी। आभार!
जवाब देंहटाएंआशंकाओं के निवारण के लिए ज़रूरी है कि गुरू और शिष्य के बीच संवाद हो। आज का गुरू या तो गुरूगंभीर है या फिर गुरुघंटाल। इसलिए,धार्मिकता की स्थिति भी हम देख ही रहे हैं।
जवाब देंहटाएंगणेश के रूप आकार के बारे में अमिष त्रिपाठी की The Secret Of The Nagas में परिकल्पना भी जोरदार है।
जवाब देंहटाएं