-- करण समस्तीपुरी ऊँह...ऊँह....... जय हो महाराज की ! ओह रे ओह... ! आज तो मुढ़ी, लाई, तिल आ गुड़ की सोंधी सुगंध से चारो दिशाएँ ग़म-ग़म कर रही हैं। रवि का फसल निकल आया था। अबकी बार इन्दर महराज धोखा दे दिए। पटवन तो अब विश्कर्मे बाबा के भरोसे है। पोर भर का गेहूं कमौनी भी मांग रहा है। घर में सब उहे मे बीजी थे। सबसे छोट थे हमही । ई बार सुभद्रा फुआ इहाँ तिल-संक्रांति का भार लेकर जाने का डिउटी हमरे लगा। अन्दर से तो हम भी यही चाहते थे। बुआ इहाँ खूब मान-दान होता था। दू-दू भौजी थी.... हंसी-मजाक में कैसे दिन रात कट जाता था कि पाता भी नहीं चलता था। हफ्ता-दस दिन तक किताब-पोथी में भी माथा नहीं खपाना पड़ता था। पीरपैंती वाली भौजी के हाथ का बनाया तर माल पर छक के जीभ फेरते थे और घूरा के पास बैठ के मुफ़त में भाषण हांकते थे। हम भी सबेरगरे तैयार हो गए। वैसे तो ई बार सुखारे पड़ गया लेकिन खिलहा चौरी में कुछ पानी लगा था। बाबा उ में छिटुआ तुलसीफुल धान किये थे। चढ़ते अगहन कट्ठे-मन फसिल आ गया था घर में। गरमा,बकोल और पूसा-36 का तो धमकच उड़ गया लेकिन तुलसीफुल मझोलबा कोठी में बचा के रखा गया था, परव-त्यौहार, पाहून कुटुम के लिए। बाबा के औडर पर तिल-संक्रांति के लिए उहे धान का चिउरा कुटवाया था। तुलसीफुल धान का चिउरा.... बूझिये कि एक हफ्ता से पूरा टोल ग़मगमाया हुआ था। अखारा पर के यद्दु राय आध मन दूध पहुंचा गए थे पिछले हफ्ते। उहे दूध का दही जमाया गया था। दुपहरे में एक बोरा लाई-तिलकुट, चिउरा-मुढ़ी और बड़का पातिल में छहगर दही भर के धनपत महतो के साथे हम सुभद्रा फुआ के घर का रास्ता पकड़े। चारिए कोस पर तो था फुआ का घर। किरिन डूबते-डूबते पहुँच गए। दरवाजा पर खोखाई मंडल बड़का घूरा फूँक रहे थे। हमें देखते ही बौआ-बौआ कर के दौड़े। धनपत के माथा पर से दही का पातिल उतारे। दही का पातिल और चिउरा-मुढ़ी वाला बोरिया अन्दर रख के दुन्नु आदमी घूरा में बीड़ी सुलगाने लगे। हमें तो फ्री पास मिला था सो सीधे अन्दर पहुँच गए। वहाँ भी दूरे से जरुआ गुड़ का गमक आ रहा था। ऊँह बुआ अपने चस्मा पहिन के डायरेक्शन दे रही थी और दुन्नु भौजी तरातर गुड़ के पाक में तिल, मुढ़ी और चिउरा के लाई बनाने में जुटी थी। साथ में कोनैला वाली इधर-उधर कर टहल बाजा रही थी। हमको देखते ही पीरपैंती वाली भौजी चूल्हे तर से मजाक के तान छोड़े लगी। हम कुछ सकपकाए कि आय के हमरे हाथ पकड़ के सीधे चूल्हे तर पहुँच गयी। हम बुआ के पैर छुए और वहीं एगो पीढ़िया पर बैठ गए। उधर करिया तिल चन-चन उड़ रहा था। छोटकी भौजी मुढ़ी को गुड़ में लपेट रही थी। हंसिये-मजाक में पीरपैंती वाली भौजी एक-एक कर लाई-तिलबा हमें टेस्ट कराये जा रही थी। तभी उधर से साला ठिठपलवा पहुँच गया। अरे भौजी के भाई का था ठिठपाल। बड़ा सुपात्र था। हमलोग इतना मजाक करते थे लेकिन बेचारा हँसते रहता था। सामने वाला पीढ़िया पर बैठ गया। हाल समाचार हुआ। अब हमको भी मजकुआ भेंट गया था। तभी से तो भौजी सब हमको चाट के उज्जर किये हुई थी, अब हम सारा कसार ठिठपाल पर निकालने लगे। बहुत हंसी-मजाक हुआ लेकिन ठिठपलवा उखरा नहीं। फिर हम एकदम सटा के एगो मजाक किये। ऊ से पूछे, ई बताओ कि तुम्हारा नाम ठिठपाल काहे पड़ा ? दुनिया में नाम का अकाल पड़ गया था क्या जो ऐसा नाम रख लिया। साला जैसा ठिठिया हुआ रहता है वैसा ही नाम रख लिया है ठिठपाल ! लेकिन उ तैय्यो नहीं उखरा। बड़ी इत्मीनान से जवाब दिया। कहिस, "करणजी ! अभी आप दुनिया देखे कहाँ हैं ? यहाँ तो, आवत को जावत देखा, धनपत माथ पोआल ! लक्ष्मी तन पर वस्त्र नाहे, भला नाम ठिठपाल !!" हम तो उका फकरा सुन के चुप्पे होय गए। फिर इका मतलब पूछे तब उ विस्तार से समझाया। कहा देखिये, यही खोखाई मंडल है न उको जब जाना होगा तो बोलता है, 'आते हैं दुल्हिन जी !' और हम आपके इहाँ भी देखे हुए हैं। धनपत महतो माथा पर धान का पुआल ढो रहा था। धान जाए आपके घर में और पोआल उसके माथा पर ! उ काहे का धनपत? और इसी कोनैला वाली का बेटा है न, लक्ष्मी। शौक से बेटा का नाम लक्ष्मी तो रख ली लेकिन कहाँ आयी लक्ष्मी बेचारी के घर में ? देखिये, ई माघ महीना के ठंडी में भी उको पहनने के लिए भर बदन कपड़ा नहीं है। बेचारा लक्ष्मी जूट का बोडिया ओढ़ के ठंडी काट रहा है। तो ऐसा नाम से क्या मतलब हुआ ? आँख के अंधा नाम नयन सुख रहने से हमरा भला नाम ठिठपाल। ठिठियाते रहते हैं तो नाम है ठिठपाल। नाम का कुछ मतलब तो भला हुआ। हम तो उका बात सुन के अचरज से मूंह फारे उसी को निहारते रह गए। ठिठपाल तो बड़ा गियानी निकला। देखिये, कितना दुरुस्स बात कहिस। वैसे तो ई दुनिए उलटा है। कहेगा पुरुब तो चलेगा पच्छिम। लेकिन बात कुछ सार्थक होनी चाहिए। अब सही में गुण के विपरीत नाम रहे से क्या फ़ायदा ? आखिर नाम का कुछ प्रभाव रहना चाहिए। नहीं तो बात वही हुई न कि नाम बड़े पर दर्शन थोड़े ! "आवत को जावत देखा, धनपत माथ पोआल ! लक्ष्मी तन पर वस्त्र नहीं, भला नाम ठिठपाल !!" हम तो रह-रह कर ठिठपाल का दोहा याद कर इतना हँसे कि तिलवा सरक गया। लेकिन आप सिर्फ हंस के नहीं रह जाइए। ठिठपाल के इस कहावत का सारांश यही है कि 'नाम से कोई बड़ा नहीं होता, काम से बड़ा होता है।' जब कामे छोटा हो तो नाम बड़ा लेकर क्या?' समझे ! तो अब आप भी जाइए तिलबा लाई ढाह दीजिये। हम भी चलते हैं, भौजी खाने के लिए आवाज़ दे रही हैं। देर होगा तो फेर गरियायेगी। जय राम जी की !!
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बुधवार, 13 जनवरी 2010
देसिल बयना - 14 : भला नाम ठिठपाल
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बहुत बढिया लगा पढकर ।
जवाब देंहटाएंकरन जी पढ़कर मजा आ गया। मकर संक्रांति कि ढेरो शुभकामनाएं। आपका ब्लॉग पढ़कर तो अब कल सुबह का इंतज़ार भी नहीं हो रहा। धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआप को भी मकर संक्रांति की शुभ-कामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा पढ कर
बढियां पोस्ट ,आनंद आ गया.
जवाब देंहटाएंतिलबा, लाई, दही, चूरा और खिचड़ी का पर्व .. आपको भी ढ़ेरों बधाई, शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंआप को भी मकर संक्रांति की शुभ-कामनाएं...
जवाब देंहटाएंLekh bahut accha laga.Shubhkamnay..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया, मजा आ गया।
जवाब देंहटाएंमकर संक्रांति की शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंबहुत मज़ेदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमकर संक्राति की शुभकामनाएं।
vaah vaah munh me gud aur til ka swad bhar gaya....
जवाब देंहटाएंKARAN JI..BAHUTE BADHIYA LIKHA HAI APNE...
जवाब देंहटाएंAP SABI KO MAKAR SANKRANTI KI SUBHKAMNAYEN....
इस रचना ने मन मोह लिया।
जवाब देंहटाएंआप को भी मकर संक्रांति की शुभ-कामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा पढ कर
मकर संक्रांति की शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंachchha hai. til, lai, aur laddu khaiye.
जवाब देंहटाएंBest wishes bhaiya.
मकर संक्रांति की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढियां पोस्ट !