-- परशुराम राय
पहली जुलाई की शाम थी। मैं इसका दावा तो नहीं करता कि उस दिन आषाढ़ का पहला दिन ही रहा होगा, लेकिन जिस घटना का मैं उल्लेख कर रहा हूँ उसने मुझे आषाढ़ के उस प्रथम दिवस का स्मरण दिलाया जो महाकवि कालिदास के मेघदूत के नायक विरही यक्ष का था। उस दिन भी बादल उसी तरह उदयगिरि पर उमड़े थे।
इस वर्ष आषाढ़ के प्रथम दिवस पर रमन भाई को उदयगिरि पर उमड़े बादल न ही वप्रक्रीड़ा में परिणत गज से लगे और न ही उनके स्वागत में कुटज से भरी उनकी अञ्जलि ही बँधी। न ही दिवस गणना में तत्पर अपनी पतिव्रता पत्नी का ख्याल तक आया। न उस तन्वी, श्यामा, शिखरिदशना के प्रति सन्देश के स्वर ही फूटे। हाँ, मुझे उनका चिर गम्भीर मुख मण्डल चिंता रेखा के झीने अवगुण्ठन से ढका हुआ अवश्य लगा। मेरे मुँह से यूँ ही स्वभाववश निकल गया– ‘कुछ चिन्तित दिखाई पड़ रहे हैं।’
मैं जानता हूँ कि उन्हें चिन्तित सुनना प्रिय नहीं है। फिर वही हुआ। एक परिचित स्मिति ने झीने अवगुष्ठन को अनावृत्त कर दिया और उनके मुंह से उनकी टेक निकल पड़ी – ‘कहाँ, नहीं तो।’
मुझे भी छेड़ने की सूझी। अतएव पूछ बैठा – ‘किसी की याद आ रही है?’
वे बोल पड़े, ‘हाँ, ये बादल पुराने सत्र की भूमि को आप्लावित कर देंगे और मुझे मनु की तरह नए सत्र के हिमगिरि पर जीविका की खोज करनी होगी। यही चिन्ता की प्रथम और अन्तिम रेखा है। यह ब्रह्मानन्द के रस को भी अपेय बना देती है।’
और उनका मुखमण्डल भोली स्थिति से पुनः भर गया। कुबेर के अभिशाप को झेलने वाला यह यक्ष रमन अपरिचित लगने लगा। वे पुनः बोलने लगे – “बन्धु जब तक पढ़े लिखे युवक को जीविका की लिंगोटी नहीं मिल जाती, तब तक वह जीवन का ऋषि नहीं बन पाता, वह तपोभृष्ट दिखाई देता है। उसकी तपस्या कुत्ते की पूँछ की तरह टेढ़ी ही रहती है। उसके प्रमाणपत्रों के दर्पण में उसे अपना चेहरा भी कुत्ते की तरह ही दिखाई देता है।”
इसके बाद मैने देखा कि आशा निराशा के ताने बाने के पर्दे पर उनके अन्तर के अवषाद-चित्र उभरने लगे। थोड़ा रूककर पुनः बोलने लगे, “प्रत्येक अनइम्प्लायड के घर की थाली का हर ग्रास शब्द भेदी बाणों से बिंधा रहता है तथा परिवार में हर गलती करने वाले के लिए उपमा उसी पेड़ से तोड़ी जाती है। परिवार के सदस्यों को हर बुराइयाँ उसी से प्रभावित लगती हैं और उसकी आवाज से उनके चहरे पर घृणा के कीचड़ उछल पड़ते हैं।”
मैं अपने को बिल्कुल भूल गया, उन्ही से तन्मय हो गया था। रमन भाई के शब्दों पर ही मेरी आंखें और कान टंगे थे कि बूँदों ने मुझे मुझमें ढकेल दिया। मैं स्तम्भन की शिला हटाकर प्रयास करने के बाद बोला ‘पानी शुरू हो गया अब चलना चाहिए।’ रमन भाई मुखरित विषाद से अनजान बनते हुए बोले- ‘हाँ,चलना चाहिए, नहीं तो भींग जाएंगे।’
तुलसी घाट से हम दोनों ने साथ-साथ अजनबी बने करीब 15-20 मिनट का रास्ता तय किया। रास्ते में न तो मैंने उनकी ओर देखने की हिम्मत की और न ही उन्होंने मेरी ओर। उनके डेरे से पहले ही मेरा घर पड़ता था। वहाँ पहुँचते-पहुँचते पानी तेज हो चला था। मैंने उन्हें रोकना चाहा, पर वे रुके नहीं। धन्यवाद कहकर चल दिए। मैं उन्हें दूर तक जाते हुए देखता रहा। घुटनों से छूने वाला उनका कुर्ता भींग जाने से अब घुटनों से चिपकने लगा था। उनकेप्रभावशाली व्यक्तित्व को मेरा मन काशी की सड़कों पर जीविका की अलकापुरी की ओर उन्मुख देखता रहा—
आषाढ़स्य प्रथम दिवसे
कश्चित् यक्ष..........
शाषेनास्तंगभित महिमा
मेघं ददर्श
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vaah,badhiya.
जवाब देंहटाएंमैं अपने को बिल्कुल भूल गया, उन्ही से तन्मय हो गया था। रमन भाई के शब्दों पर ही मेरी आंखें और कान टंगे थे कि बूँदों ने मुझे मुझमें ढकेल दिया। मैं स्तम्भन की शिला हटाकर प्रयास करने के बाद बोला ‘पानी शुरू हो गया अब चलना चाहिए।’ रमन भाई मुखरित विषाद से अनजान बनते हुए बोले-‘हाँ,चलना चाहिए, नहीं तो भींग जाएंगे।’
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगी यह पोस्ट...
आभार.....
अचछी रचना । धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंरचना अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंअद्भुत शैली! अच्छी कथा।
जवाब देंहटाएं“प्रत्येक अनइम्प्लायड के घर की थाली का हर ग्रास शब्द भेदी बाणों से बिंधा रहता है तथा परिवार में हर गलती करने वाले के लिए उपमा उसी पेड़ से तोड़ी जाती है। परिवार के सदस्यों को हर बुराइयाँ उसी से प्रभावित लगती हैं और उसकी आवाज से उनके चहरे पर घृणा के कीचड़ उछल पड़ते हैं।”
जवाब देंहटाएंमर्मिक परिस्थिति का सजीव चित्रण!
Ashadh ka pahla din
जवाब देंहटाएंThik raha