-- करण समस्तीपुरी
ई बार फगुआ में घर गए तो चमकी मौसी के घर बेनीपुर भी घूम आये। इस्कूल में कुछो के छुट्टी मिले कि हम सीधे बेनिपुरिया रास्ता पकड़ लेते थे। शीत भैय्या के बियाह में तो चार महीना तक हम बेनियेपुर में रहे थे। फागुन में गए सो गर्मी-तांतिल (ग्रीष्मावकाश) बिताइए के आये। पुपरी वाली भौजी बड़ी मिलनसार और मजकियल थी। हर बार जतरा (यात्रा) केंसिल करा देती थी।
जब से मुआ ई नौकरी हुआ, सब रास-रंग छूट गया। अब दूर भी इतना हो गया है कि साल में एक बार तो मुश्किल से हफ्ता भर के लिए घरे जा पाते हैं। मौसी ने कितनी बार बुलबाया था। बसंत भैय्या के बियाह में कितना सिनेह से कहा था। लेकिन हम पहिलही होली के लिए टिकस (टिकट) कटा लिए थे। सो जा नहीं सके।
होली में मौसी का फ़ोन आया रहा घर पर। बड़ी उलहना दे रही थी। दोनों भौजियों ने भी बड़ी मनुहार किया था। होली के बिहाने (सुबह, कल हो कर ) चल दिए बेनीपुर। दिन ढलते-ढलते पहुँच गए।
मौसा बाहर में बैठे हुए थे। आँखों पर गोलका चश्मा था। हम पैर छुए तो हुलस के गले लगाए और जोर-जोर से पुकार कर सब को बुला लिए। खाली दोनों भौजी ओसारे पर खिड़की से झाँक रही थी। मौसी हाथ पकड़ के भीतर ले गयी। आँगन में रंग का छाप अभियो था। घुसते ही भौजी सब हंसी-मजाक शुरू कर दी। मौसी हमसे पूछे बिना ही हुकुम सुना दिया, 'एक हफ्ता से पहिले इहाँ से हिलना भी नहीं है। नौकरी-चाकरी' का का मतलब ? माय-मौसी भी छूट जायेगी का?' बड़की भौजी टोन छोडी, "हाँ,हाँ ! बौआ होली में नहीं आये तो का..... अभी चैत में बलजोरी खेलना तो बंकिये है !"
हंसिये-मजाक और खाते-बोलते कैसे तीन दिन बीत गया, पतो नहीं चला। छोटकी भौजी शहरी थी। मजफ्फरपुर की। समझिये कि नया ज़माना कि अपटूडेट लेडी थी। लेकिन एक बात हमने महसूस किया था। मजफ्फरपुर वाली भौजी का सिक्का पूरा घर में जम गया था। मजफ्फरपुर से दहेज़ और सन्देश का पेटारी भी खूब उतरा था। अभी तक चलिए रहा था। हम देखे कि ई बार चमकी मौसी के घर की फिजां कुछ बदली हुई है। छोटकी भौजी की 'वाह-वाह' और बड़की को 'ताना'!
मूंग का चोखा हमरे बचपने से बहुत पसंद है। रात में मिला तो दू गो रोटी दबा के खा लिए। कहा भी कि जमीरी नीबू डाल दिया सो चोखा लाजवाब हो गया है। छूटते ही मौसी बोली, 'बौआ ! मजफ्फरपुर वाली के हाथ में तो एकदम जादू है। जौन चीज में हाथ लगा देती है, समझो मुँह से नहीं छूटेगा। देखो, यही चोखा कितना इलिम से बनाया है कि मन हो रहा है, हाथ चाटते रहें।' हमभी मन मे सोचे, 'वाह ! चोखा बनाए में भी कुछ कलाकारी है या..... बस नीबू, प्याज और हरी मिर्च का कमाल....!'
हमें खाना-पीना में नमक ज्यादा हो जाए तो अच्छा नहीं लगता और करी-बरी बहुत पसंद है, पुपरी वाली भौजी ई बात जानती थी। सुबह करी-बरी में नमक हिसाबे से दिया। मौसी दुपहर में जीभ पर देते ही उखर गयी, 'ई जरूर पुपरी वाली का बनाया होगा। कैसा बेसुआद करी बनायी है। थू..... निमक का भी पता नहीं है। कौनो लूर-गुण नहीं है करमजली में। पुपरी वाली भौजी मने-मन भुनभुना के रह गयी थी और मजफ्फरपुर वाली भौजी चट से कटोरा में भर के 'आलूदम' मेरे और मौसी के थाली में रख गयी।
आह... ! लाल-लाल रस में तेल उपरे में छह-छह कर रहा था। गरम मसाला की खूसबू जैसे ही नथुनों में गयी, मौसी प्रफुल्लित होते हुए बोली, 'ई देखो ! ई हुआ न तरकारी ! परदेसी पूत इत्ता दिन पर आया है.... ई को चटक-मटक खिलायालाएगी तब तो फिर आयेगा..... !' फिर बोली, 'खाओ बेटा ! कहा न.... मजफ्फरपुर वाली का हाथ लगा कि खाना का रूचि बढ़ जाता है।'
सांझ में मछली का पिलान बना। बसंत भाई गंडक से बड़का-बड़का रोहू मरवा के लाये। 'मछली मजफ्फरेपुर वाली बनायेगी।' मौसी हिदायत देकर परोस में चली गयी थी। रोहू को काटते-धोते थोड़ी रात भी चढ़ गयी। फिर मजफ्फरपुर वाली भौजी उमें लहसुन-हल्दी लगा के ले गयी तलने। लेकिन उलटे पैर रसोई से बाहर आ गयी। दुन्नु भौजी में कुछ सलाह मशविरा हुआ। फिर बड़की भौजी स्थिर से बसंत भाई को बुला के बोली कि मछली तलने के लिए तो तेले नहीं है। अब इत्ती रात में सरसों तेल कहाँ मिलेगा। हम भी बसन्त भाई के साथ गए, धनिक लाल के दूकान तक। मगर उहो ससुर सांझे दूकान बंद कर के चम्पत था। हार कर के आये और बोले, जौन तेल है वही में बना दो।
रात में सब का पिलेट लगा। मौसा मछली का एगो कुटिया (टुकड़ा) हाथ में उठाते ही मुँह बिचका कर बोले, "धुर्र्र.... एक्को पीस सही नहीं है। सब लर-बर है।' शीत भैय्या एक टुकड़ा खाते ही बोले, 'धत....तेरे कि.... कैसे जला-पका के बनाया है.... मछली का बिसैनी (गंध) भी नहीं गया है।' हम और बसंत भैय्या तो सारी कहानी जानते थे। सो चुप-चाप थे। लेकिन अब मौसी का पारा गरम हो गया। बोली, 'हम पहिलही कहे थे.... मजफ्फरपुर वाली को बनाने... ई जरूर पुपरी वाली के हाथ का है।'
हम सोचे कि फिर बड़की भौजी नाहक सुनेंगी.... सो फटाक से बोल दिया, "ना मौसी ! मछली तो छोटकीये भौजी बनाई है।" मौसी उ तरफ मुड़ के बोली, "लेकिन उ के हाथ का तो ऐसा नहीं होता है..... का हुआ दुल्हिन ?" छोटकी भौजी बोली, "तेल कम्मे था.... सो बढ़िया से तलाया नहीं और मसाला भी नहीं भुना सका।" मौसी एक बड़ा सा 'ओ...' बोली लेकिन अब तक चुप-चाप ओरियानी में खड़ी बड़की भौजी के हाथ बहुत दिनों के बाद मौका लगा था। हम से मुखातिब हो फट से चिहुंक पड़ीं, "देखे बौआ ! 'तेल बनावे तिमना बहुरिया के नाम !' अब समझे, जादू किस में है और व्यंजन स्वादिष्ट कैसे बनता है?"
हा....हा....हा.... ! 'तेल बनावे तिमना बहुरिया के नाम !' भौजी की कहावत सुनकर हम तो मुँह वाला कौर सरकते-सरकते बचे। मौसा भी मुस्किया रहे थे। शीत भाई बड़ी-बड़ी आँखों से भौजी को देखे लगे और बसंत भाई चुप-चाप मुँह झुकाए सरपट मछली-भात खाए जा रहे थे। हम धीरे से सह देते हुए बोले, 'का बात कही हो भौजी ! कहाँ से लाई ई कहावत ?" फिर भौजी बोले लगी, "देखते नहीं हैं बौआ ! चोखा में नीबू-प्याज और हरी मिर्च पड़ जाए तो हाथ में जादू है। आलूदम में तेल ज्यादा पानी कम.... ऊपर से मसाला गरम तो ई हुआ तरकारी। लेकिन आज वही हाथ और वही कराही (बर्तन).... फिर काहे बिगड़ा तिमन ? अब समझे न.... खाना का रूचि हाथ से नहीं तेल-मसाला से बढ़ता है।" हम बोले, "हाँ भौजी ! सरपट समझ गए !"
'तेल बनावे तिमना बहुरिया के नाम !' हम बड़की भौजी की कहावत सरपट समझ गए। आप नहीं समझे तो ऐसे समझिये, "कामगार की कुशलता उचित संसाधन पर निर्भर करती है। पर्याप्त संसाधन/सामान ना मिले तो अच्छा कारीगर भी अच्छी चीजें नहीं बना सकता। अतः सफलता का सारा श्रेय सिर्फ कारीगर को नहीं जाना चाहिए। क्यूंकि वस्तु की गुणवत्ता कारीगर से कहीं ज्यादा उसमे प्रयुक्त सामग्रियों से होती है।" लेकिन कहीं आप भी संसाधन को छोड़ कर सारा श्रेय कर्ता को देना चाहेंगे, तो मुझे भी कहना पड़ेगा, 'तेल बनावे तिमना बहुरिया के नाम !!'
सही है .. तेल बनावे तिमना बहुरिया के नाम !
जवाब देंहटाएंलेखन में व्यंग्य के तत्वों की मौजूदगी से आंचलिकता के तेवर और मुखर हो गए हैं।
जवाब देंहटाएंहंसी हंसी मे भी कितनी ग्यान्वर्धक बातें सीखने को मिलती है.
जवाब देंहटाएंहंसी हंसी मे भी कितनी ग्यान्वर्धक बातें सीखने को मिलती है.
जवाब देंहटाएं"तेल बनावे तिमना बहुरिया के नाम "
जवाब देंहटाएंe kahawat to mast hai..ab to koi puche ki kaisa khana bana hai to bas e kahwat suna dena hai ...majedar lajedar delsil bayna... padhkar to muh me pani aa gaya...
बहुते नीक जकां समझा देलिए कर्ण जी. सच में अगर जादू हाथ में ही होता तो मछली बिना तेल के भी अच्छी बननी चाहिए थी..... अति उत्तम कोटि के लेख रचना. १०० में से ९३ नंबर हम दे रहे हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंवाह कहावत को सही समझाने के लिए रोचक कथा.....बहुत खूब
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