आचार्य भामह
-- आचार्य परशुराम राय
आचार्य भामह का काल निर्णय भी अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह विवादों के घेरे में रहा है। आचार्य भरतमुनि के बाद प्रथम आचार्य भामह ही हैं जिनका काव्यशास्त्र पर ग्रंथ उपलब्ध है। आचार्य भामह के काल निर्णय के विवाद को निम्नलिखित मतों में विभाजित कर सकते हैः-
1. कालिदास पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत
2. माघ पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत
3. भाष पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत
4. भट्टि पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत
5. दण्डी पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत
आचार्य भामह ने ‘अयुक्तिमत्’ दोष के उदाहरण में मेघ आदि निर्जीव चीजों को दूत बनाने उल्लेख किया है। इसके आधार पर कतिपय विद्धान महाकवि कालिदास द्वारा विरचित खण्डकाव्य ‘मेघदूतम्’ से सम्बन्ध जोड़ते हुए आचार्य भामह को महाकवि कालिदास का उत्तरवर्ती आचार्य मानते हैं। वैसे डॉ टी. गणपति शास्त्री आदि अनेक विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। इसके लिए प्रमाण स्वरूप इनका कहना है कि आचार्य भामह ने मेधावी, रामशर्मा, अश्मकवंश, रत्नाहरण आदि कवियों/आचार्यों के नामों का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है और यदि कालिदास उनके पूर्ववर्ती होते तो वे उनके नाम का भी उल्लेख अवश्य करते। इस आधार यह दल आचार्य भामह को महाकवि कालिदास का पूर्ववर्ती मानता है। अन्य साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में अन्तिम मत अधिक सशक्त है।
महाकविमाघ कृत ‘शिशुपालवधम्’ महाकाव्य के एक श्लोक में उन्होंने लिखा है कि जिस प्रकार सत्कवि शब्द और अर्थ दोनों की अपेक्षा करता है, वैसे ही राजनीतिज्ञ भाग्य और पौरुष दोनों चाहता है। आचार्य भामह ने काव्य को परिभाषित करते हुए ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’ लिखा है। इसी आधार पर कुछ विद्वान आचार्य भामह को महाकवि माघ का पूर्ववर्ती मानते हैं। ऐसे ही अन्य युक्तियाँ दी गयीं हैं। ऐसी युक्तियों के आधार पर पूर्ववर्ती या उत्तरवर्ती होने का निर्णय न्याय संगत नहीं हैं।
ऐसी ही युक्तियों को आधार मानकर कुछ विद्वान आचार्य भामह को नाटककार भास का उत्तरवर्ती मानते हैं। क्योंकि आचार्य भामह ने वत्सराज उदयन की कथा का उल्लेख किया है और इसी कथा का वर्णन महाकवि भास द्वारा विरचित नाटिका ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायण’ में आया है। जबकि इस कथा के अलावा अनेक कथाएँ ‘वृहत्कथा’ में मिलती हैं। हो सकता है कि आचार्य भामह ने ‘वृहत्कथा’ के आधार पर वत्सराज उदयन की कथा का उल्लेख किया हो। क्योंकि ‘वृहत्कथा’ अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रंथ-कथा साहित्य है। इसलिए मात्र इस आधार पर आचार्य भामह को भास का उत्तरवर्ती नहीं माना जा सकता।
अन्य ग्रंथों में आये उद्धरणों से पता चलता है कि इन्होने ‘काव्यालंकार’ के अलावा छंद-शास्त्र और काव्यशास्त्र पर अन्य ग्रंथों की रचना की थी। किन्तु दुर्भाग्य से इनका केवल ‘काव्यालंकार’ ही मिलता है। राघवभट्ट ने ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ की टीका करते समय पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण आचार्य भामह के नाम से उद्धृत किया है जो काव्यालंकार’ में नहीं मिलता। इससे माना जाता है कि ‘काव्यालंकार’ के अलावा काव्यशास्त्र पर आचार्य भामह ने दूसरे ग्रंथ का भी प्रणयन किया था। लेकिन इस तर्क से सभी विद्वान सहमत नहीं हैं। यहाँ उन लक्षणों को उद्धृत किया जाता है।
पर्यायोक्तं प्रकारेण यदन्येनाभिधीयते।
वाच्य-वाचकशक्तिभ्यां शून्योनावगमात्मना।।
उवाच रत्नाहरणे वैद्यं शार्ङ्गधनुर्यथा।।
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पिछले अंक
|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||, |
बंधुवर, सुंदर ब्लॉग है,आप गंभीरता के साथ काव्यशास्त्र पर हू लगे रहें,सुंदर विषय है। नेट यूजरों को अपनी विरासत ज्ञान कराने में सेतु बन सकते हैं, लगे रहें।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर जी आप की यह काव्यशास्त्र,
जवाब देंहटाएंआप हमारी तरफ़ से परिवार समेत होली की बधाई स्वीकार करे.
धन्यवाद
अच्छा आलेख.
जवाब देंहटाएंkavya shaasta ka harek ank mere liye vardaan hai ! aabhaar !!!!
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