पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, "राघोपुर की रामदुलारी का परिवार के विरोध के बावजूद बाबा की आज्ञा से पटना विश्वविद्यालय आना! फिर रुचिरा-समीर और प्रकाश की दोस्ती ! गाँव की गोरी रामदुलारी अब पटना की उभरती हुई साहित्यिक सख्सियत है ! किन्तु गाँव में रामदुलारी के खुले विचारों की कटु-चर्चा होती है ! उधर समीर के पिता के कालेज की अध्यापिका रुचिरा का आकर्षण समीर के प्रति बढ़ता ही जा रहा है ! इधर रामदुलारी भी बहुत दिनों से प्रकाश नहीं मिला है ! अब पढ़िए आगे !!
-- करण समस्तीपुरी
बहुत दिनों से गायक, प्रकाश के दर्शन नहीं हुए थे। किसी से पता चला वह शहर से बाहर चला गया है। वह भी शोध कर रहा था। अंग्रेज़ी साहित्य में। रामदुलारी जब भी पुस्तकालय जाती तो उसकी आंखें प्रकाश को तलाशती प्रतीत होती। इसी तलाश में कई दिन बीत गए। उसे लग रहा था कि प्रकाश के प्रति उसका आकर्षण तीव्रतर होते जा रहा है। जब कोई पास न हो तो उसकी कमी बहुत सालती है।
उस दिन जब वह पुस्तकालय में कुछ शोधग्रंथों के अध्ययन में डूबी हुई थी, तभी द्वार से किसी के प्रवेश करने की आहट हुई। रामदुलारी के नयन उस ओर उठ गए। द्वार पर वही खड़ा था जिसके दर्शन को प्राण तड़प रहे थे उसके। ऐसा लगा मानों प्रत्यूष सारी रश्मि लेकर पुस्तकालय के उस कक्ष में प्रवेश कर गया हो। दिल के सारे तार झंकृत हो उठे। मन ऐसे मचला मानो मधुवन के सारे पुष्प अपनी सुरभि लुटा रहे हों। उस पल के आगमन से आनन्दमग्न हो गई रामदुलारी। स्थान की सीमाबद्धता का भी सहसा ध्यान हो आया। मन ने सावधान किया। यह पुस्तकालय है, और यहाँ सहपाठी भी हैं।
प्रकाश रामदुलारी की उपस्थिति से अनभिज्ञ अपने मित्रों की ओर बढ़ गया। रामदुलारी के कर्ण द्वार से शब्दों के दल ने प्रवेश करना प्रारंभ किया।
“कहां थे? बहुत दिनों से दिखे नहीं।”
“हां। मैं यहां नहीं था। मुझे एक इंटर कॉलेज में व्याख्याता की नौकरी मिल गई है। वहीं ज्वायन करने गया था। ... आज ही आया हूँ। यहां से नामादि कटवाने हैं। कल पुनः चला जाऊँगा। वहीं रहूँगा।”
रामदुलारी के नयन उठे। कुछ अविश्वास कुछ आशंका से। प्रकाश की आंखें भी खोजती हुई रामदुलारी की आंखों से जा टकराई। प्रकाश बड़े ही चाव से उसकी तरफ देख रहा था। पर इधर रामदुलारी का मन भीतर से भींग रहा था। उसे ऐसा लग रहा था फूलों ने जो रंग उसके जीवन की बगिया में बिखेरे थे वह उजड़ रहे हों। यह आने वाले बिछोह की पीड़ा थी। रामदुलारी अपने दुःख के जल से सनी अनमनी बैठी रही। मनोपीड़ा को भरसक दबाने का प्रयत्न करती रही। मन-ही-मन अपनी पीड़ा का विष प्याला पी कर सहज होने की चेष्टा करने लगी। कितना असहज था वह पल उसका।
प्रकाश उसकी तरफ बढ़ता प्रतीत हुआ। रामदुलारी अपनी सीट से उठी। प्रकाश उससे कुछ कहने को आतुर लग रहा था। पर राम दुलारी प्रकाश के पास आने से पहले ही पुस्तकालय के कक्ष से बाहर निकल आई। सड़कें, गलियां, पार कर हॉस्टल के अपने कक्ष में पहुंच गई। पुस्तकें खोल कर पढ़ने का प्रयत्न किया। पुस्तकों में मन नहीं लगा उसका। आंखें बंद की तो मां के स्वर कानों में घुलने लगे ......
“तू-त चुप्पे-चुप्पे जा रही है। कोई बचन भी नहीं दी।”
(रामदुलारी की स्मृति पर ये किसकी आहात है ? क्या होगा इसका उत्कर्ष ??.... पढ़िए अगले हफ्ते इसी ब्लॉग पर !!)
*** *** ***
भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||
पड़ाव
सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंRaamdulari ki Prakash ke prati prem kis mod lati hai yeh jaane ke liye agli kadi ka intejaar rahega.
जवाब देंहटाएंब्लाग रूपी उपन्यास का यह अंक भी अच्छा लगा। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंPadhkar aabkho me aansu aa gaye...
जवाब देंहटाएंVery emotional episode...