बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

देसिल बयना भाग 17 : सास को खांसी बहू को दमा

-- करण समस्तीपुरी
हैलो जी ! लीजिये, आ गया बुध ! मन कर लीजिये सुद्ध !! और सुनिए एगो ताजा देसिल बयना !!! अब का बताएं.... उ तो आप भी जानते ही होंगे। जैसे ही गोसाईं बाबा पर संक्रांति का तिल-गुड़ चढ़ता है, बस सारा पर्व-त्यौहार पसर जाता है। हम तो एक्के बात जानते हैं भैय्या ! जब बसंती बयार बहेगा तो मनवा में हिलोर तो मारबे करेगा। पर्व-त्यौहार का बहाना कर के लोग मन का उल्लास बहराते हैं। अब देखिये न आज-कल गाँव-कस्बा से लेकर शहर-बाजार तक खाली परवे-त्यौहार हो रहा है।
शहर में तो आज-कल भोलंटाइन-पूजा की तैय्यारी चल रही है। सब नुक्कर-चौराहा पर न्योता का रंगीन काड और भोलंटाइन बाबा पर चढ़ाए वाला ताजा-ताजा ललका गुलाब का फूल मिल जाएगा। अब आप सोच रहे होंगे कि भोलंटाइन-पूजा का होता है ? अरे मरदे, अँगरेज़ मुलुक में परेम के देवता को 'भोलंटाइन' कहते हैं। और अपने मुलुक में सबसे ज्यादा परेम फागुने में न हुलसता है। सो जुआन-अधजुआन लड़का-लड़की सब फागुन महीना में 14 फरबरी को भोलंटाइन बाबा का पूजा करते हैं। समझे ??? अब पारक-उरक में गला-उला मिलते तो देखते हैं लेकिन भोलंटाइन-पूजा का ज्यादा विध-विधान हमको पता नहीं है। सब 'भोलंटाइन-पूजा' मनायेगा और हम इहाँ अकेले बोर होंगे.... सो अच्छा है चल रे मन 'रेवा-खंड'। कुच्छो है तो अपना गाँव, स्वर्गो से सुन्दर।
गाँव में तो हमरे जैसे एकाध पढ़े-लिखे आदमी ही भोलंटाइन बाबा का नाम जानते हैं। बांकी को तो पतों नहीं है। लेकिन ई मत बूझिये कि गाँव में सुन्ना उपास है। भाई, पर्व तो गांवो में भी हो रहा है। अरे 'शिवरात'। अब शिवरात का होता है, इहो बताना पड़ेगा का ? अरे शिव और पार्वती का ब्याह। अंगरेज़ मुलुक में परेम का पर्व मनाते हैं और अपने यहाँ डायरेक्ट बिआहे करा देते हैं। लेकिन ई मत बूझिये कि इहाँ भी तैय्यारी में कौनो कमी है। इहाँ काड के बदले धुजा-पताका लहरा रहा है और गुलाब नहीं तो गेंदा ही खिल रहा है। अब तो फिल्मियो गीत में कहता है 'ससुराल गेंदा फूल....' सो शिवजी ससुराल चले हैं तो सजावट गेंदे फूल से होगा ना... !!
सारा गाँव हरख-उल्लास से खल-खल कर रहा था। सबका अंगना-दुआर गाय के गोबर से लिपा-पोता गया है। लगता है जैसे इहे गाँव में शिवजी की बरात आयेगी। हम भोरे-भोर चले जा रहे थे, ओझटोली। भौजी कही थी पंडीजी को कथा कहे खातिर बुला लाने। गाँव-घर का शोभा निरख-निरख हमरा हिरदय बिहस रहा था। बनइ न बरनत नगर निकाई.... ओह! ई सुन्दरता पर तो हम सरंग को भी लात मार दें।
लेकिन ई का !!! मुसाई झा के दलान पर अभियो धुल उड़ रहा है। पूरा गाँव जवानी से छम-छम कर रहा है और सबका बुढ़ापा इन्ही के दुआर पर समा गया है। हम आवाज लगाए, 'पंडी जी ! ओ पंडी जी !!' अन्दर से खिलखिलाती हुई पतली आवाज आई, 'पंडी जी काम से गए हैं.... बाद में आइयेगा।' हम जैसे ही उनके दरवाजे से मुड़े कि देखते है, बेचारे बूढ़े मुसाई झा माथा पर गोबर का छिट्टा उठाए अफसियाते चले आ रहे हैं। हम कहे, 'परनाम पंडीजी !' पंडीजी आशीर्वाद क्या देंगे, धरफरा के बोले, 'ऐ ज़रा छिट्टा पकरो... !'
हम छिट्टा पकड़वा कर नीचे रखवाए फिर पंडीजी गमछी से मुँह पोछते हुए बोले, 'अब कहिये बौआ ! का बात है ?' हमने कहा पंडीजी ! उ भौजी बुलाये रही कथा कहे खातिर। मुसाई झा बोले, 'दुपहर में आयेंगे।' हम कहे, 'ना पंडीजी ! भौजी तब तक उपासे कैसे रहेंगी? अभिये बुलाई है। कहा है सबसे पहले हमरे यहाँ कह दीजिये फिर कहीं जाइयेगा। मुसाई झा बोले, 'हाँ ! उ तो सबसे पहिले आपही के यहाँ आयेंगे। लेकिन दुपहर से पहिले नहीं होगा।' हम कहे, 'पंडीजी ! इन्ना लेट काहे ? अभिये चलिए न।' मुसाई झा थोड़ा गर्माते हुए बोले, 'हम कहे न दुपहर में आयेंगे। अभी हमको फुरसत नहीं है। घर का इत्ता सारा काम है। सारा गाँव पवित्तर हो गया। हमरा घर-दुआर में अभी झाड़ू भी नहीं लगा है। लीपा-पोती फिर रसोई.... !' हम कहे, 'तो ई सब आप कीजियेगा... ?' मुसाई झा खिसियाके बोले, 'नहीं तो तुम्हारा ससुर करेगा... खच्चर कहीं के !' हम कहे, 'अरे पंडीजी उ नहीं, कहे का मतलब अन्दर पंडिताइन है, बहू भी है। फिर आप लीपा - पोती.... ?' मुसाई झा तमक के बोले, 'इहाँ हमरा जो सीख दे रहे हो सो ज़रा उनसे ही जा कर बतियाये लो ना... !!'
हम भी पूरा जोश में मुसाई झा के आँगन में घुसे। पंडिताइन खटिया पर बैठी पान लगा रही थी। हमने कहा, 'गोर लागी पंडिताइन !' पंडिताइन परेम से अशीसती हुई बोली, 'जुग-जुग जीयो बाबू। शहर से कब आये?' हम कहे कल्हे आये हैं पंडिताइन। पंडीजी के ललकारे चले तो आये थे मगर मुँह से बोल नहीं फूट रहा था। का कहें ? कैसे कहें ? किसी तरह हिम्मत कर के परदे में बोले, 'पंडिताइन ! सारा गाँव खल-खल कर रहा है। और आपका घर-आँगन अभी तक बसिए है।' पंडिताइन अभी कल्ला में पान रखी ही थी कि हमरा बात सुन के खांस पड़ीं। जोर की खांसी उठ गयी बेचारी को। 'खों....खों....अक्खों..... होआक...... थू..........!' ओरियानी में बलगम फेंकते हुए बोली, 'बौआ ! अब ऐसेही ही रहेगा अंगना-घर। अब पहिला वाला सुआस्थ है हमरा जो लीपा-पोती करें ? खांसी से दम नहीं धरा जा रहा है। अभी जरा सो धूप सेंकने बैठे हैं बाहर.....!' हमने कहा, 'हाँ ! उ तो है ! आपका उमिर हुआ मगर भौजी मतलब चुहलदेव भैय्या की ..... ?' पंडिताइन फिर से दूसरा पान लगाते हुए बोली, 'अब भौजी का बात भौजिये से पूछो। उ उमिर में तो हम लोग पहार ढाहते थे।'
हम कुछ पूछते, इस से पहले ही पलंग पर बैठी पैर रंग रही चुहलदेव झा की लुगाई बोलीं, 'बौआ ! इहाँ हमरा दुःख कौन समझे वाला है ? बचपने से बौआ दमा पकड़ लिया। उ तो वैसा घर था.... हमरे पप्पा ख्याल-बात रखे, डाक्टरी इलाज हुआ.... जो हम हैं।' भौजी बीच में जोर-जोर से दू बार सांस छोड़ती हुई बोली, 'इहाँ कौन देखे वाला है ? बौआ ! शरीर जुआन लगता है, बांकी भीतरे-भीतर कितना कष्ट है सो कौन समझेगा... ? इतना दम फूलता है कि रात भर जाग-जाग कर परात करते हैं। हंपसते-हंपसते पंजरी में दरद हो गया है। कभी-कभी तो लगता है अब सांस छूटा कि तब... ! ओहों... सों..... सोएँ.....साईं........!!' बाप रे बाप ! भौजी का सांस सच में तेजी से चलने लगा था।
आँगन में खड़े मुसाई झा सब सुन रहे थे। हम अपना जैसा मुँह लेके जैसे ही उनके सामने से गुजरे, पंडीजी तुरत वेदमंत्र पढ़ दिए, 'सुन लिए न बाबू साहेब ! "सास को खांसी, बहू को दमा ! अब कौन करे घर का कमा ?" सास खो-खो कर रही है और पतोहू का सोएँ साईं दम फूल रहा है तो घर का काम कौन करेगा ? बचे मुसाइए झा न सब से स्वस्थ.... इसीलिए न कहे कि बौआ बहुत काम है अभी बाद में आयेंगे !' मुसाई झा के व्यंग्य में भी व्यथा साफ़ झलक रहा था। इसीलिए ई कहावतो पर हंसी नहीं आयी।
लेकिन उ दिन से हम भी सीख लिए। जब भी कोई अपने निहायत कर्त्तव्य में भी सच या झूठ बहाना करता है और मजबूरी में उ काम किसी और के सिर बंधता है या नहीं होता है तो हमें बस मुसाई झा की बात याद आती है। "सास को खांसी, बहू को दमा ! अब कौन करे घर का कमा !!"

12 टिप्‍पणियां:

  1. Marmik.....Bimaree kee sthitee....khansee ho ya dama douno hee jaan leva hai .... asar chod gayee .......
    aapkee ye rachana ..........sath hee ek bhareepan bhee

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  2. एक प्रभावशाली कहानी के माध्यम से देसिल बयना को समझने के लिए बड़ी प्रतिभा चाहिए और आप में है।

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  3. ye sachmuch bahut marmik hai....aapane gahari chap chodi hai!
    Sadar
    http://kavyamanjusha.blogspot.com/

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  4. बहुत ही मजेदार ढंग से आपने यह पूरी कहानी सुनायी .. धन्‍य होती हैं गांव की महिलाएं भी .. सचमुच वे इतना बहाना कैसे बना लेती हैं ??

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  5. वाह, यह समझ आया कि चौदह फरौरी को प्रेम-व्रेम करना है।
    रेलगाड़ी प्रबन्धन से फुर्सत मिली तो देखेंगे! :-)

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  6. एक बार फिर शानदार प्रस्तुति। हां हास्य रस मे नहीं ।गंभीर है विषय इस बार।

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  7. अद्भुत मुग्ध करने वाली, विस्मयकारी।

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  8. Aapka Desil bayna shuru se hi accha lagta raha hai.Yeh bhi accha laga.

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  9. Jai ho bholantine baba ki...hum to jante he na he the ki kono bholantine baba b hai...pahle pata hota to humu baba ki puja karte na kuch fruit mil jata humko b..

    khair chhoriye..,...

    karan ji ...apki b jai ho..bahute majedar likha hai apne...

    aur jaha tak pandit ji ki bat hai ka karenge bahoto ke sath hota hai gaon se lekar sehar tak ajkal yahi sab ho raha hai...kuch kiya ni ja sakta iska...ab pandit ji ko kam karne me man lagta hai to karte hai ...ni lagta to dete jod ka jhar panditayen aur bahu ko to sara bimari ka bahana chhor kar kam shuru kar deti....
    aj bahute dino bad apke blog par aane ka samay mila..aur padhkar man gadgad ho gaya..bahute bahute dhanyawad apka..bahute badhiya raha desil bayna...
    :)

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  10. बहुत ही शानदार ढ़ंग से आपने देसिल बयना समझाया है।

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