गुरुवार, 28 जनवरी 2010

एक चौपाल कवि कर्म पर

नमस्कार मित्रों !

गुरूवार की चौपाल में एक बार फिर आपका हार्दिक स्वागत है ! यह होगी अपने तरह की पहली चौपाल !! ब्लॉग-विश्व में पहली बार पढ़िए काव्य-शास्त्र का मर्म........ कुछ कही, कुछ अनकही.... एक समीक्षा........ साहित्य साधक परशुराम राय की कलम से !!

आँच

-- परशुराम राय

आँच का उद्देश्य कवि की भावभूमि की गरमाहट को पाठकों तक पहुँचाना और पाठक (समीक्षक) की अनुभूति की गरमाहट को कवि तक पहुँचाना है। इसी उद्देश्य से आचार्य मम्मट के काव्य-लक्षण को ध्यान में रखकर इसी लक्षण से इस धारा का मंगलाचरण करने की इच्छा हुई।

तदोषौ शब्दार्थौ सगुणावन लङ्कृती क्वापि इति काव्यम्।

गुण सहित एवं दोषरहित शब्द और अर्थ की समष्टि को काव्य कहते हैं, भले ही कहीं स्पष्ट अलंकार हो अथवा न हो।

ध्वनि समुदाय को प्रतिष्ठित करने वाले ‘‘काव्य प्रकाश’’ के प्रणेता आचार्य मम्मट द्वारा दिया गया काव्य का यह लक्षण (परिभाषा) है। ब्लाग पर अनेक रचनाएँ आने लगीं हैं । पाठकों की प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलीं तो लगा कि इस ब्लाग में समीक्षा की एक धारा क्यों न जोड़ी जाए। समीक्षा के लिए इसी ब्लाग पर आयी दो रचनाओं को चुना है- एक है श्री मनोज कुमार जी द्वारा रचित अमरलता और दूसरी श्री हरीश प्रकाश गुप्त का नवगीत

अमरलता में कवि ने भारत के सरकारी तंत्र में और समाज में जड़ जमा चुकी कुवृत्तियों पर बहुत ही पैना व्यंग्य किया है। जब मैंने इस कविता को पढ़ा तो भारतीय समाज के वृक्ष पर सरकारी-तंत्र और राजनीतिक दल अमरबेल की तरह कौंध गये और इस प्रकार रचनाकार ने मुझे चमत्कृत कर दिया। इन प्रजातियों को अमर लता बहुत ही सटीक व्यंजित करती है।

जिस प्रकार बिना किसी जड़ के अमर लता व्यवस्थित ढ़ंग से वृक्ष की अन्तिम साँस तक छीन लेती है, उसी तरह व्यवस्थित भ्रष्टाचारी तंत्र बिना किसी जड़ के विभिन्न योजनाओं को डिफाल्टर बना देते हैं और जाँच दल को माथापच्ची करने के लिए समय दे दिया जाता है ताकि भारतीय जनमानस उसे विस्मृति के डस्टबीन में डाल दे। 60 वर्षों की प्रजातांत्रिक गतिविधियों का आकलन यही है कि कोई भी भारतीय किसी योजना और कानून पर विश्वास नहीं करता, बल्कि उसका इन पर विश्वास करना उसकी मजबूरी है। प्रजातंत्र के तीनों स्तम्भ अमरबेल की भाँति जनतंत्र के वृक्ष से लिपटे हुए हैं। इन सबका अघोषित धर्म शोषण है। जिनकी ये सवारी करते हैं, उनके पास कुछ नहीं बचता, सिवाय सूखी लकड़ी के।

कविता के अन्तिम चरण में- ना औषधि है, कोई खाद्य, तू प्रकृति विनाशनि शक्ति आद्य में भाव शृंखला भंग हो गयी है। निष्कर्ष भाग ‘‘बढ़ते हैं जग में वही आज, जो देते औरों को धकेल’’ भी अपनी भाव-भूमि छोड़ चुका है। कवि से अनुरोध है कि इन पर पुनः विचार कर उन्हें एक ही भाव- भूमि पर प्रवाहित करे।

शैली की दृष्टि से मनोज कुमार जी निराला जी से प्रभावित लगते हैं, विशेषकर इस कविता से तो ऐसा अवश्य प्रकट होता है।

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12 टिप्‍पणियां:

  1. कवि कर्म पर आपकी चौपाल अच्छी लगी । कवि मम्मट के काव्य-शास्त्र से इसकी शुरुआत भी सुंदर लगी ।

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  2. ‘तदोषौ शब्दार्थौ सगुणावन लङ्कृती क्वापि इति काव्यम्।’ ‘गुण सहित एवं दोषरहित शब्द और अर्थ की समष्टि को काव्य कहते हैं, भले ही कहीं स्पष्ट अलंकार हो अथवा न हो।’ ध्वनि समुदाय को प्रतिष्ठित करने वाले ‘‘काव्य प्रकाश’’ के प्रणेता आचार्य मम्मट द्वारा दिया गया काव्य का यह लक्षण (परिभाषा) है।
    बहुत अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
    आप की चौपाल सजाने के लिये धन्यवाद।

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  3. श्री राय जी को धन्यवाद। अच्छी चौपाल।

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  4. सार्थक चौपाल!

    ’नवगी” पर कुछ नहीं कहा?

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  5. आलोचना में मूल्य-निर्धारण होना चाहिए, मूल्यांकन होना चाहिए। वह यहां से सीखा जा सकता है। राय जी बहुत-बहुत धन्यवाद

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  6. mulyankan ke bina rachana ka koi arth nahi. jab vijnya aur sudhi jan is par kalam chalate hai to hamare jnyan chakshu khulte hai, prerana milati hai. yeh suavasar pradan karne ke liye manoj ji aur raiji- aapka bahut bahut aabhar.

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  7. वास्‍तव में राय साहब से इतनी निकटता हो चली कि उनकी लेखनी का लुत्‍फ उठाने का मौका ही नहीं मिला. घंटों कविता और अन्‍य विधाओं पर बातें हुईं पर इस चौपाल के माध्‍यम से काव्‍य समीक्षा पढ़कर दिल को बहुत सुकुन मिला. पुन: मनोज कुमार जी को साधुवाद कि उन्‍होंने राय साहब को अपनी टीम में बहुत सही भूमिका के लिए चुना.

    'राय साहब अब रमने लगे हैं'.

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