हिंदी के चर्चित युवा कवि एकांत श्रीवास्तव की सृजानत्मक ऊर्जा की समाई केवल पद्य में सभव नहीं थी। अंततः उन्हें पद्य से गद्य की ओर उन्मुख होना पड़ा। गद्य में प्रकाशित उनकी पहली पुस्तक क विता का आत्म पक्ष इस बात की पुष्टि करता है। यह गद्य उनकी मजबूरी नहीं, उनके द्वारा अपनाया गया प्रिय कर्म है। वे इस बात को समझते हैं कि 21 वीं सदी को केवल कवि-कर्म द्वारा अभिव्यक्ति करना एक असंभव दायित्व है। गद्य की ओर मुड़ना स्वाभाविक परिणति है। इसी क्रम में गद्य की शुरूआत आलोचना से की है। इसके बड़े खतरे हैं। क्योंकि कवि द्वारा आलोचना और साहित्य सृजन कला दोनों को संतुलित रख पाना असंभव तो नहीं दुष्कर जरूर है। हमारे यहाँ यह प्रचलित है – “काव्यं कुर्वन्ति कवयः” लेकिन “रसं जानन्ति पण्डिताः। ” दूसरे ढंग से कहें तो आलोचक साहित्य और पाठक के बीच खड़ा होता है उसकी कृति की व्याख्या करता है। कवि एकांत इस परम्परा से हटकर कविता और इससे संबंधित विषयों पर लेखनी उठाते हैं। पूरे आत्मविश्वास और साहस के साथ उन्हें बराबर लगता है कि कविता के सृजनात्मक पहलु से लेकर उसके भीतर तंतुओं की व्याख्या एक कवि आलोचक से बेहतर कर सकता है। संवेदनशीलता कवि का सर्वप्रमुख गुण होता है। इलियट के शब्दों में कहें तो “आलोचना संवेदनशीलता का एक विकास है।” इसे एक उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। जैसे दलित साहित्य लिखना और दलितों द्वारा स्वयं लिखना में बहुत फर्क है। वैसे ही कवि और कविता पर औरों द्वारा और स्वयं लिखने में। उन्हें लगता है कि कवियों को आलोचना के क्षेत्र में प्रवेश करने का समय आ गया है। तभी सम्यक और निष्पक्ष मूल्यांकन कृतियों का हो पा एगा। | ||
प्रस्तुत पुस्तक में छोटे-छोटे उपशीर्षकों में बांटकर, कविता के संबंध में इन्होंने अद्भुत निबंध लिखे हैं। कविता का पुर्जा-पुर्जा खोलकर उस पर बेबाक टिप्पणी दी है, अनेकानेक प्रश्न उठाए हैं और अपने अनुभव के आलोक में समाधान भी देने की कोशिश की है। समाधान से सहमति-असहमति हो सकती है, लेकिन इनके द्वारा उठाए गए प्रश्नों से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। और जब तक प्रश्न है,, तभी तक साहित्य है। यह पुस्तक ऊपरी तौर पर डायरी, संस्मरण तथा आत्म-संवाद का मिला-जुला रूप नजर आती है। लेकिन गंभीरता से इसे देखा जाए तो यह पुस्तक छोटे-छोटे आलोचनात्मक निबंधों का संग्रह ही मानी जाएगी। इसमें सभी विषय निबंध और स्वतंत्र है। सारे निबंध आलोचनात्मक विवेक तथा अनुभूति की चाशनी से पगे हुए है। पुस्तक की शुरूआत “एक फूल का नाम” शीर्षक कविता का शीर्षक कैसे हो ? शीर्षक होना भी चाहिए कि नहीं ? क्या कविता का शीर्षक देना औपचारिकता मात्र है ? आदि। आगे वे इसपर विचार करते हुए अपना मंतव्य भी देते चलते हैं। वे लिखते हैं - “एक शीर्षक कविता पढ़ने से पहले ही हमें कितने-कितने भाव धरातलों पर ले जा सकता है। और कविता पढ़ने के बाद एक नई पुकार से हमारा सामना होता है – वह पुकार जो हमें संवारने आती है – हमारे भीतर साहस और प्रेरणा जगाने प्रभात भैरवी की तरह। |
| |
शीर्षक के बाद वे कविता का आरम्भ ‘मध्य’ तथा ‘अंत’ पर अत्यंत सहज ढंग से विचार करते हैं। क्रमशः फिर वे विषय-वस्तु पर आते हैं। विषय-वस्तु को निस्सीम बताते हुए वे कविता को अपनी वस्तु में लोकतांत्रिकता की वकालत करे रखते हैं। वे लिखते हैं - ‘कविता बहुत कम मनुष्य में बहुत अधिक मनुष्य को बचाए रखने का प्रयत्न करती है। ’ कविता की भाषा, शिल्प, प्रतीक-विम्ब आदि पर एकदम सहज ढंग से अपनी मौलिक उद्भावनाएं प्रकट करते हैं। कविता को दीर्घजीवी बनाने हेतु बोलचाल की ओर सीधे लोक से उठायी गई प्राणवान भाषा को तरजीह देते हैं। इस तरह आगे के निबंधों में वे ‘मैं’ और ‘हम’, कविता और राजनीति, विचार और अनुभव, मिथ और यथार्थ, कल्पना और यथार्थ, आस्था और अनास्था के द्वद्वों पर चर्चा करते हैं और अपना दो टूक मंतव्य प्रकट करते हैं ‘मैं’ और ‘हम’ पर चर्चा करते हुए वे कविता का आत्म पक्ष नामक निबंध में लिखते हैं “आत्म के माध्यम से अनात्म की अधिक प्रामाणिक विश्वसनीय और आत्मीय अभिव्यक्ति संभव है। आत्म, अनात्म का शत्रु नहीं। ये विलोम होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। इस प्रकार उनका मानना है कि कविता को सामाजिक होना चाहिए लेकिन वैयक्तिक पक्ष की आहुति देकर नहीं। इस प्रकार कविता के आत्म पक्ष की हिमायत करते हुए वे कहते हैं ‘हम’ की पूजा में ‘मैं’ की बार-बार बलि देकर उसका बहुत लहू बहाया जा चुका है। अब यह अपराध बंद किया जाना चाहिए।” इस प्रकार कविता के लगभग सभी पक्षों को उठाते हुए इन्होंने छोटे-छोटे निबंधों में अपने विचार प्रकट किए हैं। इन निबंधों में वे अपने पाठकों को हिंदी-कविताओं से ही नहीं वरन् विश्व की श्रेष्ठ कवियों की कविताओं के विश्लेषण से समृद्ध करते चलते हैं। प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध शमशेर, धूमिल, रघुवीर सहाय, केदार नाथ सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन, विजेन्द्र आदि के साथ विश्व के अन्य भाषाओं के कवि पाब्लो नेरूदा, शिम्बोर्स्का, लोर्का, वादलेयर, मलार्मे, रेम्बो जोसेफ ब्राडरकी , पूश्किन, रिल्के, ऑक्ओवियो पॉज इन्हें वैचारिक सहयात्री की तरह लगते हैं। ये नाम क्षेपक की तरह या पांडित्य प्रदर्शन की तरह नहीं आते हैं। सभी नामों के संदर्भ है। कुल मिलाकर कविता जैसे विषय पर बहुत ही सरल ढंग से बातें कही गई है। इस अर्थ में इनका आलोचना प्रचालित आलोचना से बहुत भिन्न है। वर्तमान परिदृश्य में जहाँ हिंदी आलोचना कुछ ज्यादा ही गरिष्ठ और दुरूह हो गई है। साथ ही पंडिताऊ और उबाऊ शैली ने इसे और शुष्क बना दिया है। ऐसे में एकांत ने आलोचना का एक आत्मीय और संवेदन शील रूप विकसित करने की कोशिश की है। परिणामस्वरूप पठनीयता और संप्रेषणीयता जैसे गुण स्वाभाविक रूप से आ गए हैं। साथ ही इन निबंधों में आलोचकीय दर्द कहीं नहीं झलकता है, इसलिए कहीं भी पूर्वग्रहसे ग्रसित इनके निष्कर्ष नहीं है। प्रायः सारी बातें धनात्मक हैं, सिवा कुछ ऋणात्मक के। कवि और कविता पर विचार करते हुए इन्होंने सिर्फ एक खास विचारधारा के कवियों को चुना है। अतः इनपर एक खास विचारधार से संपोषित माने जाने का आरोप लग सकता है। दूसरी कमी है, भाषा में रवानगी के बावजूद कविता के तत्वों से अपने को निस्संग नहीं रख पाए हैं। हालांकि ये कमियाँ बहुत मायने नहीं रखती है। इस संबध में अमृत राय की उक्ति याद आ रही है। उनके अनुसार – “बड़ी बात ये है कि अच्छा लिखा जाए जो बरबस अपनी ओर आकर्षिक करे।” और इस कसौटी पर पुस्तक शत-प्रतिशत खरी उतरती है। |
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
आज की चौपाल साहित्यालोचन पर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
रमेश जी की यह आलोचना बहुत सुन्दर लगी .
जवाब देंहटाएंझा साहाब की प्रस्तुति पसन्द आयी . धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर साहित्यालोचन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
dhanyvad ise lekh ke liye.
जवाब देंहटाएंaakarshik ya aakarshit sahee hai bataiyega........
south me rah kar hamaree hindi gadbada gaee hai.....aakarshak to theek hai par aakarshik .........?
'भवानिः भृकुटीभंगम् भवः वेत्ति न भूधरः' के मिथक को तोड़ने का समर्थ प्रयास ! सही है कि व्यंजन का स्वाद रसोइये से अधिक खाने वाले को पाता होता है किन्तु रसोइया कहीं अधिक निपुणता के साथ बता सकता है कि व्यंजन में किस तत्व का अभाव या आधिक्य है और इसमें और कौन सा मसाला मिलाने से इसका स्वाद चोखा हो सकता है !! परन्तु एक आलोचक के लिए, सबसे अधिक आवश्यक है उसका तटस्थ दृष्टिकोण ! अगर वह अपनी दही को खट्टा नहीं कह पाया........... तब तो आलोचक और फेरीवाले में फर्क की नयी परिभाषा गढ़नी पड़ेगी ! अस्तु !!! एक सार्थक लेख के लिए, कोटिशः आभार !!!
जवाब देंहटाएंAs usual... aj ka b chopal acha raha...Thanks
जवाब देंहटाएंAapka sahityalochan ka prayas sarahaniya hai. Vastav mein yah baat milkul sahi hai ki आलोचना संवेदनशीलता का एक विकास है।” isse lekhak ki lekhani mein nirantar nikhar aata hai.
जवाब देंहटाएंAant mein likhi baad
“बड़ी बात ये है कि अच्छा लिखा जाए जो बरबस अपनी ओर आकर्षिक करे।” Nisandekh achha lekhan kabhi n kabhi kisi n kisi ko bhata hi hai...
shubhkamnayne.
मेरे अनुरोध को स्वीकार कर झा जी द्वारा प्रस्तुत यह समीक्षात्मक निबंध बेजोड़ है। आपको साधुवाद।
जवाब देंहटाएं