शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

कह हनुमंत विपत प्रभु सोई

-- करण समस्तीपुरी

आज फुर्सत में ख्याल आने लगा, आह ! जिन्दगी में कितना कष्ट है...... काश सप्ताह में दो ही दिन होता...... शनिवार और रविवार। फिर तो फुर्सत ही फुर्सत.... मौजा ही मौजा था !! लेकिन कमबख्त होता है पूरे सात दिन। न एक दिन कम न एक दिन ज्यादा..... भारी आफत है।

सप्ताह के दिनों को आफत हमने कह तो दिया.... लेकिन फिर सोचने लगा कि आफत होता क्या है ? अब भैय्या हम ठहरे शब्दों के धनी आदमी.... हमें डिक्शनरी में थोड़े न खोजना पड़ेगा.... सो जवाब भी तुरत मिल गया। आफत माने विपतहै न चोखा जावाब ? हा...हा...... हा....... !!

आप भी सोच रहे होंगे, क्या आदमी है यार ? घर कहाँ तो पोस्ट-ऑफिस के सामने। पोस्ट-ऑफिस कहाँ तो घर के सामने। अबे दोनों कहाँ ? आमने-सामने। हा...हा...हा.... ! आफत माने विपत। विपत माने आफत। हा...हा...हा... !

अब आपको हंसना है तो हंसिये लेकिन एक बात है, हम धुन के बड़ा पक्के हैं। विपत क्या है....? इसका जवाब खोज ही लिए। मिला भी तो कहाँ ? पूजा घर में रखे रामचरित मानस में। इसी को कहते हैं 'जिसको खोजा गली-गली, वो मेरे पिछवारे मिली।' खैर मिल ही गया....... यूरेका....... !!!!

देखिये विपत क्या है ? रामदरबार लगा है। प्रभु सब से कुशलक्षेम पूछ रहे हैं। हनुमान से भी पूछा। हनुमान ! कोई कष्ट तो नहीं है ? हनुमान जी मने-मन बोले, "खाख पूछते हैं ! सारा दुनिया का जिम्मा हमें ही दे दिया है.... जहां-जहां आपका कीर्तन हो हम वहाँ-वहाँ जा कर चौकीदारी करें... एक घड़ी का चैन नहीं है। और पूछने चले हैं...." लेकिन प्रकट में कहा, "क्या बताएं प्रभु ! सब तो ठीक है पर एकही कष्ट है ? प्रभु ने पूछा, "वह क्या ?" हनुमान जी बोले, "कह हनुमंत विपत प्रभु सोई ! जब-तब सुमिरन भजन न होई !!"

देखे ! विपत का मतलब खोज ही लिए न हम !!! फिर भी दिल से ख्याल नहीं गया...... सच में बहुत विपत है ? हनुमान जी का शगल 'सुमिरन-भजन' ही था। इसीलिए उनको 'जब-तब सुमिरन-भजन' नहीं होने पर विपत मालुम पड़ता था। अब जिसको जिस चीज का चस्का लग जाएगा उसको नहीं मिलने पर विपत मालुम पड़ेगा ही। अब जैसे हमको साहित्यिक गोष्ठियों का चस्का लगा हुआ है..... अब सुदूर दक्षिणी प्रदेश में लिट्टी-चोखा' तो मिलता नहीं है...... 'जब तब सुमिरन-भजन.... आई मीन.... 'गोष्ठी-परिचर्चा' कहाँ मिलेगी ?'

लेकिन पिछले दिनों संयोग बन गया। प्रसिद्द व्यंग्यकार एवं आलोचक रमेश जोशी सेवा-निवृत होकर आज कल उद्यान-नगरी में ही निवास कर रहे हैं। उन्हें भी 'जब-तब सुमिरन भजन' की कमी खली तो लखनऊ विश्वविद्यालय से अवकाश-प्राप्त प्रो रणजीत से दोस्ती गाँठ ली। अब इन दोनों की दोस्ती हो गयी बंगलोर के ख्यातिनाम कवि ज्ञानचंद मर्मज्ञ से। मर्मज्ञ जी 'सुमिरन-भजन' का आयोजन करने-करवाने में बहुत आगे रहते हैं। शहर के प्रभावशाली व्यक्ति हैं। हर महीने लायंस क्लब में 'कवि-गोष्ठी' करवाते हैं। अब ज्ञानचंदजी से ईश्वरचंदजी को पता चला कि दो सज्जन बेंगलूर में अपने घर का पता पूछ रहे हैं। फिर क्या था ? इश्वरचन्द्र मिश्र जी पहुँच गए 'कादम्बिनी-क्लब' की सदस्यता लेकर। राजभाषा विभाग में अधिकारी मिसिरजी कादम्बिनी क्लब के संस्थापक संयोजक भी हैं।

लेकिन जोशीजी ने सदस्यता ग्रहण करने के लिए एक शर्त रख दी। पहले उनके निवास पर एक संक्षिप्त परिचर्चा करनी पड़ेगी। लो... मिसिरजी तो केवल सदस्य खोजने गए थे। यहाँ तो 'सुमिरन-भजन' का जुगाड़ भी लग गया। खैर कादम्बिनी क्लब की सबसे सक्रीय सदस्य मंजू बेंकट को जोशीजी के निवास पर परिचर्चा के संयोजन की जिम्मेवारी दी गयी। जोशीजी ने पहले ही शर्त रख दी थी, 'संक्षिप्त परिचर्चा'। इसीलिये बहुत से लोगों को तो पता भी नहीं चला लेकिन मुझे अग्रीम निमंत्रण मिल गया।

रविवार अपराह्न। मंजू बेंकट की नजर-ए-इनायत हम पे रहती है। सिर्फ निमंत्रण ही नहीं अपनी कार में जोशी जी के निवास तक ले भी गयी। सबसे पहले पहुँचने वाले हम ही थे। सेवा-निवृत जोशीजी ने गर्मजोशी से अगवानी किया। फिर मिसिरजी आये। फिर प्रो रणजीत। ज्ञानजी तो 'सुमिरन-भजन' शुरू होने के बाद ही आये। आखिर यूँ ही मर्मज्ञ नहीं हैं !!

मिसिरजी ने विषय-प्रवेश करवाया। 'हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि'। इमानदार अफसर हैं। जिसकी दाल-रोटी खाते हैं उसे कैसे भूल सकते हैं। ऊपर से 'सुमिरन-भजन' के लिए कुछ होम-वर्क किया नहीं था। बस शुरू हो गए। कहने लगे, 'लिपि भाषा का शरीर होता है। हिंदी देवनागरी लिपि में ही लिखी जानी चाहिए। सरकारी आदमी हर बात में क़ानून घुसेड़ देते हैं। मिसिरजी भी लगे संविधान का हवाला देने। भारतीय संविधान की धारा 343 के अनुच्छेद 1 में साफ़-साफ़ कहा गया है, "संघ की राजभाषा हिंदी एवं लिपि देवनागरी होगी।" साथ में हिंदी में संक्रमण के लिए, मिसिरजी आधुनिक 'एस-एम-एस पीढ़ी' को कोंसना भी नहीं भूले।

ज्ञानचंदजी थोड़े उदारवादी हैं। कहने लगे कि भाई कुछ भी लिखी जाए, बस हिंदी लिखी जाए। मर्मज्ञ जी हिंदी के प्रति आशावान तो दिखे लेकिन अंग्रेजी के प्रभाव से बच नहीं पाए। कहे कि जीवन-यापन के क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए 'अंग्रेजी' को अछूत रखने से हिंदी-हिंदिभासियों-हिंदीलेखकों' का कुछ भी भला नहीं होगा।

जोशीजी बहुत महीन विश्लेषण करते हैं। बोले, भाषा के सही उच्चारण के लिए उसकी मौलिक लिपि का ज्ञान आवश्यक है। इसी के अभाव में एक नेताजी बराबर बिहारियों को 'पाटना' का टिकट थमाने की धमकी देते हैं तो अंग्रेजी की समाचारवाचिका छपरा को 'छापरा' कहती है।

मंजू बेंकट बेंगलूर के विद्यालयों के लिए हिंदी का एक समानांतर पाठ्य-क्रम तैयार करने में जुटी हैं। उन्होंने मिसिरजी की बात को ही उद्धृत करते हुआ कहा, 'आपको अपने देह की चिंता खुद करनी पड़ेगी। परोसी नहीं करेगा। हाँ, अगर देह हृष्ट-पुष्ट है तो परोसी जरूरत पड़ने पर मदद ले सकता है। उनका इशारा 'हिंदी की पारिभाषिक शब्दावली' को और सुदृढ़ करने की ओर था।

प्रो रणजीत के पास जीवन का यायावरी अनुभव है। बेवाकी के साथ कहा, 'लिपि देह नहीं, लिबास है।' अपने देह पर आप कुरता पहनिए, कमीज या शिरवानी........ अन्दर में तो आप वही हैं। स्थान के हिसाब जैसा देश वैसा वेश करना पड़ेगा।

वहां सब से छोटा मैं ही था। मजबूरी में सबकी सुननी पड़ीं। इतने बड़े-बड़े साहित्यिक हस्ताक्षर के सामने मैं क्या बोलता... ? 'हितोपदेश' का एक श्लोक ही रख दिया। 'सर्वनाशम् समुत्पन्ने अर्धम् त्यजति पंडिताः!' मिसिरजी ! जब सर्वनाश आ जाए तो बुद्धिमान लोग आधा पर ही संतोष कर लेते हैं। देह तो देह संकट तो प्राण पर है। वैसे एक बात है, 'लिपि अगर देह ही है तो है... हिंदी तो भारतीय भाषाओं की 'आत्मा' है। और गीता में भगवान खुद कहे हैं, "आत्मा कभी नहीं मरती है।' जिस प्रकार हम वस्त्र बदलते हैं उसी प्रकार आत्मा भी शरीर रूपी वस्त्र बदलती है।" अब इस देह में रहे या उस देह में, आत्मा तो कभी मरेगी नहीं। चाहे इस लिपि में रहे या उस लिपि में हिंदी तो कभी मरेगी नहीं।

अब कैरेबियाई द्वीप में रहने वाले भारतीय मूल के लोग 'रोमन' लिपि में रामचरित मानस पढ़ते हैं। अब उन्हें देवनागरी थमा देंगे तो कैसे पढ़ पायेंगे ? अगर देवनागरी लिपि में लिखे जाएँ तो दक्षिण भारतीय अभिनेत्री 'असीन' ग़ज़नी के संवाद 'कचर-कचर' कैसे बोलेंगी ? कंगारू क्रिकेटर ब्रेट ली 'हाय' के जवाब में 'नमस्टे' कैसे बोलेंगे ? अब हिंदी गंगा के दोआब की भाषा नहीं रही। आज इसकी सार्वभौमिकता पर बहस चल रही है। इसे विराट धरातल पर लाने के लिए, हमें थोड़ा त्याग तो करना पड़ेगा। हाँ, मैं जोशीजी की बातों से पूर्ण सहमत हूँ कि किसी भी भाषा के सही उच्चारण के लिए, उसकी मौलिक लिपि का ज्ञान होना आवश्यक है।

जब तक अन्य लोग इस 'सुमिरन-भजन' का निष्कर्ष निकालने में लगे थे, हमारी नजर प्रसाद पर पड़ गयी। ओह... जोशी जी ने बड़े-बड़े गुलाबजामुन मंगा रखे थे। गुझिया, बिस्किट और दालमोट भी। उम्र के छोटेपन का फ़ायदा उठाया। जब तक ये लोग निष्कर्ष निकालें, मैं ने आराम से दो-चार गुलाबजामुन गटक लिए। गुझिया भी निपटा दिया। मगर कुरमुरे दालमोट ने सबका ध्यान खींच लिया। खैर अपना तो काम तबतक हो चुका था। उस बतकुच्चन में क्या था 'असली मजा' तो हम लूटे। हमें तो एक ही बात समझ में आयी, "भाषा का देह लिपि हो या नहीं.... गोष्ठी का प्राण तो 'गुलाबजामुन' ही है। तो अब आप समझे, क्यूँ 'जब तब सुमिरन-भजन' न होने से हमें विपत लगने लगता है ?

10 टिप्‍पणियां:

  1. उद्धरण देने वाली पोस्ट ,अच्छी लगी.

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  2. आपके विचारों से सहमत हूँ। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  3. आपकी यह रचना अच्छी लगी.मज़ा आ गया.

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  4. Aadarniya sir,
    aapke vichaar bahut hi achche hain.aapki post padh kar bahut anand aaya.
    POONAM.

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  5. हमें भी पूरा यकीन है कि भाषा की देह गुलाबजामुन से बनती है! :-)

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