शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

अहंकार

अहंकार

मनोज कुमार


तुलसीदास जी के मानस में कहा गया है, ‘अहंकार अति दुखद डमरुआ’ यानी अहंकार अत्यंत दुख देने वाला डमरुआ (गठिया) रोग है।

स्वाभिमान और आत्मसम्मान के नाम पर झूठ-मूठ का अहंकार जगाना बहुतों की आदत होती है।

इसको झूठी शान भी कह सकते हैं। यह झूठी शान, और इसका दिखावा क्यों? इसने किसी को कभी सुख दिया है क्या? नहीं। यह सदा दुख ही देगा। प्रेमचन्द  मानसरोवर में विचार व्यक्त करते हैं, ‘आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन उसका गरूर है।’

अहंकार से किसी का कभी फ़ायदा हुआ है क्या? उल्टे मानसिक क्लेश ही बढता है। कुछ विचार व्यक्त करते हुए प्रेमचन्द कहते हैं, ‘हमारे अहंकार ने हमें चौपट कर रखा है, हमारे अज्ञान ने हमें चूस लिया है।’

हमेशा मूंछ पर ताव देने से ही काम नहीं बनता। कभी-कभी मूंछें नीची करके भी आपना काम बना लेना चाहिए।

हनुमान तो याद होंगे ही। बड़ी विनम्रता से सुरसा के मुंह में घुस गए और बिना अकड़ दिखाए, अपना काम बना लिया। वहीं उसी कथानक के कई पात्र झूठी शान, अकड़, अहंकार दिखाते रहे। अंत में नाश उन्हीं का हुआ।

झूठी शेखी बघाड़ने वाले की अकसर दुर्गति ही होती है। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की सतसई में कहा गया है,
अहंकार ने ही मचाया, है हाहाकार।
मदांधता ने ही किया है, बहु अत्याचार॥

झूठी अकड़ दिखा कर जो अपना काम बनाने का सोचते हैं, उनसे कमअक़्ल कोई नहीं है। समझदार लोग कभी भी झूठी अकड़ दिखाकर अपना काम नाहीं बिगाड़ता।

लंका, जो सोने की थी जल गई, इसके बाद भी अहंकारी रावण को सुध नहीं आई।

भर्तृहरि के नीतिशतक में विचार व्यक्त किया गया है,
‘अज्ञानी व्यक्ति को प्रसन्न करना सरल है, विद्वान्‌ को प्रसन्न करना उससे भी सरल है, लेकिन ज्ञान के लव मात्र से दुर्विदग्ध मनुष्य को प्रसन्न करना ब्रह्मा के लिए भी असंभव है।’

झूठा अभिमान कई घर बर्बाद कर चुका है। ‘सकल सोक दायक अभिमाना’

यदि श्रेष्ठ लोगों के कथन का अनादर कर दर्पपूर्वक काम किया जाय तो वह तो विपरीत फल ही देगा।

गांधी, रजेन्द्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री से लेकर कई ऐसे उदाहरण हैं, जिसके आधार पर कहा जा सकता है सादगी और आदर्श का जीवन महान बनाता है।

आत्म प्रवंचना से बचना चाहिए। धन, पद, वैभव, इसका अहंकार ठीक नहीं है। यह तो आग के समान जला डालता है। तुलसीदास ने वैराग्य संदीपनी में विचार व्यक्त किया है,
अहंकार की अगिनि में, दहत सकल संसार।
तुलसी बाचे संतजन, केवल सांति अधार॥

स्पिनोज़ा के अनुसार ‘अहंकारी मानव केवल अपने ही कार्यों का उल्लेख करते हैं।’ यह भ्रम पाले रहते हैं कि यह मेरा है। यह घर मेरा है। यह घर मेरे बदौलत चल रहा है। यह दफ़्तर मेरे बदौलत चल रहा है। ये ‘मैं’ और ‘मेरा’ एक वासना की तरह हमसे चिपका रहता है।  यह हमें दीन बनाता है। नव जीवन में  महात्मा गांधी के विचार हैं,

जो हम करते हैं वह दूसरे भी कर सकते हैं – ऐसा मानें। न मानें तो हम अहंकारी ठहरेंगे।

कबीर ने कहा था,
मैं मैं मेरी  जिनि करै, मेरी मूल बिनास।
मेरी पग का पैषड़ा, मेरी गल की पास॥

इसलिए इस ‘मैं’ और ‘मेरा’ से बचना चाहिए। क्योंकि ला रोशेफ़ूकाल्ड (मैक्ज़िम्स) के विचार के अनुसार अहंकार किसी का ऋणी नहीं होना चाहता और स्वप्रेम किसी का ऋण चुकाना नहीं चाहता।

अहंकारी में कृतज्ञता नहीं होती। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विचार व्यक्त करते कहा है, ‘अहंकार का अर्थ ही संग्रह करना है, संचय करना है, वह केवल लेता ही रहता है, कभी किसी को कुछ देता नहीं।’

ऐसे लोगों को समझ लेना चाहिए कि अहंकार नरक का मूल है। जब तक ‘मैं’ की अकड़ है तब तक दुख है। ‘मैं’ की मृत्यु आत्मा का जीवन है। जिसने अहंकार छोड़ दिया, उसने भवसागर तर लिया।

श्री दादू दयाल की वाणी का स्मरण करें,
जहां राम तहँ मैं नहीं, मैं तहँ नाँही राम।
दादू महल बारीक है, द्वै को नाँही दाम॥

सांसारिक दुखों से मुक्ति अहम्‌ के परित्याग से ही संभव है। अहम्‌ रखकर तो हम दुखों को पाले रहते हैं। तुलसीदास ने भी विनय पत्रिका में कहा है, ‘तुलसीदास मैं मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै’

इसी तरह का विचार गुरु नानक देव जी के गुरुग्रंथ साहिब में भी है, ‘हउमै करी ताँ तू नाहीं तू होवहि हउ नाहि’। यदि अहं भाव करता हूं तो हे ईश्वर! तू प्राप्त नहीं होता और यदि तू प्राप्त हो जाता है तो अहं भाव नहीं रह पाता।

हमें सहज जीवन जीना चाहिए। सादा जीवन, उच्च विचार, होने चाहिए हमारे।

बुल्लेशाह का कहना है,
गया गयाँ  गल्ल मुकदी नहीं, भावै कितने पिंड भराय;
‘बुल्लेशाह’ गल ताईं मुकदी,  जब  ‘मैं’ खड्याँ लुटाय।

गया जाने से बात समाप्त नहीं होती, वहां जाकर चाहे तू कितना ही पिंडदान दे। बात तो तभी समाप्त होगी, जब तू खड़े-खड़े इस ‘मैं’ को लुटा दे।

रैदास जी ने कहा था,
जब लगि नदी न समुंद समावै, तब लगि बढे हंकारा।
जब मन मिल्यौ राम-सागर सूँ, तब यह मिटी पुकारा॥

आध्यात्मिक गुरुओं की शब्दावलि में कहें तो, साक्षी मात्र बनकर रहने से ‘मेरा’ छूटेगा। जब तक ‘मेरा’ नहीं छूटेगा, तब तक ‘मैं’ नहीं छूट सकता।

मेरा ही ‘मैं’ को, यानी ‘अहंकार’ को जन्म देता है।