गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

लेटर टू छट्ठी मैय्या !


हे छट्ठी मैय्या,
प्रणाम !





तब, सज गया सब घाट-बाट? कैसा लग रहा है इस बार हमारे बिना? हम भी आपही की तरह साल में एक ही बार आते थे। कभी-कभी तो कनफ़्युज हो जाते थे कि हमरे माता-पिता, सखा-संगी, अरिजन-परिजन आपकी प्रतीक्षा करते हैं या हमारी। वैसे बात तो एक्कहि है... हमारे आने पर आप आती थी या आपके आने पर हम। ई बार ममला गड़बड़ा गया। हम आ नहीं पाये। चलिये कम से कम आप आ गयीं, पर्व तो हो ही जायेगा। दरअसल उ का है कि हम परेशान हो गये...! पन्द्रह दिन पहिलैह से सब फोन-फान करके भुका दिया.. आ रहे हैं कि नहीं? कौन तारीख को आ रहे हैं? जब पता चल गया कि नहीं आ रहे हैं तैय्यो फोन... ई बार बड़ी मिस कर रहे हैं, आये काहे नहीं ब्ला... ब्ला... ब्ला। सब हमरे माथा भुका रहा है आपसे कौनो पूछा? आपके मर्जी के बिना तो कुच्छो होता नहीं है, फिर हमरे नहीं आने की जवाबदेही भी आपही उठाइये।
गाँव का लोग तो भावुक है। पूछेगा ही। मगर एक बात बताइये, आप हमको मिस नहीं कर रही हैं का? बचपन से ही आपसे गहरा नाता रहा है। जनम के छः दिन बादे छट्ठी पूजा हुआ था। उसके बाद से तो बस सिलसिला चलता ही रहा। जो उमर में केला का पत्ता हमरे लंबाई से ज़्यादा था तब भी पूरा का पूरा कदली-स्तम्भ कंधा पर चढ़ाकर ले जाते थे आपका घाट सजाने। आपके पैर में नरम घास तक भी ना चुभे, इ खातिर अपने नन्हे हाथों में खुरपी-कुदाली पकड़कर एकदम से दूभवंश-निकंदन कर देते थे। एकाध-बार तो आपके भोग लगने से पहले ही आपका ठेकुआ भी चुराकर खा लिये। और फिर दोनो गाल पर दादी का थप्पर! और सुबह में घाट पर कान-पकड़ कर उठक-बैठक। एक से एक संस्मरण जुड़ा है... लिखने बैठ जायें तो महापुराण बन जायेगा। लेकिन बताइये बीस बरस की वार्षिक सेवा के बदले हमको तीस सौ किलोमीटर दूर फेंक दिये। मगर हम हृदय में कौनो बात लगा नहीं रखते हैं। और संबंध भी माँ-बेटे का है। सब-कुछ भूल विसराकर हर साल एहि भरम में जाते रहे कि हमरे खातिर आप आती हैं। लेकिन ई बार इहो भरम जाता रहा। लेकिन इतना गरंटी के साथ कह सकते हैं कि अभी तक भले नहीं पता चला हो मगर कल सुबह तक आपको भी हमरी कमी जरूर खलेगी। देखियेगा न... ई बार पोखर के बदले अंगने-अंगने गड्ढा खुदाया है।  हम शहर क्या आ गये पूरा गाँवे में शहर ढुक गया है। सीडी पर शारदा सिन्हा का गीत बजेगा... केलबा के पात पर उगेला सुरुज मल झाँके-झुँके’। पता नहीं केला का थम असली है कि उहो पिलास्टिक वाला हो गया। जो भी हो माफ़ कर दीजियेगा। हमरे बाद सब बच्चे सब है। और हाँ, घबराइयेगा मत... लाइट और जनरेटर का दुरुस्त व्यवस्था है।
याद है, उ साल...! कई वर्षों के बाद से रेवाखंड के सोये हुए सांस्कृतिक विरासत को आपही के घाट पर फिर से जगाये थे। पृथ्वीराज चौहान नाटक खेल थे। "चार बांस चौबिस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण ! एते पर सुल्तान है मत चूको चौहान!!" आपके चक्कर में चंदबरदायी बनकर पृथ्वीराज के साथे-साथ मर भी गये थे। हाँ, आपके चक्कर में नहीं तो और क्या? अरे, सांझ में सब हाथ उठाने के बाद घरे जाकर घूरा तापे और फिर सुबह में किरिण फूटे के वक्त आये। कौनो सोचता ही नहीं था कि छट्ठी मैय्या घाट पर अकेले कैसे रात काटेगी। आपका अकेलापन दूर करने के लिये नाटक करवा दिये। सांझ से लेकर सुबह तक घाट रहे गुलजार। और आप हैं कि ई बार हमहि को अकेला छोड़ दिये, अयं? वर्षों बाद ई भार भी नाटक होगा, फिर से पृथ्वीराज चौहान। हम तो हैं नहीं। आपही देखकर बताइयेगा कि खेल कैसा बना। हाँ, चंदबरदायी के रोल पर जरूर ध्यान दीजियेगा। हम आयें चाहे नहीं आयें आप आ गयी हैं और सुरुजदेव तो रोजे उगते हैं, तो छठ व्रत भी पूरा हो ही जायेगा। हम नहीं आये, कौनो बात नहीं। हर साल की तरह सुबह का अर्घ्य लेकर आप श्रद्धावनत रेवाखंड पर अपना सारा अशीष उलीच दीजियेगा। और हाँ, एक विनती और है, अर्घ्य देते वक्त जब हमारी माँ की आँखों में आँसू आ जाये तो आप अपना कलेजा थाम लीजियेगा। अब और ज़्यादा नहीं लिखा जा रहा है।
आशा करते हैं अगले साल भेंट होगी। तब तक सूरुज महराज को हमारा प्रणाम कहियेगा और अगर गलती से कौनो भक्त मिलावट वाला मिठाई चढ़ा दिया हो तो अपना ध्यान रखियेगा।
आपका,
करण समस्तीपुरी

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