खाना हो आम तो बोएं बबूल
-- परशुराम राय
आम के फलों से
ये लद गए बबूल अब
भ्रम में पड़ी कोयलें
निहारती आवास निज
कंटीले आम्रकुंज ।
सोचती-
“आम में ये काँटे बबूल के ?
या ईमान ही बदला धरा का
या बदला है स्वाद
जल का ही जलद से कुछ?
या बदला है तेवर ही
सूरज की दृष्टि का?
या प्रकृति ने ही बनाया है
परिवर्तन का मूड नया ?
बसन्त की बहारें भी
भूल गई रास्ता
या फिर मेरा भ्रम?”
आम के इन पेड़ों को
ऊपर से नीचे तक
टो-टो
बार बार रक्तरंजित चोचों से
देखती हैं कोयलें, उदास मन
डालती हैं एक दृष्टि
बबलू के भी बाग पर
खड़ी हैं बहारें जहाँ
धूप में
उदासी का पहने दुकूल
और उसके पार्श्व में ही
कला की नोक से
चटक-चटक रंग भरे
दिखता है बोर्ड एक
जिसपर लिखा है
टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में
‘खाना हो आम तो बोएं बबूल’
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ati sunder........
जवाब देंहटाएंआम के फलों से
जवाब देंहटाएंये लद गए बबूल अब
भ्रम में पड़ी कोयलें
निहारती आवास निज
कंटीले आम्रकुंज ।
.......
bahut hi badhiyaa
देखती हैं कोयलें, उदास मन
जवाब देंहटाएंडालती हैं एक दृष्टि
बबलू के भी बाग पर
खड़ी हैं बहारें जहाँ
धूप में
Abhut achhi prastuti....
Bahut shubhkamnayne.
boye ped bobul ka aam kaha se hoy achha hai
जवाब देंहटाएंअद्भुत ताल-मेल से अलंकृत रचना.
जवाब देंहटाएंआम के फलों से
जवाब देंहटाएंये लद गए बबूल अब
भ्रम में पड़ी कोयलें
निहारती आवास निज
कंटीले आम्रकुंज ।
सोचती-
“आम में ये काँटे बबूल के ?
या ईमान ही बदला धरा का
Wah! Kya baat kahee hai!
एक अच्छी कविता.
जवाब देंहटाएंआप की इस कविता में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं। भाषा की सर्जनात्मकता के लिए विभिन्न बिम्बों का उत्तम प्रयोग, लेखन में व्यंग्य के तत्वों की मौजूदगी से विद्रोह के तेवर और मुखर हो गए हैं। आपकी इस कविता को एक शे’र समर्पित करने का मन कर रहा है
जवाब देंहटाएंवैसे अपना तो इरादा है भला होने का
पर मज़ा और है दुनियां में बुरा होने का
तभी तो जो हमारे आपके पथ में बबूल बो रहे हैं वही आम खा रहे हैं। ठीक ही है
खाना हो आम तो बोएं बबूल
आज यही हो रहा है....सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंाज की मानसिकता पर सुन्दर रचना बधाई
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्रण किया है.
जवाब देंहटाएंवाह्! अति सुन्दर रचना.....
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ.....
जवाब देंहटाएंलाजवाब...सुपर्ब !!!!