आपने पढ़ा, रामदुलारी का पटना आना। रुचिरा, समीर और प्रकाश से मित्रता। स्नातक, स्नातकोत्तर के बाद हिंदी में शोध जारी। गाँव में रामदुलारी के किसी पुरुष के साथ अन्तरंग सम्बन्ध होने के अफवाह। पुष्टि के लिए घर वालों का रामदुलारी को शिवरात्री के बहाने गाँव बुलाना। अब आगे पढ़िए !!!
-- करण समस्तीपुरी
'धा...... डिगा.....धिरकित........ धिन..... धिन....... धा........ ! होली खेले शिव ससुराल फागुन फाग मचे.......!!' रात भर खेलावन मल्लिक की मंडली का झमकौआ कीर्तन चलता रहा। मल्लिक जी बीच-बीच में रूपक भी दे रहे थे। रामदुलारी मैय्या के अंक में सिर रखे सुनाती रही। मैय्या बरसों बाद अपनी लाडली कुंचित केशों में अंगुलियाँ घुमा रही थी। मृदंग के ताल पर ही मैय्या की अंगुली भी सड़क रही थी। रामदुलारी एक चिरपरिचित सुकून का अनुभव कर रही थी। कई बार मैय्या ने रामदुलारी से कुछ कहने का प्रयास किया.......... किन्तु निष्फल। ऐन मौके पर मंदिर से मृदंग की तेज थाप उठ कर दोनों माँ बेटी को विस्मृत कर देती थी।
पता नहीं रात में कब आँख लगी। सुबह संख की आवाज़ रामदुलारी की अलसाई पलकों की परत भेदने में कामयाब रही। बड़े से आग के गोला की तरह दिनमान पूर्वोत्तर शिखर पर आसीन हो चुके थे। छिट-पुट घिर आये बादलों को चीर कर आ रही पिली किरणों में चमकती उरहुल की घनी झारियों में गोरैय्या अपने बच्चों के मुँह में दाने डाल रही थी। रामदुलारी की नजर फिर बिस्तर पर गयी। मैय्या बाजू में नहीं थी। तो क्या आज बाबा ने पराती नहीं गाया या फिर मंदिर के शोर में बाबा की बृद्ध आवाज़ दब कर रह गयी ?
वह उठ कर सीधा बाबा के कमरे में पहुंची। बाबा अपनी चौकी पर कम्बल ओढ़े चुकु-मुकु बैठे थे। चाय का बड़ा ग्लास खाली हो चुका था। बाबा ने कुरते की जेब से चश्मा निकला और सन्दूकचे पर रखा 'कल्याण' के पन्ने पलटने लगे। आश्चर्य !! बाबा ने रामदुलारी को देखा तो जरूर था, पर आज भी पास बैठने के लिए नहीं कहा। रामदुलारी चौकी के एक कोने पर बैठ गयी। उसकी अपलक दृष्टि बाबा पर जमी थी और बाबा की दृष्टि कल्याण पर। रामदुलारी ने ही हिम्मत किया था, "बाबा !" 'ले कल्याण पढ़', बाबा ने एक पृष्ठ निकाल कर रामदुलारी के सामने रख दिया। रामचरित मानस का विश्वमोहिनी प्रसंग। नारद मोह संवाद। 'कुपथ मांग रुज व्याकुल रोगी। वैद न देहि सुनहूँ मुनि जोगी॥' रामदुलारी कल्याण में उसकी व्याख्या पढ़ कर बाबा को सुनाने लगी। पता नहीं उसने बाबा का उद्देश्य समझा था या नहीं लेकिन उसके मन में कुछ शंका होने लगी।
दोपहर में मंदिर पर डरोरी वाले व्यास जी का प्रवचन कीर्तन है। अह्हा.... लगता है, व्यास जी की मंडली पहुँच गयी है। 'सा...सा...सा...सा...नि...ध...नि...ध....प...म...प......... ना...धिर.....धिन्ना...ता...धिर.... धिन्ना.....!' हारमोनियम और ढोलक का सम मिलाया जा रहा है। बीच-बीच में व्यासजी का झाल भी बोलता है, 'ता........तिरकितता......ता.....तिरकितता।'
मैय्या तैयार होकर खड़ी है। एक हाथ में पीतल का छोटा सा लोटा और लोटे में गंगा-जल है। दुसरे में फूल की डाली है। धतूरे के लम्बे-सफ़ेद फूल दूर से ही दुसेलिया टॉर्च की तरह चमक रहे हैं। छोटकी चाही भी हाथों में पारवती की 'खोइंछा-भराई' का थाल ले के आ गयी है। मंदिर में शिवजी का अभिषेक और मैय्या पारवती की खोइंछा भराई कर व्यास जी से शिव-विवाह कीर्तन सुनेंगे। रामदुलारी भी साथ जाती है।
प्रवचन शुरू है। व्यासजी कहते हैं, 'पर्वतराज को कन्यादान की चिंता है। पारवती को उसके रूप और गुणों के अनुरूप वर मिलेगा या नहीं... ? भाई, मां-बाप का सबसे बड़ा सपना साकार तब होता है जब वह कन्यादान कर देता है। अब पार्वती के भी हाथ पीले हो जाएं तो हमारा बैतरणी पार हो।” मैय्या ने कनखी से रामदुलारी को देखा था लेकिन पता नहीं वह कहाँ खोई हुई थी।
प्रवचन जारी है। व्यासजी कह रहे हैं, 'जोगी, जटिल, अकाम, नग्न और अमंगल वेश वाला -- इस कन्या का पति होगा। नारद ने बता दिया। वर के सभी गुण 'शिव' में हैं।' मैय्या कर जोर कर भाल में सटा सिर झुकाती है। रामदुलारी के चित्त में सहसा प्रकाश की मनोहारी मूर्ति कौंध जाती है।
बीच-बीच में कीर्तन-भजन भी चल रहा है। व्यासजी झाल के चोट पर सोहर की तान छोड़ते हैं, 'गौरी कठिन प्रण ठानल..... !' फिर प्रवचन, 'सप्तऋषि परीक्षा लेते हैं पार्वती की। 'नारद सिख जे सुनहि नर-नारी। अवसि होहि तजि भवन भिखारी॥ आप हमारी सीख मानो। 'सहज एकाकिंह के भवन, कबहुँ कि नारी खटाहिं ?' जिसका घर न द्वार.... न कुल परिवार..... उसके घर औरत क्या बसेगी ? व्यासजी की चुटकी पर सभा में तालियाँ गूंज गयी। मैय्या ने भी तालियाँ बजाई थी पर रामदुलारी के भाल पर कुछ सिकन देख छोटकी चाची चुहल करने से नहीं चुकी थी। अचानक व्यासजी का स्वर एवं मुद्राएँ गंभीर हो जाती हैं, "लेकिन गिरिजाजी का दृढ प्रण है। 'वरौं शम्भू न त रहौं कुमारी'। बोलो भोले सरकार की जय।" सारी सभा जयजयकार करती है लेकिन रामदुलारी अपने अंतःकरण से ही पूछ रही है, 'क्या उसमे ऐसी संकल्प-शक्ति है ?'
'तुम्ह सहित गिरी तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि मंह परौं। वरु जाऊ अपजस होऊ जग, जीवत बिबाहू ना करौं ॥' मायना माई ने घोषणा कर दिया। बेटी के साथ प्राण त्याग देंगी लेकिन ऐसे वर को अपनी कन्या कतई नहीं देंगे। व्यास जी विवाहगीत शुरू करते हैं, "हम नहीं आज रहब घर-आँगन जौन बुढ होएत जमाय..... !' खूब जोर की तालियाँ बजी। लड़कों ने 'भूत-भावन भगवान की जय' का नारा लगाया तो नारी वृन्द की आँखें सजल हो गयी और कुछ बगल वालियों से काना-फूसी करने लगी। पर रामदुलारी जल में कमल की तरह श्रोताओं की भीड़ में भी अकेली थी। उसके अंतर्मन में द्वन्द चल रहा था। 'क्या मैय्या भी ऐसा ही करेगी..... नहीं-नहीं.... प्रकाश की स्थिति तो भिन्न है....... नहीं ...... पता नहीं......... मैय्या-बाबू के मन में क्या है...... क्या मैय्या यही कहना चाह रही है.... ? नहीं-नहीं....... उसने तो अभी किसी को कुछ बताया नहीं है।' उम्मीद और विश्वास में कुश्ती चल रही थी।
(क्या रामदुलारी के सपनो के सवाल का जवाब उसकी कल्पना के बाहर है ? जानने केलिए, पढ़िए अगले हफ्ते। इसी ब्लॉग पर !!)
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देखिये, कौन भारी पड़ता है उम्मीद और विश्वास में...जारी रहिये.
जवाब देंहटाएंprateeksha agalee kadee kee...........
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंइसे 13.02.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
बहुत अच्छी प्रस्तुति.... अब आगे का इंतज़ार है....
जवाब देंहटाएंkahani aage bar rahi hai.Bhasha achi lagee . Agli kadi ka intezaar.
जवाब देंहटाएंDhanyawaad
त्यागपत्र का यह भाग भी अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंaadarniya sir,
जवाब देंहटाएंeske pahale maine aapka yah lekh nahin padha tha. pahali bar padh rahihun. ab agali kadi ko padhne ki utsukta bani rahegi,kyon ke ise padh kar bahut hi achha laga.dhanyavaad.
poonam
बहुत अच्छी प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंachhi prstuti hai
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