गुरुवार, 31 मार्च 2011

आँच – 62 :: कोई बात तो जरूर होगी

समीक्षा

आँच – 62

कोई बात तो जरूर होगी

हरीश प्रकाश गुप्त

वैसे तो दहेज जैसी सामाजिक बुराई को केन्द्र में रखकर बहुत सी कथाएं लिखी गई हैं और उनमें से अधिकतर का पक्ष कन्या पक्ष की पीड़ा को अभिव्यक्त करना रहा है। हालाकि यह विषय बहुत सामान्य सा बन चुका है, लेकिन इस सामाजिक विकृति के कुछ और पहलू भी हैं जो प्रायः अनभिव्यक्त रह गए हैं। वर्तमान सामाजिक ताने-बाने में दान-दहेज मान-सम्मान और प्रतिष्ठा का पर्याय बन चुका है। जिस किसी ने इस विकृति को त्यागकर जीने का प्रयास किया, उसके प्रति तथाकथित प्रतिष्ठित समाज किस प्रकार की दृष्टि रखता है, यह सम्प्रेषित करना इस कथा का अभिनव पहलू है।

इसी माह के प्ररम्भ में इसी ब्लाग पर करण समस्तीपुरी की एक लघुकथा प्रकाशित हुई थी “कोई बात तो जरूर होगी”। करण की यह कथा दहेज के इसी चेहरे को प्रभावशाली ढंग से उजागर करती है। कथा की इस विशिष्टि एवं आकर्षण ने इसे आज की आँच की अन्तर्वस्तु बनाने के लिए प्रेरित किया।

कथानक में, शर्माजी रामदीन, जो उनके नजदीकी हैं, मित्र अथवा संबंधी हैं, के बेटे के विवाह से लौटकर आए हैं। उनके निढाल होकर सोफे पर गिरने से थकान दिखती है। उनकी पत्नी मिसेज शर्मा विवाह की धूमधाम तथा बहू आदि के बारे में जानने को उत्सुक हैं। इसलिए वह प्रश्नों की झड़ी लगा देती हैं। चूँकि शर्माजी की थकान शारीरिक नहीं, बल्कि निराशा और असंतोष से उपजी है अतः वह झल्लाकर उत्तर देते हैं कि “खाक धूमधाम से हुई है ......." “उससे ज्यादा अच्छा तो धनेसर बाबू का श्राद्ध हुआ था”। लड़का बहुराष्ट्रीय कम्पनी में मैनेजर है। समाज के चाल-चलन के मुताबिक मोटा दान-दहेज तो बनता ही है। सामान्यतया महिलाओं की जैसी प्रकृति होती है, सीधे प्रश्न कर लेती हैं। मिसेज शर्मा भी अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाती हैं और पूछती हैं “क्या सब मिला है?”। अर्थात खूब दान दहेज तो मिला होगा। जैसे ही उन्हें पता चलता है कि कुछ भी नहीं लिया, उनकी समझ से यह नहीं मिला है, तो वह दहेज न मिल पाने के लिए कारण (दोष) खोजने लगती हैं। जब उन्हें ज्ञात होता है कि लड़की उसी शहर में नौकरी करती है तो प्रेम प्रसंग की सम्भावना के साथ उसकी आवर्ती आय को ही अपनी सोच के लिए समर्थन का औचित्य ठहरा लेती है। शर्माजी भी समाज के ऐसी ही सोच वाले व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। चूँकि वह पुरुष हैं इसलिए वह पुरुषोचित अहं के कारण इसे शब्दों में सीधे व्यक्त तो नहीं करते लेकिन रामदीन को पोंगापंथी और अक्ल का दुश्मन कहकर अपनी मानसिकता को उजाकर कर देते हैं तथा दहेज से परहेज करने तथा रिश्वत न लेने, न देने के उसके आदर्श की खिल्ली उड़ाते हैं।

कथा में प्रत्यक्ष रूप से, बहुत ही सीमित, दो पात्र – शर्माजी एवं उनकी पत्नी मिसेज शर्मा हैं। इसके अतिरिक्त तीन अप्रत्यक्ष पात्र हैं जिनका जिक्र प्रसंगवश आया है। कथा में प्रारम्भ को छोड़कर सम्पूर्ण कथा पति पत्नी के सवांद पर आधारित है और इन्हीं के माध्यम से यह कथा अपने विकास को अग्रसर होती है। शर्माजी द्वारा यह बताना कि बहू उसी शहर में नौकरी करती है तथा मिसेज शर्मा द्वारा लड़के का बहू से पूर्व संबन्ध होने तथा उसकी आय में ही दहेज न लेने का कारण खोज लेना कथा का उत्कर्ष है और उनकी इसी उक्ति के साथ कथा समाप्त हो जाती है।

लघुकथा का कथानक अत्यंत प्रभावशाली है। यह दहेज प्रथा के सामान्तया प्रचलित पक्ष से इतर पक्ष को उद्घाटित करती है। कथा का शिल्प आद्योपांत संवाद पर निर्भर है और संदेश प्रेषण में पूर्तया सफल है तथापि कुछ स्थानों पर टंकण त्रुटि प्रतीत होती है। एक दो स्थानों पर संवाद में संशोधन की सम्भावना है, यथा – “क्या सब लिया है” अथवा “उन्होंने न आने पर शिकायत को किया होगा” आदि कुछ अटपटे बन पड़े हैं। इन्हें यदि अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली बनाया जाता तो कथा के स्वरूप में निखार आ सकता था। इसी तरह “किरानीगीरी” के स्थान पर “किरानागीरी” तथा “सोना का जूता” के स्थान पर “सोने का जूता” तो अधिक उपयुक्त होता। यह भाषिक त्रुटि है।

कह सकते हैं कि यह कथा समाज के उस विद्रूप चेहरे को बेनकाब करती है जो दहेज के लेन-देन को प्रतिष्ठित करता है तथा जो इसके विरुद्ध हैं, उनका मजाक उड़ाता है और उन्हें हेय दृष्टि से देखता है। इससे उस परिवार और उस व्यक्ति की व्यथा को समझा जा सकता है जो इस बुराई के विरुद्ध खड़ा होता है। आमतौर पर समझा जाता है कि दहेज का दंश केवल कन्या पक्ष को ही भोगना पड़ता है और इसके विरुद्ध सहज सहानुभूति भी इसी पक्ष के साथ जुड़ती है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि समाज का बड़ा तबका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इस लेनदेन का न्यूनाधिक समर्थक ही है। लेकिन इसकी मानसिक पीड़ा वर पक्ष को भी किस प्रकार भोगनी पड़ती है, यह संदेश संप्रेषण ही इस भावपूर्ण लघुकथा का अभिप्रेत है। करण की लघुकथा “कोई बात तो जरूर होगी” इस संदेश को निसन्देह मुखर होकर व्यक्त करती है तथा पाठक के मस्तिष्क को सोचने के लिए विवश कर जाती है।

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बुधवार, 30 मार्च 2011

देसिल बयना – 74 : जैसी है नहीं छोरी वैसी सजती बहुत

देसिल बयना – 74 : जैसी है नहीं छोरी वैसी सजती बहुत


-- करण समस्तीपुरी

फ़ागुन खेलो होरी और चैत खेलो बलजोरी। फ़गुआ का रंग तो उतर गया था मगर भांग उतरने में तो थोड़ा टाइम लगता ही है। उ दफ़े तो और दमसगर फ़गुआ हुआ था। आधा टोला तो भर फ़ागुन लगने होता रहा था। लगन बीतते होरी और होरी बीतते बलजोरी।


बटेरीलाल के मझिला बेटा सुखरिया का ब्याह तो पछिले लगन में हो गया था मगर गौना ई साल हुआ था। गौना में उकी लुगाई के साथे साली भी आयी थी। आह... बुझिये कि फ़ागुन तो गुलजार और चैत भी चकाचक हो गया।

घंटोलिया, झमेली, चंपई लाल और मघुआ तो चौकरिये जमाये रहता था, बूटन बबाजी के दलान पर, सुखरिया के घर के ठीक सामने। फ़ागुन भले चला गया मगर चौपाल पर ढोल-हरमुनिया रोज फेराता था। आखिर चैता में चैतीगांव से सुखरिया की साली जो आयी हुई थी। एक बात और हमरे रगेदन भाई भी ई रास में खूब रस लेते थे। उ तो दिन में भी खाते थे अपने घर में और हाथ सुखाते थे बूटने बबाजी कने।

शनिचर के सांझ में आयोजन वैसे भी गरमा जाता था। पुरबारी और पछियारी टोल से भी गबैय्या-बजबैय्या रसिक समाज का समागम हो जाता था। वैसे तो ई गाने-बजाने का कार्य-क्रम घुमन्तु था मगर उन दिनों यह बूटन बबाजी के दलान के लिये परमामिंट (पर्मानेन्ट) हो गया था।

गदरु ठाकुर ढोल पर दोबर हाथ गनगनाये हुए था तो झुम्मक सिंघ की अंगुलियां हरमुनिया पर बिजली की तरह थिड़क रही थी। बैठकी झमझमा गया था। मरद-मानुस का तो पैर रुके नहीं रुका... मगर मेहरिया को तो खिड़की-दलान, ओसारा तक का ही परमिट था। सुखरिया के झरोखा से भी हिहियाने-खिखियाने की आवाज़ आ रही थी।

अचानक गदरु ठाकुर बोले, “अरे भैय्या ! कनिक पावडर मंगवाओ कहीं से... ई बकरिया चाम पर हाथ चल नहीं रहा है। बूटन बबाजी तो ठहरे 'ठन-ठन-गोपाल' इहां पावडर का... चुल्हे के राख पर भी आफ़त था। समय की नजाकत देखते हुए सुखरिया अपनेही घर के तरफ़ मुंह कर के हांक लगाया, “ए बेला ! दीदी से मांग के कनिक पावडर ले आइहऽ... ।”

'ओह्हो... ई सुखरिया के साली का नाम तो बड़ा गमकौआ है – बेला !’ कई जोड़ी आंखें चमक उठी थी। बेला छमकती हुई आई और सुखरिये के हाथ में पावडर का डब्बा थमा के लचकती हुई चली गयी। लगा अटेरना लहर मारके हरमुनिया टेरने, “दर्दे-दिल के जगा के गइल... आउर कुछ ना भइल... चार दिन में बाकी हल्फ़ा मचा के गइल...!” एंह... अटेरना के ई तान पर जुआन तो जुआन बूढ़ी जुबान भी वाह-वाह कर उठी। अटेरना भी जोश से भरकर लगा अलापने, “गांव के सुखरिया के रहे उ साली... देखइ में भोला, बाकी बड़की खेलाड़ी ! रस उ ऐसन चुआके गइल... रस उ ऐसन चुआके ओकरा चक्कर में जे कोई परल... सबके चूना लगाके गइल...!” रगेदन भाई से रहा नहीं गया...। बोल उठे, “वाह खिलाड़ी ! महफ़िल लूट लिया रे...!”


उन दिनों रगेदन भाई बेला की महक से बौराये हुए थे। वैसे बेला भी अपने जीजा सुखरिये जैसे सुखरी थी। सांवला रंग और नैन-नक्श भी साधारणे था मगर उ रहती थी बड़ी छम्मकछल्लो बन के। जिधर उ चले उधरे सुखरिया के भैय्यारी का छौरा सब छेड़ देता था, “ए कजरावाली गजरावाली उड़नपरी...!” उ कभी-कभी तो अपने रस्ते चली जाती रहती। कभी-कभी मुंह ऐंठ देती थी तो किसी-किसी खुशकिस्मत के हिस्से थप्प्ड़ और मुक्के का इशारा भी आ जाता था।

रगेदन भाई पूरे सबा महिना से विध-विधान में थे मगर उनके सौभाग्य में बेलादेवी की प्रतिक्रिया नहीं आई थी। उ दिन सुखरिया के पड़ोसी मनोरीलाल के घर सत्यनारायण कथा थी। आंगन में जननी-जात और बैठक में मरद-मानुस। सबलोग पूजा-कथा में लगे थे और बेला सुखरिया के डेढ़ साल के भतीजा को लेकर अन्दर बाहर कर रही थी। वैसे तो बच्चा भी चंचल था मगर हमको लगता है कि उको खुद भी अन्दर-बाहर छ्म-छ्म-छ्म-छ्म करने में मन लग रहा था।

अन्दर में पंडीजी अध्याय समाप्त होने पर शंख बजाते थे इधर जैसे ही बेला खिले कि सीटी और ताली दे दनादन। भगवान की कथा का सुफल...। आहा ! आज रगेदन भाई का मनोरथ भी पूरा हो गया। आज उनके तरफ़ भी मुक्का का इशारा हुआ। बेचारे अपना मुक्का खुद अपने कलेजे में मार लिये। बेलादेवी की आँखें तो आड़ी-तिरछी भगवाने घर से थी होंठों को भी दो बार दांये-बांये घुमाकर चोटी झटककर मटकते हुए चली गयी।


बेला तो गयी अन्दर और इधर झमेला बन गया रगेदन भाई का। सब लड़िका लगा चुटकी उड़ाये। बेचारे रगेदन भाई पहिले तो बगली झांके मगर लुक्कर मंडली भी कम नहीं...! लगे बेचारे भाई-साहब को मक्खन लगा-लगाके चाटे। टपकू मामू एक अलगे उकाठी। रगेदन भाई के पीठ पर चपत जमाते हुए बोले, “तब रगेदन... रगेद दो... ! तोहरे तो किस्मत लहलहाई है। 'अरे जौन के पाछे सारा जवार, उ गयी है तोहे निहार’। मगर एक बात हमरे समझ में नहीं आयी। उ तोहरे जैसे गबरु जवान पर आँख मटकाई सो तो ठीक मगर होंठ काहे घुमाके गयी?”

रगेदन भाई का सोया हुआ स्वाभिमान जाग उठा। गर्दन उठाके आंगन की तरफ़ झांकते हुए बोले, “धुर्र.... ई सबको कौन पूछता है? “जैसी है नहीं छोरी, वैसी सजती बहुत है।” देखे तो लुकिंग लंदन... टाकिंग टोकियो। इपिस्टिक-लिपिस्टिक और कजरा, गजरा, झुमका, पायल छमका के हिरोइनी बनती है। कहते हैं नहीं कि 'मुँह काला और नाम बैजंती माला।’ उ तो हंसी-मजाक का रिश्ता है इसीलिये दूम खिंच देते हैं।"

पहिले तो एक राउंड जम के ठहाका पड़ा फिर सबा महिना से श्रमरत साधक समुदाय 'अंगुर नहीं मिले तो खट्टे हैं’ के तर्ज पर रगेदन भाई के हां-में-हां मिलाये, “सच कहते हैं रगेदन भाई ! 'जैसी है नहीं छोरी वैसी सजती बहुत है।'

इधर रगेदन भाई के कहावत पर हंसी-ठहाका और विश्लेषन चल ही रहा था कि पंडीजी आरती का शंख फूंक दिये। सबलोग अपना-अपना लोटा-गिलास संभाल के लपके मनोरीलाल के आंगन के तरफ़। हम भी कम दूध और ज्यादे मेवा वाला परसाद लोटा भरकर पीये तब जाकर रगेदन भाई के फ़करा का अरथ बुझाया, “जैसी है नहीं छोरी, वसी सजती बहुत है। मतलब वास्तविकता से अधिक प्रदर्शन।” बोल सत्यनाराय़ण भगवान की जय !

सोमवार, 28 मार्च 2011

चमत्कार


--सत्येन्द्र झा



टेलीविजन की उपयोगिता पर बात-विवाद चल रहा था। अधिकांश वक्ता इसे विग्यान का चमत्कार मान रहे थे परन्तु एक वक्ता ने कहा, “यह एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से पृथक करने वाला यन्त्र है। यह सबकुछ भुला देता है – अपनी मर्यादा, अपनी परम्परा, मूल्यबोध, संस्कृति... यहाँ तक कि अपना देश भी। इसे विग्यान का चमत्कार वही लोग मानते हैं जो टेलीविजन नहीं देखते। यदि कोई व्यक्ति देखकर भी अपनी मर्यादा, अपनी परम्परा, मूल्यबोध, संस्कृति और अपने देश को नहीं भूलते हैं तो उन्हे प्रकृति का चमत्कार समझना चाहिये।”

अगले दिन स्वयं को प्रकृति का चमत्कार घोषित करने के लिये टेलीविजन की दूकान पर भारी भीड़ लगी हुई थी।

(मूलकथा “अहींकें कहै छी” में संकलित 'चमत्कार' से हिन्दी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)

नवगीत– बंजारे बादल

 

Sn Mishraश्यामनारायण मिश्र

बंजारे बादल

बजा बजा कर ढोल

नाच    रहे     बादल

        बना बना कर गोल।

छाती दूनी हुई नदी की

फैल     गया    आंचल।

धोने लगी पहाड़ी

आंखों से बासी काजल।

घाटी रचा रही

पांवों में लाल महावर घोल।

हल्दी चढा पपीहा

कोयल सुगन – सुहगला बांचे।

वन भगोरिया हुआ

बांकुरा भील – मोर नाचे।

बया घोसले के

झूले में झूल रही जी खोल।

खेतों की पाटी पर

हरखू लिखने लगा ककहरा।

चौपालों पर बैठा

आल्हा ऊदल का पहरा।

मटकी और मथानी

बोलें कजरी वाले बोल।

रविवार, 27 मार्च 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-59 - भाव

भारतीय काव्यशास्त्र-भाव

-आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में भाव के सामान्य स्वरूप को प्रस्तुत किया गया था। इसके अतिरिक्त काव्यशास्त्र में निम्नलिखित चार परिस्थितियों में स्थायिभावों और संचारिभावों को भाव के रूप में अभिहित किया गया है-

1. स्त्रीविषयक रति को छोड़कर देवता, पुत्र, गुरु, माता-पिता, राजा आदि समबन्धी रति को भाव कहा गया है। इसलिए इसके अनुसार भक्ति रस और वात्सल्य रस रस न होकर भाव हैं। इसकी चर्चा भक्ति रस और वात्सल्य रस के अंक में की जा चुकी है।

2. काव्य में जब संचारिभाव स्थायिभाव से अधिक प्रबल या प्रधान हो, तो उसे भी भाव कहते है। साहित्यदर्पणकार ने इसका उदाहरण दिया है कि राजा प्रधान होते हुए भी मंत्री आदि के विवाह के अवसर पर वह दूल्हे के पीछे ही चलता है। इसी प्रकार काव्य में जहाँ संचारिभाव स्थायिभाव से अधिक प्रशस्त होता है, तो दोनों ही भावरूप हो जाते हैं।

3. जहाँ काव्य में संचारिभाव व्यंग्य से अभिव्यक्त हो, तो उसे भाव समझना चाहिए।

4. जब पर्याप्त विभावों, अनुभावों और संचारिभावों के अभाव में या किसी अन्य कारण से स्थायिभाव पूर्णरूप से आस्वाद्यमान न हो पाए, अर्थात जब रस पूर्णरूप से परिपुष्ट न हो, तो स्थायिभाव भाव कहलाता है।

यहाँ देवविषयक रति का निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत है। यह उत्पलपादाचार्य जी द्वारा विरचित परमेश्वरस्तोत्ररत्नावलि से उद्धृत किया गया है। इसमें भगवान शिव आलम्बन विभाव, उनका अव्याहत (अक्षत या शाश्वत) ऐश्वर्य उद्दीपन विभाव, स्तवन आदि अनुभाव, धृति, माहात्म्य आदि संचारिभाव हैं-

कण्ठकोणविनिविष्टमीश ते कालकूटमपि मे महामृतम्।

अप्युपामृतं भवद्वपुर्भेदवृत्ति यदि मे न रोचते।।

अर्थात हे भगवान आपके कण्ठ में स्थित कालकूट भी मेरे लिए महान अमृत के तुल्य है। आपके शरीर से अलग रहनेवाला अमृत भी मुझे अच्छा नहीं लगता। यहाँ पूर्णरूप से परिपुष्ट न होने के कारण रति स्थायिभाव रसरूप न होकर पाठक या सामाजिक को भावरूप रति का बोध होता है। अतएव यहाँ रति केवल भाव है।

रामचरितमानस में गौरी पूजन के समय माता सीता द्वारा की गयी उनकी स्तुति को हिन्दी में उदाहरण के रूप में लेते हैं-

जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।

जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।

नहि तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।

भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।

इसी प्रकार ऋषि, मुनि, राजा, गुरु, माता-पिता आदिविषयक रति को भी समझना चाहिए।

निम्नलिखित उदाहरण में संचारिभाव व्यंग्य से आया है और स्थायिभाव से अधिक प्रभावशाली हो गया है-

एवं वादिनि देवर्षौ पार्श्वे पितुरधोमुखी।

लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती।।

अर्थात देवर्षि नारद के ऐसा कहने पर (शिव का पार्वती के साथ विवाह की बात) पिता के पास बैठी पार्वती नीचे मुँह किए लीला-कमल की पंखुड़ियों को गिनने लगीं।

यहाँ शिव के साथ अपने विवाह की चर्चा के कारण लज्जा, हर्ष, उत्सुकता आदि को पार्वती के द्वारा छिपाने का प्रयास व्यंजित हो रहा है, जिसे अवहित्था (एक प्रकार का संचारिभाव जिसमें भय, लज्जा, हर्ष आदि भावों को छिपाया जाय) कहते हैं। रति स्थायिभाव से अवहित्था यहाँ अधिक प्रभावी भी है। अतएव यहाँ अवहित्था भाव है।

इसके लिए हिन्दी में निम्नलिखित दोहा उद्धृत करते हैं-

सटपटाति सी ससिमुखी, मुख घूँघट पट ढाँकि।

पावक झर सी झमकि कै, गई झरोखे झाँकि।।

यहाँ लज्जा और स्मरण संचारिभाव का वर्णन प्रधान हो गया है। रति स्थायिभाव दब गया है। अतएव ये भाव कहे जाएँगे।

इसी प्रकार रामचरितमानस में परशुराम-लक्ष्मण संवाद के निम्नलिखित उदाहरण में विभाव, अनुभाव और संचारिभावों के वर्तमान होते हुए भी क्रोध स्थायिभाव केवल उद्बुद्ध होकर रह गया है। महर्षि विश्वामित्र के शील के कारण यहाँ रौद्र रस का पूर्णरूप से परिपाक नहीं हो पाया है। अतएव क्रोध यहाँ केवल भाव कहलाएगा-

कर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरु द्रोही।।

उतर देत छाँड़ौ बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे।।

अब भावाभास और रसाभास पर चर्चा करते हैं। इसके विषय में आचार्य मम्मट लिखते हैं-

तदाभासा अनौचित्यप्रवर्तिताः।

अर्थात रसों और भावों का अनुचित वर्णन क्रमशः रसाभास और भावाभास कहलाते हैं। यह अनौचित्य कई प्रकार का होता है। जैसे एक स्त्री का कई पुरुषों के साथ प्रेम या अपने पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के साथ प्रेम, अनुचित होने के कारण रसभास होगा। पशु-पक्षी आदि का प्रेम वर्णन भी इसी श्रेणी में आता है। इसी प्रकार गुरु आदि को आलम्बन बनाकर हास्य आदि का प्रयोग, संत आदि को आलम्बन बनाकर करुण आदि का वर्णन, माता-पिता को आलम्बन बनाकर क्रोध आदि का वर्णन, यज्ञ के पशु को आलम्बन मानकर बीभत्स का वर्णन, ऐन्द्रजालिक आदि विषयक अद्भुत तथा चाण्डाल विषयक शान्त रस आदि का वर्णन अनुचित कहा गया है। इसलिए इनकी गणना रसाभास में की जाती है। इसी प्रकार भावों का अनुचित वर्णन भावाभास की श्रेणी में आता है।

रसाभास का निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत है। इसमें उन राजाओं के उत्साह का वर्णन है, जो भगवान शिव के धनुष को तो उठा न पाए, लेकिन राम और लक्ष्मण से युद्ध कर सीता को पाने का उत्साह दिखाते हैं। उनका उत्साह अनुचित है। अतएव यहाँ रसाभास माना जाएगा-

उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जँह तँह गाल बजावन लागे।।

लेहु छुड़ाय सीय कह कोऊ। धरि बाँधौ नृप बालक दोऊ।।

तोरे धनुष काज नहिं सरई। जीवत हमहिं कुँवरि को बरई।।

जौ बिदेह कछु करहिं सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई।।

इसी प्रकार निम्नलिखित दोहा भावाभास का उदाहरण है-

दरपन में निज छाँह सँग, लखि प्रियतम को छाँह।

खरी ललाई रोस की, ल्याई अँखियन माँह।।

यहाँ क्रोध का भाव अनावश्यक रूप से आया है। अतएव क्रोध भावाभास है।

अगले अंक में भावोदय, भावसंधि, भावशान्ति और भावशबलता पर चर्चा की जाएगी।

शनिवार, 26 मार्च 2011

फ़ुरसत में …. कनपुरिया होली .......

व्यंग्य

कनपुरिया होली .......

हरीश प्रकाश गुप्त

यदि आप हमारे कानपुर नगर के इतिहास, भूगोल और संस्कार से परिचित नहीं हैं तो मान लीजिएगा कि आपकी जानकारी का लेविल कुछ कम है। बात कुछ कड़क लग रही हो तो कृपा करके इसे थोड़ा घुमाकर समझ लीजिए। यह आपका ही काम है। लेकिन सच तो सच ही है। हो सकता है कि आपने अभी तक इस शहर के दर्शन ही न किए हों। यह भी हो सकता है कि आपने यहाँ की पावन महिमा का बखान किसी के श्रीमुख से सुन रखा हो। फिर भी, यदि यह सच है तो आप अभी तक इस धरती की रज से पवित्र हुए बिना ही शेष धरा पर विचरण कर रहे हैं।

बात यदि दो चार सिद्धियों की हो तो उनका क्रमशः वर्णन कर दिया जाए। लेकिन यहाँ तो हरि अनंत “हरि कथा अनंता” की भाँति कोई ओर-छोर ही नहीं है। विश्वास नहीं तो आप कश्मीर से कन्याकुमारी तक अथवा कोटा से कोलकाता तक के रास्ते में कहीं भी कानपुर की चर्चा छेड़ दीजिए। बस। आपको अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। आपके इर्द-गिर्द दो चार विद्वतजन जरूर मौजूद होंगे जो यहाँ की महिमा को अनेकानेक विशेषणों से विभूषित करते हुए विभिन्न उद्धरणों की मदद से इति सिद्धम करते हुए अविराम गतिमान रखेंगे।

यहाँ प्रसंग को आप अन्यथा न लें। मतलब वृत्तांत की दिशा आज वह नहीं है जिसे आप समझ बैठे। यहाँ पर बात होली की हो रही है। केवल होली की। दुनियाँ भर में अगर यहाँ और बरसाने की होली को छोड़ दें तो बाकी जगह होली तो बस हो ली की तरह बीती बात की तरह होकर रह जाती है। बरसाना तो ठहरा राधा जी का मायका। वहाँ की बराबरी कौन करे। वहाँ के लोग आज भी इसे दिल से मनाते हैं। महीने भर होली मनाते हैं कि कन्हैया आवें और पूरा गाँव उन्हें रंग में डुबो-डुबोकर होली खेले। लेकिन पहुचते हैं वहाँ ढीठ गोकुल वाले। सबके सब अपने को कृष्ण कन्हैया समझ बरसाने की ग्वालनों का सामीप्य और स्पर्श पाने का सपना संजोए पँहुच जाते हैं हर बार। अब वो द्वापर वाली ग्वालनें तो हैं नहीं, जो वंशी की तान सुनते ही अपना सब कुछ बिसराकर खुद ही समर्पण करने चली आवेंगी। भगाने के कितने उपाय तो कर लिए उन्होंने। होली के नाम पर नए नए हथकण्डे तक ईजाद कर लिए, मसलन लट्ठमार होली, कपड़ाफाड़ होली, कोड़ामार होली आदि, आदि। अभी बरसाने वालियों पर से देश की संस्कृति, मर्यादा और परम्परा का भार पूरी तरह उतरा नहीं है सो गज भर का लम्बा घूँघट काढ़कर गोकुल वालों पर लट्ठ बरसाती हैं कि एक-आध सही जगह पड़ जाए तो अकल ठिकाने आ जाए। हो सकता है कि उनके इस कला में पारंगत होने के कारण ही उनके गाँव का नाम बरसाना पड़ा हो। वे गोकुलवालों के कपड़े फाड़-फाड़कर अधनंगा कर भिगो-भिगो कर कोड़े मारती हैं । लेकिन गोकुलवासी इसे अपनी लज्जा से न जोड़ते हुए प्रेमरस भरे रंग की फुहार मान वापस लौट जाते हैं अगली बार अधिक जोश और उल्लास से सराबोर होकर वापस आने का संकल्प लेकर। शायद अगली बार सफल हों।

कानपुर में होली की अपना अलग ही इतिहास है। यहाँ की होली का कोई पौराणिक दृष्टांत नहीं है। इसका संबंध देश के स्वतंत्रता आंदोलन से है, सम्मान से है, स्वाभिमान से है। कहते हैं वर्ष 1923 में हटिया मोहल्ले कुछ स्वतंत्रता सेनानियों की बैठक हो रही थी। जिसमें गुलाबचन्द्र सेठ, जागेश्वर त्रिवेदी, पं0 मुंशीराम शर्मा सोम, रघुबर दयाल, बाल कृष्ण शर्मा नवीन, श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’, बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खाँ सहित देशप्रेमी बुद्धिजीवी, व्यापारी और साहित्यकार सभी थे। तभी पुलिस ने इन आठ लोगों को हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार करके गंगा किनारे सरसैया घाट स्थित जिला कारागार में बन्द कर दिया। इनकी गिरफ्तारी का कानपुर की जनता ने एकमत होकर विरोध किया और होली नहीं मनाई। आठ दिन बाद फिरंगी सरकार झुकी और जब उन्हें रिहा किया गया, तो उस समय आकाश में ‘अनुराधा-नक्षत्र’ लगा हुआ था। जैसे ही इनके रिहा होने की खबर लोगों तक पहुँची, लोग कारागार के फाटक पर पहुँच गये। उस दिन वहीं पर मारे खुशी के अबीर-गुलाल और रंगों की होली खेली गई तथा पवित्र गंगा जल में स्नान किया गया। गंगा तट पर मेला सा दृश्य था। तभी से यहाँ पर परम्परा बनी। होली से अनुराधा नक्षत्र तक कानपुर में होली की मस्ती छायी रहती है। असल होली तो अखिरी दिन ही दिन में जमकर खेली जाती है। सुबह हटिया से रंग का ठेला निकलता है। ठेले पर रंग से भरे ड्रम लेकर मस्ती में हु़ड़दंग करती अगल-बगल, ऊपर-नीचे सभी पर रंग उड़ेलती हुई चलती है हुलवारों की टोली। ढोल, नगाड़े की गूँज और फाग गाते हुए जो मिलता गया सबको दल में समेटते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। एक बड़े हुजूम जैसा, अपने से नियंत्रित और अपने में ही केन्द्रित। पूरा कानपुर रंग से नहाया हुआ। सायं गंगा तट पर मेले का आयोजन होता है। जहाँ सभी लोग इकट्ठे होते हैं। अपने राग द्वेष भूलकर एक दूसरे से मिलते हैं। जाजमऊ और अहिरवाँ में अलग ही कथा है। जाजमऊ और उससे लगे बारह गाँवों में पाँच दिन बाद होली खेली जाती है। कहा जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक की हुकूमत के दौरान ईरान के जंजान के शहर काजी सिराजुद्दीन के शिष्यों के जाजमऊ पहुँचने पर तत्कालीन राजा ने उन्हें जाजमऊ छोड़ने का हुक्म दिया तो दोनो पक्षों में युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान किले के बहुत से लोग मारे गये। उस दिन भी होली ही थी। इस दुखद घटना के चलते नगरवासियों ने निर्णय लिया कि वे पाँचवें दिन होली खेलेंगे। तभी से यहाँ पाँचवें दिन होली खेले जाने की प्रथा है। इस क्षेत्र में सायंकाल पंचमी का मेला लगता है। यह तो ठहरा ऐतिहासिक दृष्टांत। अब देखिए कनपुरिया होली का रंग।

दृश्य - 1

कनपुरियों का कहना है कि होली में गोकुलवासियों को लज्जा नहीं आती तो हमें काहे की लज्जा। आनी भी नहीं चाहिए। कैसा भी कर्म हो, बस संकल्प के साथ किया जाए। और यह नगरी कोई भगवान की नगरी तो है नहीं। न द्वापर के कृष्ण की, न त्रेता के राम की। ये नगरी है छज्जू और बाँके की। बरसाने में रंग एक महीने चलता है तो होली में रंग यहाँ भी हफ्ते भर से कम नहीं चलता और छज्जू, बाँके की रंगबाजी भी कुछ कम नहीं चलती। हफ्ते भर की होली में मार्केट-वार्केट सब बन्द। प्रतिदिन आठ से बारह का टाइम शेड्यूल रहता है होली का। खूब खेलो। होली कम हुड़दंग ज्यादा। व्यापारी लोग भी सोचते हैं कि अपनी तहस-नहस कौन कराए और सरकारी विभागों की त्यौहारी वसूली से नोच खसोट कौन कराए। सो जिनका बस चलता है, निकल लेते हैं वार्षिक छुट्टी पर सैर करने। पुलिस प्रशासन अमला जमला मुस्तैद रहता है, चौक चौराहे या मेन मेन लोकेशन्स पर, ताकि दिखे कि वे मुस्तैद हैं। गलियाँ जाएं चूल्हे भाड़ में।

बस यही वो पेच है जिसकी आस छज्जू, बाँके को खास रहती है पूरे साल भर। दोनों के पेशे अलग अलग हैं। पेशा कोई खास नहीं। एक सरकारी विभाग में मुलाजिम है पाव टके दर्जे का। लेकिन विभाग धमकदार है। आई मीन, हिन्दी में कहें तो तीस तारीख की पगार चायपानी और एक आध बैठकी में ही पानी माँग जाती है। लेकिन उसकी फिकर किसे है। जब भी जेब हलकी लगी, घुस लिए किसी फर्म, फैक्टरी, दुकान, दालान का इन्सपेक्शन करने। विभाग का रसूख और बड़ी बड़ी मूँछों का मायाजाल ऐसा कि तुम्बा भी गुलदार सी बातें करना न भूले। बस अपना मान सम्मान अँजुरी में सामने रखकर चलना होता है।

होली की साप्ताहिक बन्दी में व्यस्तता कुछ अधिक ही बढ़ जाती है। रात बारह बजे तक पार्टियों के साथ चाही अनचाही बैठकें चलती हैं तो दिन के बारह तक आफिस में नींद के झोके। होली दीवाली ही तो पेशे की सहालग हैं, सो वह चैन-सुख और नैन-निद्रा को खूँटे से बाँध निकल पड़ता हाड़ तोड़ मेहनत के लिए। सो वह मेहनत एक बार फिर हाड़ तोड़ साबित हुई।

दो दिन बाँके नहीं दिखा तो छज्जू ने उसकी खैर खबर ली। बिस्तर पर बाँके। पैर में पलस्तर। टाँग आसमान की ओर उठी और दो ईंटों के ट्रैक्सन से खिंची। दो्स्त को देखा तो भावुकता में नैनों से नीर नदी सा बह निकला। उसकी घरवाली पड़ोसन को बता रही थी – किसी ने इनके स्कूटर में पीछे से टक्कर मार दी। देख तक न पाए। यह टाँग तीसरी बार उसी जगह से टूटी है। हाय री किस्मत। रंग का त्यौहार ही बदरंग हो गया।

वही टाँग, वही जगह, वही चोट ... वही छुट्टियाँ। छज्जू ने अश्रुधारा पर एक बार फिर दृष्टि डाली और इसके उद्गम के विषय, आहत और आह का विश्लेषण करने लगा। फिर उसने मसखरी के अन्दाज में एक प्रश्न उछाल दिया “यार मुझे तो सच बताओ। गए कहाँ थे. कहीं फिर वहीं पुराने जाजमऊ में, नफीस कटोरी के दालमिल कम्पाउण्ड में टेढे नाले के पास ......” “कभी चुप भी रहा करो। इज्जत पर पलीता लगाकर ही दम लोगे क्या. अरे यहाँ पर तो कुछ ढका छुपा रहने दो।” कहकर बाँके वर्तमान में आया और चेहरे पर कस के गमछा रगड़ लिया।

दृश्य -2

आज होली मेला है। दिन में खूब रंगबाजी हुई है। सड़कें हुसैन की चित्रकारी सरीखी रंगी हैं। नालियों में आज गंदे पानी पर रंग सवार होकर बहा है। कहीं तो सड़कें और दीवारें अभी तक सूख भी नहीं पाई हैं। लोगों ने शाम को मेला की तैयारी में खुद को रगड़-रगड़ कर साफ किया है तो कुछ का चेहरा जैसा अब जान पड़ने लगा है वर्ना सुबह तो पहचानना कहाँ से शुरू करें, यही तय करना मुश्किल हो रहा था। रंग के ठेले में जो गुम हो गया, सो हो गया। सभी लाल, हरे, पीले, काले रंग में डूबे पुतले की तरह ही जान पड़ रहे थे।

गोधूलि की बेला होने को है। पतित पावनी गंगा के तट पर भारी भीड़ जमा है। धुले, उजले, नवीन, रंगीन परिधानों में अधरंगे, रंग अभी तक पूरी तरह छूटा नहीं है, चेहरों वाले लोग किसी विशिष्ट समुदाय अथवा आधुनिक वस्त्रों में सुशोभित दूरदराज की वनजातियों के समूह से लग रहे हैं। बहुत चहल-पहल है। कहीं संगीत का कार्यक्रम चल रहा है, तो कहीं होली के लोकगीत का। कहीं बच्चे भी उत्साह से उल्लास में शामिल हैं। जगह-जगह छोटे बड़े टेन्ट, तम्बू, पाण्डाल, और शिविर लगे हैं। अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार। शासन-प्रशासन का टेन्ट, राजनीतिक, सामाजिक संगठनों के पाण्डाल, विभिन्न समुदायों, वर्गों, जातियों के तम्बू और स्वयंसेवी संस्थाओं के शिविर। सभी ने होली मिलन समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। थालियों में एक ओर अबीर और गुलाल सजा है, तो दूसरी ओर जलपान के लिए तमाम आइटमों के साथ गुझिया नवयौवना सी इतरा रही है। मिलन में अब सूखे रंग का तिलक ही लगेगा। तरल में ठण्डाई मिलेगी, हरी वाली भी। पीछे वाली लेन के और पीछे मेज के नीचे माधुरी भी उपलब्ध है, लेकिन यह केवल विशेष पास धारकों के लिए ही है।

इस भीड़-भाड़ से थोड़ा हटकर गंगा की तरफ एक तखत पड़ा है। उधर ज्यादा लोग नहीं आ-जा रहे हैं। दस-बीस लोग ही बैठकी लगाए हैं। आज तो सभी एक रंग में ही रंगे नजर आ रहे हैं, तो फिर ऐसा रंगभेद क्यों। लोग उस समूह से इतनी दूरी क्यों बनाए हैं। उत्सुकता ने कदमों को उधर ही खदेड़ना शुरू कर दिया। यह क्या ? देखा तो पहले आँखों पर विश्वास ही न हुआ। सब रंगों के मिक्स्चर से रंगे-सने काले कलूतड़े टेक्स्चर का एक व्यक्ति हिप-हिप-हुर्रे और यप्पी-यप्पीईई करते हुए पास आया और एक हाथ में हरी-हरी बड़ी सी गोली रखते हुए दूसरे हाथ में एक गिलास ठण्डाई पकड़ा गया। फिर कान में फुसफुसाया “ठण्डाई विद करण”। तभी बुर्राक सफेद कुर्ता पायजामें में एक सज्जन नदी की ओर से आते दिखाई दिए। धीरे-धीरे वे पास आ रहे हैं। शक्ल तो कुछ-कुछ करण जैसी ही लग रही है, रंगीन टेक्स्चर वाली। केवल कुर्ता पायजामा से तो पहचान होती नहीं, परंतु गीली मिट्टी पर उनके पैरों के निशान साफ दिख रहे हैं। पता चला कि कोई पहचान ही नहीं पा रहा था इसलिए नदी के पानी में अपना चेहरा एक बार फिर साफ करने गए थे। मनोज जी हैं भाई।

तखत पर आचार्य राय जी विराजमान हैं। आज उनका व्याख्यान काव्यशास्त्र पर नहीं हो रहा है। बताते हैं करण ने ओवर डोज दे दी है। होली के दिन बात हुई थी तो करण ने कहा था सारी भाँग रख दी है अगली होली के लिए। इसी विश्वास में आचार्य जी चार गिलास गटक गए। एक जिज्ञासु पधारे हैं जो उनकी शिष्यता और सान्निध्य पाने के उपक्रम में उन्हें प्रभावित करने के लिए उनसे प्रश्न पर प्रश्न किए जा रहे हैं और आचार्य जी हैं कि उन्हें टाल रहे हैं। उनका फिर एक प्रश्न आया – आचार्य जी ज्ञानचंद और मर्मज्ञ में क्या अंतर है, क्या दोनों का अर्थ एक सा नहीं है। यदि ऐसा है तो इनके एक साथ प्रयोग में पुनरुक्ति दोष नहीं होगा। इस बार आचार्य जी से नहीं रहा गया, बोले – वत्स, इसका लक्षण न तो पंडितराज जगन्नाथ ने रस गंगाधर में दिया है, न आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक में। आचार्य ममम्ट भी इस पर मौन हैं। इसकी व्याख्या आधुनिक भृंग सम्प्रदाय के आचार्य ही कर सकते हैं। इनके आदि आचार्यों का तो ज्ञान नहीं। इनके कुछ शिष्यों में करण आदि का नाम आता है। इनका निवास बंगलौर के आसपास है। वैसे, प्रश्न किया है तो इसका विस्तृत उत्तर इसी मंच से अगली होली के अवसर पर दिया जाएगा। तब तक प्रतीक्षा करें।

अरुण राय ने खाँटी देशज अंदाज में होली खेली है, गोबर से। अपनी कमीज खराब न हो इसलिए बाबूजी की कमीज कल से ही पहने घूम रहे हैं। इस बार एक तो खोए के भाव आसमान को छू गए, ऊपर से मिलावटी खोए से दुखी होकर उन्होंने तय किया कि बिना खोए की, केवल चीनी की ही गुझिया बनेगी। जिसने भी उनकी गुझिया खाई गीली चीनी का स्वाद बहुत भाया। एक बुजुर्ग महिला संदूकची लेकर पधारी हैं। उन्होंने तखत पर संदूकची खोल कर पलट दी है। गुझिया, पापड़, चिप्स वगैरह सहित तरह-तरह के नमकीन व मीठे स्नैक्स का ढेर लग गया। धुंधलका होना शुरू हो गया है। दिन के स्वामी अर्थात भगवान भास्कर अस्ताचलगामी हो रहे हैं। लोगों की मस्ती गहराती जा रही है। तभी, जिसे लोग अभी तक रंग का ढेर समझ रहे थे, उसमें कुछ हलचल हुई। रंग झड़ा तो बड़ी-बढी दाढ़ी और बड़े-बड़े बालों वाले व्यक्ति का आकार उभरा। जब उन्होंने अपने सिर को एक बार और झटका दिया तो आकृति कुछ स्पष्ट हुई। लेकिन यह अभी भी सभी ब्लागर्स की समझ से बाहर थी। मैंने आवाज लगाई। अरे भई, दादा श्याम सुन्दर चौधरी हैं। कुछ ज्यादा ही चढ़ गई थी, करण के रहमो करम से। अच्छी तरह पहचान लीजिए। जल्दी ही इनसे आपकी फिर भेंट होने वाली है। अब हम लोग भी चलते हैं। फिर मिलेंगे। आप सबको होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं।

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

शिवस्वरोदय-36

शिवस्वरोदय-36

-आचार्य परशुराम राय

पार्थिवे मूलविज्ञानं शुभं कार्यं जले तथा।

आग्नेयं धातुविज्ञानं व्योम्नि शून्यं विनिर्दिशेत्।।187।।

अन्वय – श्लोक लगभग अन्वित क्रम में है। अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है।

भावार्थ – पृथ्वी तत्त्व के प्रवाह काल में दुनियादारी के कामों में पूरी सफलता मिलती है, जल तत्त्व का प्रवाह काल शुभ कार्यों में सफलता देता है, अग्नि तत्त्व धातु सम्बन्धी कार्यों के लिए उत्तम है और आकाश तत्त्व चिन्ता आदि परेशानियों से मुक्त करता है।

English Translation – Success in worldly affairs is achieved during the flow of Prithivi Tattva in the breath, During Jala Tattva flow we succeed in auspicious work, Agni Tattva is suitable for the work relating to metal and Akash Tattva gives freedom from psychic troubles.

तुष्टिपुष्टि रतिःक्रीडा जयहर्षौ धराजले।

तेजो वायुश्च सुप्ताक्षो ज्वरकम्पः प्रवासिनः।।188।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – अतएव जब पृथ्वी और जल तत्त्व के प्रवाह काल में किसी प्रवासी के विषय में प्रश्न पूछा जाय तो समझना चाहिए कि वह कुशल से है, स्वस्थ और खुश है। पर यदि प्रश्न के समय अग्नि तत्त्व और वायु तत्त्व प्रवाहित हो तो समझना चाहिए कि जिसके विषय में प्रश्न पूछा गया है उसे शारीरिक और मानसिक कष्ट है।

English Translation – Therefore, any question about a person away from the place is asked during the flow of Prithivi Tattva Jala Tattva, it should be understood that he is alright, healthy and happy. But if the question comes during the flow of Agni Tattva and Vayu Tattva, it indicates that the person about whom query has been made, is suffering from physical and mental troubles.

गतायुर्मृत्युराकाशे तत्त्वस्थाने प्रकीर्तितः।

द्वादशैताः प्रयत्नेन ज्ञातव्या देशिकै सदा।।189।।

अन्वय – आकाशे तत्त्वस्थाने गतायुः मृत्युश्(च) प्रकीर्तितः। (अनेन) देशिकैः एताः द्वादशाः (प्रश्नाः) प्रयत्नेन सदा ज्ञातव्याः।

भावार्थ – यदि प्रश्न काल में आकाश तत्त्व प्रवाहित हो तो समझना चाहिए कि जिसके विषय में प्रश्न पूछा गया वह अपने जीवन के अंतिम क्षण गिन रहा है। इस प्रकार तत्त्व-ज्ञाता इन बारह प्रश्नों के उत्तर जान लेता है।

English Translation – In case, query is made about a person during the flow of Akash Tattva, we should understand that he is counting last days of his life. In this way a wise person competent in the knowledge of Tattvas, answers above twelve questions easily.

पूर्वायां पश्चिमे याम्ये उत्तरस्यां तथाक्रमम्।

पृथीव्यादीनि भूतानि बलिष्ठानि विनिर्विशेत्।।190।।

अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में पृथ्वी आदि तत्त्व अपने क्रम के अनुसार प्रबल होते हैं, ऐसा तत्त्वविदों का मानना है। श्लोक संख्या 175 में तत्त्वों की दिशओं का विवरण देखा जा सकता है।

English Translation – Tattvas according to their order in breath become powerful in their directions, i.e. east, west, north and south according to wise and competent persons. Directions of Tattvas have been given in the verse No. 175 of Shivaswarodaya.

पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाशमेव च।

पञ्चभूतात्मको देहो ज्ञातव्यश्च वरानने।।191।।

अन्वय – हे वरानने, पृथिवी आपः तथा तेजो वायुः आकाशञ्च पञ्चभूतात्मकः देहः ज्ञातव्यः।

भावार्थ – हे वरानने, यह देह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों तत्त्वों से मिलकर बना है, ऐसा समझना चाहिए।

English Translation – Lord Shiva addresses to his consort, O Beautiful Goddess, This body is made of five tattvas, i.e. earth, water, fire, air and ether and nothing else. This fact we must realize.

गुरुवार, 24 मार्च 2011

आँच-61 – आजी की बरसी

समीक्षा

आँच-61 – आजी की बरसी

हरीश प्रकाश गुप्त

My Photoआँच के इस स्तम्भ में प्रायः कविताओं पर ही अधिक चर्चा हुई है, कहानियों पर उतनी नहीं। कारण, आजकल कविताएं ही अधिक लिखी जा रही हैं, कथाएं कम। अच्छी कथाएं तो और भी कम देखने में आती हैं। अनु सिंह चौधरी का नाम इस ब्लाग के लिए नया नहीं है। पिछले माह इनकी एक कविता की समीक्षा इसी ब्लाग पर आँच पर आई थी। मैंने जब इनके ब्लाग मैं घुमन्तू” पर विजिट किया तो पिछले वर्ष मुझे तीन कथाएं पढ़ने को मिलीं। ये कथाएं मुझे बहुत सरस और आकर्षक लगीं। इन कथाओं को पढ़ने के बाद लगा कि इन पर आँच पर भी चर्चा होनी चाहिए। सो, विगत वर्ष मार्च माह में प्रकाशित हुई कहानी “आजी की बरसी” का आज की आँच के लिए चयन किया गया है।

संक्षेप में कहानी के कथानक का उल्लेख करें तो यह कि एक वृद्ध स्त्री पूर्णेश्वरी देवी की कहानी है जिन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों को उच्च शिक्षित कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके पुत्र, पुत्रियाँ, नाती, पोते बड़े-बड़े पदों पर पहुँच गए हैं, उनमें से अधिकांश विदेश में जा बसे हैं। उन्होंने पढ़ लिखकर धन, पद और यश सब कुछ अर्जित कर लिया है। वे समाज के अतिविशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि उनका अभिप्रेत है। सामाजिक संस्कार और पारिवारिक रिश्ते उनके उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले उपकरण मात्र लगते हैं, अर्थात मैकेनिकल। लेकिन आजी हैं कि उनकी आत्मा आज भी उनके संचित संस्कारों के साथ जीती है। वह स्नेह और ममता की प्रतिमूर्ति हैं जिनकी दूसरों से अपेक्षाएं अधिक नहीं हैं। उन्हें माटी से जुड़ी स्मृतियाँ ही जीवन का आधार लगतीं हैं और उन्होंने उसी में अपार सुख खोज लिया है। वह आधुनिक पीढ़ी की डोर को एक हाथ से पकड़े रहने के बावजूद देशज संस्कारों को भी मजबूती से थामे रहती हैं। लेकिन आधुनिक और सम्भ्रांत बन चुके उनके पुत्र और पुत्रियाँ सामाजिक मर्यादा के दबाव में न्यूनतम प्रयासों से उनसे उतना ही जुड़े रहते हैं जितने भर से उनकी प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आती। तभी तो वे सब एक दूसरे से टेलीफोन द्वारा ही आजी का हालचाल लेते रहते हैं। पन्द्रह साल तक उनके पास कोई और नहीं आता, न नाती-पोते न बेटियाँ, सिवाय छोटे पुत्र के, जो उनके सबसे नजदीक अर्थात पटना में रहते हैं। वही यदाकदा समय मिलने पर हालचाल ले जाते हैं। वह डाक्टर हैं लेकिन जब लाचार आजी उनसे आसपास डाक्टर न होने का कारण बताते हुए कहती हैं कि तबियत ठीक न होने पर वह किसे दिखाएं, बहुत दिक्कत होती है। हालाकि इसके पीछे उनका उद्देश्य यह होता है कि उनका यह बेटा ही उन्हें हफ्ते दो हफ्ते में देख जाया करे, मिल जाया करे ताकि उन्हें कुछ सुकून मिले। उनका मन्तव्य वह समझ भी जाता है फिर भी वह अपनी असमर्थता को सबके समक्ष उपयुक्त ठहराता है, जबकि पटना में रहते हुए यह बहुत मुश्किल भी नहीं। बड़े पुत्र जो लखनऊ में रहते हैं वह साल दो साल में एक बार ही मुश्किल से समय निकाल पाते हैं और दोनों बहुएं एकान्तर वर्ष में आने का आपस में अनुबन्ध करके दायित्व की पूर्ति समझ लेती हैं। हाँ, अन्य सम्बन्धियों से मिलने विदेश जाना तथा किटी पार्टी और समाजसेवा के लिए समय निकालना उनकी दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है और वे इसके लिए समय निकालती भी हैं। यह पात्रों की मनोदशा को चित्रित करता है कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं। इसके अतिरिक्त आजी के जीते जी जो लोग पन्द्रह वर्ष तक न उन्हें देखने आए और न ही उनका हालचाल पूछने, आजी का देहान्त उन्हें एक गेट टुगेदर पार्टी और जश्न मनाने का अवसर उपलब्ध करा जाता है।

वह चरित्र जिसको केन्द्र में रखकर इस कहानी की रचना की गई है उस आजी की पीड़ा, व्यथा और एकाकीपन को यह कहानी बिना कहे ही व्यक्त करती है। कथा का सबसे मार्मिक दृश्य तब सामने आता है जब इस भरे पूरे और समृद्ध परिवार से सम्पन्न आजी का देहान्त होता है तो उनके समीप कोई नहीं होता। उनके घर आदि की देखभाल करने वाला मुंशी खबर पहुँचाने उनके छोटे पुत्र के पास जाता है तो पुत्र की प्राथमिकता मृतक के करीब शीघ्र पहुँचने की कम परिचितों की भीड़ अपने घर इकट्ठा करने के प्रति अधिक होती है। वह बिना अपने परिवार को लिए अपने दो मित्रों के साथ गाँव जाते हैं और अपने औपचारिक दायित्व का निर्वाह करते हुए अपनी सुविधानुसार आर्यसमाज रीति से अंतिम संस्कार करके शाम तक वापस पटना लौट जाते हैं। यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। सबको इंतजार रहता है इस उत्तरदायित्व से भी मुक्ति पाने का और जब वह समय आता है तो यह परिवार इसे भी अपनी प्रतिष्ठावृ्द्धि के अवसर के रूप में देखता है और हर वह जतन करता है जो उनके इस उद्देश्य को फलीभूत करता है, जैसे- बरसी का भव्य और शानदार आयोजन तथा अति विशिष्ट लोगों का आगमन आदि। आजी के मरने और श्राद्ध के समय तो कोई पहुँच नहीं पाता इसलिए बरसी पर सब इकट्ठे होते हैं। यहाँ प्रमुखता बरसी पर कम, भव्य तथा शानदार आयोजन और विशिष्ट आतिथ्य पर अधिक होती है। इस अवसर के लाभ से छोटी बहू को विधानसभा का टिकट मिल जाता है और बरसी का भव्य आयोजन करके तथा गाँव में माँ के नाम बड़ा अस्पताल चीफ मिनिस्टर से स्वीकृत करवाकर बड़े पुत्र अपने को मातृऋण से उऋण समझ लेते हैं। सब बेहद खुश होते हैं।

कहानी का प्रारम्भ आजी की बरसी के आयोजन की सूचना के साथ होता है जिसके विज्ञापन का आकार भी प्रतिष्ठा से जुड़ा है। बाल मन शाश्वती नहीं जानती कि बरसी क्या होती है लेकिन उसका उत्साह धूमधाम से आयोजन के प्रति तथा सबसे मिलने में है। चौथा पैरा जहाँ आजी के परिवार और उसके सदस्यों से पाठक का परिचय होता है, कहानी फ्लैश बैक में विकास की ओर अग्रसर होती है और क्रमबद्ध घटनाक्रम के माध्यम से सजीव सी अनुभूति कराती है। बरसी का आयोजन और उसके पश्चात आँगन में बैठक के समय कहानी उत्कर्ष को प्राप्त होती है जब परिवार के सभी सदस्य बरसी के भव्य एवं सफल आयोजन पर गौरवान्वित और हर्षित हैं। सबकी आकांक्षाएं भी अभीष्ट को प्राप्त हुई हैं। बड़े पुत्र का मातृऋण से उऋण होना, छोटी बहू को विधानसभा का टिकट मिलना तथा बाकी सबका हर्षोल्लास के साथ गेट टुगैदर। कहानी का एक पंक्ति का अंत “लेकिन दालान में टंगी आजी की मुस्कुराती तस्वीर के पीछे की सालों लंबी तन्हाई किसी को नज़र नहीं आई थी। ” बेहद चमत्कारिक है और अपनी व्यंजना से सम्पूर्ण कथा का केन्द्र बदल देता है। अब कथा का लक्ष्यार्थ आजी के सदा प्रसन्न से रहने वाले चेहरे के पीछे छिपी व्यथा और वेदना बन जाता है जो अपनों की महत्वाकांक्षा और प्रतिष्ठा की चाहत के कारण उनकी उपेक्षा और एकाकीपन से उपजी है। यह एक प्रश्न छोड़ जाता है कि क्या आजी ने इसी सुख के लिए अपना जीवन समर्पित किया।

इस कहानी का कथानक असाधारण नहीं है लेकिन कहानी का विशिष्ट शिल्प और सौष्ठव इसे असाधारण बनाता है। अनु सिंह चौधरी ने बेहद सधे शब्दों में एक कुशल रचनाकार की भाँति इस कहानी को लिखा नहीं बल्कि गढ़ा है। कहानी अपनी इसी शिल्पगत विशिष्टता द्वारा प्रारम्भ से ही प्रभाव उत्पन्न करती चलती है। बहुतायत स्थानों पर वाक्यों की विशेष बनावट, जिसमें पूर्ण अथवा आंशिक कर्तापद क्रियापद के पश्चात आया है, अर्थ को वजन देती है, यथा – पहले पैरा में ही “.... विज्ञापन छपवा दिया गया था। पहले ही पन्ने पर - तीन कालम का।” या “शाश्वती स्कूल ले आई थी वो अखबार” या “बरसी करेंगे हम धूमधाम से अगले साल” आदि। ऐसे प्रयोग अधिकांश स्थानों पर हैं। यह कथाकार की अपनी खास शैली है। इस प्रयोग से कहानी न केवल स्वाभाविक बनी है बल्कि रोचक और सरस भी बनती गई है। रचनाकार की सूक्ष्म दृष्टि कहानी पर आद्योपांत रही है। चरित्रों का निर्माण और उनका निरूपण बहुत संतुलित ढंग से हुआ है। इसीलिए कोई भी चरित्र अपनी सीमा का उल्लंघन करता हुआ नहीं मिलता। संवाद अपरिहार्य होने पर ही आए हैं और वह भी बहुत सुगठित हैं। वे अर्थ के साथ-साथ पात्र की मनोदशा को भी प्रतिबिम्बित करते जाते हैं। जैसे “नो न्यूज इज गुड न्यूज जीजी .......।” यह संवाद महज दूसरे द्वारा हालचाल पूछने पर उसकी चिंता घटाने मात्र के लिए नहीं बोला गया है, बल्कि यह पात्र की आंतरिक इच्छा को भी अभिव्यक्त करता है और फिर धीरे धीरे यांत्रिक होते हुए मनोदशा पर से आवरण हटा देता है, वह भी संवेदना शून्य ढंग से। “आप बेवजह क्यों फिकर करती हैं अम्मा की। जब हफ्तों तक कोई खबर न मिले तो समझ लीजिएगा कि सब ठीक ही होगा।” यहाँ जिस खबर के लेने या देने की बात हो रही है, वह आजी के जीवित अवस्था के हालचाल की नहीं है। बल्कि उनके साथ खुदा न खास्ता कुछ हो जाने पर खबर बनने की है। आजी के स्वस्थ रहने में किसी की कोई खास दिलचस्पी नहीं है। इसी तरह “एक बार हमसे अम्मा ने कहा था .... बबुआ डाक्टर नइखे अगल-बगल कौनो। बड़ी दिक्कत होखेला। कबो-कबो मन ठीक ना लागेला त बुझाला ना केकरा से देखाईं, कहाँ जाईं। वो तो खैर अम्मा चाहती थीं मैं ही आ जाया करूँ हफ्ते दो हफ्ते में। ऐसा मुमकिन कैसे होता, आप ही बताइए भैया।” छोटे पुत्र का यह कथन अम्मा की अपने पुत्र से आकांक्षा को कम व्यक्त करता है बल्कि अम्मा की इच्छा को पूरा न कर पाने के समर्थन में तर्कसंगति प्रस्तुत करते हुए पात्र की मनोवृत्ति का परिचय अधिक देता है। इसी तरह आजी के मरने पर दुख अथवा शोक कहीं नहीं दिखता। कहानी में इसे गम्भीरता के आवरण से ढक दबे स्वर में हर्ष की अभिलाषा और सबसे मिल पाने के लिए गेट टुगेदर का उल्लास अधिक दिखता है।

कहानी में मुख्य चरित्र दो हैं। पहला आजी का जिसके बारे में काफी कुछ व्यक्त किया जा चुका है। दूसरा चरित्र है शाश्वती का। यह एक नासमझ और बाल सुलभ बालिका है जो बात की बारीकियाँ नहीं समझती है। उसे यह सब कुछ कौतूहल सा लगता है। वह अपने बालमन से घटित होने वाली घटनाओं का विश्लेषण करती रहती है। उसे उत्साह है सबसे मिलने जुलने का। लेकिन ग्यारहवें पैरा की उक्ति – “बल्कि कभी कभी उसे लगता कि यह बात उसके ममा पापा की समझ के बाहर थी” – उसके बालमन के स्तर के विपरीत वक्रोक्ति सी प्रतीत होती है। तीसरा चरित्र वाचक का है जो परिपक्व है और जिसकी पूरे घटनाक्रम पर सजग व तटस्थ दृष्टि है। वह शायद शाश्वती का भाई या बहन हो सकता है। शेष चरित्र प्रसंग में आए हैं और अपनी उपयोगिता का निर्वाह करते हैं।

कथा में बहुत कुछ स्पष्ट है। लेकिन आजी का अपने गाँव में बसने का आग्रह और परिवार द्वारा उनकी इस प्रकार उपेक्षा करना कि पंद्रह वर्षों तक बेटियाँ और नाती पोते भी उनसे मिलने न आएँ, वह भी बिना किसी ठोस कारण के, कुछ सहज प्रतीत नहीं होता। भारतीय समाज में पुत्रों की अपने माता-पिता से मर्यादित दूरी बन जाना अस्वाभाविक नहीं लेकिन बेटियों का लगाव अपनी माँ के प्रति निरपवाद होता है। अतः सम्पन्न बेटियों का विदेश में रहना इतनी बड़ी लाचारी नहीं कि वे अपनी माँ से पंद्रह वर्ष तक मिलने का समय ही न निकाल पाएं और भाइयों से ही खबर लेती रहें। ऐसा नहीं कि वे इन पन्द्रह वर्षों में अपने देश में न आई हों। अतः माँ से मिलने न जाना नियोजित ही रहा होगा। यहाँ लेखिका की दृष्टि ईषत शिथिल रही है। हाँ, यह अवश्य सम्भव होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी जीवन पद्धति अथवा जीवन दर्शन को अपनाता है। जैसै यहाँ आजी का है अथवा बेटों का है या बहुओं का है। सबके अपने-अपने रास्ते बन जाते हैं। यह कहना कठिन होता है कि कौन सही है अथवा कौन गलत। क्योंकि अपने दर्शन के अनुसार सभी अपनी-अपनी जगह सही हैं। अस्तु यह कथा इस विन्दु पर आकर मौन हो जाती है या यों कहें कि एक अनुत्तरित प्रश्न छोड़ जाती है। तथापि समेकित रूप में यह कथा बहुत ही संतुलित और परिपक्व कथा है जिसकी व्यंजना व्यापक और हृदय स्पर्शी है।

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बुधवार, 23 मार्च 2011

देसिल बयना – 73 : भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस रही पगुराय

देसिल बयना – 73 : भैंस के आगे बीन बजाए…Keshav

-- करण समस्तीपुर

“ए मिसिरजी तू तऽ बारु बड़ा ठंडा.... !” हा...हा...हा.....हा.... का लचकदार ठुमका है ! एकदम से सोनपुर मेला वाला थेटर याद आ गया। सच्चे में ई कम्पूटरवा भी कमाल का चीज है। गाना-विडियो सब चला देता है। घर रहो या दूर रहो... मुम्बई या बंगलूर रहो... सात समुंदर पार भी... बस एक बार क्लिक करो और लहरिया लूटो ए राजा............ !

गाना देखते-सुनते अपने गांव के फ़गुनी मिसिर याद आ गये। “ए मिसिरजी.... तु तऽ बारु बड़ा ठंडा.....!” मिसिरजी सच में बड़ा ठंडा थे... गीत वाला ठंडा नहीं रीत वाला.... एकदम कूल। सब कुछ ठंडा दिमाग से सोचते थे। रेवाखंड के चौहद्दी में उनके जोर का पंडित नहीं था। हमरे बाबा बताते थे, फ़गुनी मिसिर थे तो लिख लोहा पढ पत्थर लेकिन उनके बुद्धियारी का किस्सा दूर-दूर तक प्रचलित था। गांव-जवार में जौन कोई समस्या हो, फ़गुनी मिसिर चुटकी बजाते हल कर देते थे। भूत-परेत, सांप-छुछूंदर, बाय़ु विकार, अधकपारी के झार हो कि पचनौल की गोली-आंवला का सत्त... पोथी-पतरा... खेती-पथारी... फ़गुनी मिसिर कने चले जाओ। सब काम चोखा।

आदमी तो आदमी माल-मवेशी की भी भाषा बूझते थे मिसिरजी। कुक्कुर घर के पिछवारी में मुंह उठा के ऊं...ऊं... कर रहा है... जरूर अनिष्ट का लक्षण है। बकरी बांया दिश मुंह कर के जुगाली कर रही है.... ओ... इहां तो भारी चुगली दिख रही है। मिसिरजी ऐसे ही पशु-पक्षियों की भाव-भंगिमाओं का रहस्य भी आँख बंद करके बता देते थे। सगरे परगना में उनका बहुत आदर था।

एगो कहावत है, रमता जोगी-बहता पानी। ई दोनो का कोई ठौर-ठिकाना नहीं है। कहीं से कहीं पहुंच जाय। ऐसेही एक दिन रेवाखंड में एगो बसुरिया बाबा पहुंच गये। गेरुआ वस्त्र, कांधे में लंबी झोली, बड़ी-बड़ी भंगियाई आँखे, कमर में खूब मोटगर, गज भर के बंसुरी बांधे हुए और एगो छोटकी बांसुरी पर “मोर भंगिया के मनाय दे हो भैरोनाथ...” की धुन टेरते हुए रेवाखंड के गली-गली में घुमते रहे। बाबा खुद को काशी के घोटन महराज का शिष्य बता रहे थे। कहते थे संगीत में अभियो उ शक्ति है कि दीप जल जाये, झमाझम मेघ बरसने लगे, फूल खिल जाये। कमी है तो सिरिफ़ सच्चे साधक की। उनका दावा था कि उ बांसुरी पर राग मियां-मल्हार टेर के चौकीदार को भी सुला सकते हैं और भैरवी से बोरी भर भांग खाके सोया हुआ नशेरी को भी जगा सकते हैं। संगीत में सभी रोगों का इलाज है। आदमी ही नहीं पशु-पक्षी, पेड़-पौधे भी संगीत का आनंद लेते हैं।

दहकन झा फ़गुनी मिसिर से खार खाये रहते थे। झाजी अपना भर जुगार तो खूब बैठाते थे। मगर फ़गुनी मिसिर की चलाकी का काट नहीं ढूंढ पाये थे। बंसुरिया बाबा का दावा सुन उनकी आँखे चमक उठी। दंडवत करके बाबाजी को अपनी कुटिया पर ले आये। वहीं ओसारे पर बाबाजी का आसन लग गया। झाजी सिर्फ़ पंडिताइन को बाबा की महिमा सुनाए थे। अगले ही दिन से अपने आप पूरा गांव में प्रचार हो गया। दहकन झा के द्वार पर काशी के बंसुरिया बाबा आये हैं। पकिया जोगी हैं। बांसुरी के एक फूंक में कौनो समस्या सुलझा देते हैं।

अगले दिन मिसराइन मिसिरजी से बतिया रही थी, “आप उ टोला नहीं जाइएगा। दहकनमा पता नहीं कौन जनम का बैर साधे बैठा है। कौनो जोगी-मशानी को बैठा लिया है, आपही से बदला लेने के लिये।“ मिसिरजी मिसराइन को प्रेम से दुत्कारते हुए बोले थे, “धुर्र बुरबक... औरत जात महाडरपोक.. अरे काशी के रहे कि मथुरा के... फ़गुनी मिसिर के आगे कैसन-कैसन पंडित खंडित, ज्योतिषी जोकटी और जोगी भोगी हो गये... ! देखते हैं ई दहकनमा का मौसा कितना दिन टिकता है।" मिसिरजी बेपरवाह चंदन-टीका झार के निकल गये थे।

धीरे-धीरे फ़गुनी मिसिर का यजमान दहकन झा के घर तरफ़ मुड़ने लगा तो मिसिरजी को चिंता हुई। अब मिसिरबुद्धी लगाना ही पड़ेगा। मिसिरजी हाट-चौपाल, डीह-दरबार सब में लगे कहने, “जैसने दहकन झा डपोरशंख है वैसने उ ठग जोगी। पाखंडी है...सौ झूठा का एक झूठा...।" इधर पनघट-पोखर, आंगन-दलान का मोर्चा मिसराइन के हाथ में था।


होते-होते बात एक दिन इहां तक पहुंच गयी कि आखिर काहे नहीं फ़गुनी मिसिर बंसुरिया बाबा से आमने-सामने कर लेते हैं। मंगल के सांझ में ब्रह्म थान में चौपाल बैठा। मिसिरजी का दावा कि उ पशु-पक्षी का भाषा और भाव समझते हैं और बंसुरिया बाबा का दावा कि पशु-पक्षी भी उनके संगीत को समझते हैं। मिसिरजी अपनी विद्या के पक्ष में तर्क और उदाहरण दिये। बोले हम कोई जादुगर या सर्कस के मदारी नहीं हैं। आज तक जो भी किये हैं गांव-समाज की भलाई के लिये किये हैं। आप-सब लोग हमरी विद्या के साक्षी हैं।


बंसुरिया बाबा बोले, “संगीत की शक्ति भी किसी से छिपी नहीं है। आज भी बादलराग पे जंगल में मोर नाच उठते हैं। हवा के ताल पर पेड़-पौधे तक झूमने लगते हैं....!” मिसिरजी बाबा के प्रलाप को बीच में ही काटते हुए बोले, “ई कवित्त काढना छोड़िये... जंगल-मंगल का बात क्या करते हैं....? अगर आपको भी अपनी बांसुरी पर उतना ही भरोसा है तो इहां दिखा दीजिये... हम भी तो देखें कि कौन पशु-पक्षी आपका संगीत पर नाचता है। हाथ कंगन को आरसी क्या...? क्यों सरपंच बाबू...?”


सरपंच बाबू के हां में सर हिलाते ही बंसुरिया बाबा भी चुनौती स्वीकार कर लिये। झोली से एक गोली निकाले और हर-हर महादेव का उद्घोष कर गटक के उपर से कमंडल का पानी गरगरा दिये। फिर हुंकार कर बोले, “बोलो किस पशु-पक्षी पर आजमाईश करनी है?”

अगल-बगल में नजर दौड़ाए पर सबसे पहिले दिखी बुद्दर दास की भुल्ली भैंस। मिसिरजी मुस्कुराते हुए हाथ से इशारा किये, “यही रही...!” फिर सरपंच बाबू के हुकुम पर बुद्दर दास भैंस को लाके पीपल के जड़ में बांध दिया। भैंस सानी-पानी खाकर एकदम टुन्न थी। आराम से बैठकर 'फूं-फां’ करने लगी। फ़गुनी मिसिर चुपचाप थे लेकिन दहकन झा मुंछ पर ताव दे रहे थे।


बंसुरिया बाबा एक बार सिर को सहला कर बोले, “बोलो बाबा घोटन महराज की जय” और बांसुरी को होठों से लगा कर भैंस के सामने बैठ गये। एक राग टेरे। फिर दूसरा... फिर तीसरा...! मगर भैंस तो कान तक नहीं हिलाई। अब दहकन झा के मूंछों के ताव ढीले पर रहे थे और फ़गुनी मिसिर के होंठ फैले जा रहे थे। सहसा बंसुरिया बाबा ठमककर बोले, “तेरी जात के मच्छर काटे.... ई ससुरी भैंस की चमरी ही मोटी होती है... बांसुरी की मीठी आवाज़ क्या समझेगी ? इसके लिये तो बीन निकालना पड़ेगा... !”


बाबाजी पलट के अपनी झोली से बीन निकाल लिये। दहकन झा की बुझ रही आँखों में फिर से चमक लौट गयी तो फ़गुनी मिसिर फूट पड़े, “अरे बांसुरी और बीन का करेगा... असर संगीत में ना होना चाहिये... काहे झूठे-मूठे भैंसिया को तबाह कर रहे हैं... ? पूरा रेवाखंड देख लिया आपकी बाजीगरी। अब अपना बोरिया-बिस्तर समेटिये और काशी का रस्ता नापिये।" मगर सकल सभा के आग्रह पर बाबा भैंस के सामने घुमा-घुमा कर बीन बजाने लगे। ठीक उसी तरह जैसे सपेरा सब सांप के आगे बजाता है, “मन डोले... मेरा तन डोले... पींईंईंईंईंईंईं....!”

बीच में भैंस एकाध बार कान पटपटाई तो बाबाजी और गाल फूला-फूला कर बीन को पोपियाने लगे। दहकन झा भी गीध के तरह गरदन उठा कर चारों तरफ़ देखे थे। “पीं...पीं... पींईंईंईंईंईंईं.....!” बाबाजी आधे घंटे तक बीन बजा-बजा के घाम-पसीना से नहा गये मगर भैंसिया काहे एक बार पूंछ भी हिलायेगी...? बेचारे बाबाजी इधर बीन बजाते रहे और भैंस उधर मुंह घुमा कर पांगुर (जुगाली) करती रही। अंत में बाबाजी थक कर उठ गये। सभा फ़गुनी मिसिर का फिर से गुणगान कर उठी तो मिसिरजी की खुशी छलक पड़ी, “हा..हा...हा... पशु-पक्षी भी ठग बाबा का संगीत समझते हैं....। बांसुरी से हारे तो आए बीन लेके पशु को नचाने। 'भैंस के आगे बीन बजाए और भैंस रही पगुराय’। बेचारे बाबाजी भैंस के आगे बीन बजाते-बजाते घाम-पसीने होगये और भैंस आराम से पांगुर करती रही।

रेवाखंड में एक बार फिर फ़गुनी मिसिर का लोहा माना गया। मिसिरजी का नाम फ़गुनी नहीं महागुणी होना चाहिये। मिसिरजी भी कलेजा फूलाकर घर लौटे। रात को मिसराइन प्यार से गोरस-भात परोस कर पंखा झलते हुए सगर्व बोली थी, “उ जोगड़ा सच्चे में भारी झूठा था ना...?” मिसिरजी बोले, “झूठा था कि सच्चा सो तो राम जाने मगर हम एतना ही कह सकते हैं कि ससुर अव्वल दर्जा का बेवकूफ़ था।”

मिसराइन कनिक सहमकर बोली, “तो आप रिस्क काहे लिये...? कहीं भैंसिया नाचने लगती तो...?” मिसिरजी फिर से बोले थे, “धुर्र बुरबक...! तुम भी उसी पोंगापंथी बाबाजी की बहिन लगती हो...! अरे बीन के धुन पर नागिन नाचती है भैंस नहीं। मतलब कि कोई भी विद्या या कला सुपात्र पर ही प्रभावी होती है। कुपात्र के सामने सारी विद्या का घड़ीघंट बज जाता है। घी आग में डालने से न ज्वाला फेंकता है... गोबर में घी डाल दोगी तो उससे क्या... घी की बरबादिये है न... ! यही उ बुद्धु बाबाजी किहिस... “भैंस के आगे बीन बजाए तो भैंस रही पगुराय!” मिसिरजी प्रवचन समाप्त कर आज चैन से भोग लगाने लगे।

सोमवार, 21 मार्च 2011

लघु कथा : दूसरी गलती

लघुकथा : दूसरी गलती

-- सत्येन्द्र झा


साइकिल कार से सट गयी थी। कार को तो कुछ नहीं हुआ मगर साइकिल के परखच्चे उड़ गए थे। साइकिल की यह पहली गलती थी कि उसे उसकी औकात याद नहीं रही।


टूटी हुई साइकिल जाने लगी न्याय के लिए। यह उसकी दूसरी गलती थी।


(मूल कथा मैथिली में "अहींकें कहै छी" में संकलित 'दोसर गलती' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)

हार गया मन

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IMG_0867मनोज कुमार

महँगाई के डर से

        आशाएँ दुबक गईं

                गहरे अंधकूप में।

 

सूई सी चुभन लिए

        कटखनी हवाएं हैं

                हरजाई रूप में।

सरदी में जमता है

धमनियों का रक्त

        बर्फ के समान जैसे।

धूप भी इतनी सी

कृपण की जेब से

        मिला हुआ दान जैसे।

प्यार का उष्मा धन

हार गया बहका मन

        घपलों के जूप में।

नैनों की ज्योति देखे

ऐनक की देहरी से

        उम्र की परती पर।

धुंध अब सरकती है

सहम–सहम, धरे ज्यों

        शिशु पग धरती पर।

संग अपने लाती है

थोड़ी सी रोशनी

        अंजुरिन के सूप में।

बांट रहा सूरज भी

सबको किरण अपनी

        इधर आधा, उधर आधा।

छत पे हैं चाचा जी

अम्मा है आँगन में

        ओसारे पर दादा।

बैठे, अधलेटे

फैलाए पैरों को

        अलसाई धूप में।

अख़बारों की सुर्ख़ी

चाय की चुस्की

        रिश्तों की गर्मी में।

माँ के हाथ सिले

रुई के लिहाफ सी

        नेह की नर्मी में।

मीठा-मीठा रस

है आज गया बस

        प्यार के पूप में।

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रविवार, 20 मार्च 2011

आज छुट्टी है.......

आज छुट्टी है.......

आचार्य परशुराम राय

लगभग 15 दिन से मैं देख रहा हूँ सभी ब्लागर अपने-अपने ब्लाग पर फागुन के गीतों और कविताओं से ऐसे रंग खेल रहे हैं कि मैं उन्हें पढ़ते-पढ़ते भूल गया कि मुझे भारतीय काव्यशास्त्र का अगला अंक तैयार करना है। करन बाबू रोज ही किसी न किसी बहाने से आकर इस ब्लाग पर होली खेल जाते हैं। वे आजकल खट्टर पुराण का पाठ करना भूल गए हैं। महाशिवरात्रि के दिन तो उन्होंने सारी हदें तोड़ दीं। बाबा भोले नाथ के नाम पर भाँग की गोलियाँ तक बाँट गए। जब से शादी तय हुई है, दिन पर दिन होली का रंग उनपर गहराता जा रहा है। मैं भी उनकी पीठ ठोकता रहा- बच्चू, खूब होली मना ले, शादी के बाद समय मिले न मिले। वैसे मेरी हार्दिक शुभकामना है कि यावज्जिन्दगी वे ऐसे ही होली मनाते रहें। लेकिन इतना जरूर ध्यान रखें कि बिना लाइसेंस के खुलेआम इस तरह भाँग न बाँटे, अन्यथा मैं तो नहीं, लेकिन किसी का दिमाग फिर गया तो पुलिस को सूचित कर देगा और यह काफी मँहगा पड़ सकता है। आजकल भ्रष्टाचार और अन्य तमाम आरोपों से घिरी सरकार और पुलिस दोनों काफी खार खाए बैठी हैं। बस मौके की तलाश में है। मौका मिलते ही अपनी ईमानदारी का सारा सबूत एक साथ दे देंगी।

हाँ तो ब्लागर भाइयों, करन बाबू से मिली भाँग का नशा मुझे भी चढ़ गया है। अतएव थोड़ी बगावत की भावना मन में उठी कि सभी होली मना रहे हैं और मैं इधर शास्त्र-चिन्तन में लगा हुआ हूँ। इसलिए आज मैंने अपने बॉस से कहा- आज मुझे भी छुट्टी दे दीजिए, ताकि मैं भी अपने मित्रों के साथ होली मना लूँ। देखा कि वे भी थोड़ा मूड में आ गए हैं और आज अपनी उदासी पोछकर हाथ में गुलाल की पुड़िया लिए होली पर कुछ कहने के लिए उतावले हैं। हमारे बॉस बड़े ही सदय व्यक्ति हैं। बगावत करने की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने बड़ी सहृदयता से हामी भर दी- Okay, enjoy your Holi. हाँ, आपको मैं बताना भूल न जाऊँ, इसलिए पहले बता देता हूँ कि आज भारतीय काव्यशास्त्र के लेखन से मुझे छुट्टी मिल गयी है होली मनाने के लिए, केवल आज भर के लिए। अगले अंक अपने निर्धारित कार्यक्रम से आते रहेंगे।

कल दिनभर कुछ इलेक्ट्रानिक मीडियावाले यह बताने में व्यस्त दिखे कि इस पूर्णिमा का चाँद सबसे बड़ा दिखेगा और जब-जब यह बड़ा दिखता है अनर्थ होता है। जापान में हुई त्रासदी को इस परिप्रेक्ष्य में देखने का असफल प्रयास किया जा रहा था। ज्योतिषियों और वैज्ञानकों की माथाच्ची को बिना पूरी तरह सुने सूत्रधार अपनी बात जोतने में लगे रहे। अतः इस अवसर पर मैं भी अपने कुतूहल पर लगाम नहीं लगा पाया और रात में बृहच्चन्द्र का दर्शन करने के लिए छत पर चला गया। चन्द्रमा बड़ा था या नहीं, मैं अपनी आँखों से आँक तो न सका। निस्संदेह कल का चाँद मुझे बड़ा मोहक लगा और बहुत पहले, सम्भवतः सत्तर के दशक में लिखा अपना एक श्लोक याद आ गया। उसे आपलोगों के लिए यहाँ दे रहा हूँ-

वस्त्राभूषिता तव प्रभायाः निशाप्रयासाकर्षति सर्वचित्तम्।

करालवेशः त्वया बिना शिवः नाशक्नोत् प्राप्तुं हिमवान्पुत्रीम्।।

अर्थात् हे चन्द्रमा, तुम्हारी प्रभा का वस्त्र धारणकर रात बिना प्रयास के ही सबके मन को आकर्षित कर रही है। तुम्हारे बिना भगवान शिव का वेश इतना कराल होता कि माँ पार्वती को वे प्राप्त नहीं कर सकते थे।

इसके साथ ही अपने सभी पाठकों और मनोज ब्लाग के सहयोगी मित्रों को होली की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।

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मेरे छाता की यात्रा कथा और सौ जोड़ी घूरती आंखें (भाग-6 : बेचारा)

मेरे छाता की यात्रा कथा और सौ जोड़ी घूरती आंखें

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मनोज कुमार

लिंक – भाग-१ (बरसात का एक दिन) , भाग-२ (बदनसीब) , भाग-३ (नकारा) ४. नज़रिया ५. साहब की कोठी

फागुन मास आते ही वातावरण में और लोगों में एक अलग किस्म की उमंगें भर जाती हैं। उस साल, इससे मैं बे-असर रहा होऊंगा या नहीं, कह नहीं सकता। पर मेरा एकाकीपन मुझे ही सता रहा था। ‘हवा’ के साथ हुए हादसे के बारे में आपको ‘बूट पॉलिश’ वाले संस्मरण में बता ही चुका हूं। अगर याद न हो तो यहां देख सकते हैं। इस कारण से होली के प्रति मेरे मन में कोई आकर्षण रह नहीं गया था। मैंने सोच रखा था कि इस बार किसी के साथ होली नहीं खेलूंगा।

राग-रंग का यह पर्व, उल्लास और उमंग का यह त्योहार, मेरे लिए बेमानी हो गया था। स्वच्छंदता तो उनके लिए थी जिनके लिए होली खेलने के लिए कोई विशेष प्रेरणास्रोत हो। इस प्रकार के प्रेरणास्रोत का अभाव मेरे लिए तो उदासी का कारण बना हुआ था। ऐसी मानसिक अवस्था में मेरे घर में मालपुए की तैयारी चल रही थी। पर केले के बिना यह कार्यक्रम भी ठप्प पड़ा हुआ था। मुझे मां ने कहा कि मैं बाज़ार से केले ले आऊं। आदेश टालना मेरे स्वभाव में नहीं था और बाहर निकलने का मतलब था होली के हुड़दंगबाज़ों का शिकार होना। खिड़की से बाहर झांका। मोहल्ले के सारे दोस्त धूम मचाए हुए थे। चारों ओर रंग-ओ-गुलाल उड़ रहे थे, जिन्हें देख-देख कर मेरा एकाकी मन और भी सूनापन को महसूस करने लगा। केशर-मिश्रित गुलालों से वातावरण भरा हुआ था, जिन्हें देखकर निकलती हुई उषा की लालिमा बिखरने का भ्रम पैदा हो रहा था। असाधारण वेश-भूषा में लोग बाहर निकल पड़े थे। कहीं ‘बुरा न मानों होली है’ के शब्दों से वातवरण गुंजायमान था, तो कहीं ढोल की थाप पर फगुआ गाया जा रहा था। कहीं लडके-बच्चे बरजोरी टाइप की होली खेल रहे थे, तो कहीं लड़कियां-बच्चियां चोरी-चोरी टाइप की, बाग बगीचों में। कोई छत से रंग व गुलाल फेंक रहा था, तो कोई उठा-पटक वाली होली, कीचड़ से सने गड्ढे में …! कोई भाग रहा था, तो कुछ लड़के भागने वाले को पकड़ रहे थे।

बाहर निकलना ही था। मज़बूरी थी, केले जो लाने थे। एकाएक इन रंगों की बरसात से बचने का एक उपाय मुझे सूझा। बहुत दिनों से कोने में पड़े छाते को मैंने निकाला और बाज़ार की ओर चल पड़ा। किसी तरह मस्तानों की टोली से बचता-बचाता अपने मुंह को छाते से छुपाए आगे बढता जा रहा था। जब आधे से अधिक रास्ता पार कर गया तो मैं अपनी तरक़ीब और सफलता से खुश होकर अपनी पीठ ठोकता और मुस्कुराता जा रहा था। तभी पिचकारी से निकला पानी पूरे वेग से छूटता हुआ सीधे मेरे चेहरे पर आ पड़ा। छाता कोई काम नहीं आया। रंग मिश्रित लाल जल पूरे चेहरे पर फैल गया। सड़क से जा रहे युवक-युवतियों के ठहाके मेरे कानों में गूंजने लगे। कपोलों से बहता हुआ रंग पैरों तक पहुंच गया। मेरे पैरों की छाप से सड़्क भी लाल हो रही थी, पर मेरे कपोल से अधिक नहीं।

मैंने आने वाली रंग की धार के स्रोत की ओर देखा। श्वेत, पर पुराने वस्त्र में एक रमणी थी। हालाकि उसने मेरी ओर पीठ किया हुआ था, पर थोड़ा सा मुड़कर ज्यों ही उसने मेरे चेहेरे को पढकर मेरी मनःस्थिति समझने का प्रयत्न किया, मुझे उसकी एक झलक तो मिल ही गई। अरे ...! मेरे मुंह से निकला .. ‘हवा’!!!

मैंने संभलने के लिए अपना छाता हटाया और ज्यों ही चेहरे से टपक रहे लाल रंग को पोंछना शुरु किया उस रमणी ने मुट्ठी में भरे हुए गुलाल को मेरे ऊपर उछाला और दौड़ कर दूर भाग गई। इस अप्रत्याशित आक्रमण से अब न तो मैं चौंका और न ही आवेशित हुआ, बल्कि मेरे अंदर आह्लाद और उन्माद की धाराएं बह चलीं। अब उसकी गुलाल भरी मुट्ठी मेरी आंखों में समायी हुई थी और मुझे लग रहा था जैसे उसने मुझे सम्मोहित कर उन मुट्ठियों में बंद कर लिया हो। जड़वत्‌ मैं न जाने कितनी देर वहीं खड़ा रहा।

दस रुपए मिले थे केले लाने के लिए ताकि मालपुआ में डाला जाए। पर मेरा लक्ष्य तो अब उस रमणी को गुलाल से रंगने का था। इसलिए अब केले की दूकान की ओर जाने के बजाय मेरे कदम अपने आप यंत्र की तरह गुलालों की दूकान की तरफ़ मुड़ गए। गुलाल लिया, पर जल्दी में न तो दूकानदार से यह पूछने की सुध रही कि कितने के हुए और न ही छुट्टे वापस लेने की। मेरे आगे तो उसके चंचल नेत्र घूम रहे थे और मैं बेसुध सा हाथ में गुलाल का पैकेट लिए चल पड़ा अपने लक्ष्य की ओर। आती बार छाता मेरे सिर पर नहीं मेरी बाजुओं के बीच मुड़ा-तुड़ा पड़ा था।

उसे उस चौराहे पर देखा। किसी को ढूंढती उसकी निगाहों को पढा। मन में हुल्लास की तरंगों ने ज़ोर मारा। इरादा तो पक्का था ही। पर एक समस्या थी - एक हाथ से गुलाल तो लगा सकता नहीं था, और दूसरा हाथ छाते को संभालने में फंसा था। इसलिए उस चौराहे के पास पहुंच कर चहारदीवारी के सहारे छाता को टिका कर दूसरे हाथ को भी मुक्त किया।

th_Holi_1371_Frontसकुचाती और शर्माती ‘हवा’ को न तो भागते देखा और न ही उत्तेजित होते। इससे मेरा मनोबल और बढ़ा। अब तो जो गुलाल से भरे हाथ हमने पीछे छुपा रखा था, सामने किया। मेरी मुट्ठियां गुलाल से भरी थीं। ज्यों-ज्यों मैं उसके क़रीब जा रहा था मेरे क़दम लड़खड़ा रहे थे। पता नहीं यह संकोच की घुट्टी कहां से मेरे अंदर घुसती जा रही थी। गुलाल पर कसी मुट्ठियों की अंगुलियां भी कांप रही थीं। हड़बड़ाहट में मुट्ठियों से फिसल कर कुछ गुलाल सड़क पर गिर पड़े। कुछ हथेलियों में पसीने के कारण चिपक रहे थे। पर उसे वहीं खड़ी देख मेरे अंदर की लोक-लाज की बाधाएं धीरे-धीरे मिटने लगीं। मुझे तो इतना भी ध्यान नहीं था कि सड़क पर उस समय कौन-कौन थे और क्या-क्या हो रहा था? हां हदय की धड़कन का कोई जवाब नहीं था। उसे बहुत संभालते-संभालते धड़कते हृदय से हम उसके पास आए, और ज्योंहि अपना दोनों हाथ उसके कपोलों की ओर बढाया तो मुझे लगा संकोचवश उझकती हुई  उसने अपना मुंख ढंका। तभी मेरे चेहरे पर आ चुकी याचना भाव को शायद उसने पढ लिया। फिर मुस्कुराती हुई वह और भी झुकती गई । उसे झुकता देख मैं खुशी से पागल हो गया। उत्साहपूर्वक मैं आगे बढा और गुलालों पर जकड़ी अपनी मुट्ठियों की जकड़न को ढीला किया ...। पर दूसरे ही क्षण उसका सिर और नीचे गया और उसने दोनों हाथों से मेरी शिथिल होती हुई कलाइयों को ज़ोर से पकड़ा और झट से मेरे ही हाथ घुमाकर उसने ऐसा झटका मारा कि मेरे हाथों के सारे गुलाल का अधिकांश भाग मेरी आंखों में घुसा और कुछ भाग मेरे ही गालों पर।

.... और वह ठहाके लगाते भाग चली।

गुलाल भरी आंखों से मैं देखता रहा ... उस चौराहे पर की उन सौ जोड़ी आंखों को, जो मुझे घूर रहीं थीं, मानों कह रहीं हों बेचारा .... !!

शनिवार, 19 मार्च 2011

फ़ुर्सत में – होली के रंग गीतों के संग

फ़ुर्सत में – होली के रंग गीतों के संग

-- करण समस्तीपुरी

आया मधुमास। हिमगात हेमंत की मार से नीलवर्ण आकाश को मिला उजास। शीत की श्वेतिमा में मिले केसर के रंग। फूले कुसुम। गदराया सरसों। बौराये रसाल से झहरे मकरंद। सुगंध महुआ का मादक... पुनर्नवा हुई प्रकृति। लौट आया वसुंधरा का यौवन। फूटे कोयल की कूक। पपीहे की हूक। अमराई में भौंरों का गुंजार। सरसों के मुकुलित आंचल में गौरैयों की अठखेलियां.... अरुण प्रसून संभाले सेमल की फुनगी पे सुग्गों की टें-टें... सांझ-भिनसार बांस के बीट में विहग-वृंद का कलरव.... टी-बी-टी-टुट-टुट।

शरद के साहचर्य से सकुचाई धरा के बहुरे दिन। किसलय की कोमलता, काकली के गीत का माधुर्य, पुष्पों से ले पराग, ओढ़ धानी चुनर वसुधा ऋतुराज से मिलन को इतराई। मनचली बसंती हवा हरजाई.... बन अनंग के वाण। अतृप्त प्राण। आकुल आत्मा ढूंढे प्रणय के संगीत। फ़ागुन के गीत..... “पिया संग खेलो होरी...फ़ागुन आयो री...” (पूरा गीत सुनने के लिये यहां क्लिक कीजिये।)

स्वर्णिम धरा। रक्ताभ गगन। कभी मंद कभी झकझोर। पवन का हिलोर। झुमती अलसी। झांझ बजाती गेहुँ की स्वर्णाभ बालियाँ। खेत के मेड़ों पे फ़ागुनी गाये कृषक-कन्याएं – “पिया ला दे कुसुम रंग साड़ी झमाझम पानी भरूँ।“ झुक गया अरहर का तन। खिल उठे किसानों के मन। हर गली बरसाना। हर गांव वृंदावन। हर ताल सरयू। हर तलैय्या यमुना-तट। पनिहारिन गोपियां। सर पे गगरी। कैसे खेलें होरी। कृष्ण करे बलजोरी, “फ़ाग में न मानिहौं बात तोरी एक भी ! चुनरी रंगा ले गोरी, होरी साल भर पे आई है!” अह्ह्हा... सकल मनोरथ पुरे उनके, जिन देखा यह दृश्य। कालिंदी-कूल। कदंब की डार। मुरलीधर मुकुंद। टेरे राग धमार। अनुनय करे ब्रजनारी। ना माने गिरिधारी। ऐसी मारी पिचकारी... भींगी अंगिया-साड़ी। गोपियां बेचारी। कान्हा की बलिहारी। अब तो जल लेने दो मुरारी। ऐ बंदवारी.... !

भरने दे हो गागर बंदवारी.... भरने दे !

भरने दे हो गागर बंदवारी..... भरने दे !!

लाज है औरत की साड़ी लोग बोलें कुछ हम नहीं !

ऐ मेरे ब्रजराज मोहन, है तुझे कुछ गम नहीं !!

लहंगा-साड़ी लाज हमारी....

मत मारो रंग पिचकारी....... हो-हो मत मारो रंग पिचकारी.... भरने दे.... !

भरने दे हो गागर बंदवारी.... भरने दे !!

हूँ भला मानुस सदा, होशियार और बुद्धियार हूँ !

जानता हूँ सब मगर इस फाग भर लाचार हूँ !!

नंद-छैल जग में जस तेरो.....

हो फैल रही है है उजियारी........ हो-हो फैल रही है उजियारी.... भरने दे... !

भरने दे हो गागर बंदवारी.... भरने दे !!

जानकर अनजान पनघट पर हो बनते क्यों लला ?

द्रौपदी की लाज रखी थी, बताओ क्यों भला ??

बात तेरी सत्य है ब्रजनायिका सुन तो सही !

द्रौपदी की लाज रखी थी, मगर फ़ागुन नहीं !!

हाँ-हाँ करत रंग डारे मुरारी.....

भीजि गयी पटुकी-साड़ी...... हो-हो भीजि गये पटुकी-साड़ी.... भरने दे !

भरने दे हो गागर बंदवारी.... भरने दे !!

ऐ कन्हैया बेवफ़ा अब छोड़ दे बकवादियाँ !

देख लेंगे लोग सब, होगी नगर बदनामियाँ !!

सासु-ननद घर खोजत होइहैं....

देर भए तो दिये गारी...... हो-हो देर भए तो दिये गारी...... भरने दे !

भरने दे हो गागर बंदवारी.... भरने दे.... !!

इस प्रकार होली खेलय नंदलाल बृज में (यहां क्लिक कीजिये) और अवध में होली खेले रघुवीरा (यहां क्लिक कीजिये)। चौपाल पे फ़ागुन आयो... मस्ती लायो.... जोगीजी धीरे-धीरे.... ! (गीत का आनन्द लेने के लिये यहां क्लिक कीजिये।) ऐसे में प्रियतमा अपने प्रियतम से क्या गुहार करती है, सुनिए एक मधुर मैथिली होली गीत में। (यहाँ क्लिक कीजिये।)

रंग बरसे...! हिय हरसे.... सदा आनन्द रहे आपके द्वारे.... रंगोत्सव की सरस शुभ-कामनाएं !

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

शिवस्वरोदय-35

शिवस्वरोदय-35

आचार्य परशुराम राय

पृथिव्यां बहुपादाः स्युर्द्विपदस्तोयवायुतः।

तेजस्येव चतुस्पादो नभसा पादवर्जितः।।181।।

अन्वय – श्लोक अन्वित क्रम में है, इसलिए अन्वय नहीं दिया जा रहा है।

भावार्थ – जब स्वर में पृथ्वी तत्त्व सक्रिय हो तो अनेक कदम चलिए। जल तत्त्व और वायु तत्त्व के प्रवाह काल में दो कदम चलें तथा अग्नि तत्त्व के प्रवाहित होने पर चार कदम। किन्तु जब आकाश तत्त्व स्वर में प्रधान हो, अर्थात सक्रिय हो, तो एकदम न चलें।

English Translation - When Prithivi Tattva is active in the breath we may walk as much as we need, but when other tattvas, i.e. Jala Tattva, Vayu Tattva and Agni Tattva, are active, we may walk a little. During the appearance of Akash Tattva we avoid walking.

कुजोवह्निः रविः पृथ्वीसौरिरापः प्रकीर्तितः।

वायुस्थानास्थितो राहुर्दक्षरन्ध्रः प्रवाहकः।।182।।

अन्वय – यह स्वर भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ - सूर्य स्वर (दाहिने स्वर) में अग्नि तत्त्व के प्रवाहकाल में मंगल, पृथ्वी तत्त्व के प्रवाह काल में सूर्य (ग्रह), जल तत्त्व के प्रवाह में शनि तथा वायु तत्त्व के प्रवाह काल में राहु का निवास कहा गया है।

English Translation – Here in two verses locations of Grahas in breath have been indicated. When breath flows through right nostril and Agni Tattva appears therein, this is the place of Mars and when Prithivi Tattva appears, it is Sun. Saturn is placed in Jala Tattva, whereas Rahu in Vayu Tattva.

जलं चन्द्रो बुधः पृथ्वी गुरुर्वातः सितोSनलः।

वामनाड्यां स्थिताः सर्वे सर्वकार्येषु निश्चिताः।।183।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में ही है।

भावार्थ – पर बाएँ स्वर (इडा नाड़ी) में जल तत्त्व के प्रवाह काल में चन्द्र ग्रह, पृथ्वी तत्त्व के प्रवाह में बुध, वायु तत्त्व के प्रवाह में गुरु और अग्नि तत्त्व में शुक्र का निवास मना जाता है। उपर्युक्त अवधि में उक्त सभी ग्रह सभी कार्यों के लिए शुभ माने गये हैं। एक बात ध्यान देने की है कि यहाँ केतु का स्थान नहीं बताया गया है, पता नहीं क्यों।

English Translation – Similarly, when breath flows through left nostril and Jala Tattva appears, the Moon is placed there. If Prithivi Tattva appears therein, this the place of Murcury. Appearance of Vayu Tattva in the breath is indicated as place of Jupiter, whereas Venus is placed in Agni Tattva. The period of these Grahas according to the above position is always auspicious. Here why Ketu has been ignored is unknown.

पृथ्वीबुधो जलादिन्दुः शुक्रो वह्निरविकुजः।

वायुराहुः शनी व्योमगुरुरेव प्रकीर्तितः।।184।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – इस श्लोक में भी उपर्युक्त श्लोक की ही भाँति कुछ बातें बताई गयी हैं। इस श्लोक के अनुसार पृथ्वी तत्त्व बुध के, जल तत्त्व चन्द्र और शुक्र के, अग्नि तत्त्व सूर्य और मंगल के, वायु तत्त्व राहु और शनि के तथा आकाश तत्त्व गुरु के महत्व को निरूपित करते हैं। अर्थात इन तत्त्वों के अनुसार काम करनेवाले को यश मिलता है।

English Translation - Here in this verse also certain important informations regarding Grahas in the breath have been provided. According to this verse, Mercury in Prithivi Tattva, Moon and Venus in Jala Tattva, Sun and Mars in Agni Tattva, Rahu and Saturn in Vayu Tattva and Jupiter in Akash Tattva are always auspicious for the work. It brings name and fame to the person who works according to these Tattvas.

प्रश्वासप्रश्न आदित्ये यदि राहुर्गतोSनिले।

तदासौ चलितो ज्ञेयः स्थानांतरमपेक्षते।।185।।

आयाति वारुणे तत्त्वे तत्रैवास्ति शुभं क्षितौ।

प्रवासी पवनेSन्यत्र मृत्युरेवानले भवेत्।।186।।

अन्वय – ये दोनों श्लोक भी अन्वित क्रम में हैं। अतएव इनका भी अन्वय नहीं दिया जा रहा है। साथ ही दोनों श्लोकों में प्रश्नों से सम्बन्धित हैं। इसलिए इनका अर्थ एक साथ किया जा रहा है।

भावार्थ – यदि कोई आदमी कहीं चला गया हो और दूसरा व्यक्ति उसके बारे में प्रश्न करता है, तो स्वर और उनमें तत्त्वों के उदय के अनुसार परिणाम को जानकर सही उत्तर दिया जा सकता है। भगवान शिव कहते हैं कि दाहिना स्वर चल रहा हो, स्वर में राहु हो (अर्थात पिंगला नाड़ी में वायु तत्त्व सक्रिय हो) और प्रश्नकर्त्ता दाहिनी ओर हो, तो इसका अर्थ हुआ कि वह व्यक्ति जहाँ गया था वहाँ से किसी दूसरे स्थान के लिए प्रस्थान कर गया है। यदि प्रश्न काल में जल तत्त्व (शनि हो) सक्रिय हो, तो समझना चाहिए कि गया हुआ आदमी वापस आ जाएगा। यदि पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता के समय प्रश्न पूछा गया हो, तो समझना चाहिए कि गया हुआ व्यक्ति जहाँ भी है कुशल से है। पर प्रश्न के समय यदि स्वर में अग्नि तत्त्व (मंगल हो) का उदय हो, तो समझना चाहिए कि वह आदमी अब मर चुका है।

English Translation – If someone asks about a person who has gone some where, correct answer can be given by observing appearance of Tattvas in the breath. Suppose the questioner is in the right side, the breath is flowing through the right nostril and Rahu is placed therein (appearance of Vayu Tattva), it indicates that the person has left his earlier place and has moved some other place. In case, at the time of query Jala Tattva (Saturn’s place) is active, it indicates arrival of the individual. Appearance of Prithivi Tattva at the time of query indicates that the person is well wherever he is. But any query made during the period of Agni Tattva, it is understood that the person is no more.

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