मेरे छाता की यात्रा कथाऔरसौ जोड़ी घूरती आंखें!! |
--- --- मनोज कुमार
(भाग-२)
पिछले भाग में आपने मेरे छाता की यात्रा कथा के तहत उसके साथ बरसात का एक दिन बिताया। आपको याद दिला दूं आप मेरे साथ यहां थे ---- (लींक नीचे है)
काफी दूर पैदल चलने के बाद मुझे ख्याल आया कि मेरे हाथ में छाता है और मैं भींग रहा हूँ। पर मन के अंदर चल रहे ताप के कारण वर्षा की बूंदे काफी अच्छी लग रही थी। उस पल जिस रस में भीग रहा था, उसके कारण वर्षा में भींगना ज्यादा खुशनुमा था। पहले मेरा हाथ छाता की हैंडल पर गया उसे खोलने के लिए ... पर भींगना ही ज्यादा रूचिकर लगा।
उसके हैंडल पर हाथ मेरा टिका रहा। मुट्ठियां भिंच गई। अब मैं वही अनुभूति और आनंद महसूस कर रहा था जब उसे खरीदा था। मेरे मन मस्तिष्क पर चलचित्र की भांति उस दिन का वाकया घूम गया। अगर वह वाकया न हुआ होता तो शायद आज भी मेरे हाथ में यह छाता न होता।
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कॉलेज के शुरुआती दिन थे। जेठ की तपती दोपहरी में सिर पर छाता न हो तो चारो धाम की यात्रा हो जाती है, खासकर पैदल चलते वक़्त। पर नया-नया कॉलेज का विद्यार्थी बना था, और तब के फैशन में छात्रों द्वारा छाता रखना शुमार न था, इसलिए कभी इसकी जरूरत नहीं महसूस की। कॉलेज के कुछ महीने बीतते-बीतते सावन आ गया। बादल और वर्षा मेरे घर से महाविद्यालय की यात्रा में कुलांचे भरने लगे थे।
उस दिन पी.के. की क्लास थी। निराला पढ़ाते वक्त वो ऐसा सजीव वर्णन करते थे कि लगता था निराला स्वयं मंच से बादल राग का पाठ कर रहे हो। क्लास छूट न जाए इसलिए चाल में तेजी थी। पर क्षण भर बाद ही वर्षा की तेज धार ने ऐसा रूप दिखाया कि फुटपाथ पर एक छज्जे के नीचे शरण लेना पड़ा। ढ़ेर सारे लोग पहले से ही वहां शरण ले चुके थे। एक कोने में आधा भींगता आधा बचता मैं भी खड़ा हो गया। चंद लम्हें ही बीते होंगे कि एक नवयुवती का वर्षा का फुहार से भी तेज गति से वहां प्रवेश हुआ। वहां मौज़ूद हर कोई उसे अपने और बगल वाले के मध्य जगह खाली कर शरण देने को तैयार था। पर उसे किनारे में ही रूचि थी और मजबूरन मुझे और पीछे होना पड़ा। सावन की फुहार और सामने मृगनयनी कभी बादल और कभी वर्षा की बूंदे देखती हो तो मन मयूर तो नाचेगा ही। मेरा भी।
उसे देख कर लगा कि उसे कहीं देखा है। शायद वह कला संकाय की थी। और हम थे विज्ञान के छात्र। पर हिंदी (MIL Modern Indian Language) की क्लास साथ होती थी। अब सौ से भी अधिक विशाल छात्र-छात्राओं के समूह में मुझ अकिंचन का यह सौभाग्य कहां कि उस उर्वशी का सनिन्धय प्राप्त हो। पर आज इन्द्र देवता मुझपर कृपा कर रहे थे। स्वयं उर्वशी को अपनी सभा से मेरे सामने प्रकट कर दिया।
उसके चेहरे पर कुछ उद्घिग्नता कुछ परेशानी के भाव थे। वह रूपसी कभी घड़ी और कभी न रूकने वाली बूंदो को निहार रही थी। कुछ तलाशने का भाव लिए इधर-उधर देखती उस चंद्रमुखी की आंखें मेरी उपस्थिति को भी टटोल गई। शायद मुझे देख उसे लगा कि महाविद्यालय का सहपाठी हो सकता है – “बोली पांच मिनट बचे हैं। छाता होता तो क्लास नहीं छूटती।”
“हे भगवान ! पृथ्वी का सबसे बड़ा अपराधी मैं हूँ जो आज तक छाता नहीं खरीदा!! नहीं तो आज इस
अप्सरा का क्लास छूटने से मैं बचा सकता था !” मैंने मन-ही-मन सोचा।
तभी सड़क पर सामने से एक छात्र जो उसके साथ मेरा भी सहपाठी था, छाता लिए जा रहा था। गौरवर्णा उस कन्या के नयन सहसा उसे देख हर्षित हुए और बोली, “रोहन मुझे भी ले चलो।”
रोहन और वह चल दिए। वहां मौज़ूद सौ जोड़ी आंखे उन दोनों को जाते और ठगा सा खड़ा मुझ बदनसीब को घूरती रही। किसी अनजानी शक्ति के वशीभूत मैं कुछ देर तक वर्षा में भीगता उनका पीछा करता रहा पर कॉलेज गेट की तरफ मुड़ने के बजाय आगे बढ़ गया इस प्रण से कि अब तो छाता खरीद ही लूंगा। आज अगर छाता मेरा पास होता तो रोहन की जगह मैं होता और मेरे साथ होती उर्वशी।
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धर्मतल्ला की सड़कों पर बारिश में भींगते भींगते मेरा हाथ छाता की मूठ पर कसता चला गया।
मेरे छाता की यात्रा कथा काफी लंबी है पर इसके हर पड़ाव पर मैंने सौ जोड़ी आंखो को मुझे घूरता पाया है।
आपके छाते की यात्रा-कथा बहुत शुभ रही!
जवाब देंहटाएंहमरे यहाँ बारिश आ गई है
और छाते निकल आये हैं!
वाह क्या छाता पुराण है पिछली पोस्ट का लिन्क नही मिला नही तो पढ लेती। बहुत अच्छी लगी अब छाता हमेशा साथ रखियेगा क्या पता कोई--- शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंछाते की कहानी तो बड़ी रोचक जोरदार लगी ....आभार
जवाब देंहटाएंDono hi ankon mein lekhak ke bhagya par taras aya. Pichhale ank ke kram mein yah ank bada hi swabhavik aur chamatkrit karane wala laga. Yah ank pichhale ank se adhik rochak hai.
जवाब देंहटाएंDono hi ankon mein lekhak ke bhagya par taras aya. Pichhale ank ke kram mein yah ank bada hi swabhavik aur chamatkrit karane wala laga. Yah ank pichhale ank se adhik rochak hai.
जवाब देंहटाएंसबके भाग्य अलग अलग होते है.
जवाब देंहटाएंआपका सन्स्मरण अच्छा लगा.
छाता की गाथा अच्छी लगी . आगे भी इस तरह का वर्णन प्रस्तुत करते रहिएगा.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर जी, कभी हमारे यहां बरसात मै भीग कर दिखाओ तो माने
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी यह पोस्ट... अब पूरी कड़ियाँ फिर से पढ़ता हूँ.....
जवाब देंहटाएंआपके छाता की कथा बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंछाते की कहानी तो बड़ी रोचक जोरदार लगी !
जवाब देंहटाएंछाते की यात्रा-कथा बहुत शुभ रही!
जवाब देंहटाएंJAI HO :)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और रोचक!
जवाब देंहटाएंछाता खरीदने की प्रेरणा से लेकर उम्मीदों के बारिस में धुलने तक हास्य की गुदगुदी। सुंदर पोस्ट। बधाई। छतरी कथा के आगामी अंकों की प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंनिराला पढ़ाते वक्त वो ऐसा सजीव वर्णन करते थे कि लगता था निराला स्वयं मंच से बादल राग का पाठ कर रहे हो।
जवाब देंहटाएंआज कहाँ मिलते हैं ऐसे अध्यापक जो कवि के चरित्र में घुल जायें ।
छाता संस्मरण बहुत रोचक लगा...अफ़सोस हुआ कि उर्वशी को रोहन ले गया...
जवाब देंहटाएंआपका दास्तान पढ़ कर हृदय से अनुनय के स्वर निकल पड़े,
जवाब देंहटाएंहे गजवदन षडानन माता !
बरसे बारिस दे दो छाता !!
जीवंत लेखन.... ! इतना जीवंत कि पारिवारिक जीवन के लिए संकट..... ? फिर से पाठकों को संस्मरण का भ्रम हो रहा है... !!!
आ गया है ब्लॉग संकलन का नया अवतार: हमारीवाणी.कॉम
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लॉग लिखने वाले लेखकों के लिए खुशखबरी!
ब्लॉग जगत के लिए हमारीवाणी नाम से एकदम नया और अद्भुत ब्लॉग संकलक बनकर तैयार है। इस ब्लॉग संकलक के द्वारा हिंदी ब्लॉग लेखन को एक नई सोच के साथ प्रोत्साहित करने के योजना है। इसमें सबसे अहम् बात तो यह है की यह ब्लॉग लेखकों का अपना ब्लॉग संकलक होगा।
http://hamarivani.blogspot.com
छाते की कहानी तो बड़ी रोचक जोरदार लगी ....आभार!
जवाब देंहटाएंकमाल की भाषा शैली और गज़ब का प्रवाह ..पढते समय पुरे वक्त होंटों पर मुस्कान पसरी रहती है,इससे पहले की किश्त पढ़े बिना रहा नहीं जा रहा ..पहले वो पढकर आते हैं.
जवाब देंहटाएंआपकी शैली बहुत रोचक है!
जवाब देंहटाएं--
आनंद आ गया पढ़कर!