उस दिन काफी अंतराल के बाद समीर के यहां रुचिरा पहुंची। पता नहीं समीर कई दिनों के बाद आने के कारण शिकायत करने लगे। किसी काम के बोझ का बहाना बनाना पड़ेगा। वह मन-ही-मन यह सोच ही रही थी कि समीर सामने आ गया। उसके चेहरे पर मुस्कान की कांति फैली हुई थी। उसकी मन्द-मन्द मुस्कान ही तो रुचिरा को काफी भाती थी। निस्संकोच व्यवहार से आकर समीर का मिलना रुचिरा को अच्छा लगा। उसके चेहरे पर कोई शिकायत का भाव नहीं था। रुचिरा को अब किसी बहाने की आवश्यकता ही नहीं रह गई थी। समाने सोफा पर बैठते ही समीर ने साहित्य की चर्चा शुरु कर दी।
सूर्यास्त का समय होने को आ गया। साहित्य की विवेचना से अधिक रुचिरा को समीर का साथ होना अच्छा लग रहा था। उसके चेहरे पर हर्ष का गुलाबीपन तैर रहा था। सहसा समीर को ध्यान आया, चाय का समय हो चला है। बोला, “चाय पीयेंगी?”
“इतनी भी जल्दी क्या है? .... .... ठहर कर पी लेंगे।” रुचिरा ने कहा। यह उत्तर सुन समीर को अच्छा लगा। एक पल उसकी आंखों में देखा, फिर साहस कर पूछ बैठा, “आप कुछ अलग-सी दिख रहीं हैं आज। ये आपके चेहरे पर जो भाव हैं ... ... मानों आपके सौंदर्य से कविता फूट रही हो।”
रुचिरा के रोम-रोम तरंगित हो गए। बोली, “तुम भी आज अधिक अच्छे लग रहे हो।” फिर समीर की आंखों में विश्वास से देखते हुए बोली, “एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगे?”
समीर ने सिर हिला कर ना कहा।
“सच्ची!”
“हां।”
“एक बार फिर सोच लो।”
“कहा तो हां।”
“प्रामिस!” रुचिरा ने हाथ बढ़ाया। समीर की नज़रें रुचिरा की नज़रों से मिली। समीर ने हाथ आगे कर दिया। रुचिरा ने अपने हाथ में उसका हाथ लेकर कहा, “हाथ दिया है, साथ भी दोगे? छुड़ाओगे तो नहीं?” रुचिराके स्वर कांप रहे थे।
समीर ने साहस संजोकर कहा, “नहीं, .. कभी नहीं।” बात उसने दिल से कही थी और स्वर में गाम्भीर्य था। उसने अपना हाथ नहीं हटाया। रुचिरा बोली, मैंने तुमसे कुछ ऐसा तो नहीं मांग लिया जो तुम्हें असहज हो। जानती हूं, मैं तुम्हारे योग्य नहीं। मेरी तुम्हारी समानता भी नहीं। सामाजिक और पारिवारिक स्थिति हमारे और तुम्हारे बीच दूरी तो नहीं बना देगी?”
समीर का हृदय भर आया। रुद्ध कंठ से बोला, “आप कैसी बातें करती हैं? मैं ही कौन आपके योग्य हूं? आप तो महान् हैं। साहित्य की विद्वान हस्ती। एक स्थापित लेखिका। मैं तो एक अदना इंसान हूं।” उसकी आंखों में जल-कण तैर गए। वह उठा, अंदर की ओर चला गया।
थोड़ी देर बाद जब समीर लौटा तो उसके हाथ में चाय की ट्रे थी। इस बार वह संयत था। चाय का प्याला रुचिरा की ओ बढ़ाते हुए उसने पूछा, “आपने हमारे आपके बीच असामनता की बात क्यों की?” रुचिरा समीर के सरल व्यवहार से मुग्ध हो बोली, “तुम इतने सहृदय हो ... ... तुम्हें मैं दबाव में निर्णय लेने को प्रेरित नहीं करूँगी। मैं उम्र में तुमसे बड़ी हूँ। समाज इसे सहज स्वीकृति नहीं देगा। तुम एक सम्पन्न परिवार से हो, जिसका इस शहर में साख एवं रुतबा है। .. .. और मैं एक साधरण, क़र्ज़ में डूबे लिपिक की पुत्री। एक प्राइवेट कॉलेज में शिक्षिका। .. .. किन्तु मुझे अपने सामर्थ्य और भविष्य पर विश्वास है।”
समीर को रुचिरा पसंद थी। उसे उसकी सादगी और स्पष्टवादिता ने सदा ही प्रभावित किया है। “मुझे इस साख और रुतबा से कोई लेना-देना नहीं है। मुझे आप अच्छी लगती हैं। आपके ज्ञान और विद्वता का मैं कायल हूं। एक साहित्यकार के रूप में सब आपका सम्मान करते हैं, मैं भी।”
इस वार्तालाप ने दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास भर दिया। क्षण भर में संबंधों में सागर की गहराई समा गयी। समीर ने जैसे अपने भविष्य को निर्धारित कर लिया। उसे न धनाढ्य परिवार चाहिए न ऊंची बिरादरी। समीर ने न कभी अपने पिता के पैसों पर विलासिता का जीवन जिया था, न वैसी कोई महात्वाकांक्षा थी उसकी। वह तो कब से रुचिरा में भविष्यत् जीवन-सहचरी को देखना शुरु कर दिया था।
ट्रिंग-ट्रांग... ! दरवाजे पर घंटी बजी थी। फिर रामू काका की आवाज़ आयी थी, 'समीर बाबू ! किसी की शादी का कार्ड आया है, आपके ही नाम से... ! समीर रुचिरा के हाथों से हाथ छुडाते हुए बोला, 'मेरे नाम से ?' समीर का आश्चर्य होना स्वाभाविक था। इस से पहले तो शादी-व्याह, समारोह आदि के कार्ड सेठ दीन दयाल के नाम से ही आते थे। उसके नाम से तो बमुश्किल पत्र-पत्रिकाएं ही आया करती थी। समीर कमरे से बाहर आ कर बोला, 'किसका कार्ड है, काका ?' जवाब में रामू काका ने समीर के हाथों पर लाल रंग का एक लम्बा सा लिफाफा रख दिया। समीर कार्ड पर सुनहले अक्षरों में लिखे नाम पढ़ने लगा। 'सौ. रामदुलारी परिणय......!' समीर एकबारगी उछाल पड़ा। 'अरे रुचिरा जी ! यह देखिये.... !' कहता हुआ वह अन्दर गया और रुचिरा के बराबरी में बैठते हुए कार्ड खोल कर सामने रख दिया।
कार्ड का एक-एक अक्षर बड़े ही स्नेह और आत्मीयता से पढ़ा था दोनों ने। कार्ड को पढ़ते हुए दोनों जैसे समाधिस्थ से हो गए थे। आँखों की दो जोरी में कई सपने तैर गए थे और होंठों पर शरारती मुस्कान। रुचिरा की गंभीर आवाज़ ने ही इस समाधि को तोडा था, 'समीर ! अब मुझे चलना चाहिए ! कार्ड मेरे घर भी आया होगा। रामदुलारी की शादी में जाने की तैय्यारी भी तो करनी पड़ेगी !"
शादी की तैयारी हो रही है लेकिन क्या सोच रही है रामदुलारी ? क्या उसकी आँखों में भी भविष्य के सुनहरे सपने हैं ? या अतीत की यादें ?? जो भी हो शादी है मिथिलांचल की ! और अतिथि आ रहे हैं पटना से !! देखना न भूलें ! अगले हफ्ते इसी ब्लॉग पर !!
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पड़ाव |
भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37|| |
अच्छी लगी......
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Badia ank. agli kadi ka punah intejaar.
जवाब देंहटाएंये कहानी तो प्रारम्भ से पढनी पड़ेगी.....अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगा! उम्दा प्रस्तुती! बधाई!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंइन्तजार है जानने का कि रामदुलारी क्या सोच रही है.
जवाब देंहटाएंkahaani to acchi lag rahi hai....magar haay ismen aapne sameerlal ji ko kyun ghusa diyaa....??ha...ha...ha..ha....!!
जवाब देंहटाएंकथानाक को विस्तार मिल रहा है.. !!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद .......... !!!!