गुरुवार, 30 जून 2011

अर्थान्वेषण-3 - अनेकार्थी शब्दों का अर्थ-निर्णय

आँच-75

अर्थान्वेषण-3

अनेकार्थी शब्दों का अर्थ-निर्णय

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में संकेतग्रह या शब्दों के अर्थ-ग्रहण के साधनों पर चर्चा की गयी थी। यह हम सभी जानते हैं कि ऐसे शब्दों की संख्या काफी अधिक है जिनके कई अर्थ होते हैं, यथा- राम शब्द के अर्थः सुहावना, सुन्दर, प्रिय, काला, श्वेत, परशुराम, बलराम, दशरथ पुत्र राम आदि। इसी प्रकार हरि शब्द के अनेक अर्थ हैं- यम, अनिल, चन्द्रमा, सूर्य, विष्णु, कृष्ण, सिंह, रश्मि, घोड़ा, तोता, सर्प, बन्दर, मेढक। ऐसी स्थिति में इन शब्दों का एक अर्थ में निर्णय कैसे किया जाय, इसी प्रश्न पर इस अंक में भारतीय दृष्टि या अर्थविज्ञान की दृष्टि से विचार करना अभीष्ट है।

वैसे यह बात अवश्य है कि इस सम्बन्ध में जो भारतीय दृष्टिकोण है उससे आधुनिक भाषाविज्ञान लगभग पूरी तरह से सहमत है और इसके लिए आचार्य भर्तृहरि द्वारा प्रणीत वाक्यपदीय (जो एक व्याकरण का ग्रंथ है, पर इसे व्याकरण दर्शन (philosophy of grammar) भी कह सकते हैं) से दो कारिकाएँ दी जा रही हैं, जिनमें यह बताया गया है कि अनेकार्थक शब्दों का एक अर्थ या अभीष्ट अर्थ में निर्णय कैसे किया जाता है, अर्थात् इसके साधन क्या हैं-

संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता।

अर्थः प्रकरणं लिङ्गं शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः।।

सामर्थ्यमौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः।

शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः।।

अर्थात् अनेकार्थक शब्दों के अर्थ का निर्णय न होने पर संयोग, विप्रयोग (वियोग), साहचर्य, विरोध, अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य शब्द की सन्निधि (सान्निध्य), सामर्थ्य, औचित्य, देश, काल, व्यक्ति और स्वर आदि की सहायता से अनेकार्थी शब्दों का अर्थ-निर्णय किया जाता है। इन सभी बिन्दुओं पर एक-एक कर चर्चा करते हैं-

1. संयोग –किसी सम्बन्ध विशेष के आधार पर अनेकार्थक शब्दों के अर्थ का निर्णय किया जाता है। जैसे- नेहरू जी भारत के प्रधानमंत्री थे। यहाँ प्रधानमंत्री पद के संयोग से नेहरू शब्द का अर्थ पं. जवाहरलाल नेहरू लिया जाएगा, अरुण नेहरू या अन्य नहीं।

2. विप्रयोग (वियोग)- संयोग और विप्रयोग दोनों में बड़ा ही सूक्ष्म अन्तर है। अर्थात् सम्बन्ध विशेष के अभाव में या उसके विप्रयोग (वियोग) से अनेकार्थक शब्दों के अर्थ का निर्णय करने में सहायक होता है। यदि उक्त वाक्य को ही थोड़ा परिवर्तन के साथ उदाहरण के रूप में लें- नेहरू जी प्रधानमंत्री नहीं रहे, तो यहाँ प्रधानमंत्री शब्द के विप्रयोग या वियोग के कारण ही नेहरू शब्द का अर्थ पं.जवाहरलाल नेहरू लिया जाएगा।

3. साहचर्य- विख्यात साहचर्य के कारण भी अनेकार्थी शब्दों के अर्थ का निर्णय होता है, यथा- राम और लक्ष्मण में लक्ष्मण के साहचर्य के कारण राम शब्द का अर्थ दशरथ पुत्र राम होगा, बलराम, परशुराम अथवा अन्य नहीं और लक्ष्मण शब्द का अर्थ दशरथ पुत्र लक्ष्मण होगा, दुर्योधन का पुत्र लक्ष्मण नहीं। इसी प्रकार अन्य अनेकार्थी शब्दों के अर्थ-निर्णय की बात भी समझनी चाहिए।

4. विरोध- साहचर्य और विरोध दोनों लगभग एक से हैं। साहचर्य में प्रसिद्ध सकारात्मक सम्बन्ध को आधार माना गया है। जबकि विरोध में विरोधी सम्बन्ध के कारण अनेकार्थी शब्द के अर्थ का नियमन होता है, यथा राम और रावण में राम और रावण के बीच विरोधात्मक सम्बन्ध होने के कारण राम शब्द का अर्थ दशरथ-पुत्र राम के अर्थ में नियमित होता है। जबकि राम और लक्ष्मण में भ्रातृ-साहचर्य के कारण।

5. अर्थ- यहाँ अर्थ शब्द प्रयोजन के लिए प्रयुक्त हुआ है। कहने का तात्पर्य यह कि अनेकार्थी शब्द के जिस अर्थ से प्रयोजन की सिद्धि हो वह अर्थ अभीष्ट माना जाता है। जैसे- मोक्ष के लिए हरि का भजन करना चाहिए। यहाँ हरि का अर्थ मेढक, सर्प, बन्दर, घोड़ा, सूर्य, चन्द्रमा आदि न लेकर विष्णु लेने से ही मोक्ष का प्रयोजन सिद्ध होता है।

6. प्रकरण- यहाँ प्रकरण शब्द प्रसंग का वाचक है। प्रकरण या प्रसंग अनेकार्थी शब्द का अर्थ नियमन का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। यथा- प्रसंगानुसार घंटी शब्द के अर्थ लिए जा सकते हैं। उसके दिमाग की घंटी अब बजी है। यहाँ प्रसंग के कारम घंटी का अर्थ समझ हुआ। किन्तु- लंच की घंटी हो गयी। यहाँ घंटी का अर्थ प्रसंग के अनुसार समय होगा।

7. लिंग- इसका अर्थ स्त्रीलिंग या पुलिंग न लेकर चिह्न लिया जाता है। जैसे- गरजि तरजि बरसे घनश्याम। यहाँ गर्जन-तर्जन चिह्न के कारण का अर्थ बादल होगा, कृष्ण नहीं।

8. अन्य शब्द का सान्निध्य- किसी शब्द विशेष की सन्निधि के कारण भी अनेकार्थी शब्द एक अर्थ में नियंत्रित होता है। जैसे- चाचा नेहरू में चाचा शब्द की सन्निधि के कारण नेहरू शब्द पं. जवाहरलाल नेहरू का ही वाचक होगा किसी अन्य नेहरू के लिए नहीं।

9. सामर्थ्य- जब किसी कार्य के निष्पादन में किसी की सामर्थ्य का प्रयोग हो, तो अनेकार्थी शब्द का एक अर्थ में नियमन हो जाता है। यथा- चरन कमल बंदौं हरि राई। जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै अंधे को सब कछु दरसाई। यहाँ हरि शब्द कृष्ण (विष्णु) के अर्थ में नियंत्रित होता है, क्योंकि उन्हीं की कृपा में लंगड़े को पर्वत पार कराने और अंधे को देखने की क्षमता प्रदान करने की सामर्थ्य है।

10. औचित्य- यहाँ औचित्य का अर्थ योग्यता समझना चाहिए। औचित्य या योग्यता से भी अनेकार्थी शब्द का अर्थ-नियमन होता है। जैसे- संस्कार से व्यक्ति द्विज बनता है। यहाँ द्विज का अर्थ न तो दाँत होगा और न ही पक्षी, क्योंकि संस्कार से द्विज बनने की योग्यता इनमें नहीं है। अतएव यहाँ द्विज का अर्थ ब्राह्मण होगा। क्योंकि उसमें संस्कार ग्रहण करने की योग्यता है।

11. देश- किसी स्थान विशेष के कारण अनेकार्थक शब्द के अर्थ का निर्णय किया जाता है। जैसे- खेलन हरि निकसे ब्रजखोरी। यहाँ ब्रजखोरी (ब्रज की गलियाँ) स्थान विशेष के कारण हरि शब्द का अर्थ कृष्ण में निर्णीत होता है।

12. काल- समय से भी अनेकार्थक शब्द का अर्थ-नियमन होता है। जैसे- कोयल मधु से मत्त हो रहा है। यहाँ मधु शब्द का अर्थ वसन्त होगा, क्योंकि कोयल का मत्त होना वसन्त में ही पाया जाता है।

13. व्यक्ति- यहाँ व्यक्ति का अर्थ स्त्रीलिंग, पुलिंग समझना चाहिए। स्त्रीलिंग, पुलिंग से भी अनेकार्थी शब्द का नियमन होता है। जैसे- मेरे पास रामायण की हिन्दी टीका उपलब्ध है। यहाँ पर टीका शब्द का स्त्रीलिंग में प्रयोग होने के कारण इसका अर्थ व्याख्या (commentary) होगा। इसी प्रकार माथे पर कुंकुम का टीका अच्छा लग रहा है में टीका शब्द पुलिंग में प्रयुक्त होने से इसका अर्थ तिलक होगा।

14. स्वर- स्वर के आरोह-अवरोह से भी अनेकार्थक शब्द का अर्थ निर्णय किया जाता है। वैसे प्राचीन विद्वान वेदों में ही स्वरों के उदात्त, अनुदात्त आदि के प्रयोग भेद को अर्थनियामक मानते हैं। लेकिन इसका प्रभाव प्रायः सभी भाषाओं में देखा जाता है। जैसे- तुम आ गये। इस वाक्य में स्वर-भेद (आरोह-अवरोह/stress or/and accent) के प्रयोग द्वारा आश्चर्य, घृणा, भय, क्रोध, निराशा आदि अर्थ की प्रतीति होती है। पर किसी विशेष ढंग से स्वर के आरोहण-अवरोहण के प्रयोग द्वारा किसी एक अर्थ में इसका नियमन किया जा सकता है।

अनेकार्थी शब्दों के नियामक (साधन) उक्त साधनों के अतिरिक्त और भी हो सकते हैं, ऐसा आचार्य पुण्यराज का मानना है। इन कारिकाओं की टीका करते समय वे लिखते हैं कि समझाने के लिए आचार्य भर्तृहरि ने केवल इन चौदह साधनों को दिया है। इनके अलावा अन्य साधनों को भी आचार्य पुण्यराज ने दिया है। कभी अवसर मिलने पर उनकी चर्चा होगी।

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बुधवार, 29 जून 2011

देसिल बयना–87: कोढ़िया उमताये, तो भुसकार जलाए…

 

षडरस हो कि षडऋतु…. असली मजा तो गाँवे-जवार में आता है। शहर-बजार में तो बिना बरखे के फ़ुहार और गर्मियो में ठंडी हवा फ़ेकता है। इजोरिया-अंधरिया कुछ पता नहीं चलता। सच्चे भारथ माता की आत्मा तो गाँवे में बसती है और आत्मा का सौंदर्य… हरि बोल।

रेवाखंड में गेहूँ की कटनी-दौनी-निकौनी हो गयी थी। मटर-मूँग भी टूटकर घर आ गये थे। खेIMG0680A_thumb1तों में चार चास कराकर के चौमास का हवा-पानी पीने के लिये छोड़ दिया था। न रोपनी ना कटनी….। किसानों के लिये यही समय थोड़ा फ़ुर्सत का होता है। ई समय में बूढ़न बाबा मुसकपुर के अल्हा गबैय्या को जरूर बोलाते थे। डेढ़ महीना तक बड़का दलान पर चलता था आल्हाखंड बावनो अध्याय का गीति-नाटक।

ओह… का गबैय्या था…। गाँजा-भंग को तो हाथ भी नहीं लगाता था। मगर परोगराम शुरु करे से पहिले भैंस के सेर भर दूध का छाँक जरूर लगाता था। मोटकी ढोलकी पर थाप देके जौन सुर लगाता था कि पूरा इलाका हिल जाये… टन.. टना..टन… टन…! “अरे बारह बरिस ले कुक्कुर जीये, तेरह बरिस ले जीये सियार….. ! सोलह बरिस ले क्षत्री जीये… आगे जीवन को धिक्कार….!” सच्चे गबैया के गला में बेजोर टान था।

न मैक, ना लाउडिस्पिकर… न जंघलेटर….. ! पंचलाईट के रोशनी में दे ढोल पर चाटी…’किला हिला दे मोहबागढ़ के!’ पंचलाइट बंद हो जाये तो कभी-कभी लालटेन के टिमटिमिया रोशनी में भी जा झाड़ के। बीच-बीच में एकाध गो ऐसन टोन छोड़ता था कि सकल सभा की हँसी फूट जाय। एक बार सुक्कन मामू आगे में बैठे औंघिया रहे थे…। गबैय्या का नजर पड़ा…! तिरकिट धां… करके कहिस…. “अहो मामूजी…! ई बिमारी का तो कौनो इलाज नहीं… मगर एगो सोलहो आना टेस्टेड टोटमा है। उठकर जाइए उधर लघुशंका कर के आँख-मुँह धो लीजिये…. नींद नहीं भाग गयी तो मेरे नाम पर कुत्ता पोस लीजियेगा।”  हा… हा… हा…. ही…. ही…. ही…. हे…हे…. हे…… खी…खी….खी…. बाप रे बाप ! जनानिये-मरदानिये जौन हँसी फूटा कि का बताएँ।

बेचारे सुक्कन मामू तिलमिला गये थे। फिर वही गबैय्या बात संभाला। कहिस, “अरे हम ई में बुरा का कहें हैं….? मरदे उधर जाइये… लघुशंका निवारण करके, पानी से आँख-मुँह धोने बोले… आपहुँ महराज पता नहीं क्या समझ के भड़क गये…! फिर सभा को संभारे खातिर गाने लगा, “छन में छनक भेलई दाई गे… हमर पेटी के कुँजी हेराई गे….!”

नोनफ़र पर वाला दमरुआ बड़का कक्का कने बेगारी खटता था। ससुर के नाती महा-कोढ़ी। देह पर माछी का बराती जीमे मगर ससुरे को हाथ हिलाने में भी जैसे कस्टम डियुटी लगता था। नहाय-धोआय का नाम नहीं मगर आल्हा में बैठता था सबसे आगे। और एक्कहि आसन में पूरा प्रकरण सुन लेता था। दिन से लेकर रात धर खैनी चुनाते-चुनाते ही उका देह-हाथ टटाने लगता था। भीड़-भाड़ को संभालना, लैट-बत्ती, पानी-बीड़ी सब का इंतिजाम-बात गोधन कका पर था।

उ रात भी भोजन के बाद धीरे-धीरे पूरा रेवाखंड बड़का दलान पर जमा होने लगा। गबैया भी अपनी ढोलकी पर टीम-टाम कर रहा था। लेकिन ई का… आज तो शुरुए से ललटेन भुकभुका रहा है। पता चला कि गोधन कका कहीं कुटुमैती चले गये थे। पूरा दलान ठसाठस मगर चुनौती ई कि पँचलाइट जलाएगा कौन? ई पंचलाइट नहीं हुआ, राजा जनक के दरवार का शिवधनुष हो गया कि दरोनाचारज का चक्करब्यूह जो अर्जुन नहीं है तो भेदेगा कौन?

झिगुनिया गोधन कका का पिछलग्गु था। आज ओस्ताद नहीं थे तो चेला मैदान संभाल लिया। फ़ुस..फ़ुस…फ़ुस…! पहिले पंचलाइट में हवा भरा। फिर कनैठी दिया। एंह… उपर से मटिया तेल का फ़ुहार तो ऐसे फ़ेंके लगा जैसे शिवजी के माथा से गंगा मैय्या निकल रही हों। फिर उल्टा कनैठी किया। फिर बिसकरमा बाबा का नाम लेकर दिया सलाई रगड़ा… भवाक…. भुक-भाक… स्स्स्स्स्स्स्स्स….. आह्हा…. जल गया पंचलाइट। फिर ढोल पर चाटी और ’मत घबराओ मित्र हमार…. देश में लड़की बहुते मिलतौ…. भाई के खोजि के करैह… ब्याह… पार न पैबा… उ नगरी से… किरलक… किरलक…किरलक…किरलक…. ढनाक…!’

प्रकरण अपना शवाब पर था, “क्षत्री जात महा-जग रगड़ी…. धरि कालहुँ से नाहिं डराय…. अरे…. धर से शीश देबा अलगाय…. हट जा ओझा मेरे सोझा से….! अरे…. पंडीज्जी के हिलय बतीसो दांत…..पेट में पानी हड़बड़ बोले….. किरलक…किरलक…किरलक…. ढनाक…!’ आह… पूरा हजूम घुटने पर आ गया था। गबैय्या भी तरातर ढोल पर चाटी दे रहा था और गर्दन घुमा-घुमाकर पूरे जोश में गा रहा था, “मंगनी उखर जाय तलवार… बुरबक झगड़ा राजपूत के….!” घुप्प…. ले बलैय्या के… गोधन कका रहते थे टेम-टेम पर पंचलाइट में हवा-पानी भरते रहते थे। ई झिगुनिया एक्कहि बेर जला के छोड़ दिया… हो गया बीचे सिन में घुप्प….!

बड़का कक्का अपने आरामकुर्सी पर से चिल्लाए कहाँ गया रे दमरुआ…. अरे गोधन नहीं है जरा आजो तो हाथ-पैड़ हिलाओ…. देखो लैट बंद हो गया… ललटेन जलाओ… कहाँ गया झिगुनिया…..?” पता नहीं झिगुनियाँ कहाँ था…. मगर पूरी भीड़ अंधरिये में हो-लो-लो-लो… कर रही है। गबैय्या बेचारा चुप है। कभी-कभी ढोलक पर अंगुली मार देता है। बड़का कक्का फिर घुड़के तो बेचारा दमरुआ अंगैठी करते हुए उठा, ’ओह… ललटेम में तो बड़ी मोस्किल है। सीसा खोलो, साफ़ करो.. बत्ती बढ़ाओ.. जलाओ… फिर उपर मुड़ी खींचो… नीचे सीसा फिट करो…. डिबिये जला देते हैं मालिक!”

बड़का कक्का फिर घुड़के, “मार ससुरा बुद्धी के बैरी…. अरे डिबिया के लुक-झुक में आल्हा के गीत होगा…. उ तो मिनिटे में ढोल के धम्मक से ही बम बोल जायेगा… कोढ़िया कहीं के…. जलाओ ललटेन।” अच्छा ठीक है…. आपको रोशनिये से न काम है… तो हइ लीजिये…. दिया सलाई रगड़ा… वहीं पाँच डेग पर बड़का भुसकार (गेहुँ का भूसा रखने के लिये बांस-फूस से बना स्टोर) था। वही पर फेंक दिया…. ! आह तोरी के…. जेठ महिना के पछिया में सूखा भुसकार में भभाक से आग पकड़ लिया…. रोशनी और धाह तो ऐसन कि ज्वालामुखी फूट पड़ी हो….। उ तो कहिये कि आल्हा का भीड़ था जो कुआँ-पोखर दौड़े….. हाथे-पाथे पानी-माटी…. ईंट-पत्थर मार के आग पर काबू किया। उ दमरुआ ससुर अबहुँ किनार में हाथ बांधे खड़ा तमाशा देख रहा था।

खैर… किसी तरह सब मिल-जुलकर आग बुझाया और फिर लगा सब दमरुआ को दुत्कारे…। सुनते-सुनते दमरुआ बोला, “हमको का कहते हैं… हम तो डिबिया जला रहे थे…. मालिके न कहे कि ड्बिया में रोशनी नहीं होगा….. लालटेन में ओतना मेहनत करते तैय्यो कितना रोशनी होता… सोचे भुसकार तो अपने है… !” दमरुआ जारी ही था कि गबैय्या बोल पड़ा, “देख लिये हो बाबू…. आठम अचरज रेवाखंड में…! जिनगी में तो कौनो काम नहीं किया… आज हमरे पिरोगिराम में ई कोढ़िया उमताया तो भुसकारे में आग लगा दिया…!”

“हूँ…..!”  सकल सभा बोल पड़ी थी। उसी दिन से ई कहावत ही बन गया। “कोढ़िया उमताए तो भुसकार जलाए!” मतलब कि अकर्मण्य को जोश आने पर भी निरर्थक या अनर्थ ही होता है।

मंगलवार, 28 जून 2011

भारत और सहिष्णुता-8

अंक-8

भारत और सहिष्णुता

clip_image002रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी  रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।

    जितेन्द्र त्रिवेदी

वैदिक युग के आर्य मोक्ष के लिये चिन्तित नहीं थे। वे संसार को भोगने की लालसा से ओतप्रोत थे। 'कामायनी' में इसे बडे़ विस्तार से बताया गया है और ऋग्वेद की ऋचाएं ऐसे भावों से भरी पड़ी है, जिनसे पस्त से पस्त आदमी के भीतर भी उमंग की लहर जाग सकती है। उनकी सारी प्रार्थनाएं, सारे काम, बराबर लम्बी आयु, स्वस्थ शरीर, विजय, आनंद और समृद्धि के लिये ही की जाती थीं - ''जीवेत शरदः शतम, मोदते शरदः शतम'' जैसी ऋचाएं ऋग्वेद में भरी पड़ी हैं-

हम सौ वर्षों तक जीऐं,

हम सौ वर्षों तक अपने ज्ञान को बढ़ाते रहें.

हम सौ वर्षों तक पुष्टि और दृढता को प्राप्त करें.

हम सौ वर्षों तक आनंदमय जीवन व्यतीत करें।

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''भगवान, आप तेज स्वरूप हैं,

मुझमें तेज धारण कीजिये।

आप वीर्य रूप हैं, मुझे वीर्यवान कीजिए।

हमें समुन्नत कीजिए।

आप बल रूप हैं, मुझे बलवान बनाएं।

मेरे लिये सभी दिशाएं झुक जाएं।

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इस तरह अतिशय भोगवाद ने आदमी का दिमाग फिरा कर रख दिया। वर्ण व्यवस्था जो पहले काम के आधार पर निर्धारित होती थी वह वंशानुगत होने लगी और शारीरिक श्रम करके आजीविका कमाने वालों को तुच्छ समझा जाने लगा। यहाँ तक तो फिर भी गनीमत थी, किन्तु स्थिति बद से बद्तर तब हो गयी जब इन समूहों को वर्ण व्यवस्था के क्रम में सबसे नीचे ढकेल दिया गया और अस्पृश्‍य घोषित कर दिया गया। इस तरह न केवल सामाजिक आदान-प्रदान से अपितु आर्थिक संसाधनो के बटवारे में भी उन्हे महदूद (वंचित) कर दिया गया। एक और बुरी बात इस भोगवाद के कारण जन्म लेने लगी, वह थी- नारी की अवगणना। जहाँ पहले स्त्रियों का 'सभा' एवं 'समिति' में भाग लेने का उल्लेख मिलता था, अब उसे भोगवादी सोच के कारण निषिद्ध कर दिया गया।

जहाँ पहले वेदों में यह उल्लेख मिलता था कि - ''मैं कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माता चक्की चलाने वाली हैं और हम सब एक साथ रहते हैं'', (इसका सीधा सा मतलब है कि एक परिवार के सदस्य कई धंधे अपना सकते थे और जिस धंधे से व्यक्ति जीवन यापन करता था, वह उसकी जाति थी और इस तरह एक परिवार में ही कई जातियाँ हो सकती थी जो कि एक खुली सामाजिक व्यवस्था को दर्शाती है, परन्तु बाद में बंद समाज व्यवस्था ने ऐसे अवसरों को ही समाप्त कर दिया जिसमें एक परिवार के लोग अलग-अलग धंधे कर सकें और अपने आपको अलग-अलग जाति का बताने में कोई संकोच न करे। कालान्तर में इसी ने बंद अर्थव्यवस्था की भी नींव रख दी)। इस तरह के उल्‍लेख मिलने अब बंद हो गये। ब्राह्मण ग्रंथों तक आते-आते 'शूद्र' को व्यवस्था सम्मत संस्कारों का भी निषेध कर दिया गया और चौथा वर्ण 'उपनयन' आदि संस्कारों का अधिकारी नहीं रह गया और यही अपात्रता कुछ लोगों को बुरी तरह कचोटने लगी। ऐसे लोगों में निग्रन्थों/जैनों का संप्रदाय बड़ा प्रबल था। उसके अतिरिक्त पूरण, काश्‍यप, मख्सलि गोसाल, अजित, केश, कंबलिन, पकुध, कात्यायन, संजय वेलिटट्ठपुत्त, चार्वाक (लोकायत दर्शन) आदि के श्रमण संप्रदाय बहुत प्रख्यात हो गये थे। इन सबके विचार यद्यपि पूर्णतः समान तो नहीं थे तथापि कुछ बातों में वे एक मत थे-

- उन सबको यज्ञ-याग पसंद नहीं था।

- सब ने बलि को उतना महत्व नहीं दिया।

- तपश्‍चर्या के प्रति कम या अधिक आदर सब में था।

बढ़ती हुई भोगवादिता से उकताए हुये इन लोगों को देख कर यह भ्रांति कदापि नहीं होनी चाहिये कि 'वेद' गलत थे या उसकी शिक्षाएं सिर्फ भोगवाद को ही बढ़ावा देती थी अपितु सत्य यह है कि कुछ का कुछ समझ लेना और उसी को सबकुछ मान लेना मानव की सहज कमजोरी है। मनुष्य को चाहे कितना भी सीधा रास्ता क्यों न दिखा दिया जाए, गुमराही में पड़ जाना उसका जातीय स्वभाव है।

उस समय का समाज भी कुछ ऐसी ही खुली हुई गुमराही में खड़ा हुआ था और ऊपर जितने महानुभावों के नाम गिनाये गये हैं वे इस गुमराही का अंग नही बनना चाहते थे। ये सब उस खुली गुमराही के विरूद्ध थे किन्तु इनके पास स्पष्ट विकल्प नहीं था। इन सभी में भयानक बैचेनी थी किन्तु उस बैचेनी को चेनेलाइज करने की दृष्टि नहीं थी। ये सब तार्किक थे, बुद्धिवादी थे और सबसे अधिक मानव के अधोपतन को साफ-साफ देख रहे थे और परेशान थे। वे उस गुमराही को रोकना चाहते थे किन्तु इनके अतिरिक्त इनकी बात कोई सुनने को तैयार ही नहीं था। इनके अनुयायी न के बराबर थे और ये अजीब से पशोपेश में थे और इसी पशोपेश में इन्होंने वेदों की सीधे-सीधे निन्दा शुरू कर दी। इसलिए नहीं कि वेद गलत थे अपितु इसलिये की वैदिक नियमों के अनुयायियों को जब उन्होंने सारे कुकर्म करते देखा तो इन्हें लगा कि सारे कुकर्म वेदों में ही बताये गऐ हैं जबकि वास्तव में ऐसा नही था। इन्होंने कुकर्म से नफरत करने के बजाय कुकर्मी से नफरत (वर्तमान सिद्धान्त - Hate the sin not the sinner के उलट) करनी शुरू कर दी और अपनी मर्जी से ही सब कुकर्मो की जड़ वेदों को ही मान लिया। वेदों को पढ़ना तो दूर उसे देखना भी इन्होंने गलत ठहरा दियाः

''त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्ड धूर्त निशाचराः।'' (वेदो के रचियता तीन लोग है- भण्ड, धूर्त और राक्षस) -चार्वाक 'सर्व दर्शन' पुस्तक से।

सोमवार, 27 जून 2011

नवगीत : चढ़ गई बिजुरिया मेघों का जीना

आषाढ़ का महीना है, एक नवगीत इसी पर

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श्यामनारायण मिश्र

 

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images (43)तुमने की होगी बयार

        आंचल से पोंछकर पसीना,

                आ गया आषाढ़ का महीना।

 

 

images (43)लो, नभ में उमड़ चले

        भाव    भरे    बादल।

पुरवा की छाती से

        सरक गया आंचल।

        चढ़ गई बिजुरिया मेघों का जीना।

 

images (43)प्रेम का पीयूष पी

        धरती हुई पागल।

देह में मलने लगी

        सिन्दूर औ’ काजल।

        महक गए माटी तुलसी पोदीना।

 

images (43)बिरही मन गुहराए

        बादल ओ बादल।

कोने में पड़े हुए

        अलगोजे मादल।

        तुम बिन पी कौन कसे जीवन की बीना।

रविवार, 26 जून 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 72

भारतीय काव्यशास्त्र – 72

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में पदैकदेश (प्रकृति-प्रत्यय आदि) द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य पर चर्चा की गई थी। इस अंक में भी उसी विषय पर चर्चा की जाएगी।

काल (Tense) द्वारा रौद्र रस की व्यंजना का एक उदाहरण महावीरचरितम् नामक नाटक से एक वाक्य लिया गया है। यह वाक्य भगवान शिव की धनुष तोड़ने के बाद परशुराम जी द्वारा भगवान राम के प्रति कहा गया है-

रमणीयः क्षत्रियकुमार आसीत्।

अर्थात् क्षत्रिय-कुमार (राम) सुन्दर था। यहाँ भगवान शिव की धनुष टूटने के कारण परशुराम क्रोधाविष्ट हैं और उनकी इस उक्ति से व्यंग्य यह है कि धनुष टूटने के पहले तो यह सुन्दर था, किन्तु अब तो धनुष तोड़ने के कारण मैं इसे क्षणभर में मार डालूँगा। यह व्यंजना आसीत् पद से निकलकर आ रही है। संस्कृत में अस् धातु का भूत काल में आसीत् होता है जिसका अर्थ था होता है। अतएव यहाँ क्रिया के भूतकालिक रूप के प्रयोग के कारण परशुराम का क्रोधाधिक्य व्यंजित हो रहा है क्योंकि धनुष टूटने के बाद भी राम के सौन्दर्य में कमी तो नहीं आ सकती।

वचन (number) के विवेकपूर्ण प्रयोग से भी व्यंग्य देखने में आता है। इसके लिए यहाँ एक प्राकृत भाषा का एक श्लोक लिया जा रहा है। इसका संस्कृत रूपान्तरण भी साथ में दिया जा रहा है-

ताणं गुणग्गहणाणं ताणुक्कंठाणं तस्स पेम्मस्स।

ताणं भणिआणं सुन्दर! एरिसिअं जाअमवसाणम्।।

(तेषां गुणग्रहणनां तासामुत्कण्ठानां तस्य प्रेम्णः।

तासां भणितीनां सुन्दरेदृशंक जातमवसानम्।। संस्कृत छाया)

अर्थात् हे सुन्दर, उन (पहले) गुणों की प्रशंसाओं का, उन उत्कंठाओं का, उस प्रेम का और उन वार्तालापों का ऐसे ही अवसान हो गया है

यहाँ गुणगान, उत्कंठा और वार्तालाप आदि को वहुवचन में प्रयोग किया गया है, परन्तु प्रेम को एक वचन में। यहाँ व्यंग्य यह है कि भले ही अन्य अर्थात् गुणगान, मिलने की उत्कंठाएँ और वार्तालाप कई रहे हों, लेकिन उनसे उत्पन्न प्रेम तो एक धा और प्रेम अपरिवर्तनीय होता है, अतएव उसे तो बने रहने देते। यह व्यंग्य प्रेम शब्द को एक वचन में प्रयोग के कारण व्यंजित हो पाया है।

इसी प्रकार पुरुष (Person) में परिवर्तन के द्वारा भी व्यंग्य देखा जाता है। यहाँ इसका एक उदाहरण लिया जा रहा है। यह श्लोक एक ऐसे विरक्त पुरुष की अपने मन के प्रति उक्ति है, जो किसी सुन्दरी को देखकर थोड़ी देर के लिए क्षुब्ध हो जाता है-

रे रे चञ्चललोचनाञ्चितरुचे चेतः प्रमुच्य स्थिर-

प्रेमाणं महिमानमेणनयनामालोक्य किं नृत्यसि।

किं मन्ये विहरिष्यसे बत हतां मुञ्चान्तराशामिमा-

मेषा कण्ठतटे कृता खलु शिला संसारवारान्निधौ।।

अर्थात् चंचल नेत्रोंवाली सुन्दरी को चाहनेवाले हे मन, तुम (ईश्वर के प्रति) स्थिर प्रेम को छोड़कर इस चपल नयन वाली सुन्दरी के प्रति क्यों उत्कंठित हो रहे हो। तुम ऐसा क्यों सोचते हो कि मैं अपनी भक्ति छोड़कर इन चपल नयनों के इशारे पर नृत्य करूँगा या इसके साथ विहार करूँगा। अरे अभागे इस प्रवंचना को त्याग दे। यह संसार-सागर में गले में बँधा हुआ पत्थर है (जो तुम्हें इसमें डुबो देगा)।

यहाँ मन के प्रति प्रहास (उपहास) व्यंग्य है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि मध्यम पुरुष के कर्त्ता त्वम् के साथ मध्यम पुरुष की क्रिया मन्यसे के स्थान पर उत्तम पुरुष की क्रिया मन्ये प्रयोग किया गया है और उत्तम पुरुष के कर्त्ता अहम् के साथ उत्तम पुरुष की क्रिया विहरिष्ये के स्थान पर मध्यम पुरुष की क्रिया विहरिष्यसे प्रयोग किया गया है। आचार्य पाणिनि के अष्टाध्यायी के एक सूत्र के अनुसार प्रहास (उपहास) में मन् धातु का उत्तम पुरुष के साथ मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुष के साथ उत्तम पुरुष का प्रयोग होता है- प्रहासे च मन्योपपदे मन्यतेरुत्तमैकवच्च। (अष्टाध्यायी 1-4-106)

वाक्य या काव्य में निपात का स्थान बदलकर प्रयोग करने से भी व्यंग्य देखा जाता है। इसके लिए यहाँ एक उदाहरण लिया जा रहा है-

येषां दोर्बल्यमेव दुर्बलतया ते सम्मतास्तैरपि

प्रायः केवलनीतिरीतिशरणैः कार्यं किमुर्वीश्वरैः।

ये क्ष्माशक्र पुनः पराक्रमनयस्वीकारकान्तक्रमा-

स्ते स्युर्नैव भवादृशास्त्रिजगति द्वित्राः पवित्रा परम्।।

अर्थात् हे राजन, जिनके पास केवल बाहुबल ही होता है (पर नीति का बल नहीं होता), वे भी कमजोर होते हैं और केवल नीति-बल का सहारा लेनेवाले राजाओं से भी क्या लाभ। हे पृथ्वी-नरेश, नीति और पराक्रम दोनों को स्वीकार करनेवाले आपके समान इस त्रैलोक्य में केवल दो या तीन राजा ही होंगे।

यहाँ पराक्रम की प्रधानता पूर्व-निपात के कारण व्यंग्य है। क्योंकि पराक्रमनयस्वीकारकान्तक्रमाः में नय में कम वर्ण होने के कारण पराक्रमनय के स्थान पर नयपराक्रम प्रयोग होना चाहिए- अल्पात्तरम् (अष्टाध्यायी 2-2-34)। किन्तु वार्तिक अभ्यर्हितञ्च के अनुसार पराक्रम को श्रेष्ठ दिखाने के लिए पूर्वनिपात का प्रयोग पराक्रम शब्द के पहले किया गया है।

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शनिवार, 25 जून 2011

फ़ुरसत में ... पाटलिपुत्र – गौरवपूर्ण इतिहास के झरोखे से झांकता उज्ज्वल भविष्य !!

फ़ुरसत में ...

पाटलिपुत्र गौरवपूर्ण इतिहास के झरोखे से झांकता उज्ज्वल भविष्य !!

vcm_s_kf_repr_832x624मनोज कुमार

महात्मा गाँधी सेतु से गंगा नदी का दृश्य

एम.एस.सी. की पढाई पूरी हो चुकी थी, आगे क्या करना है यह प्रश्न सामने था। उत्तर बिहार में ज़्यादा स्कोप था नहीं, पटना में सिविल सर्विसेज़ की तैयारी के लिए कोचिंग इंस्टीच्यूट में दाखिला ले लिया। अब समस्या थी भरण पोषण की ? संयोग से तब पटना के साइंस कॉलेज को गंगा प्रदूषण के ऊपर शोध करने के लिए एक प्रोजेक्ट मिला था। अखबार में जुनियर रिसर्च फ़ेलो का विज्ञापन देख उसके लिए आवेदन किया। पटना साइंस कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच बिहार विश्वविद्यालय मुज़फ़्फ़रपुर से आया एक मात्र मैं ही बाहरी कैंडिडेट था। पर सलेक्शन हो गया। तब आठ सौ रुपये मिलते थे। हमारा पटने में रहने खाने पीने का जुगाड़ बैठ गया। दो-तीन साल के शोध के बाद पटना स्थित बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण पर्षद में साइंटिस्ट के रूप में नियुक्ति मिली। एक दो साल उधर भी किस्मत आजमाई और गांगा मां की सेवा करते रहे। 1989 में सिविल सर्विसेज़ द्वारा चुन लिए गए और फिर पटना छूट सा गया।

इधर मई-जून में तीन बार अपने ही शहर को वर्षों बाद देखने का अवसर मिला। बहुत बदल सा गया यह शहर... नहीं-नहीं बिल्कुल भी नहीं बदला था। बिल्कुल बिहारियों की तरह ही, चाहे कहीं पहुंच जाएं, कुछ भी बन जाएं, सड़क को सरक कहेंगे ही।

इस बार कुछ समय निकाल कर पटना को एक बार फिर देखने निकल गया। दो जगह खास तौर से देखा, जिन्हें पहले नहीं देखा था, सुना ज़रूर था। एक तो कुम्रहार की खुदाई में मिले भग्नावशेष और दूसरा पटना म्यूज़ियम, जिसे हम पहले जादूघर कहते थे।

वर्तमान शासक ने पटना की छवि बदलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कई फ़्लाई ओवर के आ जाने से यातायात की गति ठहरे हुए बिहार में तेज़ हुई है। चाणक्य विधि विश्वविद्यालय और चन्द्रगुप्त प्रबंधन संस्थान के आने से निश्चित रूप से पटना का गौरव भी बढ़ता हुआ प्रतीत हुआ। तो आज फ़ुरसत में ... पटलिपुत्र गौरवपूर्ण इतिहास के झरोखे से झांकता उज्ज्वल भविष्य !!

कभी अज़ीमाबाद, कुसुमपुर, पाटलिपुत्र, और अब पटना, मेट्रो की राह पर जाता हुआ दिखा मुझे। इन नए विद्याध्ययन केन्द्र के आने से एजुकेशनल हब बनता जा रहा है। जगह जगह पर पार्क बन चुके हैं, बन रहे हैं। हाइटेक शहर भी होता जा रहा है। अब जिस शहर का इतिहास हजारों साल का हो वहां तंग सड़कें और गलियां होना तो लाजिमी है, पर जहां-जहां संभव हो सकता था सड़कें चौड़ी और बड़े-बड़े, ऊंचे-ऊंचे अपार्टमेंट भी दिखे, मिले।

बिहार का अतीत गौरवपूर्ण रहा है। बिहार की राजधानी पटना का इतिहास बेमिसाल रहा है। इसने कई उतार-चढाव देखे हैं। देखी और झेली है लुटेरी सेनाओं की लूट-खसोट। ख़ूनी तलवारों का खेल देखा है। साथ ही न सिर्फ़ सुना बल्कि पूरे विश्व को दिया शांति का उपदेश, शांति का संदेश।

vcm_s_kf_repr_832x624ईसा से 304 वर्ष पूर्व चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में भारत आए सुप्रसिद्ध यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में लिखा है कि भारत के इस महानतम नगर पाटलिपुत्र (पटना) की सुंदरता और वैभव का मुक़ाबला सूसा और एकबतना जैसे नगर के महल भी नहीं कर सकते। वह मौर्य वंश का शासनकाल था। ठीक 715 साल बाद जब वर्ष 411 में चीनी यात्री फाहियान इस नगर में दाख़िल हुआ तो वह भी यहां की सुंदरता, वैभव एवं उच्च सांस्कृतिक छटा देखकर चकित और अभिभूत था। उसने इस नगर को देवों द्वारा निर्मित बताया। अशोक के राजमहल की चर्चा करते हुए उसने लिखा है कि ये सब किन्हीं अशरीरी दिव्य आत्माओं द्वारा बनाए गए मालूम होते है। जिस प्रकार पत्थरों के खंभे, दीवार, द्वार और उन पर की गईं नक्काशियों तथा स्थापत्य-मूर्तिकला का काम दिखता है, वह मनुष्यों द्वारा किसी भी प्रकार संभव नहीं है।

जब मेगस्थनीज आया था, तब भी पाटलिपुत्र राजधानी था और जब फाहियान आया, तब भी। ईसा पूर्व 5वीं शताब्दी से लेकर ईसा पश्चात 9वीं शताब्दी यानी लगभग 14 सौ सालों तक पाटलिपुत्र लगातार राजधानी होने का अद्भुत कीर्तिमान अपने नाम रखता था।

पाटलिपुत्र उच्च सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक, प्रशासनिक एवं राजनीतिक केंद्र के रूप में भी प्रतिष्ठित था। राजनीति में आदर्श का प्रतीक पुरुष चाणक्य हों या शौर्य के प्रतीक सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य या गुप्त वंश के सिरमौर समुद्रगुप्त या फिर सम्राट अशोक, इन सबने अपने कर्मों से भारत को स्वर्णिम इतिहास प्रदान किया। इसी काल में महाकवि कालिदास हुए, बाणभट्ट हुए, अद्वितीय खगोलशास्त्री आर्यभट्ट हुए। प्रसिद्ध यक्षिणी (जो दीदारगंज की खुदाई में प्राप्त हुई) जैसी कलाकृति की रचना भी इसी काल में हुई और नालंदा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना भी। यह विश्व प्रसिद्ध व्यवसायिक केंद्र था और गंगा तट से, जहां एक बड़ा पत्तन (पोर्ट) भी था, जलमार्गीय व्यापार होता था।

प्राचीन लिच्छ्वियों की राजधानी वैशाली से बुद्ध और महावीर जुड़े रहे। महावीर का जन्म यहीं के बसाढ़ गांव में हुआ था। वैशाली पंचायती राजों का केन्द्र था। यहां गणतंत्र था। प्राचीनतम। इसने साम्राज्यों की लोभ-लिप्सा को देखा। आजातशत्रु ने वैशाली के पंचायती राज को जीत लेने की ठानी। पर उसे जीत लेना आसान नहीं था। जब उसने बुद्ध से उसे जीत लेने का उपाय पुछवाया तो बुद्ध ने उसकी अजेयता के सात कारण बताए।

जब तक वज्जियों के संघ में एकता है, जब तक उसकी संघ की बैठकें जल्दी-जल्दी होती हैं, जब तक उसके भेद गुप्त रखे जाते हैं, जब तक प्राचीन परंपराओं का उसमें आदर है, जब तक वह नारी का सम्मान करता है, जब तक उसकी मंत्रणा का भेद सुरक्षित है, और जब तक उसमें संयम है, तब तक वैशाली का संघ जीता नहीं जा सकता। कालांतर में वैशाली मिटी। पर उसका गौरमय इतिहास आज भी है।

सीता माता की जन्म स्थली भी बिहार में ही थी। सीता ने नारी जाति के सिर पर गौरव का तिलक लगाया। राजा जनक अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी सभा ज्ञान का अखाड़ा हुआ करती थी। याज्ञवल्क्य जैसे उपनिषद के ज्ञानी यहीं से जुड़े थे। उन्होंने संसार और जन्म-मरण के भेद पर प्रकाश डाला। गार्गी जैसी विदुषी का यहां से जुड़ा होना कम सौभाग्य की बात नहीं है। वो जटिल से जटिल प्रश्न हल कर महर्षियों को चकित कर देती थी।

बिहार की धरती से ही पहले शूद्र राजा हुए। महापद्मनंद ने एक बड़ा साम्राज्य गठित किया। पूरब के सागर से यमुना के कगार तक फैला था उसका साम्राज्य। इसकी सीमा पंजाब के दक्षिण , अवंतिका, मालवा तक, काशी, कोसल, और वत्स भी उसकी सीमा में थे।

पठान ब्राम्हण पाणिनि पठानों के देश यूसुफ़ज़ई के शलातुर गांव से आकर पाटलिपुत्र में ही व्याकरण अष्टध्यायी लिखा। पाणिनि के व्याकरण की कात्यायन ने पाटलिपुत्र में ही व्याख्या लिखी।

चाणक्य और चंद्रगुप्त ने मिल कर एक महान साम्राज्य की नींव रखी। अशोक ने एक विशाल साम्राज्य खड़ा किया। पाणिनि के व्याकरण पर भाष्य लिखने वाले और योग दर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि भी गौड़ देश से आकर पाटलिपुत्र में बस गए।

इस नगर ने दुख भी कम नहीं झेले। पाटलिपुत्र का अवसान वस्तुत: भारत की अधोगति का पर्याय बन गया। 9वीं शताब्दी के बाद भारत विदेशी आक्रमणकारियों की जागीर बन गया और यही स्थिति आज़ादी के पूर्व तक बनी रही। देश की राजधानी पाटलिपुत्र से हटा दी गई। दुनिया का यह सबसे ख़ूबसूरत शहर विध्वंस का शिकार हो चुका था।

vcm_s_kf_repr_832x624अमलाट ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर कितनों का वध कर डाला। राजा कनिष्क कश्मीर में बौद्ध संघ की बैठक करा रहे थे। उसने सुना कि पाटलिपुत्र में अश्वघोष नाम का महान बौद्ध पंडित और कवि है, जो कश्मीर के बौद्ध संघ में आने के लिए तैयार नहीं तो वह अपनी सेना लेकर पाटलिपुत्र पहुंचा और उन्हें उठा ले गया। चंद्रगुप्त ने साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की। चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में ही राजधानी अयोध्या में स्थापित हो गई थी। गुप्त काल में पाटलिपुत्र का महत्व गुप्त साम्राज्य की अवनति के साथ-साथ कम हो चला। गुप्तों के साम्राज्य को हूणों ने तोड़ डाला। छठी शती ई॰ में हूणों के आक्रमण के कारण पाटलिपुत्र की समृद्धि को बहुत धक्का पहुंचा और उसका रहा-सहा गौरव भी जाता रहा। हर्ष के समय पाटलिपुत्र का वैभव कन्नौज चला गया। 811 ई॰ के लगभग बंगाल के पाल-नरेश धर्मपाल द्वितीय ने कुछ समय के लिए पाटलिपुत्र में अपनी राजधानी बनाई। इसके पश्चात सैकड़ों वर्ष तक यह प्राचीन प्रसिद्ध नगर विस्मृति के गर्त में पड़ा रहा। बख़्तियार ख़लजी ने नालंदा को जला डाला। पठानों, खलजियों और तुग़लकों ने बारी-बारी से हमले किये और बिहार को तबाह कर डाला। लेकिन इस नगर का सौभाग्य अभी सोया नहीं था। यह शहर सृजन और विनाश के दो पाटों से गुजरता रहा। कैसे बहुरे पाटलीपुत्र के दिन इस पर चर्चा अगले अंक में ।

(ज़ारी …! शेष अगले शनिवार)

शुक्रवार, 24 जून 2011

शिवस्वरोदय – 48

शिवस्वरोदय – 48

आचार्य परशुराम राय

पूर्णनाडीगतः पृष्ठे शून्याङ्गं च तदाग्रतः।

शून्यस्थाने कृतः शत्रुर्म्रियते नात्र संशयः।।261।।

अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव इसे नहीं दिया जा रहा है।

भावार्थ – जब कोई सैनिक सक्रिय स्वर की दिशा में युद्ध के लिए प्रस्थान करे, तो उसका शत्रु संकटापन्न होगा। पर यदि निष्क्रिय स्वर की दिशा में युद्ध के लिए जाता है, तो शत्रु से उसका सामना होने की संभावना होगी। यदि युद्ध में शत्रु को निष्क्रिय स्वर की ओर रखकर वह युद्ध करता है, तो शत्रु की मृत्य अवश्यम्भावी है।

English Translation – When a soldier moves for a war in the direction of active breath, his enemy will get trouble. But if he moves in the direction of inactive breath, he has to face his enemy. When he fights with enemy by keeping him in the side of inactive breath, the death of enemy is sure.

वामाचारे समं नाम यस्य तस्य जयी भवेत्।

पृच्छको दक्षिणभागे विजयी विषमाक्षरः।।262।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – यदि प्रश्नकर्त्ता स्वरयोगी से उसके चन्द्र स्वर के प्रवाहकाल में बायीं ओर या सामने से प्रश्न करता है और उसके नाम में अक्षरों की संख्या सम हो, तो समझना चाहिए कि कार्य में सफलता मिलेगी। यदि वह दक्षिण की ओर से प्रश्न करता है और उसके नाम में वर्णों की संख्या विषम हो, तो भी सफलता की ही सम्भावना समझना चाहिए।

English Translation – During the flow of breath through left nostril of the replying authority and the questioner, being letters in his name in even number, puts query from the left side or front side, success can be predicted, and if his name has letters in odd numbers and he asks question from the right or back side, the same result is predicted.

यदा पृच्छति चन्द्रस्य तदा संधानमादिशेत्।

पृच्छेद्यदा तु सूर्यस्य तदा जानीहि विग्रहम्।।263।।

अन्वय – यह श्लोक भी लगभग अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – यदि प्रश्न पूछते समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो संधि की सम्भावना समझनी चाहिए। लेकिन यदि उस समय सूर्य स्वर चल रहा हो, तो समझना चाहिए कि युद्ध के चलते रहने की सम्भावना है।

English Translation – If at the time question regarding war, the answering person has the breath flowing through left nostril, a compromise between both the side can be predicted. But when at the time question the breath is active right nostril, continuation of war should be the right prediction.

पार्थिवे च समं युद्धं सिद्धिर्भवति वारुणे।

युद्धेहि तेजसो भङ्गो मृत्युर्वायौ नभस्यपि।।264।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में ही है।

भावार्थ – चन्द्र स्वर या सूर्य स्वर प्रवाहित हो, लेकिन यदि प्रश्न के समय सक्रिय स्वर में पृथ्वी तत्त्व प्रवाहित हो, समझना चाहिए कि युद्ध कर रहे दोनों पक्ष बराबरी पर रहेंगे। जल तत्त्व के प्रवाह काल में जिसकी ओर से प्रश्न पूछा गया है उसे सफलता मिलेगी। प्रश्न काल में स्वर में अग्नि तत्त्व के प्रवाहित होने पर चोट लगने की सम्भावना व्यक्त की जा सकती है। किन्तु यदि वायु या आकाश तत्त्व प्रवाहित हो, तो पूछे गए प्रश्न का उत्तर मृत्यु समझना चाहिए।

English Translation – Whether the breath is active in left or right nostril, but Prithvi (earth) Tattva is present in the breath at the time of questioning about a war, both the sides will be equally powerful. In case of presence of Jala (water) Tattva in the breath, success to the side of questioner is predicted. Presence of Agni (fire) Tattva in the breath predicts getting wounded in the war. But if Vayu (air) or Akash (ether) Tattva is present in the breath, answer to the question is death only.

गुरुवार, 23 जून 2011

आलोचना और आलोचना-धर्मिता

आँच – 74

आलोचना और आलोचना-धर्मिता

अर्थान्वेषण-2

आचार्य परशुराम राय

आँच के पिछले अंक में अर्थान्वेषण पर एक परिचयात्मक चर्चा हुई थी। इस अंक में इसी विषय पर थोड़ी और विस्तार से चर्चा करना अभीष्ट है। वैसे भारतीय काव्यशास्त्र शृंखला के अन्तर्गत काफी विस्तृत रूप से इसपर चर्चा की जा रही है, लेकिन वहाँ संस्कृत-मूलक चर्चा होने के कारण उन लोगों के लिए वह शृंखला थोड़ी जटिल हो जाती है, जिनका काव्यशास्त्र से परिचय नहीं है। अतएव यहाँ अर्थवैज्ञानिक (भाषाविज्ञान की एक शाखा) दृष्टि से विचार करते हैं। वैसे भारतीय परम्परा में शब्द-बोध का विवेचन व्याकरण, न्याय और मीमांसा में विशेष रूप से किया गया है। व्याकरण में शब्द या पद का विवेचन किया गया है। इसलिए इसे पदशास्त्र या शब्दशास्त्र कहा जाता है। न्याय में प्रमाणों का विशेषरूप से विवेचन किया गया है। यही कारण है कि इसे प्रमाणशास्त्र भी कहा जाता है। वाक्यार्थ शैली का विवेचन मीमांसा में किया गया है और इसीलिए इसे वाक्य-शास्त्र भी कहा जाता है।

अर्थ की प्रतीति के दो मार्ग माने जाते हैं- आत्मानुभव (अपने अनुभव) से और पर-अनुभव अर्थात् दूसरों के अनुभव से। जैसे हम जिस स्थान, देश या समाज में रहते हैं, उसके अनेक सरोकारों को हम स्वयं अनुभव करते हैं। इसमें निश्चित रूप से हमारे अपने दृष्टिकोण का प्रभाव रहता है। मिठाई के मिठास को हम अपने अनुभव से ही हृदयंगम करते हैं। या कोई कहता है- आम खट्टा है, तो खट्टा का अर्थ हम अपने अनुभव से ही होता है। इसी प्रकार किसी ऐसे देश के रीति-रिवाज, खान-पान आदि के विषय में, जहाँ हमने जाकर नहीं देखा है, दूसरों के अनुभव से समझते हैं। ऐसे ही मिसाइल सभी ने नहीं देखा है, अतएव इस शब्द का अर्थ हम दूसरों के अनुभव से प्राप्त करते हैं।

अर्थ-बोध के कई साधन हैं। यहाँ प्रमुख साधनों को लेकर चर्चा की जा रही है- व्यवहार, कोश, व्याकरण, प्रकरण या वाक्य-शेष, विवृति या व्याख्या, उपमान, आप्तवाक्य, ज्ञात का सान्निध्य, बलाघात, सुरलहर, अनुवाद आदि। इसे संकेतग्रह या शक्तिग्रह कहा जाता है। इसका तात्पर्य शब्द के अर्थ का ग्रहण करना है-

शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च।

वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः।।

इस कारिका में उल्लिखित अर्थ-ग्रहण के साधन उपर्युक्त अनुच्छेद (पैराग्राफ) में बताए प्रथम आठ हैं। आधुनिक भाषाविज्ञान आज के बदलते सन्दर्भों में इन आठ के अतिरिक्त अर्थ ग्रहण के कुछ अन्य साधन भी मानते हैं, जिनका उल्लेख किया जा चुका है, यथा- बलाघात, सुरलहर, अनुवाद आदि।

व्यवहार निस्सन्देह अर्थबोध का प्रमुख साधन है। समाज में प्रयुक्त भाषा के शब्दों का अर्थ-बोध हमें व्यवहार से ही होता है। यहाँ तक कि अनपढ़ व्यक्ति भी भाषा का प्रयोग व्यवहार से ही सीखता है। अर्थ-बोध का दूसरा साधन शब्दकोश (Dictionary) है। कोश से हम अज्ञात शब्द का अर्थबोध उसमें दिए ज्ञात शब्दों से होता है। इसके बाद तीसरा अर्थबोध का साधन व्याकरण है। व्याकरण अर्थबोध में किस प्रकार सहायक होता है, यह विचारणीय प्रश्न है। किसी भी भाषा में वर्णों, शब्दों आदि के वर्गीकरण विभिन्न शब्दों का रूप निर्धारण, उनके प्रयोग का विधान आदि व्याकरण के क्षेत्र में आते हैं। एक ही शब्द विभिन्न प्रत्ययों, उपसर्गों आदि के लगने के बाद उसके अर्थ की दिशा में परिवर्तन हो जाता है। जैसे- वह् धातु (मूल क्रिया) से कई शब्द निष्पन्न होते हैं- वहन, वाहन, वाहक, वाहिका, प्रवाह, प्रवाहित, विवाह आदि। इस प्रकार व्याकरण अर्थबोध में हमारा सहायक होता है।

अगला साधन प्रकरण या वाक्य-शेष है। हम सभी इस बात से सहमत हैं कि एक शब्द के कई अर्थ होते हैं। लेकिन जब वाक्य में उसका प्रयोग होता है, तो उसके केवल एक अर्थ का ही ग्रहण होता है और वह एक वाक्य में प्रयोग होने के कारण सन्दर्भ से आता है। जैसे- धातु शब्द के कई अर्थ हैं- आयुर्वेद में शरीर के नियामक तत्त्व वात, पित्त और कफ; इसके अतिरिक्त रस, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा आदि; सोना, चाँदी, लोहा आदि खनिज; व्याकरण में मूल क्रिया शब्द आदि। लेकिन जब इनका प्रयोग होता है, तो सन्दर्भ से इस शब्द का अर्थ किसी एक अर्थ में नियत हो जाता है। यह साधन हमें इस प्रकार शब्द के अर्थ-बोध में सहायक होता है।

इसके बाद व्याख्या या विवृति भी शब्दार्थ-बोध का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। जैसे व्याकरण के अन्तर्गत वर्णों के वर्गीकरण करने वाले शब्द- स्वर, व्यंजन, प्राण, महाप्राण, घोष, अघोष आदि, दर्शन में प्रयुक्त- द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि, काव्यशास्त्र मे ध्वनि आदि। इसी प्रकार विज्ञान के विभिन्न पारिभाषिक शब्दों को भी समझने के लिए व्याख्या अपेक्षित है।

उपमान को भी शब्दार्थ-बोध का साधन बताया गया है। जैसे यदि हम कहें कि भेड़िया कुत्ते के समान होता है, तो यहाँ उपमान कुत्ते के द्वारा भेड़िया शब्द का अर्थबोध होता है कि भेड़िया कुत्ते की तरह कोई जानवर है। इसी प्रकार घोड़े और गधे से खच्चर आदि का अर्थबोध कराया जा सकता है।

ऋषियों, महात्माओं, सिद्धों, विद्वानों, महापुरुषों आदि के वाक्यों या वचन से भी अर्थबोध होता है, जिसे आधुनिक अर्थविज्ञान या प्राचीन भारतीय परम्परा में आप्तवाक्य के नाम से जाना जाता हैं। इस परम्परा में धार्मिक, दार्शनिक, यौगिक आदि ग्रन्थ मुख्य स्रोत माने जाते हैं। वैसे आप्तवाक्य या आप्तवचन का अर्थ विश्वसनीय वचन भी होता है और आस्थावान लोगों के लिए इस प्रकार के ग्रंथ प्रमाण के रूप हैं। स्वर्ग, नरक, धर्म, अधर्म, आत्मा, पुनर्जन्म आदि शब्दों का ज्ञान हमें ऐसे ही ग्रंथों से होता है।

ज्ञात शब्दों के साथ अज्ञात शब्दों के प्रयोग होने पर ज्ञात शब्दों सन्निधि के कारण भी कभी-कभी हमें अज्ञात शब्दों के अर्थ का बोध होता है। जैसे कहा जाय बगुले की गरदन से हंस की गरदन लम्बी होती है। बगुला को जानने वाला समझ जाता है कि हंस बगुला की तरह ही कोई पक्षी है। ज्ञात के सान्निध्य से भी अर्थ का बोध होता है।

इसी प्रकार बलाघात और स्वराघात से भी अर्थबोध होता है। बलाघात और स्वराघात में बहुत ही सूक्ष्म अन्तर है। अंग्रेजी में इन्हें क्रमशः stress और accent कहते हैं। बलाघात के द्वारा अर्थ-बोध के लिए एक उदाहरण लेते हैं- तुम कोलकाता जा रहे हो। तुम कोलकाता जा रहे हो। पहले में तुम पर बलाघात होने के कारण इसका अर्थ हुआ कि केवल तुम कोलकाता जा रहे हो, दूसरा नहीं। जबकि दूसरे में कोलकाता पर बलाघात होने के कारण इसका अर्थ हुआ कि तुम कोलकाता जा रहे हो, कहीं और नहीं। आप कानपुर आ गए? आप कानपुर आ गए! इन दोनों वाक्यों स्वराघात के कारण एक प्रश्न-सूचक वाक्य बन गया, तो दूसरा विस्मय-सूचक।

कुछ भाषावैज्ञानिक अनुवाद को अर्थबोध का साधन मानते हैं। यह केवल भाषान्तर के कारण तो कहा जा सकता है। लेकिन जब हम एक स्वतन्त्र भाषा की बात करते हैं, तो इसे स्वीकार करना अनुचित लगता है।

आज इसे यहीं समाप्त किया जा रहा है। यदि अवसर मिला तो भविष्य में इस विषय पर और चर्चा की जाएगी।

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बुधवार, 22 जून 2011

देसिल बयना – 86 : जो रोगी को भाया, वही वैद्य फ़रमाया...

-- करण समस्तीपुरी

गाय के गोबर से लिपे-पुते आंगन में उत्सवीय सौरभ विद्यमान था। उतरवारी दुआरी से लेकर दखिनवारी दलान तक… एंह भारी गहमा-गहमी। मैय्या तो भोज-भात के इंतिजाम में व्यस्त थी। विध-व्यवहार का जिम्मा बड़की आजी पर था। सोन काकी गीत-गायिन सब के आगत-भागत में तैनात थी और लाल काकी का डियुटी लगा था चौका-घर में। जुगेसर की लुगाई वही भीर-भाड़ में से जर-जनानी को बुला-पकड़ कर नह-रंगाई कर रही है।

जैसन हाल अंगना का वैसने बाहर। जुगेसर दुन्नु बाप-पूत लगा हुआ है। एगो का दाढ़ी बना
या तब तक दूसरा कानी छँटाने के लिये तैय्यार। ओह… बेचारे को नाक का पसीना पोछने का भी फ़ुर्सत नहीं है। नेंगर धोबी और लुल्हाई की जोरू बारी-बारी से सब का आयरन-क्लाप किया हुआ कपड़ा ढो रही है। सामने रायजी वाला परती में माधो राम का मशक-बैंड पार्टी भी अपना टीम-टाम शुरु कर दिया है। बूढ़वा कारनेटिया बजा रहा है, “मेरी भी शादी हो जाए, दुआ करो सब मिलके….!”


अंदर से गीत की टहकार उठती है, “साजू बाबा आजन-बाजन…… साजू बरियात…!” बाहर उका परैक्टिकल हो रहा है। बाबूजी आगत-अभ्यागत सब को खैर-समाचार पूछ-पूछ कर गाड़ी-घोड़ा का पता-ठिकाना समझा रहे हैं। बड़का कक्का की पैनी नजर टोले के हर परिवार पर है, “अरे…. फ़िरंगी लाल और मुसुकचन के घर से कोई नहीं आया है। ई भगतुआ, लटोरना, सुरो और बोतला नजर नहीं आ रहा है। और ई लोटकन मिसिर वैद कहाँ रह गये…. नहीं गये तो अरियात-बरियात का तबियत-सेहत कौन संभालेगा…!” बेलचन महतो बड़का मालिक को भरोस दिलाता है, “नहीं मालिक… ! सब आयेगा। अभी दोबारा सबको हड़कार आये हैं।” धीरे-धीरे बरातियों का जत्था दरवाजे पर जमा होने लगता है। हर आधे घंटे पर आंगन में एक संवेत गीत गूंजता है, 'अइले… शुभ के लगनमा…. शुभे…हो… शुभे।’
सुबह से आठ बार हल्दी-दही का उबटन लगा-लगाकर सब हमरे गेहुआँ रंग को भी उज्जर कर दिया था। आजी बोली थी, “ए जुगेसर की कनिया…. ई अब नवम बार है। बढ़िया से बबुआ को उबटन लगैहो….।” सोन-काकी लहरदार गीत उठाई थी, “रामजी के करिऔन पसाहिन उदगार से…. अपना विचार से ना….!” आह… ई बार तो आधा घंटा तक आपादमस्तक मसाज होता रहा। फिर गुलाब-जल से हाथ-मुँह धो-धाकर एसनो-पावडर, काजर-टीका लगाके फिट।
बाहर से सहरसा वाला पिउसा (फूफा) फ़रमान लाये हैं। “हे हो बबुआ… ! जल्दी करो। इहाँ से जोजन भर दूर पटना शहर जाना है। टेमली चलो। गाँधी बिरिज एकलिखिया हो गया है। ई भारी जाम लगता है। कहीं फ़ँसे ना तो वहीं “मंगलं भगवान विष्णुः मंगलं गरुड़ध्वजः” करते रहना। पकौरी लाल से चापाकल चलवा-चलवा कर खूब नहाये थे। लस को घस-घसकर आधा कर दिये। नहाने में जो टेम लगा सो लगा… बांकी दुइए मिनिट में सिरवानी पर इतर-गुलाब उझल के तैय्यार। ना… गाँधीपूल पर तो नहीं फ़ंसेंगे। लेकिन अभी फ़ुर्सत कहाँ। अभी तो फ़ाइनल राउंड का गीत-नाद चुमावन और पालकी-चढ़ाई की रस्म तो बांकिये है।
बुलंती बुआ के नेतृत्व में महिला-मंडली आला-माला, मौरी-पगड़ी लेकर तैय्यार है। विधे-विधे गीत-नाद का सामूहिक स्वर समां बांध रहा है। पहले मैय्या दूभ-धान से चुमावन करके दही का टीका लगाती है। उसके पीछे फ़ुआ-चाची और अन्य सुहागन महिलाएं। पिउसा फिर हड़काने आ जाते हैं, “हई लो… पांच बज गया…. अबो निकलो… नहीं तो पूले पर जय-जय सियाराम करते रहना।” खुरचन झा पंडीजी स्वस्ति-वाचन करते हैं। बड़े-बुजुर्ग दुर्वाच्छ्त से आशीष देते हैं। भौजी हमरे माथा पर अंचरा रखकर मोटरकार में चढ़ाने आती है। आजके आखिरी गाने की लहर तेज हो जाती है, “तुम जाओ रे बंदे… ससुरार रे बंदे… तुम दुल्हिन लाना होशियार रे बंदे…!” मैय्या-बुआ-काकी-मामी मोटर के उपर रुपैय्या-पैसा लुटाती है। गाड़ी तीन बार आगे-पीछे करके फ़र्र से बढ़ जाती है।


डरेवर बड़ी ओस्ताद था। बिजली जैसे डेढ घंटा में तीसन कोस पार। हाजीपुर आ गया। हाँ हाजीपुर ही है। अब गाड़ी-घोड़ा सब चीटी जैसे ससर रहा है। ओह ठीके कहे थे पिउसा…। बस-ट्रक, जीप-कार, टेम्पू-रिक्शा… सब एकदम पलटन जैसे लाइन लगाकर परेड कर रहा है। एक घंटा में खिसक-खिसक कर पूल तक आये। फिर तो डरेवर भी चाभी निकालकर खैनी रगड़ने लगा। ओह जाम में उम्मस भी बड़ा हो रहा है। कार का सीसा नीचे कर लिये। कान में ’मंगलं भगवान विष्णुः….’ के बदले “ए मुंगफ़ली चिनिया बदाम…. रामदान लाड्डू…. हाजीपुर के फ़ेमस चिनिया केला… हरा-बतिया लो…. फ़्रूटी-ठंडा… कोल्ड्रिंक" सुनते रहे।
पहर रात गये जाम खुला। फिर भी घंटा लग गया पूल पार करने में। उपर से मोस्किल ई कि उ जाम में ऐसे छिटाए कि वर अलग, बराती अलग और बाबूजी की गाड़ी का कौनो अते-पता नहीं था। घंटा से उपर तो सबको एक ठौर करने में लगा। फिर पटनिया रस्ता… बिजली से नहा के सब एक्कहि जैसा लगता है। उपर से बराती को रस्ता दिखाये वाला भी बेजोरे आदमी था। सार… तीन परिक्रमा तो चितकोहरे गोलंबर का करवा दिया। हम बोले चार और करवा ही दो…!”

खैर किसी तरह हेराते-भुलाते बारह बजे रात में जलवासा पहुँचे। नश्ता-पानी होते-होते एक। अब दरवाजा लगाई, “टें…टें…. टें… टें… टें…. टें… टें…टें…. टें… टें… टें…. टें…. आज मेरे यार की शादी है…..टें…टें…. टें… टें… टें…. !” उ तो भला कि बैंड पार्टी का दूसरा भी साटा था सो एक्कहि गीत में दरवाजा लगा दिया वरना पता चलता कि अब अगला लगन का इंतिजार कीजिये।



फिर अरिकावन-परिकावन, कनियाँ-निरीच्छन…. मंडप पर पंडीजी के ’ओम इरिंग-भिरिंग-तिरिंग-टांग!’ पंडीजी का ध्यान मंतर पर, बरियाती का भोज पर, जर-जनानी का गीत पर, सुहसिन का विध पर, कन्यागत का कन्यादान पर और हमरा ध्यान तो परिकावनि में मिला पियरका घड़िये पर था। कुर्ता के बांही समेटे के बहाने हर पाँच मिनिट पर टाइमे देख रहे थे।

चार बज गये लेकिन पार्टी अभी बांकी है। अब हमरा धैर्य और हिम्मत जवाब दे दिया। अनुनय-विनय से काम नहीं चलेगा। जुगत लगाये। चलो फिर रेवाखंडी नौटंकी शुरु करते हैं। लघुशंका का बहाना कर के उठे। लटपटा कर धम्म से बैठ गये। आँख बंद करके दाँत निपोर दिये। आ… हा…. हे.. हे…. पानी लाओ… पंखा घुमाओ…. वैदजी को बुलाओ…. ! हंगामा मच गया। बराती-सराती सब एक्क्ट्ठे सकदम।
बड़का कक्का पगड़ी संभालते हुए गरजे, “अरे कहाँ गया लोटकनमा वैद…. उ ससुर को एहि सब एमर्जेंसी के लिये न लाये… देखो कोना में रसगुल्ला चाभ (चूस) रहा होगा।” वैदजी का नाम सुनकर तो हमें लगा कि लेयो अब हो गया सब नौटंकी का पटाक्षेप। इस से पहिले कि भेद खुल जाये हम खुदे आँख मिचमिचा के उठने लगे। ’आ… ह… ह… पाहुन बैठिये… बबुआ बैठो…. एक साथ कई हिदायतें मिल गयी थी।” दुल्हिनियाँ भी घुंघट सरका के हमरे ओर देख रही थी।
लोटकन मिसिर गमछी से अपना मुँह पोछते हुए धरफ़रा के आये और हमरी नाड़ी पकड़ कर पूछ-ताछ करने लगे। हम सोचे कछु बोलने से धरा न जायें इसीलिये मिसिरजी जौन लच्छन बतायें सब में हाँ-हूँ। मने-मन डरो लग रहा था कि पता नहीं वैदजी कौन गोली-पुड़िया खिला दें… कि सुखले में काढा पिला दें…! अब हम बिमार होने का कोई लच्छन नहीं प्रकट होने देना चाह रहे थे।
मिसिरजी भी पहुँचे हुए वैद हैं। वैसहिं नहीं जिला-फ़ेमस हैं। पाँच मिनिट तक गहन जाँच-परताल के बाद कहिन, “बबुआ अब एकदम ठीक है। दिने का खाया-पीया था। इहां जादा देर एक्कहि आसन में बैठा और अचानके उठा न सो घुरमी लग गया और कौनो बात नहीं है।” फ़िर पंडीजी से मुखातिब बोले, “हौ पंडीजी ! जमाना चाँद पर गया और आप अभियो बैलेगाड़ी पर घूम रहे हैं। मरदे, फ़टाक से मंगलं भगवान विष्णुः… मंगलम गरुड़ध्वजः करवा के फेरा-फ़ेरी करवाकर खीर-खिलावन करवा दीजिये। पेट में दू कौर खीर भी जायेगा तो आफ़ियत होगा।”




हाँ…! वैदजी की सलाह रामवाण की तरह काम किया। बांकी का विध-वाध एकदम फ़ोर एक्स फ़ास्ट फ़ारवर्ड हो गया। उधर नारी-वृंद का गीत-नाद, हास-परिहास भी द्रुत गति से बढ़ रहा था। हमरे मुँह पर भी मुस्की तैर गयी थी। उसकी बिजली भौजी शायद बात भांप ली थी। मजेदार टोन मारी थी, “हाँ-हाँ…! जो रोगी को भाया, वही वैद फ़रमाया। तो फिर दूल्हा बाबू मुस्की क्यों नहीं मारेंगे….! अबहि तो अरमान फूट रहे हैं।” खूब हें..हें… हीं…हीं… भी हुआ था भौजी के टोन पर।


झट-पट में भाँवरी, फेरे, सिंदूरदान के बाद सुहागकक्ष जाते हुए बिजली भौजी की बात याद कर फिर मन गुदगुदा गया, “जो रोगी को भाया, वही वैद फ़रमाया। मतलब कि दूसरे छोड़ से भी मनोनुकूल बात होना। आखिर जो भी हो अपनी नाट्य-कला पर एक बार गर्व जरूर हुआ। निशाना सही जगह लगा था।”


इस तरह "जो रोगी को भाया, वही वैद फ़रमाया।" साढ़े तीन फेरा में ही सातो बचन निपटाया। हो गयी बात मनमाफ़िक। बोल “सियावर रामचन्द्र की जय!”

मंगलवार, 21 जून 2011

भारत और सहिष्णुता-7

अंक-7

भारत और सहिष्णुता

clip_image002रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी  रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।

    जितेन्द्र त्रिवेदी

पकुध कच्चायन अन्योन्यवादी थे। वे कहा करते थे, ''सात पदार्थ किसी के किये, करवाये, बनाये या बनवाये हुये नहीं हैं, वे तो वन्ध्य, कूटस्थ और नगर-द्वार के स्तम्भ की तरह अचल हैं। वे न हिलते हैं, न बदलते हैं, एक-दूसरे को वे नहीं सताते, एक-दूसरे का सुख-दुःख उत्पन्न करने में वे असमर्थ हैं। वे कौन -से हैं। वे हैं पृथ्वी, अप, तेज, वायु, सुख, दुःख एवं जीव। इन्हें मारने वाला, मरवाने वाला, सुनने वाला, सुनाने वाला, जानने वाला अथवा इनका वर्णन करने वाला कोई भी नहीं है। जो कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का सिर काट डालता है, वह उसका प्राण नहीं लेता। बस इतना ही समझना चाहिए कि सात पदार्थो के बीच के अवकाश में शस्त्र के अवकाश में शस्त्र घुस गया है।''

संजय वेलिटट्ठपुत्त विक्षेपवादी थे। वे कहा करते थे, ''यदि कोई मुझसे पूछे कि क्या परलोक है? और अगर मुझे ऐसा लगे कि परलोक है, तो मैं कहूँगा, हाँ! परन्तु मुझे वैसा नहीं लगता। मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि परलोक नहीं है। औपपातिक प्राणी हैं या नहीं, अच्छे-बुरे कर्म का फल होता है या नहीं, तथागत मृत्यु के बाद रहता है या नहीं, इनमें से किसी भी बात के विषय में मेरी कोई निश्चित धारणा नहीं है"।

निगण्ठ नाथपुत्त चातुर्यामसंवरवादी थे। इन चारों यामों की जानकारी 'सामण्ञसुत्त' में मिलती है वह अपूर्ण है। फिर भी उनका मानना था कि सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपिरग्रह ये चार यम हैं और इनका पालन करने से व्यक्ति पापाचार से मुक्त हो जाता है।

चार्वाक पूर्णतया नास्तिक थे और उनका दर्शन इस श्‍लोक से भलीभांति स्पष्ट हो जाता हैः

''यावत्‌ जीवेद्, सुखम्‌ जीवेद् ऋणम्‌ कृत्वा घृतम्‌ पीवेत,

भस्मि भूतस्य पुनरागमनः कुतः''

अर्थात्‌ जब तक जियो मौज से जियो और ऋण ले कर भी मजा करो क्योंकि मरने के बाद किसी का ऋण चुकाने धरती पर पुनः नहीं आना होता।

आलार कालाम कहते थे कि व्यक्ति को मनोनिग्रह के मार्ग से ही शान्ति मिल सकती है और वे इसी से समाधि लगना बताते थे। उनका पूरा ध्यान इस बात पर था कि मनोनिग्रह करके व्यक्ति का चरम लक्ष्य समाधि में स्थिर होना है और किसी अन्य के प्रति उसका कोई दायित्व नहीं है।

महावीर जैन से पहले पार्श्‍वमुनि ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह चार यमों का उपद्देश्‍य दे दिया था। महावीर स्वामी ने उसमें ब्रह्मचर्य को भी जोड़ दिया था। उनका यह निचोड़ था कि उपरोक्त यमों तथा तपश्‍चर्या से पुर्नजन्म में किये हुये पापों का नाश किया जा सकता है और वर्तमान में पाप होने से बचा जा सकता है और इस प्रक्रिया के सम्पूर्ण होते ही व्यक्ति को कैवल्य प्राप्त हो जाता है जो जैन दर्शन का अन्तिम लक्ष्य है।

बुद्ध वैसे तो आलार कलाम के मनोनिग्रह मार्ग से ही सिद्धि कर रहे थे किन्तु उन्हे बाद में ऐसा लगने लगा कि यह मार्ग सारी मनुष्य जाति के लिए उपयोगी नहीं है क्योंकि मनोनिग्रह के बाद की अवस्था समाधि थी जिसे प्राप्त करने पर व्यक्ति आत्म सीमित हो जाता है और अन्य के प्रति उसका कोई दायित्व नहीं बचता। इसलिये महात्मा बुद्ध ने प्राणपण से प्रयत्न करके एक अभिनव मार्ग खोजा जो सभी मनुष्यों के लिये उपयोगी था और वह यह था कि जीवन में विपुल दुःख है (सब्बम्‌ दुख्खम्‌)। व्यक्ति का यह दुःख उसकी तृष्णा के कारण है। महात्मा बुद्ध ने मानव जाति के इतिहास में प्रथम बार यह दिखा दिया कि दुःख का असली कारण प्रकृति नहीं है बल्कि मनुष्य की तृष्णा है। बुद्ध का कहना था कि तृष्णा कहां से आयी, यह प्रश्‍न निरर्थक है, परन्तु यह शाश्‍वत सत्य है कि जबतक तृष्णा है जब तक दुःख उत्पन्न होता ही रहेगा अतः मनुष्य को यदि वास्तव में सुखी रहना है तो उसे तृष्णा का नाश करना ही पड़ेगा और तृष्णा के नाश का उपाय बौद्ध दर्शन में विस्तार से बताया गया है जिसे अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है। इस अष्टांगिक मार्ग का पहला सोपान है 'सम्यक दृष्टि' - काया, वाचा और मनसा, सभी को समान नज़र से देखना, दूसरा 'सम्यक संकल्प'- मन में निरन्तर यह भावना लाना की बुराई मूल रूप में मेरे स्वरूप का अंश नहीं है, मैं नित्य शुद्ध हूँ, नित्य मुक्त हूँ, नित्य बुद्ध हूँ । तीसरा 'सम्यक वाचा'- किसी भी स्थिति में किसी भी व्यक्ति को कड़वा नही बोलना। असत्य, चुगली, गाली, वृथा बकबक से बचना और प्रिय एवं मित भाषण करना। चौथा 'सम्यक कर्मान्त'- ऐसा कोई काम नही करना जिससे बाद में पछताना पड़े। बुद्ध ने ऐसे नहीं करने योग्य कामों की सूची दे दी है जो इस प्रकार हैः चोरी, व्यभिचार, प्राणघात, हिंसा, झूठ, कपट इत्यादि। पांचवा 'सम्यक आजीव'- अपनी आजिविका इस प्रकार चलाना जिससे समाज को हानि न पहुंचे। छठा 'सम्यक व्यायाम'- जो बुरे विचार मन में न आये हों उन्हे आने के लिये अवसर न देना और जो बुरे विचार मन में आते हों उन्हें यह भावना करके नष्ट करना कि यह मेरा अंग नहीं है इस मानसिक प्रयत्न को बढ़ाते जाना ही सम्यक व्यायाम है। सातवां 'सम्यक स्मृति'- यह बात बार-बार याद करना कि यह शरीर जरा धर्मी है, व्याधि धर्मी है, मरण धर्मी है। अतः इसका अधिक ध्यान रखना बेवकूफी है। यह शरीर ही नहीं सभी प्राणी मात्र जरा धर्मी है, व्याधि धर्मी है, मरण धर्मी है। अतः इनकी चिन्ता करना भी बेवकूफी है। इसलिये व्यक्ति को चाहिये कि वह निरन्तर यह विवेक जागृत रखे और स्व चित्त का बार-बार अवलोकन करे। आठवां 'सम्यक समाधि'- उपरोक्त सातों बातों को ख्याल करते हुये ध्यान में बैठे और अपने चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न करे किन्तु यह प्रयास कष्ट साध्य नहीं होना चाहिये। दो अन्तो तक न जाकर मध्यम मार्ग से ध्यान करने वाले व्यक्ति की समाधि लगना तय है। बुद्ध ने जिस 'समाधि' का उल्‍लेख किया है, वह दीन दुनियां से अलग-थलग रहकर वन में साधना करना नहीं है अपितु उनके यहां समाधि का मतलब अनंत सुख, अनंत शांति, अनंत विश्राम और इसे पा लेने के बाद व्‍यक्ति को चाहिये कि वह अन्य लोगो को भी बुद्ध बनने के लिये प्रोत्साहित करे।

बुद्ध का कहना था कि इसी मार्ग से पृथ्वी पर शांति आयेगी।

सोमवार, 20 जून 2011

नवगीत - गीत मेरे अर्पित हैं

श्यामनारायण मिश्र का नवगीत

गीत मेरे अर्पित हैं

ख़ून की उबालों को,

क्रांति की मशालों को

गीत मेरे अर्पित हैं

 

तोतली जुबानों पर

दूनिया-पहाड़ों के

अंक जो चढाते हैं

तंग हुए हाथों से

आलोकित माथों से

ज्ञान जो लुटाते हैं,

विद्याधन वालों को,

फटे हुए हालों को

गीत मेरे अर्पित हैं।

खेत में, खदानों में

मिलों कारखानों में,

जोखिम जान के लिए,

पांजर भर गात नहीं

आतों भर भात नहीं,

सदियों से ओठ सिए

खाट के पुआलों को,

लेटे कंकालों को,

गीत मेरे अर्पित हैं।

खेतों की मेड़ों पर,

शीशम के पेड़ों पर,

बांधते मचानों को

माटी को पूज रहे,

माटी से जूझ रहे,

परिश्रमी किसानों को

स्वेद भरे भालों को

फावड़े-कुदालों को

गीत मेरे अर्पित हैं।

रविवार, 19 जून 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-71

भारतीय काव्यशास्त्र-71

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में ध्वनि 47 भेदों की गणना करते हुए प्रबन्धगत ध्वनि के 12 भेदों में से दो पर चर्चा की गयी थी और यह कहकर बात समाप्त कर दी गयी थी कि अन्य 10 भेदों का निर्णय इसी प्रकार कर लेना चाहिए। इस अंक में असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य अर्थात् रस-ध्वनि के चार भेदों- पदैकदेश (प्रकृति-प्रत्यय आदि) द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य, रचना (शैली) द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य, वर्णों द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य और प्रबन्धगत रस-ध्वनि व्यंग्य में से केवल प्रकृति-प्रत्यय द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य पर चर्चा की जाएगी।

पदैकदेश द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य का अर्श है शब्दांश या पदांश द्वारा किसी रस का व्यंजित होना। इसके अन्तर्गत आचार्य मम्मट ने सर्वप्रथम धातु (मूल क्रिया या ROOT VERB) से शृंगार रस की व्यंजकता को लिया है-,

रइकेलिहिअणिअसणकरकिसलयअरुद्धणअणजुअलस्स।

रुद्दस्स    तइअणअणं   पव्वईपरिचुँबिअं    जअइ।।

(रतिकेलिहृतनिवसनकरकिसलयरुद्धनयनयुगलस्य।

रुद्रस्य  तृतीयनयनं  पार्वतीपरिचुम्बितं  जयति।। संस्कृत-छाया)

अर्थात् रतिक्रीड़ा के समय माँ पार्वती के वस्त्र को छीन लेनेवाले भगवान शिव, जिनके दो नेत्र उनके (माँ पार्वती के) कर-किसलय द्वारा बन्द कर लिए गए हैं, का पार्वती द्वारा परिचुम्बित तीसरा नेत्र की विजय प्राप्त कर रहा है।

यहाँ जयति (जि धातु से व्युत्पन्न) से शृंगार रस व्यंजित हो रहा है। क्योंकि तीनों नेत्रों बन्द करना समान है। लकिन तीसरे नेत्र को परिचुम्बन के द्वारा बन्द करना, उसकी उत्कृष्टता, सुन्दरता या उत्कर्ष को व्यक्त करता है और यह जयति शब्द के कारण है। यदि इसके स्थान पर शोभते (शोभित हो रहा है) पद का प्रयोग किया जाता, यह व्यंग्य नहीं आ पाता।

इसी प्रकार प्रातिपदिक शब्द (मूल संज्ञा शब्द अर्थात् विभक्ति रहित शब्द) से शृंगार रस की व्यंजना का उदाहरण देखा जा सकता है-,

प्रेयान् सोSयमपाकृतः सशपथं पादानतः कान्तया,

द्वित्राण्येव पदानि वासभवनाद्यावन्न यात्युन्मनाः।

तावत्प्रत्युत पाणिसम्पुटगलन्नीविनिबन्धं धृतो,

धावित्वैव  कृतप्रणामकमहो  प्रेम्णो विचित्रा गतिः।।

अर्थात् शपथ लेकर भी पैरों पर झुके हुए अपने प्रियतम को नायिका (पत्नी) द्वारा फटकारे जाने पर जब उसका पति खिन्न होकर बाहर जाने के लिए दरवाजे की ओर दो-तीन कदम ही बढ़ाया था कि पत्नी ने खुली जा रही नीवी (पेटीकोट या लहँगे की गाँठ) को दोनों हाथों से सँभालती हुई प्रणाम की मुद्रा में उसे जाने से रोक लिया। अहो प्रेम की विचित्र गति है।

यहाँ पदानि (कदम) संज्ञा पद के कारण यहाँ पत्नी की प्रेम के प्रति उत्सुकता व्यंजित हो रही है (दरवाजा पद के कारण नहीं), पत्नी इतनी प्रेम के लिए उत्सुक थी कि दो-तीन कदम दरवाजे की ओर बढ़ाते ही उसका मान भंग हो गया, अर्थात कहीं वह चला गया तो सब व्यर्थ हो जाएगा, ऐसा न हो इसलिए बाहर जाने के लिए दरवाजे की ओर दो-तीन कदम बढ़ाते ही पत्नी उसे रोक लेती है। अतएव यह संज्ञा पद पदानि (कदम) के कारण संयोग शृंगार व्यंग्य है।

अब देखते हैं कि प्रत्यय या उसके अंश द्वारा होनेवाली रस की व्यंजना को दिखाने के लिए निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत है-

पथि पथि शुकचञ्चूचारुराभाङ्कुराणां,

दिशि दिशि पवमानो वीरुधां लासकश्च।

नरि नरि किरति द्राक् सायकान् पुष्पधन्वा,

पुरि पुरि विनिवृत्ता मानिनीमानचर्चा।।

अर्थात् वसन्त ऋतु में प्रत्येक पथ पर तोतों के चोंच के समान लाल-लाल निकले नये अंकुरों की मनभावन आभा है, हर दिशा में लताओं को नृत्य कराती हवा बह रही है, सभी पुरुषों पर कामदेव अपने बाणों की वर्षा कर रहा है और प्रत्येक नगर में मानिनी स्त्रियों के मान की चर्चा समाप्त हो गयी है।

इसमें किर् धातु में वर्तमान कालिक तिङ् (ति) प्रत्यय के कारण यह व्यंजित हो रहा है कि पुष्पधन्वा कामदेव के बाणों की वर्षा अभी चल रही है, समाप्त नहीं हुई। इसी प्रकार निवृत्त पद में क्त भूतकालिक प्रत्यय (past participle) विशेषण के रूप में कर्त्ता कारक में प्रयोग होने से मानिनी स्त्रियों के मान बिलकुल शेष नहीं है, उनका मान पूरी तरह समाप्त हो गया है। ये अर्थ उक्त प्रत्ययों से युक्त पदों के प्रयोग के कारण सम्भव हो सका है।

निम्नलिखित श्लोक में भी प्रत्ययांश द्वारा होनेवाले व्यंग्य को दिखाया गया है। यह विप्रलम्भ शृंगार की व्यंजना का उदाहरण है-

लिखन्नास्ते भूमिं बहिरवनतः प्राणदयितो,

निराहाराः सख्यः सततरुदितोच्छूननयनाः।

परित्यक्तं सर्वं हसितपठितं पञ्जरशुकै-

स्तवावस्था चेयं विसृज कठिने मानमधुना।।

यह अमरुकशतक का श्लोक है। नायक से बहुत दिनों से रूठी नायिका को मनाने के लिए उसे उसकी सहेली का समझाना इसमें बताया गया है। सहेली कहती है कि तुम्हारा प्रेमी बाहर सिर झुकाए जमीन कुरेद रहा है, उसके दुख से दुखी सभी सहेलियाँ भोजन करना छोड़ दी हैं और निरन्तर रोने के कारण उनकी आँखें भी सूज गयी हैं, और तो और पिंजरे में बन्द तोते भी हँसना और पढ़ना छोड़ चुके हैं और तुम हो कि मानती ही नहीं। हे कठोर हृदयवाली, अब तो मान जाओ।

यहाँ लिखन् पद लिख् धातु में शतृ प्रत्यय लगने से निष्पन्न हुआ है। शतृ प्रत्यय लगने के कारण लिखन् का अर्थ है निरुद्देश्य रूप से जमीन को कुरेदते हुए। यदि लिखति वर्तमानकालिक क्रिया रूप होता तो उसका अर्थ किसी उद्देश्य के साथ लिखना अर्थ होता। इसी प्रकार आस्ते पद यह व्यंजित करता है कि वह तुम्हारे मानने तक बैठा रहेगा। यदि यहाँ आसितः प्रयोग होता तो अर्थ निकलता कि उसका बैठना निरुद्देश्य है। इसी प्रकार भूमिं (भूमि/जमीन) एक वचन द्वितीया विभक्ति में प्रयोग यह व्यंजित करता है कि उसका भूमि को कुरेदना उद्देश्यहीन है। यदि सप्तमी विभक्ति (अधिकरण कारक) में भूमौ प्रयोग होता तो सोद्देश्य भूमि का कुरेदना अर्थ होता।

निम्नलिखित श्लोक में संज्ञा शब्द का षष्ठी विभक्ति (सम्बन्ध कारक) में प्रयोग से व्यंग्य का उदाहरण लिया जा रहा है। यह श्लोक मूल रूप से प्राकृत भाषा में है। इसलिए इसका सस्कृत रूप भी कोष्ठक में दे दिया गया है-

गामारुहस्मि गामे वसामि णअरठ्ठिइं ण जाणामि।

णाअरिआणं पइणो हरेमि जा  होमि  सा होमि।।

(ग्रामरुहास्मि ग्रामे वसामि नगरस्थितिं न जानामि।

नागरिकाणां पतीन् हरामि या भवामि सा भवामि।। संस्कृत छाया)

अर्थात् मैं गाँव में पैदा हुई और गाँव में ही रहती हूँ, शहर के तौर-तरीकों को नहीं जानती हूँ; मैं जो भी होऊँ, शहरी स्त्रियों के पतियों को वश में करना जानती हूँ।

इस श्लोक में प्रयुक्त “नागरिकाणां पतीन्”  में नागरिक शब्द को सम्बन्ध कारक (षष्ठी विभक्ति) में प्रयोग होने के कारण शहरी पतियों के प्रति उपेक्षा या अनादर का भाव व्यंजित होता है। क्योंकि व्याकरण के अनुसार षष्ठी विभक्ति का प्रयोग अनादर के अर्थ में होता है- षष्ठी चानादरे (च+अनादरे)। इस प्रकार यहाँ शहरी स्त्रियों के पतियों को गाँव की रहने वाली स्त्री द्वारा आकर्षित करने की क्षमता का उत्कर्ष व्यंग्य है।

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शनिवार, 18 जून 2011

फ़ुरसत में ..... कालाधन और भ्रष्टाचार की बात नहीं कर सकता?

फ़ुरसत में .....

कालाधन और भ्रष्टाचार की बात नहीं कर सकता?

मनोज कुमार

 

एक वे थे .. बैरिस्टर। पिता दीवान थे। फिर परिस्थिति ने उन्हें वकालत छोड़ कर मानव सेवा को हाथ में लेने के लिए प्रेरित किया।

आज उनको अपना आदर्श मान कर, कई लोग उनके विचारों के आधार पर लड़ाई लड़ रहे हैं। लड़ाई भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़, लड़ाई देश का धन जो बाहर है उसे देश वापस लाने के लिए।

उनमें से एक इन दिनों सुर्ख़ियों में है ..

उन पर इल्जाम है,

१. वह संन्यासी हैं। उन्हें राजनीति नहीं करनी चाहिए।

२. वह योग छोड़कर कालेधन की बात क्यों करते हैं?

३. वह संन्यासी हैं, उन्हें कुछ राजनीतिक पार्टी अपने मतलब साधने के लिए अपने साथ लिए हुए हैं।

४. वह महिलाओं का सहारा लेकर, वेश बदल कर (महिलाओं के कपड़े पहन कर) अपनी जान बचाने के लिए भगा जाते हैं।

आज फ़ुरसत में इसी पर उनके विचार से विचार करें जिनके आदर्शों पर चलने की बात करते हैं सभी। वे भी, जो इनकी आलोचना करते हैं।

विलायत से पढ़कर बैरिस्टर बने। अपनी उम्र के ३६वें साल में ब्रह्मचर्य व्रत अपनाने की घोषणा करते हैं। महात्मा कहलाते हैं, बापू कहलाते हैं। लोगों के कहने पर तब के कांग्रेस की राजनीति करते हैं। देश को ग़ुलामी की जंज़ीरों से आज़ाद कराते हैं। सबको ख़ुशी होती है कि वह हमारे दल का, हमारी लड़ाई का नेतृत्व करते हैं।

इन्होंने गुरुकुल में योग की पढ़ाई की, योग शिक्षक बनते हैं, संन्यास ग्रहण करते हैं, लोग उन्हें बाबा कहते हैं। स्वामी कहते हैं।

वह जिसे लोग महात्मा या बापू कहते हैं, देश से बाहर जा रहे धन (ड्रेन ऑफ वेल्थ) को रोकने के लिए लड़ाई लड़ते हैं, स्वदेशी अपनाते हैं। तब की कांग्रेस उन्हें अपनी लड़ाई का हिस्सा बनाती है। लड़ाई लड़ती है।

ये, जिन्हें लोग बाबा या स्वामी कहते हैं, जो धन देश से बाहर चला गया है (काला धन/ब्लैक मनी) को देश में वापस लाने की लड़ाई लड़ते हैं। उस धन को देश का धन घोषित किया जाए, मांग करते हैं।

उनके दिनों में जालियांवाला कांड होता है, निहत्थे प्राणियों की “दिन-दहाड़े” हत्या कर दी जाती है।

इनकी, जिन्हें लोग स्वामी कहते है, बाबा कहते हैं, की मांग के बदले “रातों-रात” गोलियां बरसाई जाती है।

उन्हें, जिन्होंने उम्र के ३६वें साल में ब्रह्मचर्य ग्रहण किया, कभी नहीं कहा कि आप राजनीति क्यों करते हैं, बल्कि जब भी ज़रूरत पड़ी उन्हें कहते कि आप हमारी पार्टी को राह दिखाइए हमारे आन्दोलन का नेतृत्व कीजिए।

इन्हें कहते हैं तुम संन्यासी हो, बेटर यू शुल्ड कन्सेन्ट्रेट ऑन योर योगा एण्ड साधुगिरी, नहीं तो अगर हमें राजनीति सिखाने आए तो तुम्हें तुम्हारी सारी गांधीगिरी भुला देंगे।

मतलब उद्देश्य की प्राप्ति हेतु तब की कांग्रेस महात्मा का साथ ले तो कोई ग़लत नहीं, आज के स्वामी की कोई चर्चा करे तो वह साम्प्रदायिक हो गया?

तब यह राष्ट्रीयता कहलाता था, आज साम्प्रदायिकता, अराजकता!

अब देखें साधुओं की सांठ-गांठ किस पार्टी से किसकी रही। मैं क्या कहूंगा, खुशवन्त सिंह जी पूरा चिट्ठा सामने रख दिए हैं, हिन्दुस्तान में।

कहते हैं कि आज के बाबा, स्वामी, इस पार्टी से जुड़े हैं, उस पार्टी से जुड़े हैं। 12 जून के अखबार में खुशवंत सिंह का आलेख पढ़ा। आप खुद ही देख लिजीए कि स्वतंत्र भारत में नेताओं/पार्टियों से संतों के जुड़े रहने का इतिहास इस लिंक पर: - ¶FbSXF ¸FF³Fû ¹FF ·F»FF ¶FF¶FFAûÔ IYe Qbd³F¹FF AüSX ÀFSXIYFSX

इन्हें (बाबा/स्वामी) कुछ लोग कहते हैं कि महिलाओं का सहारा लेकर जान बचाते हैं …

मैं इस प्रसंग पर अपने ब्लॉग “विचार” पर लिखना चाहता था। पर “विचार” पर गांधी जी के जीवन से जुड़ी घटनाएं क्रम से चल रहीं हैं। और क्रम तोड़ कर वहां लिखना नहीं चाहता था इसलिए आज इस ब्लॉग पर फ़ुरसत में ज़रा विस्तृत से उस घटना का ज़िक्र कर लूं। लोगों को याद आए कि हमारे राष्ट्रपिता को भी जान बचाकर भागना पड़ा था, वह भी वेश बदल कर, महिलाओं के पीछे रह कर (छुपना शब्द का प्रयोग मैं नहीं कर रहा) जान बचाना पड़ा था। एक बड़ी लड़ाई लड़ने के लिए इस तरह के काम करने पड़ते हैं। अगर उस दिन बापू वैसा न किए होते तो शायद हमें आज़ादी की लड़ाई के लिए नेतृत्व देने वाला उस दिन ज़िन्दा न बचता। मुझे तो कुछ वैसी ही परिस्थिति 4-5 जून की रात को रामलीला के मैदान में लगी। अब बिना किसी भूमिका के उस घटना पर आता हूं।

गांधी जी अपने परिवार के साथ भारत से नेटाल के लिए स्टीमर से चल चुके थे। उधर डरबन में एक अलग किस्म की लड़ाई चल रही थी। उसका केन्द्र बिन्दू गांधी जी थे। उनपर दो आरोप थे ..

१. उन्होंने भारत में नेटाल-वासी गोरों की अनुचित निन्दा की थी, (काले धन और भ्रष्टाचार के लिए सरकार की निन्दा – अनुचित?!)

२. वे नेटाल को भारतीयों से भर देना चाहते थे। (रामलीला में लोगों को बुलाना, लोगों के मन में भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ़ लड़ाई का जज़्बा भरना)

गांधी जी निर्दोष थे। उन्होंने भारत में कोई ऐसी नई बात नहीं कही थी जो उन्होंने इसके पहले नेटाल में न कही हो। और जो कुछ भी उन्होंने कहा था पक्के सबूत के बल पर कहा था। (भ्रष्टाचार पर, कालेधन पर, स्विस बैंक पर सारे तथ्य और आंकड़े लोगों के सामने है, उस दिन जो रामलीला मैदान में बात कही गई थी, वह कोई नई नहीं थी।)

गांधी जी से जहाज पर कप्तान ने पूछा, “गोरे जैसी धमकी दे रहे हैं, उसी के अनुसार वे आपको चोट पहुंचायें, तो आप अहिंसा के अपने सिद्धान्त पर किस प्रकार अमल करेंगे?”

गांधी जी ने जवाब दिया, “मुझे आशा है कि उन्हें माफ़ कर देने की और उन पर मुकदमा न चलाने की हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे देगा।”

कई दिन तक बन्दरगाह पर जहाज लगा रहा, उन्हें जहाज से उतरने की इज़ाज़त नहीं मिली। धमकी दी गई कि जान खतरे में है। आखिर 13 जनवरी 1897 को उतरने का आदेश मिला। गोरे उत्तेजित थे। गांधी जी के प्राण संकट में थे। पोर्ट सुपरिण्टेण्डेण्ट टेटम के साथ गांधी जी को चलने को कहा गया। अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि लाटन ने कप्तान से कहा कि स्टीमर एजेण्ट के वकील के नाते वे गांधी जी को अपने साथ ले जाएंगे।

लाटन ने गांधी जी को कहा कि बा और बच्चे गाड़ी में रुस्तम सेठ के घर जायें और वे दोनों पैदल चलें। वे नहीं चाहते थे कि अंधेरा हो जाने पर शहर में दाखिल हुआ जाए। चोरी-छुपे जाना कोई अच्छा काम नहीं है।

गांधी जी इस सलाह पर सहमत हुए। बा और बच्चे गाड़ी में बैठकर रुस्तमजी के घर सही सलामत पहुंच गए। गांधी जी लाटन के साथ मील भर की दूरी पर स्थित रुस्तम जी के घर के लिए पैदल चले। कुछ ही दूर चलने पर कुछ लड़कों ने उन्हें पहचान लिया। वे चिल्लाने लगे, “गांधी, गांधी”। काफ़ी लोग इकट्ठा हो गए। चिल्लाने का शोर बढ़ने लगा। भीड़ को बढ़ते देख लाटन ने रिक्शा मंगवाया। न चाहते हुए भी गांधी जी को उसमें बैठना पड़ा।

पर लड़कों ने रिक्शेवाले को धमकाया और वह उन्हें छोड़कर भाग खड़ा हुआ। वे आगे बढ़े। भीड़ बढ़ती ही गई। भीड़ ने लाटन को अलग कर दिया। फिर गांधी जी पर पत्थरों और अंडों की वर्षा शुरु हो गई। किसी ने उनकी पगड़ी उछाल कर फेंक दिया। फिर लातों से उनकी पिटाई की गई। किसी ने उनका कुर्ता खींचा तो कोई उन्हें पीटने लगा, धक्के देने लगा। गांधी जी को गश आ गया। चक्कर खाकर गिरते वक्त उन्होंने सामने के घर की रेलिंग को थामा। फिर भी उनकी पीटाई-कुटाई चलती रही। तमाचे भी पड़ने लगे।

इतने में एक पुलिस अधीक्षक की पत्नी, श्रीमती एलेक्जेंडर, जो गांधी जी को पहचानती थी, वहां से गुज़र रही थी। वह बहादुर महिला गांधीजी एवं भीड़ के बीच दीवार की तरह खड़ी हो गई। धूप के न रहते भी उसने अपनी छतरी खोल ली, जिससे पत्थरों और अंडों की बौछाड़ से गांधी जी बच सकें। इससे भीड़ कुछ नरम हुई। अब स्थिति यह थी की यदि बापू पर प्रहार करने हों तो मिसेज एलेक्ज़ेंडर को बचाकर ही किये जा सकते थे।  थाने में खबर पहुंची। पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट एलेक्ज़ेण्डर ने एक टुकड़ी गांधी जी को घेर कर बचा लेने के लिए भेजी। वह समय पर पहुंची। रुस्तमजी के घर तक जाने के  रास्ते के बीच में थाना पड़ता था। एलेक्ज़ेण्डर ने थाने में ही आश्रय लेने की सलाह दी। गांधी जी ने इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा, “जब लोगों को अपनी भूल मालूम हो जायेगी, तो वे शान्त होकर चले जाएंगे। मुझे उनकी न्याय बुद्धि पर विश्वास है।”

पुलिस दस्ते ने उन्हें सही सलामत रुस्तमजी के घर तक छोड़ दिया। गांधी जी की पीठ पर मार पड़ी थी। एक जगह से ख़ून निकल आया था। चिकित्सक को बुलाकर गांधीजी की चोटों का इलाज करवाया गया।

भीड़ ने यहां भी उनका पीछा न छोड़ा। रात घिर आई थी। वे गांधीजी की मांग कर रहे थे। गांधी को हमें सौंप दो। हम उसे जिन्दा जला देंगे। भीड़ चीख रही थी। इस सेव के पेड़ से उसे फांसी पर लटका देंगे

परिस्थिति का ख्याल करके एलेक्ज़ेंडर वहां पहुंच गये थे। भीड़ को वे धमकी से नहीं, बल्कि उनका मन बहला कर वश में कर रहे थे। पर स्थिति नियंत्रित नहीं हो रही थी। भीड़ धमकी दे रही थी कि यदि गांधी जी को उन्हें नहीं दे दिया गया तो घर में आग लगा देंगे। एलेक्ज़ेंडर ने गांधी जी को संदेश भिजवाया, “यदि आप अपने मित्र का मकान, अपना परिवार और माल-असबाब बचाना चाहते हों, तो आपको इस घर से छिपे तौर पर निकल जाना चाहिए।”

आगे बढ़ने के पहले इस विषय पर गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में जो लिखा है वह जानना ज़रूरी है,

“कौन कह सकता है कि मैं अपने प्राणों के संकट से डरा या मित्र के जान-माल की जोखिम से अथवा अपने परिवार जी प्राणहानि से या तीनों से? कौन निश्चय-पूर्वक कह सकता है कि संकट के प्रत्यक्ष सामने आने पर छिपकर भाग निकलना उचित था? पर घटित घटनाओं के बारे में इस तरह की चर्चा ही व्यर्थ है। उनका उपयोग यही है कि जो हो चुका है, उसे समझ लें और उससे जितना सीखने को मिले, सीख लें। अमुक प्रसंग में अमुक मनुष्य क्या करेगा, यह निश्चय-पूर्वक कहा ही नहीं जा सकता। इसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाहरी आचरण से उसके गुणों की जो परीक्षा की जाती है, वह अधूरी और अनुमान-मात्र होती है।” (आज के सन्दर्भ में भी इसे देखें)

गांधीजी के पास चोरी-छुपे भागने के अलावा कोई चारा नहीं था। भागने के प्रयास में वे अपनी चोटों को भूल गए थे। उन्होंने भारतीय सिपाही की वर्दी पहनी। सिर पर लाठी आदि की चोट से बचने के लिए पीतल की एक तश्तरी रखी और ऊपर से मद्रासी तर्ज़ का बड़ा साफ़ा बांधा। साथ में खुफ़िया पुलिस के दो जवान थे। उनमे से एक ने भारतीय व्यापारी की पोशाक पहनी और अपना चेहरा भारतीय की तरह रंग लिया। दूसरे ने वाहन चालक का वेश धरा। वे सभी बगल की गली से होकर पड़ोस की एक दुकान में पहुंचे। गोदाम में लगी हुई बोरों की थप्पियों को लांघते हुए दुकान के दरवाज़े से भीड़ में घुसकर आगे निकल गये। गली के नुक्कड़ पर गाड़ी खड़ी थी उसमें बैठाकर उन्हें उसी थाने में ले जाया गया जहां आश्रय लेने की सलाह एलेक्ज़ेण्डर ने दी थी।

इधर उस घर के सामने पुलिस अधीक्षक भीड़ से गाना गवा रहे थे,

“चलो, हम गांधी को फांसी पर लटका दें,

इमली के उस पेड़ पेड़ पर फांसी लटका दें।”

जब एलेक्ज़ेंडर को यह खबर मिली कि गांधी जी सही-सलामत थाने पहुंच गए हैं तो उसने भीड़ से कहा, “आपका शिकार तो इस दुकान में से सही सलामत निकल भागा है।”

भीड़ को विश्वास न हुआ। उनके प्रतिनिधि ने अन्दर जाकर कर तलाशी ली। उन्हें निराशा हुई। धीरे-धीरे भीड़ बिखर गई।

जब आक्रमणकारियों पर मुकदमा चलाने की बात चली तो गांधी जी ने कहा, “मुझे किसी पर मुकदमा नहीं चलाना है। उन्हें सज़ा दिलाने से मेरा क्या लाभ होगा। मैं तो उन्हें दोषी ही नहीं मानता हूं। उन्हें तो भड़काया गया था। दोष तो बड़ों का है। वे सही रास्ता दिखा सकते थे। जब वस्तु-स्थिति प्रकट होगी और लोगों को पता चलेगा, तो वे खुद पछताएंगे।”

उस दिन के बारे में गांधी जी लिखते हैं, “जब भी मैं उस दिन को याद करता हूं तो मुझे लगता है कि ईश्वर मुझे सत्याग्रह का अभ्यास करवा रहा था!”

संदर्भ बदल जाते हैं, अर्थ बदल जाता है। समस्या से लोगों को भटका दिया जाता है। लोगों का सुर बदल जाता है। मीडिया का सुर बदल जाता है।

किसी बड़े काम के लिए एक तंत्र की ज़रूरत पड़ती है। गांधी जी के भी आश्रम थे। फीनिक्स आश्रम, टालस्टाय फ़ार्म, साबरमती आश्रम और वर्धा आश्रम। आज के बाबा का भी आश्रम है। क्या आश्रम में रहने वाला कालाधन और भ्रष्टाचार की बात नहीं कर सकता?