सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

रो मत, मिक्की

-- हरीश प्रकाश गुप्त

सुमि की ससुराल से कुरियर से आई चिट्ठी ने सबको सकते में ला दिया। अभी परसों ही तो सरल यहाँ से गया है। शायद मम्मी या पापा में से कोई बीमार होगा, सुमि के चेहरे की लकीरें ऐसा कुछ कहने को थीं।

गर्मी की छुट्टियाँ। सभी तो होते हैं घर पर। दोनों भैय्या, भाभी, दीदी, छोटी बहन अनु, भतीजी सोनल और दीदी का बेटा मिक्की। गर्मियों में ही एक साथ सब मिल पाते हैं, जब अलग-अलग जगह से आकर सब एक जगह इकट्ठे होते हैं। खूब हंसी-ठट्ठा, अपने-अपने घरों की बातें और भविष्य की योजनाएं। गर्मियों के बड़े-बड़े दिन भी इन सब में छोटे पड़ जाते। दस साल की सोनल छोटे मिक्की के साथ खूब खेलती।

आज सुमि ने अपने पापा की खूब प्रंशसा की थी। पापा मेरा बहुत ख्याल रखते हैं। रिटायर्ड हैं, ज्यादातर घर पर ही रहते हैं। मेरे काम में हाथ भी बटाते हैं। यहाँ तक कि किचन में आकर सब्जी काटना, मिक्सर में चटनी पीसना वगैरह- वगैरह। कभी-कभी तो मेरे देर से सोकर उठने पर वो बेड टी भी....................।

दीदी इतनी ज्यादा बड़ाई मत करो कि कहीं सच भी बनावटी लगने लगे। सुमि को बीच में ही रोकते हुए छोटी बहन अनु बोल पड़ी थी।

मिक्की, सोनल से हमेशा की तरह बाजी जीतने पर प्रसन्न था। सोनल पर हार जाने का कोई भाव नहीं था। वह भी उसकी खुशी में शामिल थी।

भैय्या ने चिट्ठी पढ़ी, आदरणीय बाबूजी,............... पढ़ते-पढ़ते अचानक भैय्या की आवाज गुम हो गयी।

भैय्या जरा जोर से पढ़ो। अनु असहज उत्सुकता के साथ बोल पड़ी। भैय्या पत्र पढ़ने लगे।

इस पत्र के साथ सरल को भेंट में दिए गए रुपए भेज रहा हूँ। कपड़े सामान आदि किसी के आने पर भिजवा दूँगा। हम लोग आदर्शवादी विचारधारा के हैं। लेन-देन में विश्वास नहीं करते। आगे से हमें किसी प्रकार की भेंट आदि न दी जाए। आशा है आप सब हमारी भावनाओं को समझेंगे व इसे अन्यथा नहीं लेंगे। आपका......।

भैय्या का चेहरा सुर्ख हो चला। तनाव स्पष्ट झलकने लगा था। हाँ, अब आदर्शवादी क्यों नहीं ! पहले तो स्टेटस के नाम पर ही.............अब आदर्श। जरूर अभिलाषाएं अभी भी अशेष न रहीं होंगी। कितना खोखलापन है इनके आदर्शों में। तमाम संयम के बाद भी अन्दर के शब्ट क्रोध स्वरूप होठों पर उतर आये।

‘सुमि, तुमने पहले कभी बताया नहीं।’ बाबू जी भी तब तक कमरे में आ चुके थे। ‘कितना साहस है तुममें।’

सुमि ने दीदी के आँचल में अपना चेहरा छिपा लिया।

‘सोनल, मिक्की के साथ मिलकर खेलो। मिक्की को रुलाओ मत।’ मिक्की के खेलते-खेलते अचानक रो पड़ने पर भाभी ने सोनल को डाँट लगाई।

‘मम्मी, मैंने कुछ नहीं किया। मिक्की इस बार जीत नहीं पाया है, न। हर बार तो इसे मैं ही जिताती थी।’

मिक्की की अपेक्षा इस बार पूरी नहीं हो सकी थी। हर बार जीतते रहने के भ्रम में वह यह नहीं जान सका था कि उसकी हर जीत में सोनल का प्रयास है उसे प्रसन्न रखने का। मिक्की की अपेक्षाएं सोनल से भी बड़ी हो चली थीं और रोना अपेक्षा पूरी न होने की प्रतिक्रिया।

भाभी सोनल को ही समझा रही थी।

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11 टिप्‍पणियां:

  1. लघुकथा सशक्त भाषा में लिखी होने के साथ-साथ अन्त:संघर्ष का सफलतापूर्वक निर्वाह करती नज्ञर आती हैं।

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  2. भैया हमे समझ नही आयी. एक हिन्दी का मास्टर रखेन्गे तब कहे पल्ले पडेगी.

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  3. हरीश जी की यह कथा अच्‍छी लगी ।

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  4. हाँ, अब आदर्शवादी क्यों नहीं ! पहले तो स्टेटस के नाम पर ही.............अब आदर्श। जरूर अभिलाषाएं अभी भी अशेष न रहीं होंगी। कितना खोखलापन है इनके आदर्शों में।’

    ............. कटु सत्य की सम्प्रेषनीय व्यंजना !!

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  5. राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  6. is baar ki laghu katha palle nahin padi bhai ji, do baar padhi, tub bhi sir pair samajh naahin aaya, sorry!

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