बुधवार, 6 जनवरी 2010

देसिल बयना - 13 : मान घटे जहँ नित्यहि जाय।

-- करण समस्तीपुरी

जय राम जी के हजूर ! नया साल मंगलमय हो! देखिये, हँसते-बोलते नया साल का हफ्ता भी लगने वाला है। सच्चे समय बीतते कौनो देरी नहीं लगता है। अब खखोरने काका का उदाहरण ले लीजिये।

गए बैशाख काका का बियाह हुआ था। असल-तिरहुतिया गाँव है, सिरिपट्टी। हम लोग बाराती में गए थे। बड़ी मान-दान किये रहे लड़की वाले। दही-जलेबी के तो नदी बहा दिए। मरजाद और भात-खई भी खूब जोरदार हुआ था। जलवासा के सामने वाला पोखर से ही जो बड़का-बड़का रोहू छनवा के बनवाये थे कि नाक में अभी तक उसका लहसुनिया सुगंध दौड़ रहा है। खैर दू दिन बाद बाराती विदा हुआ लेकिन काका को ससुराल वाले नहीं आने दिए

पूरे सबा महीना पर काका गाँव लौटे थे। करक्का जवान तो पहिले ही थे। अबके तो चेहरा और एकदम लाल विम्ब लग रहा था। एगो सींक मार दे तो खून ऐसे फ़ेंक दे जैसे करेह नदी बाँध टूटे पर पानी फेंकती है। ललका धोती, सिल्क के कुर्ता और पैर में चमरौंधा जूता पहिने काका मच-मच करते आगे चले आ रहे थे। पीछे एगो खवास बड़का पेटी माथा पर उठाए हुआ था। काकी नहीं थी। साल भर पर दुरागमन होगा तब आयेंगी। काका हर चार कदम पर पिअरका घड़ी देखना नहीं भूलते थे। और गर्दन वाला चैन को पाता नहीं कितनी बार ठीक कर चुके थे। चैन-घड़ी संभालते ही काका घर पहुँच गए। सारा मरद-औरत छौरा-बूढा का हजूम उमर आया था काका को देखने।

गीत-नाद के बाद काका दुआर पर गए। प्रणाम-पाती हुआ। 'लगता है सासुरे में दूध मे सिन्दूर मिला के नहा दिया है, लाल तो बाबू ऐसे ही लगते हैं'... पुरैनिया वाली काकी मजाक करे लगी। तर से उच्चैठ वाले बुआ ने मोर्चा थाम लिया, "हे दुल्हिन ! अपन नैहर वाला कोशी कात के कवारी ना समझो। खखोरन के ससुराल है धन्य दरभंगा, दोहरी अंगा। मिथिला से अधिक पाहुने का मान-सम्मान और कहाँ होता है। दही मे सही लगाते हुए खखोरन काका बोले, "एकदम ठीक कहती हो बुआ। भौजी का समझेंगी। हम तो अघा गए खाते-खाते। गरम-कचौरी, नरम कचौरी, खोया, मछली और कवाब खा खा के पेट जवाब दे दिया। इतना मान हुआ कि दू-चार दिन धोतिए में मैदान हो गया। लेकिन देसी घी मे नहा के और बासमती चावल के राज-भोग खा के ससुरा देह दोबर होय गया है। बहुत दिलहगर हैं सिरिपट्टी वाले। भगवान ऐसा ससुराल भैय्यो को देते।" भौजी भुनभुनाते हुए चली गयी और हमलोग हंसने लगे।

महीना भी नहीं गया, हम एकदिन तास खेलने के लिए काका को खोजने गए तो पाता चला कि 'आहि रे बा... उ तो पछिले हफ्ता से ससुराल में हैं। पता नहीं कब आयेंगे।' पुरैनिया वाली काकी से कुशल-समाचार बतियाने लगे। तभिये उधर से साइकिल की घंटी बजी। हम पलट के देखे, "अरे खखोरन काका ! आप आ गए ससुराल से?" 'हाँ आ गया।' काका झुंझलाते हुए बोले। साईकिल पटके और दालान पर बैठ के बतियाये लगे। पुरैनिया वाली काकी पूछी, "लाल बौआ ! बहुत जल्दिये चले आये। ई बार सास-ससुर रोके नहीं का ?" काका बोले, "रोके तो बहुत। मगर हम बोले कि हम कौनो कीमत पर नहीं रुकेंगे।" खों...खों... ओह्हों... खोह्हों..... खांसते हुए काकी से बोले, "भौजी ! जरा तुलसी पत्ता के काढ़ा बना के लाना... दू-चार दिन महुआ दही खा लिए, और बाहर शीत में सो गए सो खांसी हो गया है। काकी मजाके में बोली, "हाँ बौआ ! काहे नहीं..... ससुराल का मजा तो महुए दही में है।" और उठ कर काढ़ा बनाने चली गयी।

कुछ दिन काढ़ा पीते बीता फिर खांसी नरम हुआ। काका को फिर से सासुराल का मान-दान याद आने लगा। एतबार को भोरे-भोर केश-दाढी छंटाये और नहा-धो कर साईकिल जोत दिए, पुरुब मुंहे। दुपहर में उन्ही के दालान पर तास-पार्टी जमा।काका नहीं थे लेकिन हर कोई कक्के का चर्चा कर रहा था। रमेसर झा बोले कि 'खखोरन नहीं की उसका ससुराल नहीं'। नथुनी दस बोला कि सो नहीं कहिये पंडी जी ! सच में खखोरन बाबू के ससुराल में बेजोर मान-दान होता है। रामजी बाबा रंग का गुलमा फेंकते हुए खिसिया के बोले, "धुर्र बुरबक ! ससुराल है तो मान-दान तो होगा ही। इसका मतलब क्या रोज चला जाएगा... ?"

खेल अभी चलिए रहा था कि साईकिल टन-टनाते काका आ धमके। दरवाजे पर एक तरफ साईकिल पटका। धम्म से दालान में आ के बैठ गए। एक हाथ से पेट पकड़े लगे कराहे, "भौजी, एक लोटा पानी भेजना.... अआह.... रे मन्गरुआ..... अरे जा के जरा वैद्य जी को बुला लाओ। काका बेदम होने लगे। झट-पट में मदन डाक्टर बुलाये गए। नाड़ी देखा, फिर जीभ देखा। फिर कहे, कुर्ता हटाओ। गर्दन मे लटका हुआ मशीन निकला। उका टोंटी कान में घुसाया और मशीन काका के पेट पर सटा-सटा कर उके अन्दर का आवाज़ सूने लगे। काका, 'अआह... उह.... यहीं दुखता है डाक्टर साहेब.... हाँ इधर ही।' 'हूँ' डाक्टर साहेब चश्मा को ज़रा नाक पर लुढ़काते हुए बोले, 'घबराए का कौनो बात नहीं है। हम आला लगा के चेक कर लिए हैं। पेट-उट ठीक है। लगता है कुछ अल-बल खा लिए होगा, वही से दरद हो रहा है। ई लो पुर्जा लिख दिए हैं। एगो पचनौल का गोली है, एगो वायु-विकार का और एगो अंटीबाटी है। डाक्टर साहेब पुर्जा थमा के दसटकिया जेबी में रखे और चल दिए।

डाक्टर जाने के बाद हम पूछे, 'काका आप तो ससुराल गए रहे। वहाँ का खा लिए कि पेट में इन्ना दरद हो गया?' दरद से कराहते हुए काका बोले, 'किस्मत खराब हो तो ससुराल क्या वैकुण्ठो में क्लेश है। का बताएं... ससुराल का मान-दान तो पाता ही है। जैसे ही पहुंचे, हमरी ससुरिया जलपान के लिए बुला ली। फुलही थाली में भर के दोबर चूरा रख दिहिस और गयी दही लाये सो आधा घंटा तक भीतरे रह गयी। हम यहाँ इन्तिज़ार कर रहे हैं, सासू जी दही लाने गयी है कि जमाने गयी है?

सासू तो नहीं अन्दर से सरहज निकली। हमको चूरा पर हाथ फेरते हुए देख कर बोली, "पाहून ! क्या बताएं रात में दही जमाना ही भूल गए। लगता है सासु माँ बगल से दही लाने गयी हैं। तब तक आप भोग लगाइए न... आ ही जायेगी। हम भी ऐसन ढीठ कि बोले, 'कौनो बात नहीं भौजी ! ई भी तो अपने घर है। दही नहीं जमा तो का हुआ ? दूधे ले आईये।' अच्छा ठीक है कह के भौजी अन्दर गयी तो उहो आउट होकर जाने वाला क्रिकेट के बल्लेबाज की तरह अंदरे रह गयी। हार के हम आवाज दिए तो छोटकी साली रस के प्याली भर के बोली, 'जीजाजी, देखिये न भाभी बहुत परेशान है। सीका पर से दूध उतार रही थी कि बरतने हाथ से छूट गया। पूरा दूध माटी में मिल गया।

काका अपनी बात को जारी रखते हुए बोले, "एक भोर साईकिल हांक के आये थे। भूख के मारे रहा नही जा रहा था। कहे कि कौनो बात नहीं। ज़रा नमक-तेल और अंचार देना।" ठीक है कह कर के साली अन्दर गयी तो हमरी नजर रसोई घर का दरवाज़े पर अटक गयी कि पाता नहीं अब कौन भदवा पड़ेगा। लेकिन साली दुइये मिनट में वापस आ गयी। चुटकी भर निमक रख दी थाली में। फिर बोली, 'जीजाजी तेल तीसी का है। कच्चा खाने में अच्छा नहीं लगेगा इसीलिये नहीं लाई और अंचार इतना खट्टा है कि दांत खट्टे हो जायेंगे इसीलिये ये हरी मिर्च लाई हूँ। इतना कह कर चार लौंगिया हरी मिर्च चूरा के ऊपर से रख दी।

काका कहे जा रहे थे, 'भूख ना माने बासी भात। वही मिर्च के साथ तीन पाव चूरा फांके और एक लोटा पानी पीकर दालान में आये ही थे कि पेट में सो व्यथा शुरू हुआ कि दू बार लोटा लेकर गाछी दौड़े। दरद और बढिए रहा था। वहाँ न कोई डाक्टर-वैद, ना कोई मरद-मानुस। ससुरिया-सरहज कोई एक्को बार हाल पूछे भी बाहर नहीं आयी। हम सोचे कि इससे पहिले कि हाल और बिगड़ जाए अपना घर लौट चलते हैं। भरी दुपहरी में हम चल दिए लेकिन साला कोई निकल के रोका तक नहीं।' कहते-कहते काका की लाल-लाल आँखों से गोल-गोल आंसू ढलक पड़े।

तभी रामेसर झा चिल्लाए, "सुना रे निर्धनमा! ससुराल में बड़ा मान-दान होता है....??? ससुराल है एकदिना। दौड़-दौड़ कर जाएगा तो ऐसा ही मान-दान होगा..... ! रामजी बाबा भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। कहे, "ठीक कह रहे हैं पंडी जी। मान घटे जहँ नित्यहि जाय। ससुराल रहे चाहे समधियाना, हर हमेशा जाने वाले को क्या मान मिलेगा। जहाँ नित्य दिन जाइयेगा वहाँ सम्मान घटेगा ही। हूँ।"

कहने का मतलब समझे हजूर लोग ? अरे भाई ! कहीं भी बार-बार नहीं जाना चाहिए। और जाते हैं तो मान-सम्मान के परवाह नहीं कीजिये। पाहून-कुटुंब होते हैं एक-दो दिन के लिए। अब हमेशा जायेंगे तो सम्मान घटेगा ही। इसीलिये कहते हैं, "मान घटे जहाँ नित्यहि जाय"। तो यही था आज का देसिल बयना। याद रहा तो ठीक है नहीं तो दोबारा ससुराल जाने से पहले इसे एक बार फिर पढ़ लीजिएगा। अभी हमको औडर दीजिये ! राम-राम !!!

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33 टिप्‍पणियां:

  1. आजकल कहाँ मिलते हैं खोखरन काका जैसे। पहले की खुराकें बहुत थी, आज का छोकरा तो दो चम्मच दही भी न पचा सके।

    चलते चलते : शुक्रिया कबूल करें। आपकी टिप्पणी से मेरा लेख पूरा हो गया। आंकड़ाओं की कमी आपने पूरी कर दी।

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  2. वाह .. मज़ेदार। सब दिरिस आंखे के आगे घूम गया और अच्छा नसीहत भी मिलिए गया।

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  3. आज फिर एक सूंदर देसिल बयना पढने का मिला । बहुत अच्‍छा लगा।

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  4. अच्छी, मज़ेदार और रोचक शैली, हास्य से लबालब, और भूले बिसरे प्रसंगों को याद कराती आपकी रचनाएं देसिल बयना के माध्यम से पढने को मिलती रहती हैं। आपका यह सार्थक प्रयास क़बिल-ए-तारीफ़ है। साथ ही इन कथाओं में गहरी सीख भी छुपी रहती है। आप ये काम नियमित रूप से करते रहें। मैं मिथिलांचल की हूं, अतः इसके महत्व को बहुत अच्छी तरह समझती हूं।
    सदा की तरह इस बार का भी देसिल बयना लाजवाब रहा। अभिनंदन।

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  5. ka ho karan babu..fero se hamra manoranjan kariye diye na..bahute maja aa gaya padh kar...aur kahawat to sat paratisat sacho kahe hai ap...
    ab sasural wale roz roz thode na damad ko paros paros kar khilate rahenge..damad to damade hota hai.....ka bujhe? bhore bhore hasane ke liye bahote bahote dhanyabad ...

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  6. bahute badhiya raha desil bayna.padkar man gadgad ho gaya.

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  7. बहुत सुंदर प्रस्तुति,करणजी बधाई..

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  8. बहुत बढ़िया लिखा है आपने! आपकी लेखनी को सलाम!

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  9. मान घटे जहँ नित्यहि जाय।"
    bilkul sahi kahawat hai...aur jis tarah se apne likha hai maja aa gaya padhkar.

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  10. ka kahe karan babu.inna acha ap likhte ho ki tarif kiye bina mane ni manta..kitni b tarif kare kam he hoga..samay ni milne ke karan roz tipany ni de pate hai..uske liye chhamaprarthi hai..
    Koi kaisa b mood me rahe chahe dukhi rahe gussa rahe ek bar apka ye desil bayna padh le to bina hase na raha jaye..sachi maja aa jata hai desil bayna padhne ke bad..dhanyabad

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  11. अऊर जाईं लपर लपर ससुरारी! :)
    हम तो शादी के बाद साल दो साल से पहले नहीं जाते। कई बार तो पांच साल भी निकल गये हैं! कौन रिक्स ले नून नेबुआ का! :)
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    बहुत बढ़िया रहा पढ़ना!

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  12. BAHUT ACHCHHA LEKH HAI. MAZEDAR LAGA. AUR GYAN SIR NE TIP BHI ACHCHHI DE DI KI JAB SHADI HOGI TO AAN-JAANE KA ANTARAL LAMBA HONA CHAHIYE.

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  13. देसिल बयना का प्रचार-प्रसार और वह भी इतने रोचक ढ़ंग से कर के आप बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। आपको साधुवाद।

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  14. बहुत सुंदर जी....धन्यवाद

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  15. सभी पाठकों का हृदय से धन्यवाद ! देसिल बयना आपको पसंद आयी, मेरा श्रम सार्थक रहा !
    @ कुलवंत हैप्पी, हास्यफुहार, रचना एवं ऋचा,
    आपकी टिप्पणियाँ हमेशा से हमारी रचनात्मक ऊर्जा को उद्दीप्त करती रही हैं.... इस बार भी ! बहुत शुक्रिया !!!
    @ श्री ज्ञानदत्त पांडेयजी,
    "जन्म हमार धन्य भा आजू....." देसिल बयना पर आपकी पहली टिप्पणी हमारे उत्साह को आकाश की ऊंचाई दे रही है -- बहुत आभार !!
    कुछ पाठक गण पहली बार हमारे ब्लॉग पर आये ! उनका अभिनन्दन !!! और यह निवेदान कि आप यहाँ बार-बार आयें !!!!
    धन्यवाद !!!!!

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  16. आपके प्रयास की समीक्षा नहीं की जा सकती सिर्फ साधुवाद दिया जा सकता है।

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  17. अच्छी, मज़ेदार और रोचक शैली, लाजवाब।

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  18. बहुत सुंदर प्रस्तुति, बधाई.

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  19. श्वसुर गृह निवासम
    स्वर्ग तुल्यम
    परन्तु क्षण मात्रम

    ऐ काश! कोई मिथिलांचलवा ससुरा हमरे नसीबवा में ..का कहें .. इन्ही लोगों ने इन्ही लोगो ने ..

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  20. uuummm aahhaa uuummm aahhaa!kya baat kahi samastipuri ji waah mazaa aa gaya. aapke khakhoran kaka ka kya kehna kya masst baat samjhai hai. karan ji aap aise hi likhte raho aur hamari bhi romanchak tarike se nai nai seekh dete raho. DHANYAWAD

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