शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

प्रेमचन्द जी की पुण्यतिथि पर

 प्रेमचन्द जी की पुण्यतिथि पर ...

मनोज कुमार


आज प्रेमचन्द जी की पुण्यतिथि है। उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर हम उनके जीवन के बारे में कुछ बातें आपके समक्ष लेकर आए हैं। किसी भी साहित्यकार की रचना को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए उसके व्यक्तित्व और जीवन दृष्टि को जानना बहुत आवश्यक होता है। उनका जीवन सहज और सरल होने के साथ-साथ असाधारण था। उनके जीवन के बारे में उनकी ही पंक्तियों में कहा जाए तो सही होगा,

“मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गड्ढ़े तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं उन्हें तो यहां निराशा ही होगी।”

मानवीय अनुभव की विविधता को चित्रित करने वाले मुंशी प्रेमचंद का जन्म एक गरीब घराने में काशी से चार मील दूर बनारस के पास लमही नामक गाँव में 31 जुलाई 1880 को हुआ था। अन्तिम दिनों के एक वर्ष सन् 1933-34 को छोड़कर, जो बम्बई की फिल्मी दुनिया में बीता, उनका पूरा समय बनारस और लखनऊ में गुजरा, जहाँ उन्होंने अनेक पत्र पत्रिकाओं का सम्पादन किया और अपना साहित्य सृजन करते रहे। उनके बचपन का नाम नवाब और असली नाम धनपतराय था। उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाकखाने में डाकमुंशी थे। उनकी माता का नाम आनंदी देवी था। आठ वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें मातृस्नेह से वंचित होना पड़ा। चौदह वर्ष की आयु में पिता का निधन हो गया। अपने बल-बूते से पढ़े। परिवार में फ़ारसी पढ़ने की परम्‍परा के कारण नवाब की शिक्षा फ़ारसी से शुरू हुई थी। तेरह वर्ष की उम्र तक उन्हें हिन्दी बिल्कुल ही नहीं आती थी। गोरखपुर के मिशन स्कूल आठवीं कक्षा पास करने के बाद उनका दाखिला बनारस के क्वीन्स कॉलेज में नवें दर्जे में हुआ। उस समय उनकी स्थिति ऐसी थी कि वे ख़ुद लिखते हैं, “पांव में जूते न थे। देह पर साबित कपड़े न थे। हेडमास्टर ने फ़ीस माफ़ कर दी थी।” हाई स्‍कूल की पढ़ाई के दौरान उनका विवाह हो गया और गृहस्‍थी का भार आ पड़ा विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ा कर किसी तरह उन्होंने न सिर्फ़ अपनी रोज़ी-रोटी चलाई बल्कि एक साधारण छात्र के रूप में मैट्रिक भी पास किया। 15 वर्ष की अवस्था में हाई स्‍कूल की पढ़ाई के दौरान, इनका विवाह कर दिया गया और गृहस्‍थी का भार आ पड़ा ऐसी परिस्थिति में पढ़ाई-लिखाई से ज़्यादा रोटी कमाने की चिन्ता उनके सिर पर आ पड़ी।

1898 में उन्होंने चुनार के एक मिशन स्कूल में मास्टरी शुरु की, तो पत्नी को साथ न ले गएवेतन प्रति माह अट्ठारह रुपए था। यह नौकरी करते हुए उन्होंने एफ. ए. और बी.ए. पास किया। एम.ए. भी करना चाहते थे, पर कर नहीं सके। शायद ऐसा सुयोग नहीं हुआ। एक बार उनके स्कूल की टीम का गोरों की टीम से फुटबॉल मैच हो रहा था। इसमें उन्होंने अन्य छात्रों के साथ गोरों की पिटाई कर दी। इसकी क़ीमत उन्हें नौकरी गंवा कर चुकानी पड़ी। साल भर के भीतर 1900 में उन्हें बहराइच के ज़िला स्कूल में नौकरी मिल गई। फिर वहां से उनका तबादला प्रतापगढ़ हो गया। इसी बीच आर्य समाज आन्दोलन के प्रभाव में आकर उसके सदस्य भी बने। दो वर्ष की छुट्टी लेकर उन्होंने 1902 में इलाहाबाद के टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में दाखिला लिया। 1904 में यहां से उत्तीर्ण हुए। 1905 में वे तबादला होकर कानपुर पहुंचे। उन्हीं दिनों कानपुर से “ज़माना” नामक उर्दू पत्रिका निकलनी शुरू हुई थी। इसके संपादक मुंशी दयानारायण निगम थे। नवाब राय नाम से उन्होंने ‘ज़माना’ में कहानियां और साहित्यिक टिप्पणियां लिखना शुरू कर दिया। ज़माना’ में वे ‘रफ़्तारे ज़माना’ स्तंभ लिखते थे। आर्य समाज का प्रभाव तो था ही, वे हिन्दू समाज की समस्याओं पर भी लिखते रहे।

स्कूलों के सब-डिपुटी इंस्पेक्टर के रूप में जून 1909 में उनका तबादला हमीरपुर हो गया। यहीं पर एक ऐसी घटना हुई कि प्रेमचन्द का जन्म हुआ। दरअसल 1901 से ही उन्होंने  मे उपन्यास लिखना शुरू कर दिया था। 1907 से कहानी लिखने लगे। उर्दू में नवाबराय नाम से लिखते थे। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों लिखी गई 1908 में उनकी कहानी सोज़े वतन प्रकाशित हुई थी। 1910 में यह कहानी ज़ब्त कर ली गई। सरकार को पता चल गया कि ‘सोज़े वतन’ के लेखक वास्तव में धनपत राय ही हैं। धनपत राय को तलब किया गया। किसी तरह नौकरी तो बच गई पर उनके लिखने पर पाबंदी लगा दी गई। 'सोज़े-वतन'की हज़ारों प्रतियां क्या जली वतन को प्रेमचन्द मिल गया। नवाब की कलम पर हुकूमत की पाबन्दी हो गयी थी। नवाब भूमिगत हो गए किन्तु कलम चलती रही।  अंग्रेज़ों के उत्पीड़न के कारण प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। 

1914 में उनका तबादला बस्ती हो गया। उन दिनों पेचिश की बीमारी ने उन्हें ऐसा घेरा कि वे इससे जीवन भर जूझते रहे। कमज़ोर सेहत के कारण वे निरीक्षण का काम छोड़कर कम वेतन पर स्कूल में शिक्षक के रूप में आ गए। 1916 में उनका तबादला गोरखपुर हो गया। यहीं उर्दू में उन्होंने ‘बाज़ारे हुस्न’ की रचना की। उनका पहला कहानी संग्रह ‘सप्त सरोज’ और ‘बाज़ारे हुस्न’ का हिन्दी रूपान्तरण “सेवा सदन” इसी अवधि में प्रकाशित हुआ। थोड़े दिनों के बाद उन्होंने उर्दू में “गोशाए आफ़ियत” की रचना की जो बाद में हिन्दी में “प्रेमाश्रम” के नाम से प्रकाशित हुई।

1920 तक सरकारी नौकरी की फिर सत्याग्रह से प्रभावित हो, नौकरी छोड़ दी। हुआ यह कि सन 1921 में गोरखपुर में गांधी जी ने एक बड़ी सभा को संबोधित किया। गांधी जी ने सरकारी नौकरी से इस्तीफे का नारा दिया, तो प्रेमचंद ने गांधी जी के सत्याग्रह से प्रभावित हो, सरकारी नौकरी छोड़ दी। रोज़ी-रोटी चलाने के लिए उन्होंने कानपुर के मारवाड़ी स्कूल में काम किया। पर कुछ दिनों बाद ही त्‍यागपत्र देकर मर्यादा” (बनारस) पत्रिका का संपादन करने लगे। इसके बाद काशी विद्यापीठ में हेडमास्टर के पद पर नियुक्त हुए। पर इसमें भी उनका मन नहीं लगा। नौकरी छोड़कर उन्होने 1923 में बनारस में सरस्वती प्रेस की स्थापना की। प्रेस ठीक से नहीं चला। काफ़ी नुकसान हुआ। 1924 में वे गंगा पुस्तक माला के साहित्यिक सलाहकार के रूप में लखनऊ पहुंचे। 1925 में उन्होंने “चौगाने हस्ती” की रचना की। गंगा पुस्तक माला की नौकरी छोड़कर वे 1927 में “माधुरी” के संपादक के रूप में लखनऊ पहुंचे। 1930 में हंस का प्रकाशन शुरु किया। 

जून 1933 में वे अजन्ता सिनेटोन कम्पनी के प्रोपराइटर एम. भवनानी के निमन्त्रण पर मुम्बई पहुंचे। अप्रैल 1934 तक उस कंपनी में रहे। वही उन्होंने “गोदान” लिखना शुरू किया जिसे बनारस वापस आकर पूरा किया। अजन्ता सिनेटोन कम्पनी के बंद हो जाने पर वे वापस बनारस आ गए। गोदान प्रकाशित हुआ। पर उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। 8 अक्टूबर 1936 को जलोदर रोग से बनारस में उनका देहावसान हुआ 

प्रेमचन्द जी के व्यक्तित्व के बारे में अगर अमृत राय के शब्दों में कहें तो, “नितांत साधारण वेशभूषा, उटंगी हुई धोती और साधारण कुर्ता, अचानक सामने पड़ जाने पर कोई विश्वास ही न करे कि ये हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक प्रेमचन्द हैं, साधारण जनसमूह के बीच आ पड़ने पर सबका हालचाल, नाम-गांव पूछने वाला, कोई हंसी की बात उठने पर ज़ोरदार ठहाका लगाने वाला, कभी-कभी बच्चों जैसी शरारत करने और मुस्कुराने वाला, नितांत साधारण, बंधी-टंकी दिनचर्या से जुड़ा, अपने को क़लम का मज़दूर मानने वाला यह आदमी हिन्दी का महान उपन्यासकार प्रेमचन्द था 

वे एक प्रकाश स्‍तंभ थे जो जीवन मूल्‍यों को बताते थे। प्रेमचंद साहित्य को उद्देश्य परक मानते थे। इसीलिए उनके साहित्य में सामान्य मनुष्य को पृष्ठभूमि में न रखकर केंद्र में रखा गया है और उसकी संवेदना, पीड़ा और संकट को साहित्य में उठाया गया है। प्रेमचंद के पहले हिन्दी उपन्यास साहित्य रोमानी ऐयारी और तिलस्मी प्रभाव में लिखा जा रहा था। उन्होंने उससे इसे मुक्त किया और यथार्थ की ठोस ज़मीन पर उतारा। यथातथ्यवाद की प्रवृत्ति के साथ प्रेमचंद जी हिंदी साहित्य के उपन्यास का पूर्ण और परिष्कृत स्वरूप लेकर आए। आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपने कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने प्रतिबिम्बित जब हम उनके उपन्यासों का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि उनके साहित्य में ऐसे पात्र भी हैं जो रूढ़ि जर्ज़र संस्कारों से संघर्ष ही नहीं करते बल्कि उन औपनिवेशिक शक्तियों के ख़िलाफ़ भी खड़े होते हैं, जो उनका शोषण कर रहे हैं। उनके पात्रों में में ऐसी व्यक्तिगत विशेषताएं मिलने लगीं जिन्हें सामने पाकर अधिकांश लोगों को यह भासित होता था कि कुछ इसी तरह की विशेषता वाले व्यक्ति को हमने कहीं देखा है। 

प्रेमचंद देश का वह महान रत्‍न थे जिन्‍होंने जनवादी लेखनी को नया आयाम दिया। 1936 में लखनऊ में एक अधिवेशन में भाषण देते हुए प्रेमचंद जी ने कहा था, साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है – उसका दरज़ा इतना न गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।” 

प्रेमचंद का जीवन औसत भारतीय जन जैसा है। यह साधारणत्व एवं सहजता प्रेमचंद की विशेषता है। प्रेमचंद दरिद्रता में जनमे, दरिद्रता में पले और दरिद्रता से ही जूझते-जूझते समाप्त हो गए। फिर भी वे भारत के महान साहित्यकार बन गए थे, क्योंकि जीवन को कसौटी पर कसने के लिए उन्‍होंने एक मापदंड दिया। उन्होंने अपने को सदा मज़दूर समझा। बीमारी की हालत में, मरने के कुछ दिन पहले तक भी अपने कमज़ोर शरीर को लिखने पर मज़बूर करते थे। कहते थे, “मैं मज़दूर हूं! मज़दूरी किए बिना  मुझे भोजन का अधिकार नहीं है।” इसीलिए प्रेमचंद के साथ खड़े होने का मतलब मुक्ति के साथ खड़ा होना है। लाखों-करोडों भूखे, नंगे, निर्धनों की वे ज़बान थे। धार्मिक ढ़कोसलों को ढ़ोंग मानते थे और मानवता को सबसे बड़ी वस्तु। उनके उपन्यासों में उठाई गई प्रत्येक समस्या के मूल में आर्थिक विषमताओं का हाथ है। उनके उपन्यासों में प्रत्येक घटना इसी विषमता को लेकर आगे बढती है। शायद पहली बार शोषित, दलित एवं ग़रीब वर्ग को नायकत्व प्रदान किया। इनमें मुख्य रूप से किसान, मज़दूर और स्त्रियां हैं। 

प्रेमचंद का साहित्य आज भी प्रासंगिक है। उनकी कहानियों में आम आदमी की संवेदना है। प्रेमचंद ने अपने साहित्‍य के माध्‍यम से मानवीय मूल्‍यों को स्‍थापित करने का गंभीर प्रयास किया। प्रेमचंद के उपन्‍यासों में आम आदमी का चरित्र दिखाई देता है। प्रेमचंद ने जो अभिशाप देखा था, अपने जीवन में भोगा था, उसी को उन्होंने अपने साहित्य में प्रमुख स्थान दिया। डॉ. नगेन्द्र कहते हैं, “गत युग के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में आर्थिक विषमताओं के जितने भी रूप संभव थे, प्रेमचंद की दृष्टि उन सभी पर पड़ी और उन्होंने अपने ढंग से उन सभी का समाधान प्रस्तुत किया है, परन्तु उन्होंने अर्थवैषम्य को सामाजिक जीवन का ग्रंथि नहीं बनने दिया। .. उनके पात्र आर्थिक विषमताओं से पीड़ित हैं परंतु वे बहिर्मुखी संघर्ष द्वारा उन पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, मानसिक कुंठाओं का शिकार बनकर नहीं रह जाते।” 

हिंदी साहित्‍य में उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। वे लेखनी के माध्‍यम से भविष्‍य का मार्ग दर्शन भी करते थे। आज उनके दिखाए जीवन का मूल्‍य भुलाया जा रहा है। प्रेमचंद का साहित्‍य सामाजिक जागरूकता के प्रति प्रतिबद्ध है क्योंकि उनका साहित्य आम आदमी की साहित्‍य है। मुंशी प्रेमचंद अपनी सरल भाषा और व्‍यावहारिक लेखन के कारण पाठकों में शुरू से ही प्रिय रहे हैं। गांव या किसानों का सजीव वर्णन हो या गरीबी के अंश, प्रेमचंद की कथाओं में किसी भी भावना को शब्‍दों के माध्‍यम से चित्रित होते साफ देखा जा सकता है। प्रेमचंद की भाषा सरल, सजीव, और व्‍यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्‍यकतानुसार अंग्रेजी, उर्दू, फारसी आदि के शब्‍दों का भी प्रयोग है, प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है। वे गरीबी में जन्‍में, अभावों में पले बढ़े और दरिद्रता से जूझते हुए ही संसार से चले गए।

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प्रेमचंद का रचना संसार – 

उपन्यास- वरदान, प्रतिज्ञा, सेवा-सदन(१९१६), प्रेमाश्रम(१९२२), निर्मला(१९२३), रंगभूमि(१९२४), कायाकल्प(१९२६), गबन(१९३१), कर्मभूमि(१९३२), गोदान(१९३२), मनोरमा, मंगल-सूत्र(१९३६-अपूर्ण)।
कहानी-संग्रह- प्रेमचंद ने कई कहानियाँ लिखी है। उनके २१ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे जिनमे ३०० के लगभग कहानियाँ है। ये शोजे वतन, सप्त सरोज, नमक का दारोगा, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रसून, प्रेम द्वादशी, प्रेम प्रतिमा, प्रेम तिथि, पञ्च फूल, प्रेम चतुर्थी, प्रेम प्रतिज्ञा, सप्त सुमन, प्रेम पंचमी, प्रेरणा, समर यात्रा, पञ्च प्रसून, नवजीवन इत्यादि नामों से प्रकाशित हुई थी।

प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियोन का संग्रह वर्तमान में 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित किया गया है।

नाटक- संग्राम(१९२३), कर्बला(१९२४) एवं प्रेम की वेदी(१९३३)

जीवनियाँ- महात्मा शेख सादी, दुर्गादास, कलम तलवार और त्याग, जीवन-सार(आत्म कहानी)
बाल रचनाएँ - मनमोदक, कुंते कहानी, जंगल की कहानियाँ, राम चर्चा।

अनुवाद  : इनके अलावे प्रेमचंद ने अनेक विख्यात लेखकों यथा- जार्ज इलियट, टालस्टाय, गाल्सवर्दी आदि की कहानियो के अनुवाद भी किया।