मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

एक लंबी कविता जो छोटी पड़ गई !!

पिछ्ले दिनों दो पोस्टों ने काफ़ी हलचल मचाई! मानसिक तौर पर!! एक श्री ज्ञानदत्त पाण्डे जी की और दूसरे श्री समीर जी की। तो मुझ पर भी समाज के बीच रह रही पगली से मिलने का पागलपन सवार हो गया। इस क्रम में मुझे समाज के कई ऐसे लोगों से वास्ता पड़ा जो ज़िन्दगी के हाशिए पर जीते हैं । मैंने पाया कि इन पर नुक़्ता-चीनी करते लोग तो मिल जाते हैं पर इनके जीवन में नुक़्ता लगाने कोई नहीं आता। ऊपर से यह चैलेंज भी था कि

यह पोस्ट आपकी सोच को प्रोवोक कर आपके ब्लॉग पर कुछ लिखवा सके तो उसकी सार्थकता होगी। अन्यथा पगली तो अपने रास्ते जायेगी। वह रास्ता क्या होगा, किसे मालूम!

तो लीजिए ....


एक लंबी कविता जो छोटी पड़ गई

--- --- मनोज कुमार

मुझे आलोचक नहीं चाहिए

हां, जब मैं

पप्पू पेंटर पर लिखता हूं,

जब कालू रिक्शे वाले की बातें करता हूं,

तो मुझे आलोचक की आलोचना नहीं चाहिए।

नहीं चाहिए तारीफ भी...

जब मैं उनके दर्द को दर्द कहूंगा,

उनकी गाली-गलौज वाली भाषा को

उनकी हताशा-निराशा को

जैसा है वैसा ही लिखूंगा।


पचास फीट ऊपर पोल पर चढ़कर चित्र गढ़ता

वह जो पप्पू पेंटर है

सीढ़ियों का सहारा लेकर नहीं चढ़ता ।

अब आप अपनी आलोचना के बाण चलाएंगे

मेरी कल्पनाशीलता पर प्रश्न चिह्न लगाएंगे

कि कवि एक सीढ़ी तो लगा ही सकता था।

पर मैं पप्पू की परेशानियां कम नहीं कर सकता

आप गढ़ सकते हैं तो गढ़ दीजिए

पप्पू की ज़िन्दगी में सीढ़ी का सहारा जड़ दीजिए !

पर शाम होते ही सीढ़ियां बेचकर वह

सफेद द्रव्य वाला पाउच पकड़ लेगा

और जब तरंग उतरेगी

तो बिना सीढ़ियों के फिर पोल पर चढ़ लेगा।


झुम्मन जब

पीकर दारू पीटेगा भुलिया को

तो

बता दूंगा जग को ...

बेटे के हिस्से की रोटी भी

खा जाएगा

और बेटा भूखे पेट सो जाएगा।

मैं सब को बता दूंगा वह क्या करता है

लेकिन यह नहीं बताऊंगा

क्यों करता है

मुझे फिर भी आलोचक नहीं चाहिए,

नहीं पसंद है उनकी आलोचना।


हां, जब मैं किसी राजकुमार पर

लेखनी चलाऊंगा

किसी राजा, मंत्री या अधिकारी के चारण गीत गाऊंगा

तब आलोचक आगे आएं, उनका स्वागत है !

वो बताएं कि मेरी लेखनी कमज़ोर है, ग़ुलाम है, चापलूस है !!!

सिर्फ कशीदे काढ़ना ही जानती है

तस्वीर के सिर्फ उजले पक्ष को ही पहचानती है,

डरती है मेरी लेखनी सच को दिखाने से

मान लूंगा।

पर जब मैं भोलू और बुधिया पर लिखता हूं

तो जो है .. वही लिखता हूं

इसीलिए आलोचक से नहीं डरता हूं

बुधिया का चेहरा काला है, तो काला है

उसके गालों पर जूते के रास्ते

हाथ होते हुए काला पॉलिश चढ़ गया है

तो वही तो बताऊंगा

अब इस शब्दचित्र को,

आलोचक संवारना चाहें भी तो नहीं संवारने दूंगा।

ये उसका चेहरा है, आपका क्या

आपके जूते पर तो चमक आ गई ना !

उसके चेहरे पर चमक तो तब आएगी

जब आप उसे अठन्नी देंगे

और शाम के पहले ही वह पव्वा चढ़ा लेगा।


जेठ की दुपहरी में

जब मैं कालू रिक्शेवाले के पीछे बैठता हूं

तो उसके पसीने को नहीं देखता

उसकी देह की दुर्गंध मेरी नाक में बसी होती है

सिर फट रहा होता है

वैसे में मुझे कुछ दिखता नहीं, मैं अपनी नाक के साथ

आंख भी बंद कर लेता हूं

पर लिखता मैं वही हूं जो मुझे दिखता है

और आप हैं, आलोचक जी

कि मुझे बता रहें हैं मेरी चित्रण में विसंगतियां हैं !

मुझे आपकी आलोचना नहीं चाहिए !


जब मैं यह लिखता हूं कि राजा भालचंद्रजी सच्चे जनसेवक हैं

तो आप आइए

मेरी लेखनी से निकले इस चित्र पर

अपनी कलम चलाइए

जमकर मेरी आलोचना कीजिए

मेरी रचना की कमज़ोरी गिनिए

पर उनके लिए गढ़े हुए अपने शब्द नहीं बदलूंगा

शब्द तो ... जो मैंने बुधिया, भोलू, कालू, झुम्मन-झींगुर

के लिए लिखे हैं

वह भी नहीं बदलूंगा

क्यूंकि मुझे जो दिखा है

मैंने वही लिखा है

अब जो राजाजी, साहबजी, बड़े बाबू का नहीं दिखा मुझे

वह कैसे लिख दूं ?

मुझे तो यही दिखा कि

राजाजी आते हैं

आश्वासनों की दवा पिलाते हैं

बुधिया, भोलू, कालू, झुम्मन-झींगुर पी लेता है

और उसी के सहारे पांच साल जी लेता है

तो राजाजी कैसे बुरे हुए

फिर तो मैं लिखूंगा ही

राजा भालचंद्रजी सच्चे जनसेवक हैं

उन्होंने पांच साल हमारी सेवा की है, उन्हें ही जिताइए।

पर आप मुझे कलुआ, बुधिया, झुम्मन-झींगुर

की तस्वीरों को रंग-विरंगे रंगों से रंगने की प्रेरणा न दें।

उन्हें मैंने काली रोशनाई से ही लिखा है

क्योंकि वह मुझे वैसा ही दिखा है।


आइए आपको भी दिखाता हूं

तपेदिक से तपा

वह जो ठेला खींच रहा है

बयालिस डिग्री सेल्सियस के तापमान में

सड़क को अपने स्वेद से सींच रहा है

उसे बरगद की छांव में सुस्ताने की सलाह

मैं नहीं दे सकता

अन्यथा उसकी बीमार बेटी सुमरतिया की स्मृति में

उसे कुछ दिन और सुस्ताने पड़ेंगे ... ...

इस दुनियां के रीत-धरम भी तो उसे निभाने पड़ेंगे !

अब आप इसे मेरी क़लम की कमज़ोरी कहें या कायरता

पर मत दिखाइए अपनी वीरता।

आलोचकजी ! मैं तो उसे ठेला खीचता हुआ ही दिखाऊंगा

ताकि वह खींच-खींच कर बेटी के लिए दवा-दारू जुगाड़ सके,

अपना कुछ क़र्ज़ उतार सके।


वह जो पेड़ तले पगली झुमरी लेटी है

किसी भले घर की बेटी है

और उधर धूप में जो बच्चा लेटा है

उसका नाजायज़ बेटा है

किसी इंसान के फरिश्ते ने उसे छला था

तभी तो उसकी कोख में वह नौ महीने पला था

इज़्ज़त के साथ-साथ

मानसिक संतुलन खो चुकी है

निकलती नहीं , अधरों में जो सांसें रुकी हैं


पांवों तले जिस क़ालीन को आप रौंद रहें हैं

उसके हर रेशे में

किसी बालगोपाल की अंगुलियों के

करतब कौंध रहें हैं

उस ढाबे में

जूठी प्लेटें धोने से मिली टिप से

रूखी-सूखी रोटी खाकर

फुटपाथ पर सोया हुआ आदमी

नींद में बेखबर है

कि उसकी सारी जमा-पूँजी

और बिका हुआ घर भी

उसकी बहन को

दहेज की आग से बचा न सका

और इसी सदमे से

उसकी माँ चल बसी ।


झींगुर दास को ही लीजिए

पूरे गांव के लिए वह झिंगुरा है

पर उसका अलग ही दुखड़ा है

मेरा ही नहीं, कइयों के खेत जोतता है

सबका पेट भरे, धान-गेंहूं रोपता है।

और जब खेतों में फैलती है हरियाली

मन से करता है रखवाली

पर जब सारा गांव चैन से सोता है

तब झींगुर बरगद तले

आधी-आधी रात को रोता है

क्यूंकि पिछले साल भूख से व्याकुल हो

उसका बेटा रेल से कट गया था !

क्या मेरे दिए गए दो सौ रुपए से उसका दर्द घट गया था ???


पर मैं इनके बारे में ज़्यादा नहीं सोचता

आलोचकजी! आप उनका दर्द बांट लीजिए

अपनी आलोचना के अथाह कोश से

उनके लिए भी

हो सके तो

कुछ शब्द छांट लीजिए।

हां जब मैं अपनी रचना में

प्रेयसी के रूप-गीत गाता हूं

तब तो आप ज़रूर से आगे आते हैं

और मेरी अकविता को

श्रृंगार रस की अनुपम कविता बताते हैं

अगर आपकी आलोचना में रस है

तो इनके जीवन से

करुण रस निकाल दीजिए

और शब्दों से ही सही

उनके जीवन में भी

हास्य रस की कुछ बूंदें डाल दीजिए।


मेरी यह कविता लम्बी हो गई तो हो गई ...

पाठक पढ़ें या न पढ़ें

मैं जो लिखना चाह रहा था, लिख दिया

अब आप कहेंगे

इतनी लंबी कविता की क्या आवश्यकता थी

कवि अपनी बात कम शब्दों में कह सकता था

पर... ...

आलोचकजी ! लगता नहीं आपको कि

मेरी क़लम की नींब पर जिनकी तस्वीर गड़ गई है

उनके लिए मेरी यह

एक लंबी कविता भी छोटी पड़ गई है ... ... ...

23 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी यह कविता लम्बी हो गई तो हो गई ...

    पाठक पढ़ें या न पढ़ें

    मैं जो लिखना चाह रहा था, लिख दिया


    -वाकई छोटी पड़ गई..संवेदनाओं की बाढ़ को बाँधने के लिए कितना भी बड़ा पुल छोटा ही पड़ेगा...बहुत उम्दा अभिव्यक्ति!! सलाम!

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  2. लम्बी है पर उबाऊ नही है , अच्छी अभिव्यक्ति

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  3. लगता नहीं आपको कि मेरी क़लम की नींब पर जिनकी तस्वीर गड़ गई है
    उनके लिए मेरी यह एक लंबी कविता भी
    छोटी पड़ गई है ... ... ...

    मनोज जी ......... सचमुच कविता छोटी पड़ गयी है .......... एक ही प्रवाह में पढ़ गया आपकी पूरी रचना ......... आपके आक्रोश को देख का लग रहा है की सच में अभी बहुत कुछ था जो आप कहना चाहते थे .......... पर कहा नही ...... आवेग इतना तेज़ था की उसने भावनाओं का प्रवाह रोक दिया ..........
    कालजयी रचना है .......... सॅंजो कर रख ली है मैने ............

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  4. मनोज जी हृदयस्पर्शी कविता है और संवेदनाओं के आगे तो कई बार आदमी खुद भी छोटा पड जाता है । बहुत सुन्दर प्रवाहमय कविता है शुभकामनायें

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  5. लोक-समाज के प्रति कवि की उदात्त संवेदना का मर्मस्पर्शी चित्रण !!

    लम्बी है पर सुन्दर...... बोले तो दीपिका पदुकोने ........ !!!

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  6. Inni achi kavita koi kaise na padhe..
    maine to puri kavita padh hai aur padhkar bahooooooooooooooooooot acha laga....

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  7. बहुत कुछ सोचने - विचारने को मजबूर कर देने वालीं एक सशक्त रचना .
    हार्दिक बधाई !

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  8. आपकी कविता लम्बी ज़रूर है पर मुझे इतना अच्छा लगा कि मैंने सिर्फ़ एक बार नहीं बल्कि दो बार पढ़ा है! बहुत ही सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार कविता प्रस्तुत किया है! बधाई!

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  9. बहुत सुन्दर है आपकी यह रचना!
    आप यहाँ भी हैं-
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/02/blog-post_02.html

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  10. राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  11. यह कविता सिर्फ सरोवर-नदी-सागर, फूल-पत्ते-वृक्ष आसमान की चादर पर टंके चांद-सूरज-तारे का लुभावन संसार ही नहीं, वरन जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है। यह कविता उदात्ता को ही नहीं साधारण को भी ग्रहण करती दिखती है।

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  12. bahut achchi, bhavon mein bah gaya, sashwar wachan kiya, sach much choti pad gayi

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  13. achchi kavita. badi jaroor hai lekin samvedana ki abhivyakti hai. manoj ji aapki bahut sookshm hai.
    aabhar.

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  14. जोरदार रचना
    बहुत बहुत आभार...............

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  15. सशक्त रचना...सच में कविता लम्बीई होते हुए भी छोटी ही लगी

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  16. मनोज जी ,

    मैंने आपकी यह रचना कल पहली बार पढ़ी ... आज फिर पढ़ी ...मानव संवेदनाओं का सिलसिला है यह कविता ..जो कभी लंबी नहीं हो सकती ..
    पेंटर की ज़िंदगी ... खुद को भुलावा देने के लिए सफ़ेद तरल द्रव्य को पना .. कालू रिक्शेवाला ..ठेला खींचता तपेदिक से ग्रसित मजदूर ..झुम्मन बुढिया की व्यथा कथा ... झींगुर की बेबसी ..नेताओं पर व्यंग .. ओह कितना कुछ समेटा है .. फिर भी बहुत कुछ रह गया ... सच ही छोटी पड़ गयी कविता ..
    बहुत सशक्त शब्द चित्रण ... ...

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  17. लगता नहीं आपको कि मेरी क़लम की नींब पर जिनकी तस्वीर गड़ गई है
    उनके लिए मेरी यह एक लंबी कविता भी
    छोटी पड़ गई है ... ... ...

    सच मे छोटी पड गयी……………जितना कहेंगे फिर भी कम ही रहेगा क्योंकि हम वो नही देखते जो देखना चाहिये या कहिये देखकर अनदेखा कर देते हैं क्योंकि जानते हैं यदि देखा तो कुछ कहने की हिम्मत नही रहेगी शायद खुद से आँख चुराकर जीने की आदत हो चुकी है हमे और आपने हर भाव हर संवेदना को बखूबी उतारा है……………बेहतरीन चित्रण्।

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  18. बहुत ही सुन्‍दरता से व्‍यक्‍त किया है आपने हर बात को इस रचना में शुरू से लेकर अंत तक रोचकता बनी रही ...आभार इस सशक्‍त प्रस्‍तुति के लिये ।

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  19. लंबी या छोटी के फेर में नहीं पड़ता...कविता है और अच्छी भी है.

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