ठण्डे पानी में घुटनों तक पैर डुबोकर बैठे हम चारो की पांच दिन की थकान बहुत तेजी से उतरती चली जा रही थी। स्नेह के थके हुए पांव देख न चाहते हुए भी होटल से रेस्तरां, जहां हम सबने डिनर लिया, और वहां से हम सब हर की पैडी तक एक किलोमीटर पैदल चलकर आये थे। यह स्नेह की ही जिद थी। पहाड़ों पर घूमते हुए वह यहां तीन बार और आ चुकी थी, अलका पहली बार।
"कितनी भी थकान हो गंगा में सारी थकान मिनटों में बह जाती है।" अपने अनुभव अलका को सुनाते हुए उसने मुझसे और निमेश से दूरी बना ली थी। अब मैं निमेष के साथ और वह अलका में खोयी इस तरह दूर-दूर बैठे थे जैसे दोनों अलग-ग्रुप से हों।
"जरा सुनो" स्नेह ने अपनी उलझन को जैसे मेरी ओर धकेला। सम्बोधन से मेरी एकाग्रता टूटी। उन दोनों के बीच झुके से बैठे व्यक्ति को मैंने अपने पास आने का संकेत किया।
"बाबू, दो रूपये दे दो, सुबह से भूखा हूँ। चाय पीना है।"
लेकिन मैं उसके साथ कुछ पल बांटना चाहता था। "तुम अकेले हो या घर में और भी कोई है।"
"हाँ बाबू जी। और भी काम हैं।" शायद उसे कुछ आभास हो चला था तब ही उसने छिपा हुआ रोषमिश्रित उत्तर मेरी ओर उछाला।
"और काम क्या हैं? तुम्हारे पास और पैसे भी हैं मुट्ठी में। आगे-पीछे कोई है नहीं। खाओ-पीओ, हरिद्वार के तट पर मस्त रहो।" मेरे निश्छल प्रश्न में तर्क का समावेश उसे पसंद नहीं आया। उसने मसली हुई डबल रोटी पानी में फेंकते हुए अपना स्वर बदला। "पैसे दे रहे हो या नहीं।"
"हाँ-हाँ दूँगा भई।"
"कब देओगे, आधा घण्टा समय खराब कर दिया मेरा। तुम्हारे जैसे चार ग्राहक अगर दिन में मिल जायें तो मेरा धन्धा ही ठप्प....। रुपया देओगे एक, दो भी नहीं और आधा घण्टे की ऐसी-तैसी कर दी। तुम जैसे फालतू और कंगाल से तो मैं ही अच्छा हूँ। लखपति हूँ, लखपति हूँ। मेरी बीवी है, बच्चे हैं। मकान है। सब है। सभी इसी धन्धे में हैं। मेहनत से कमाते हैं.................। तुम्हारे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है देने के लिए। देने के लिए दिल चाहिए। पता नहीं कहां-कहां से चले आते हैं......।"
जाते हुए उसने अपने अस्त व्यस्त अंगौछे को सलीके से कंधे पर डाला, गरदन को वितृष्णा से झटका दिया। हम सब निशब्द उसे देखते रहे।
नये जीवन दर्शन का मंथन करते हुए हम चारो ने एक दूसरे के अर्न्तद्वन्द में उलझे चेहरों को पढ़ने का असफल प्रयास किया फिर गंगा के पवित्र जल में निहितार्थ ढूँढने लगे। उजली रात में भी हम सबके चेहरों की छायायें धुंधली थी। थकान अब मस्तिष्क तक आ चुकी थी।
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एक अच्छी लघुकथा।
जवाब देंहटाएंbehtrin lekh aur nav varsh ki asim shubhkaamnaye
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना , अच्छा लगा पढकर ।
जवाब देंहटाएंEk bahut Achi rachna . shubhkamnay...
जवाब देंहटाएंनये जीवन दर्शन का मंथन और इस पर लधुकथा के माध्यम से मंथन बहुत पसंद आया।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना , अच्छा लगा पढकर ....
जवाब देंहटाएंहार की जीत कहानी याद आ गई. अच्छी रचना.
जवाब देंहटाएंह्रदयस्पर्शी रचना बेजोड़
जवाब देंहटाएंइस खुबसूरत रचना के लिए बहुत बहुत आभार
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं ................
बहुत अच्छी लघुकथा।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लघुकथा...
जवाब देंहटाएं’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
प्रेरक संस्मरण।
जवाब देंहटाएंप्रेरक, प्रांजल, हृदयग्राही एवं वस्तुनिष्ठ !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी कहानी। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंएक अच्छी लघुकथा।
जवाब देंहटाएंachi kahani....
जवाब देंहटाएंसंवेदनाएँ कभी मरती नहीं । संवेदनाओं से जुड़े बहुत से धंधे आज भी कारगर हैं । रोचक प्रसंग ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना , अच्छा लगा पढकर ...
जवाब देंहटाएंएक अच्छी लघुकथा .. प्रेरक..
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंBahut achii lagi aapki yeh rachna.Ek manushya ki dusre besahara manushya k taraf nikli hui bhavnao ko darshati hui bahut hui khubsurat lag rahi hai.Achha laga padh k.
जवाब देंहटाएंबढियां लघुकथा और बढियां प्रस्तुति भी
जवाब देंहटाएंek achchi laghu katha, badhiya hai
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