त्याग पत्र -35
पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, 'कैसे रामदुलारी तमाम विरोध और विषमताओंकेबावजूद पटना आकर स्नातकोत्तर तक पढाई करती है। बिहार के साहित्यिक गलियारे मेंउसका दखल शुरू ही होता
धीरे-धीरे इसी तरह समय बीतता गया। रामदुलारी अपनी पढ़ाई की भूख मिटाती रही। कुछ और महीनों के बाद एक पुत्र की मां भी बन गई। बांके के न चाहने के बावजूद भी उसने शिक्षिका की नौकरी स्थानीय स्कूल में हासिल कर लिया था। उसकी जीवन चर्या बदल चुकी थी। उसका बच्चा प्रायः राधोपुर बाबू-मैय्या के पास ही रहता था। स्कूल और पढाई की जिम्मेदारियों के निर्वाह में बच्चे को उचित समय न दे पाती थी, इस लिए दिल पर पत्थर रखकर उसने यह निर्णय लिया था।
अभियंताओं की जिंदगी भी इधर-उधर भटकन भरी होती है। खास कर जब किसी विशेष परियोजना पर काम चल रहा हो तो। बांके को महीने-दो-महीने के लिए शहर से बाहर रहना होता था। इन दिनों रामदुलारी उसकी प्रतीक्षा में घुलती रहती थी। उसका मन मुरझाया रहता था। लेकिन बांके के आते ही उसके स्नेहहीन व्यवहार से मन के प्रसून सूख ही जाते थे। उसे लगता बांके उसके जीवन सरिता की अबाध गति से बहती स्वच्छंद धारा को कुण्ठित कर अंध-कूप बना देना चाहता था। दो मीठे बोल की प्यासी रामदुलारी के वियोग की तड़प और बढ़ जाती थी।
“महीने बाद आए हो, दो मीठे बोल नहीं बोल सकते।”
“तुम्हें ही मेरा आना नहीं सुहाता। साइट पर शरीर-तोड़ परिश्रम के बाद घर में शांति की शीतल छाया चाहता हूँ, तुम्हारी शिकायतों का पुलंदा नहीं चाहिए मुझे।”
“मैं अकेली यहां तरह-तरह के दुःख-तकलीफ झेलती हूँ। तुम्हें नहीं कहूँगी, तो किसे कहूँगी………?”
रामदुलारी फूट-फूट कर रो पड़ती। “जब देखो तब रो-रो कर मेरा सर खाने लगती हो तुम। यदि यहां का अकेला प्रवास तुम्हें भारी पड़ता हो तो चलो मेरे साथ वहीं साइट पर ही रहना।”
“तुम जानते हो मैं यहां अपना काम छोड़कर नहीं जा सकती। स्कूल खुले हैं।”
“तुम्हें काम करने को कौन कहता है? छोड़ दो नौकरी।”
“तुम चाहते ही हो को मैं तुम्हारी इच्छानुसार ही चलूँ। मेरा अपना अस्तित्व है। मेरे अपने विचार भी हैं।”
विचारों की टकराहट, अंतरबोध का संघर्ष चलता ही रहा। इस टकराहट को विराम देने के लिए बांके ने निर्णयात्मक स्वर दिया, “जानती हो तुम किससे बात कर रही हो? मैं तुम्हारा पति हूँ। मेरी इच्छा के बाहर तुम्हारा कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।”
“तुमने मेरी सांसो पर भी पहरा बिठा रखा है। ऐसा करो, वैसा मत करो। मानों मैं तुम्हारी अर्द्धांगिनी नहीं, यंत्र-चलित मशीन हूँ, जिसका रिमोट तुम्हारे हाथ में हो।”
रामदुलारी आस लगाए रहती कि कभी तो बांके में परिवर्तन आएगा। सारी तकरार के बाद वह चुप हो जाती। मन के गहनतम अंधेरे में क्षीण-सी ज्योति की किरण बची रहती। शायद बांके के हृदय में कभी पश्चाताप की आभा फूटे। पर वह प्रभात कभी नहीं आया। क्या वह स्वयं में परिवर्तन करे? क्या उन सिद्धांतों की तिलांजलि दे जो नारी स्वातंत्र्य के नाम पर उसने बुन रखें हैं? क्या वो एक जाल नहीं बुनचुकी है अपने ईर्द-गिर्द? मकड़ी की तरह। अब उससे निकलना संभव नहीं है उसके लिए।
रामदुलारी सोचती नारियों का जीवन कैसा होता है? सदैव किसी आश्रय पर निर्भर। एक आंगन में पलती है, बढ़ती है। वह नन्हा पौधा जब बड़ा होता है, अपनी जड़े जमाना आरंभ करता कि जड़ सहित उखाड़कर दूसरे स्थान पर उसका वृक्षारोपण कर दिया जाता है। लेकिन कोई भी वृक्ष दूसरे स्थान पर लगाए जाने पर वहां पहले स्थान की तरह फल-फूल नहीं दे पाता। उसी तरह तो नारी जीवन भी है। जीवन तो कटता रहता है, परंतु मन न जाने कहीं और भटकता रहता है। किसी और तलाश में। किसी और दुनियां में।
एक बार तो बांके ने टोक भी दिया था, “ये तुम कहां खोई रहती हो? क्या सोचती रहती हो?”
“यह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा ।” रामदुलारी जवाब दिया था।
“अपनी बात तो केवल तुम्ही समझती हो। मुझे क्यों समझने दोगी?” …..बांके का स्वर रूखा हो गया,….. “जो स्वयं उचित समझो करो। मुझे क्या लेना-देना?” बांके चला गया।
पर रामदुलारी क्या करे? वह कहां जाए? ये परिवार, ये बच्च। क्या इन सबों को छोड़ पाएगी वह? जिसे वह पाना चाहती है वह मुक्ति संभव नहीं है। इनकी बात मानने के अलावा चारा ही क्या है? ….. गृहस्थी ने तो पैरों में बेड़िया डाल दी है। आठ से पांच की नौकरी करते, गृहस्थी, सास-ससूर, पति-देवर, बाल बच्चों के दायित्वों को निबाहते हुए, बच्चों का लालन-पालन, पति को प्यार-मनुहार करते हुए, पति, सास, ससुर के आदेश मानते हुए, जीवन के सभी दुःख सुख के बीच इसी तरह जीवन जब गुजारना ही है तो ……संघर्ष क्यों?
धारावाहिक बहुत ही रोचक और सन्देशप्रद रहा!
जवाब देंहटाएंपिछली किश्तें नही पढ सकी इस लिये क्या कहूँ ये भाग अच्छा लगा। धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंअबला जीवन हाये तेरी यही कहानी !
जवाब देंहटाएंआँचल में है दूध और आँखों में पानी !!
स्त्री जग में स्वच्छान्द्चारिणी, कभी न यश पाती है !
तरुवर के आश्रित होकर ही लतिका रस पाती है !!
नारी निकले तो असती है !
नर यति कहा कर चल निकले !!
कई पंक्तियाँ मानस पटल पर तैर गयी. त्यागपत्र निर्णायक दिशा में जाता हुआ लग रहा है. धन्यवाद !
धारावाहिक बहुत ही रोचक और सन्देशप्रद रहा!
जवाब देंहटाएंये भाग अच्छा लगा। धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी क इंतज़ार है।
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