भारतीय काव्यशास्त्र – 72
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में पदैकदेश (प्रकृति-प्रत्यय आदि) द्वारा रस-ध्वनि व्यंग्य पर चर्चा की गई थी। इस अंक में भी उसी विषय पर चर्चा की जाएगी।
काल (Tense) द्वारा रौद्र रस की व्यंजना का एक उदाहरण महावीरचरितम् नामक नाटक से एक वाक्य लिया गया है। यह वाक्य भगवान शिव की धनुष तोड़ने के बाद परशुराम जी द्वारा भगवान राम के प्रति कहा गया है-
रमणीयः क्षत्रियकुमार आसीत्।
अर्थात् क्षत्रिय-कुमार (राम) सुन्दर था। यहाँ भगवान शिव की धनुष टूटने के कारण परशुराम क्रोधाविष्ट हैं और उनकी इस उक्ति से व्यंग्य यह है कि धनुष टूटने के पहले तो यह सुन्दर था, किन्तु अब तो धनुष तोड़ने के कारण मैं इसे क्षणभर में मार डालूँगा। यह व्यंजना आसीत् पद से निकलकर आ रही है। संस्कृत में अस् धातु का भूत काल में आसीत् होता है जिसका अर्थ था होता है। अतएव यहाँ क्रिया के भूतकालिक रूप के प्रयोग के कारण परशुराम का क्रोधाधिक्य व्यंजित हो रहा है क्योंकि धनुष टूटने के बाद भी राम के सौन्दर्य में कमी तो नहीं आ सकती।
वचन (number) के विवेकपूर्ण प्रयोग से भी व्यंग्य देखने में आता है। इसके लिए यहाँ एक प्राकृत भाषा का एक श्लोक लिया जा रहा है। इसका संस्कृत रूपान्तरण भी साथ में दिया जा रहा है-
ताणं गुणग्गहणाणं ताणुक्कंठाणं तस्स पेम्मस्स।
ताणं भणिआणं सुन्दर! एरिसिअं जाअमवसाणम्।।
(तेषां गुणग्रहणनां तासामुत्कण्ठानां तस्य प्रेम्णः।
तासां भणितीनां सुन्दरेदृशंक जातमवसानम्।। संस्कृत छाया)
अर्थात् हे सुन्दर, उन (पहले) गुणों की प्रशंसाओं का, उन उत्कंठाओं का, उस प्रेम का और उन वार्तालापों का ऐसे ही अवसान हो गया है।
यहाँ गुणगान, उत्कंठा और वार्तालाप आदि को वहुवचन में प्रयोग किया गया है, परन्तु प्रेम को एक वचन में। यहाँ व्यंग्य यह है कि भले ही अन्य अर्थात् गुणगान, मिलने की उत्कंठाएँ और वार्तालाप कई रहे हों, लेकिन उनसे उत्पन्न प्रेम तो एक धा और प्रेम अपरिवर्तनीय होता है, अतएव उसे तो बने रहने देते। यह व्यंग्य प्रेम शब्द को एक वचन में प्रयोग के कारण व्यंजित हो पाया है।
इसी प्रकार पुरुष (Person) में परिवर्तन के द्वारा भी व्यंग्य देखा जाता है। यहाँ इसका एक उदाहरण लिया जा रहा है। यह श्लोक एक ऐसे विरक्त पुरुष की अपने मन के प्रति उक्ति है, जो किसी सुन्दरी को देखकर थोड़ी देर के लिए क्षुब्ध हो जाता है-
रे रे चञ्चललोचनाञ्चितरुचे चेतः प्रमुच्य स्थिर-
प्रेमाणं महिमानमेणनयनामालोक्य किं नृत्यसि।
किं मन्ये विहरिष्यसे बत हतां मुञ्चान्तराशामिमा-
मेषा कण्ठतटे कृता खलु शिला संसारवारान्निधौ।।
अर्थात् चंचल नेत्रोंवाली सुन्दरी को चाहनेवाले हे मन, तुम (ईश्वर के प्रति) स्थिर प्रेम को छोड़कर इस चपल नयन वाली सुन्दरी के प्रति क्यों उत्कंठित हो रहे हो। तुम ऐसा क्यों सोचते हो कि मैं अपनी भक्ति छोड़कर इन चपल नयनों के इशारे पर नृत्य करूँगा या इसके साथ विहार करूँगा। अरे अभागे इस प्रवंचना को त्याग दे। यह संसार-सागर में गले में बँधा हुआ पत्थर है (जो तुम्हें इसमें डुबो देगा)।
यहाँ मन के प्रति प्रहास (उपहास) व्यंग्य है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि मध्यम पुरुष के कर्त्ता त्वम् के साथ मध्यम पुरुष की क्रिया मन्यसे के स्थान पर उत्तम पुरुष की क्रिया मन्ये प्रयोग किया गया है और उत्तम पुरुष के कर्त्ता अहम् के साथ उत्तम पुरुष की क्रिया विहरिष्ये के स्थान पर मध्यम पुरुष की क्रिया विहरिष्यसे प्रयोग किया गया है। आचार्य पाणिनि के अष्टाध्यायी के एक सूत्र के अनुसार प्रहास (उपहास) में मन् धातु का उत्तम पुरुष के साथ मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुष के साथ उत्तम पुरुष का प्रयोग होता है- प्रहासे च मन्योपपदे मन्यतेरुत्तमैकवच्च। (अष्टाध्यायी 1-4-106)।
वाक्य या काव्य में निपात का स्थान बदलकर प्रयोग करने से भी व्यंग्य देखा जाता है। इसके लिए यहाँ एक उदाहरण लिया जा रहा है-
येषां दोर्बल्यमेव दुर्बलतया ते सम्मतास्तैरपि
प्रायः केवलनीतिरीतिशरणैः कार्यं किमुर्वीश्वरैः।
ये क्ष्माशक्र पुनः पराक्रमनयस्वीकारकान्तक्रमा-
स्ते स्युर्नैव भवादृशास्त्रिजगति द्वित्राः पवित्रा परम्।।
अर्थात् हे राजन, जिनके पास केवल बाहुबल ही होता है (पर नीति का बल नहीं होता), वे भी कमजोर होते हैं और केवल नीति-बल का सहारा लेनेवाले राजाओं से भी क्या लाभ। हे पृथ्वी-नरेश, नीति और पराक्रम दोनों को स्वीकार करनेवाले आपके समान इस त्रैलोक्य में केवल दो या तीन राजा ही होंगे।
यहाँ पराक्रम की प्रधानता पूर्व-निपात के कारण व्यंग्य है। क्योंकि पराक्रमनयस्वीकारकान्तक्रमाः में नय में कम वर्ण होने के कारण पराक्रमनय के स्थान पर नयपराक्रम प्रयोग होना चाहिए- अल्पात्तरम् (अष्टाध्यायी 2-2-34)। किन्तु वार्तिक अभ्यर्हितञ्च के अनुसार पराक्रम को श्रेष्ठ दिखाने के लिए पूर्वनिपात का प्रयोग पराक्रम शब्द के पहले किया गया है।
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इस ज्ञानवर्धक श्रृंखला की एक और बेहतरीन कड़ी। आभार आपका।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा प्रयास है आपका। इसी बहाने उपयोगी साहित्य आनलाईन हो रहा है।
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विलुप्त हो जाएगा इंसान?
ब्लॉग-मैन हैं पाबला जी...
ज्ञानवर्धक एवम संग्रहणीय!!
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक...
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक प्रस्तुति - आभार
जवाब देंहटाएंउपयोगी एवं ज्ञानवर्धक प्रस्तुति!
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