मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

खाना हो आम तो बोएं बबूल

खाना हो आम तो बोएं बबूल


-- परशुराम राय



आम के फलों से

ये लद गए बबूल अब

भ्रम में पड़ी कोयलें

निहारती आवास निज

कंटीले आम्रकुंज ।

सोचती-

आम में ये काँटे बबूल के ?

या ईमान ही बदला धरा का

या बदला है स्‍वाद

जल का ही जलद से कुछ?

या बदला है तेवर ही

सूरज की दृष्टि का?

या प्रकृति ने ही बनाया है

परिवर्तन का मूड नया ?

बसन्‍त की बहारें भी

भूल गई रास्‍ता

या फिर मेरा भ्रम?

आम के इन पेड़ों को

ऊपर से नीचे तक

टो-टो

बार बार रक्‍तरंजित चोचों से

देखती हैं कोयलें, उदास मन

डालती हैं एक दृष्टि

बबलू के भी बाग पर

खड़ी हैं बहारें जहाँ

धूप में

उदासी का पहने दुकूल

और उसके पार्श्‍व में ही

कला की नोक से

चटक-चटक रंग भरे

दिखता है बोर्ड एक

जिसपर लिखा है

टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में

खाना हो आम तो बोएं बबूल


******

14 टिप्‍पणियां:

  1. आम के फलों से
    ये लद गए बबूल अब
    भ्रम में पड़ी कोयलें
    निहारती आवास निज
    कंटीले आम्रकुंज ।
    .......
    bahut hi badhiyaa

    जवाब देंहटाएं
  2. देखती हैं कोयलें, उदास मन

    डालती हैं एक दृष्टि

    बबलू के भी बाग पर

    खड़ी हैं बहारें जहाँ

    धूप में
    Abhut achhi prastuti....
    Bahut shubhkamnayne.

    जवाब देंहटाएं
  3. आम के फलों से

    ये लद गए बबूल अब

    भ्रम में पड़ी कोयलें

    निहारती आवास निज

    कंटीले आम्रकुंज ।

    सोचती-

    “आम में ये काँटे बबूल के ?

    या ईमान ही बदला धरा का
    Wah! Kya baat kahee hai!

    जवाब देंहटाएं
  4. आप की इस कविता में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं। भाषा की सर्जनात्मकता के लिए विभिन्न बिम्बों का उत्तम प्रयोग, लेखन में व्यंग्य के तत्वों की मौजूदगी से विद्रोह के तेवर और मुखर हो गए हैं। आपकी इस कविता को एक शे’र समर्पित करने का मन कर रहा है
    वैसे अपना तो इरादा है भला होने का
    पर मज़ा और है दुनियां में बुरा होने का
    तभी तो जो हमारे आपके पथ में बबूल बो रहे हैं वही आम खा रहे हैं। ठीक ही है
    खाना हो आम तो बोएं बबूल

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  5. आज यही हो रहा है....सुन्दर अभिव्यक्ति

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  6. ाज की मानसिकता पर सुन्दर रचना बधाई

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  7. क्या कहूँ.....

    लाजवाब...सुपर्ब !!!!

    जवाब देंहटाएं

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