अंक-8
भारत और सहिष्णुता
रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।
जितेन्द्र त्रिवेदी
वैदिक युग के आर्य मोक्ष के लिये चिन्तित नहीं थे। वे संसार को भोगने की लालसा से ओतप्रोत थे। 'कामायनी' में इसे बडे़ विस्तार से बताया गया है और ऋग्वेद की ऋचाएं ऐसे भावों से भरी पड़ी है, जिनसे पस्त से पस्त आदमी के भीतर भी उमंग की लहर जाग सकती है। उनकी सारी प्रार्थनाएं, सारे काम, बराबर लम्बी आयु, स्वस्थ शरीर, विजय, आनंद और समृद्धि के लिये ही की जाती थीं - ''जीवेत शरदः शतम, मोदते शरदः शतम'' जैसी ऋचाएं ऋग्वेद में भरी पड़ी हैं-
हम सौ वर्षों तक जीऐं,
हम सौ वर्षों तक अपने ज्ञान को बढ़ाते रहें.
हम सौ वर्षों तक पुष्टि और दृढता को प्राप्त करें.
हम सौ वर्षों तक आनंदमय जीवन व्यतीत करें।
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''भगवान, आप तेज स्वरूप हैं,
मुझमें तेज धारण कीजिये।
आप वीर्य रूप हैं, मुझे वीर्यवान कीजिए।
हमें समुन्नत कीजिए।
आप बल रूप हैं, मुझे बलवान बनाएं।
मेरे लिये सभी दिशाएं झुक जाएं।
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इस तरह अतिशय भोगवाद ने आदमी का दिमाग फिरा कर रख दिया। वर्ण व्यवस्था जो पहले काम के आधार पर निर्धारित होती थी वह वंशानुगत होने लगी और शारीरिक श्रम करके आजीविका कमाने वालों को तुच्छ समझा जाने लगा। यहाँ तक तो फिर भी गनीमत थी, किन्तु स्थिति बद से बद्तर तब हो गयी जब इन समूहों को वर्ण व्यवस्था के क्रम में सबसे नीचे ढकेल दिया गया और अस्पृश्य घोषित कर दिया गया। इस तरह न केवल सामाजिक आदान-प्रदान से अपितु आर्थिक संसाधनो के बटवारे में भी उन्हे महदूद (वंचित) कर दिया गया। एक और बुरी बात इस भोगवाद के कारण जन्म लेने लगी, वह थी- नारी की अवगणना। जहाँ पहले स्त्रियों का 'सभा' एवं 'समिति' में भाग लेने का उल्लेख मिलता था, अब उसे भोगवादी सोच के कारण निषिद्ध कर दिया गया।
जहाँ पहले वेदों में यह उल्लेख मिलता था कि - ''मैं कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माता चक्की चलाने वाली हैं और हम सब एक साथ रहते हैं'', (इसका सीधा सा मतलब है कि एक परिवार के सदस्य कई धंधे अपना सकते थे और जिस धंधे से व्यक्ति जीवन यापन करता था, वह उसकी जाति थी और इस तरह एक परिवार में ही कई जातियाँ हो सकती थी जो कि एक खुली सामाजिक व्यवस्था को दर्शाती है, परन्तु बाद में बंद समाज व्यवस्था ने ऐसे अवसरों को ही समाप्त कर दिया जिसमें एक परिवार के लोग अलग-अलग धंधे कर सकें और अपने आपको अलग-अलग जाति का बताने में कोई संकोच न करे। कालान्तर में इसी ने बंद अर्थव्यवस्था की भी नींव रख दी)। इस तरह के उल्लेख मिलने अब बंद हो गये। ब्राह्मण ग्रंथों तक आते-आते 'शूद्र' को व्यवस्था सम्मत संस्कारों का भी निषेध कर दिया गया और चौथा वर्ण 'उपनयन' आदि संस्कारों का अधिकारी नहीं रह गया और यही अपात्रता कुछ लोगों को बुरी तरह कचोटने लगी। ऐसे लोगों में निग्रन्थों/जैनों का संप्रदाय बड़ा प्रबल था। उसके अतिरिक्त पूरण, काश्यप, मख्सलि गोसाल, अजित, केश, कंबलिन, पकुध, कात्यायन, संजय वेलिटट्ठपुत्त, चार्वाक (लोकायत दर्शन) आदि के श्रमण संप्रदाय बहुत प्रख्यात हो गये थे। इन सबके विचार यद्यपि पूर्णतः समान तो नहीं थे तथापि कुछ बातों में वे एक मत थे-
- उन सबको यज्ञ-याग पसंद नहीं था।
- सब ने बलि को उतना महत्व नहीं दिया।
- तपश्चर्या के प्रति कम या अधिक आदर सब में था।
बढ़ती हुई भोगवादिता से उकताए हुये इन लोगों को देख कर यह भ्रांति कदापि नहीं होनी चाहिये कि 'वेद' गलत थे या उसकी शिक्षाएं सिर्फ भोगवाद को ही बढ़ावा देती थी अपितु सत्य यह है कि कुछ का कुछ समझ लेना और उसी को सबकुछ मान लेना मानव की सहज कमजोरी है। मनुष्य को चाहे कितना भी सीधा रास्ता क्यों न दिखा दिया जाए, गुमराही में पड़ जाना उसका जातीय स्वभाव है।
उस समय का समाज भी कुछ ऐसी ही खुली हुई गुमराही में खड़ा हुआ था और ऊपर जितने महानुभावों के नाम गिनाये गये हैं वे इस गुमराही का अंग नही बनना चाहते थे। ये सब उस खुली गुमराही के विरूद्ध थे किन्तु इनके पास स्पष्ट विकल्प नहीं था। इन सभी में भयानक बैचेनी थी किन्तु उस बैचेनी को चेनेलाइज करने की दृष्टि नहीं थी। ये सब तार्किक थे, बुद्धिवादी थे और सबसे अधिक मानव के अधोपतन को साफ-साफ देख रहे थे और परेशान थे। वे उस गुमराही को रोकना चाहते थे किन्तु इनके अतिरिक्त इनकी बात कोई सुनने को तैयार ही नहीं था। इनके अनुयायी न के बराबर थे और ये अजीब से पशोपेश में थे और इसी पशोपेश में इन्होंने वेदों की सीधे-सीधे निन्दा शुरू कर दी। इसलिए नहीं कि वेद गलत थे अपितु इसलिये की वैदिक नियमों के अनुयायियों को जब उन्होंने सारे कुकर्म करते देखा तो इन्हें लगा कि सारे कुकर्म वेदों में ही बताये गऐ हैं जबकि वास्तव में ऐसा नही था। इन्होंने कुकर्म से नफरत करने के बजाय कुकर्मी से नफरत (वर्तमान सिद्धान्त - Hate the sin not the sinner के उलट) करनी शुरू कर दी और अपनी मर्जी से ही सब कुकर्मो की जड़ वेदों को ही मान लिया। वेदों को पढ़ना तो दूर उसे देखना भी इन्होंने गलत ठहरा दियाः
''त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्ड धूर्त निशाचराः।'' (वेदो के रचियता तीन लोग है- भण्ड, धूर्त और राक्षस) -चार्वाक 'सर्व दर्शन' पुस्तक से।
बहुत उपयोगी और सार्थक आलेख!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है ...
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक ...सारगर्भित ...सार्थक आलेख ....!!
यह विश्लेषण हमें अपनी जड़ों की ओर ले जाता है और सोचने को मज़बूर करता है।
जवाब देंहटाएंसचमुच उपयोगी!!
जवाब देंहटाएंविश्लेषणात्मक सार्थक आलेख....
जवाब देंहटाएंइस भाग में वेदों की ऋचाओं के अर्थ को जो दिशा दी गयी है, वह निश्चित रूप से अप्रत्याशित है। कुछ ऋचाओं को लेकर अलग से इस प्रकार मनोनुकूल दिशा देना उचित नहीं है। इसके विभिन्न पहलुओं को अन्य अनेक पहलुओं पर भी विचार होना चाहिए। सभी सामाजिक और व्यक्तिगत परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उनकी भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं के अनुरूप वैदिक ऋचाएँ मार्गदर्शन करती हैं। इसका प्रमाण वेदान्तों में देखने को मिलता है। चार्वाक दर्शन लेखक द्वारा वर्णित परिस्थियों की उपज हो सकती है। पर किसी व्यक्ति या समाज का लक्ष्य नहीं। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावशाली लेख
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