पिछली दिसम्बर के आखिरी सप्ताह से पारा जो नीचे लुढ़का तो चढने का नाम ही नहीं ले रहा। बस, लुढ़ककर रह गया। एक महीना होने को आया। काम काज ठप्प हो गए। कोट-कम्बल-टोप में घुसे-घुसे उकताहट होने लगी। कोट की जेब में घुसा हाथ भी संज्ञाशून्य-सा लगता। सड़क पर दोपाया यदाकदा दिखने वाले विलुप्त प्राणी सा हो गया। दिखता भी तो बन्दर बना, ही.ही.ही., हू-हू-हू करता तेजी से अपने गन्तव्य की ओर भागता हुआ।
फरवरी ने अपने आने की गुलाबी आहट भी दे दी लेकिन शीत जनित निविड़ निर्वात में यह ध्वनि गुम होकर रह गई। कब से प्लान बना रखा था छज्जू ने कि इस बार वह अपने बाँके को एक लाल गुलाब का अधखिला अर्थात खिलने को बेताब फूल जरूर देगा। दुकान भी देख ली थी उसने और दूकानदार से पूछताछ भी कर आया था।
पिछले साल जब एक हाईकोर्ट का डिसीजन आया, छज्जू, बॉके जैसों के सम्बंधों की सामाजिक स्वीकृति के सम्बंध में, तब से दोनों के मन की शीतलता के बीच कुछ कुनकुना गुनगुनाने लगा था। टी.वी. चैनलों ने तो अपने सारे कामकाज किनारे रख बस एक विषय का एक सुर में इतना प्रलाप-प्रचार किया कि इन संवंधो पर चर्चा बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़े – सबकी जुबान पर आ गई। टी.वी चैनल पर चेहरा दिखाने का मोह संपूरित होते देख तमाम लोग लज्जा चौखट भीतर छोड़ भागते नजर आए तो शहर से लेकर गली मोहल्लों तक कई सप्रभ चेहरे नए सम्बंधों के साथ दमकने लगे। प्रफुल्लता में उनका सीना एक से डेढ़ गज का हो चला। अतीत से लेकर पौराणिक काल तक की अनेकानेक व्याख्याओं और स्वनामधन्य ऋषिवर के सूत्रों का उल्लेख किया जाने लगा, सजग और विकसित देशों की करतूतों के तर्को के साथ। आँख मूँद लेने पर बात में यकायक दम भी नजर आने लगा। छज्जू अपने को कहाँ पिछड़ा मानने वाला था। जबरदस्ती ओढाई गई मर्यादा की चादर उसने सटाक से उतार फेंकी और हो गया शामिल अगड़ों में। तब से वह बॉके के साथ को सरेआम खुलकर स्वीकारता है, गर्व से कहता है कि ‘बहुत अन्याय हुआ है, अभी तक हम लोगों के साथ।’
इसी आपा-धापी में लो वह क्लाइमेक्स वाला दिन भी आ पहुँचा। सब अपने-अपने वेलेन्टाइन के साथ एक-एक गुलाब लिए मगन हैं। मेल का वेलेन्टाइन फीमेल और फीमेल का वेलेन्टाइन मेल। इस बार तो शेम सेम भी हैं। लोदी गार्डेन और सफदरजंग के मकबरे की रौनक देखकर सफदरजंग और इब्राहीम लोदी के दिल तो बाग-बाग हो रहे होंगे कि उनकी छाती वास्तव में बाग बन चुकी है और उस पर आज भी फूल और गुल सब खिल रहे हैं।
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आपकी बेहतरीन शैली का कोई जवाब नहीं है...
जवाब देंहटाएंजय हिंद... जय बुंदेलखंड...
सही कहा दीपक ने । शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंlekhan shailee bahut acchee lagee .....
जवाब देंहटाएंgood post ........
वेल की सुखद अनुभूति कम टाइन की चुभन और टीस अधिक महसूस कर रही है।'
जवाब देंहटाएंअपनी अपनी परिभाषा, अपना अपना विश्लेषण
मनोज जी बहुत सुंदर शव्दो मे आप ने बेल कम टाईन की टीस बताई.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
लेख सुन्दर लगा.
जवाब देंहटाएंGupt ji ka yeh lekh "वेल कम ,टाइन की टीस ज्यादा" bahut hi accha laga. Khaaskar iski shaili.
जवाब देंहटाएंमज़ेदार व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंअच्छी शैली में लिखी गई रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर शव्दो मे आप ने बेल कम टाईन की टीस बताई.
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