आँच-8 |
-- हरीश प्रकाश गुप्त
रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। आँच के विगत अंक में लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाली जिन काव्य रचनाओं का प्रसंग चर्चा में आया था उनमें से एक- करन समस्तीपुरी की रचना पर चर्चा की जा चुकी है। दूसरी रचना है श्याम सुन्दर चौधरी की कविता भाषा। आज की आँच में इस कविता पर समीक्षात्मक चर्चा की जा रही है।
ब्लाग पर श्याम सुन्दर चौधरी से परिचय उनकी इस कविता के माध्यम से हुआ। चौधरी मूलतः कहानीकार हैं। वे संवेदनशील हैं और अपने आस-पास से विषय उठाना भली-भाँति जानते हैं। ‘भाषा’ कविता उनकी इसी ग्रहणशील प्रकृति की परिचायक है। चौधरी समाज के यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकार हैं और इस कविता से भी उनकी यही प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है।
साठोत्तरी प्रयोगवाद (नई कविता) के शिल्प पर रची गई चौधरी की यह कविता ह्रासमान मानवीय मूल्यों का चित्र ही नहीं उकेरती बल्कि उन मूल्यों की रक्षक पीढ़ी की वेदना को भी समानान्तर चित्रित करती चलती है। प्रेम के बदले उपेक्षा और उपकार के बदले तिरस्कार से आहत वर्ग अपने अन्तर्द्वद्व, दुःख और कष्ट को आशा, स्नेह और उपकार के आवरण से ढके रहता है। इन सबके मूल में है वह सुख जो दूसरों की आँखों में देखने की चाह में बहुत कुछ सहने के लिए प्रेरित करता है और दूसरों की आँखों में दिखने पर वह अपार हो जाता है। भौतिकवाद की गणित में हर चीज को तौलने वाले अभिमानी-अहंकारी वर्ग की न तो उन मूल्यों तक पहुँच है और ना ही उसके पीछे छिपी संवेदना की समझ। क्योंकि उसने विविध प्रकार के आग्रहों की ऊँची-ऊँची दीवारों से स्वयं को घेर रखा है। इसीलिए उसे संवेदना की उस भाषा की अनुभूति ही नहीं होती। समाज में व्याप्त संकुलित संवेदनहीनता से कवि आहत तो है लेकिन निराश नहीं है और उसे सत्य से साक्षात्कार के लिए हृदय से निकली भाषा अधिक प्रभावशाली जान पड़ती है।
चौधरी अपनी संवेदनशीलता से कविता की भावभूमि पर उतरे तो हैं लेकिन वे अपने कथाकार चरित्र के प्रभाव से इस कविता को बचा नहीं पाए हैं और कविता की भाषा में अनावश्यक विस्तार आ गया है। वर्णनात्मक होने से कविता सरल तो अवश्य है पर शब्दसंयम के अभाव में कविता समाजवादी प्रतिबद्धता और गिरते मानवीय मूल्यों से उपजी पीड़ा की अभिव्यक्ति जैसी उपयुक्त भावभूमि के बावजूद उतनी प्रभावपूर्ण नहीं बन पाई है। नई कविता की सपाट भाषा के सम्बंध में शब्दों में परम्परागत अर्थ से हटकर नए अर्थ भरने की आवश्यकता प्रारम्भ से ही महसूस की जाती रही है। अज्ञेय जी इसके पक्षधर भी रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि कविता में दो-एक आकर्षक प्रयोगों- ‘भाषा निकलती नहीं......हृदय के कपाट खोलकर’ या ‘तुम देखोगे .......मुस्कान की तरह’ को छोड़कर शेष सामान्य प्रयोग भर हैं।
कुछ असंगत प्रयोग भी हुए हैं। ‘अहंकार का दर्पण’ में दर्पण से स्वाभाविक अभिव्यंजित अर्थ पूर्णतया मुखरित नहीं है। दर्पण स्वमेव भिन्नार्थक बिम्ब है और उसकी प्रतीति भी भिन्न है। ‘अहंकार का दर्पण’ जैसे प्रयोग ने कविता को असम्भव दोष से दूषित कर दिया है। क्योंकि अहंकार अवरोधक होता है, जबकि दर्पण का धर्म सम्मुख आई वस्तु को प्रतिबिम्बित करना होता है। यदि अहंकार को दीवार आदि के रूप में चित्रित किया जाता, तो काव्य के इस अपकर्षक दोष से बचा जा सकता था। इसी प्रकार प्रतिवेशी विशेषण शब्द करुणा भाव को उन्मुक्त रूप से व्यक्त करने में अवरोधक है। हालाँकि रचनाकार ने इसे अनजाने में प्रयोग नहीं किया है। अंसगत प्रयोग की कड़ी में विराट सत्य या महानतम अभिव्यक्ति अथवा महानता के सिंहासन पर आदि प्रयोग अतिव्यापित अर्थ के बोझ तले दब गए हैं। अर्थ गाम्भीर्य नई कविता की विशिष्टता होती है। मितकथन का अभाव व असंगतता इस कविता की कमजोर कड़ी हैं। इसके अतिरिक्त भाषणपरक उपदेशात्मक भाषा के प्रयोग से काव्यत्व का अपकर्ष अधिक हो गया है। कविता की लम्बाई इसमें निहित अर्थ से अधिक हो गयी है।
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सार्थक शब्दों के साथ अच्छी समीक्षा, अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंसमीछा अच्छी लगी .आभार और शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंसुंदर विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंbehatreen sameeksha.. maza aaya padh kar, likhna bhi seekha.. :)
जवाब देंहटाएंabhar
बढिया लगा. कम से कम कुछ सीखने को मिल रहा है.
जवाब देंहटाएंसार्थक और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !!
Lekhakhon ka margdarshak karti samiksha....
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिखा..सारगर्भित विश्लेषण !!
जवाब देंहटाएंहरीश जी, वास्तिव में आजकल कोई काव्य्-शिल्पह का प्रशिक्षण लेकर तो कविता लिखता नहीं. नामी-गिरामी कवि भी तुकान्त् और अतुकान्तं कविताऍ ही लिखते हैं. मुझे प्रसन्निता हुई कि आप काव्यख तत्वों के आधार पर रचनाओं का मूल्यां कन कर रहे हैं. अधिकतर यह आवश्यपक नहीं होता कि हम गद्य या पद्य पर कुछ कहें ही. यदि विचार, अभिव्यतक्तिर और शिल्पल हमारा निकष है तो कोई एकाध रचना ही इस दायरे में आती है कि हम कुछ लिखने या कहने के लिए प्रतिबद्ध हो पाएं. यूँ तो अभ्यानस, प्रयास या एक कॉलम बनाए रखने के लिए लिखा जाए तो कोई हर्ज नहीं. इससे भी रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल जाती है.
जवाब देंहटाएंएक बात और कि जब समीक्षा की जाती है तो हमारे विचार और अभिव्यिाक्तस स्पतष्ट होनी चाहिए. शब्दोंए के प्रयोग का अटपटापन यदि समीक्षा में आ जाए तो ‘मजा किरकिरा’ हो जाता है. उदाहरण के लिए ये प्रयोग ‘अहंकार का दर्पण’ जैसे प्रयोग ने कविता को असम्भव दोष से दूषित कर दिया है।'
इसी प्रकार ये अभिव्यैक्तनयॉं ‘चौधरी समाज के यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकार हैं और इस कविता से भी उनकी यही प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है। साठोत्तरी प्रयोगवाद (नई कविता) के शिल्प पर रची गई चौधरी की यह कविता ह्रासमान मानवीय मूल्यों का चित्र ही नहीं उकेरती बल्कि उन मूल्यों की रक्षक पीढ़ी की वेदना को भी समानान्तर चित्रित करती चलती है। प्रेम के बदले उपेक्षा और उपकार के बदले तिरस्कार से आहत वर्ग अपने अन्तर्द्वद्व, दुःख और कष्ट को आशा, स्नेह और उपकार के आवरण से ढके रहता है। इन सबके मूल में है वह सुख जो दूसरों की आँखों में देखने की चाह में बहुत कुछ सहने के लिए प्रेरित करता है और दूसरों की आँखों में दिखने पर वह अपार हो जाता है। भौतिकवाद की गणित में हर चीज को तौलने वाले अभिमानी-अहंकारी वर्ग की न तो उन मूल्यों तक पहुँच है और ना ही उसके पीछे छिपी संवेदना की समझ। क्योंकि उसने विविध प्रकार के आग्रहों की ऊँची-ऊँची दीवारों से स्वयं को घेर रखा है। इसीलिए उसे संवेदना की उस भाषा की अनुभूति ही नहीं होती। समाज में व्याप्त संकुलित संवेदनहीनता से कवि आहत तो है लेकिन निराश नहीं है और उसे सत्य से साक्षात्कार के लिए हृदय से निकली भाषा अधिक प्रभावशाली जान पड़ती है। चौधरी अपनी संवेदनशीलता से कविता की भावभूमि पर उतरे तो हैं लेकिन वे अपने कथाकार चरित्र के प्रभाव से इस कविता को बचा नहीं पाए हैं और कविता की भाषा में अनावश्यक विस्तार आ गया है।
ये सारी अभिव्यकक्तिेयॉं पढ़कर लगता है कि हम गद्य में कविता की पद्यायत्म क समीक्षा पढ़ रहे हैं. मुझे लगता है कि हम सर्वसाधारण जन सादे तौर पर विभिन्न विधाओं में रचित साहित्या का आनन्दम लेना चाहते हैं. न हमें एम ए की परीक्षा देनी है और न ही पाण्डिित्यि प्रदर्शन करना है. ‘सीधी लकीर खींचना एक टेढ़ा काम होता है.’ शायद समीक्षक के लिए भी यही मानदण्ड होता है.
संक्षेप में यही कि ऑंच से लगी भाप वापस पहुँच रहा हूँ बेहतरी के लिए. भविष्यी की शुभकामनाओं सहित.
होमनिधि शर्मा
Sameekshak niyare rakhiye aangan kuti chavaya, vastava mein sameeksha padhne ke baad to kavita ko dekhne padhne samjhne ka anand hi kuch aur hota hai, aur to aur lagta hai kavita par comments dene se pahle sameeksha aane ka intzaar kar lena chahiye, pata nahin hum kya samajh le aur baad mein pata lage aare ye to socha hi na tha, lekin ek baat to maanna hi padta hai ki Harish ji se bahut kuch sikhne ko mil raha hai, ek achchi sameeksha ke liye bahut bahut badhaeeyaan
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