-- मनोज कुमार
---एक--
आज मेरे हाथ में पेपर की एक कटिंग है। मेरठ के एक गांव इंचौली का वाकया है। मोहित नाम का एक लड़का कक्षा तीन में पढ़ता था। प्रतिदिन की भांति उस दिन भी वह स्कूल गया था। शनिवार का दिन था इसलिए दोपहर में ही छुट्टी हो गई थी। स्कूल से आने के बाद वह स्कूल बैग आदि फेंक कर खेलने लगा। इस पर उसकी मां ने पहले उसे स्कूल का होमवर्क निपटाने को कहा। मोहित मां की बात की अनसुनी कर खेलता रहा। अपनी बात नहीं मानने पर मां ने उसे डांट दिया। मां की डांट से मोहित गुमसुम हो गया। वह घर के भीतर गया और अपने कमरे में चला गया। कमरे का दरवाज़ा उसने अंदर से बंद कर लिया। जब वह काफी देर तक कमरे के बाहर नहीं निकला तो परिजनों ने दरवाज़ा खोल कर देखा तो पाया कि मोहित पंखे से लटका हुआ था। नन्हे मोहित ने आत्महत्या कर ली थी।
---दो---
एक और पेपर कटिंग है। पांच जनवरी 2010 का। 11 साल की मुम्बई की रहने वाली नन्हीं रियलिटी शो कलाकार नेहा सावंत के बारे में। ऐसा बताया गया है कि उसके परिवार वालों ने उसे एक रियलिटी शो में हिस्सा लेने की अनुमति देने से मना कर दिया था। नेहा बूगी-वूगी जैसे ड़ांस रियलिटी शो में भाग ले चुकी थी। उसने दुपट्टे को फांसी का फंदा बनाया और पर्दे के रॉड से लटक गई।
---तीन---
---तीन---
मुम्बई की ही एक छात्रा ने इसलिए ख़ुदकुशी कर ली कि वह दो विषयों में उत्तीर्ण नहीं हो सकी थी।
---चार---
श्री कुलवंत हैप्पी जी का एक पोस्ट पढ़ा। इसी हफ्ते। शिक्षा के बिगड़ते स्तर पर। युवा सोच युवा खयालात
क्या हो पाएगा मेरा देश साक्षर ऐसे में?
देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं, कहते हर किसी को सुनता हूँ, लेकिन वो प्रतिभाएं आखिर हैं कहाँ? गरीब का अजगर, सरकार की लोक विरोधी नीतियाँ उन प्रतिभाओं को उभरने से पहले ही मार देती हैं। शिक्षा नीति में सुधार करना है तो पहले देश की रूह यानि गाँवों के स्कूलों को सुधारो। शहरी अभिभावक नम्बरों के खेल में उलझकर रह गए और गांव के गरीब अपने बच्चों को हस्ताक्षर करने योग्य ही कर पाते हैं?
---पांच---
क्या हो पाएगा मेरा देश साक्षर ऐसे में?
देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं, कहते हर किसी को सुनता हूँ, लेकिन वो प्रतिभाएं आखिर हैं कहाँ? गरीब का अजगर, सरकार की लोक विरोधी नीतियाँ उन प्रतिभाओं को उभरने से पहले ही मार देती हैं। शिक्षा नीति में सुधार करना है तो पहले देश की रूह यानि गाँवों के स्कूलों को सुधारो। शहरी अभिभावक नम्बरों के खेल में उलझकर रह गए और गांव के गरीब अपने बच्चों को हस्ताक्षर करने योग्य ही कर पाते हैं?
---पांच---
श्री प्रवीण पांडे जी का पोस्ट मानसिक हलचल पर पढ़ा, इसी हफ्ते।
पर मेरा मन इस बात पर भारी होता है कि कक्षा 12 का छात्र यह क्यों नहीं निर्धारित कर पाता है कि उसे अपने जीवन में क्या बनना है और क्यों बनना है? क्या हमारी संरक्षणवादी नीतियाँ हमारे बच्चों के विकास में बाधक है या आर्थिक कारण हमें “सेफ ऑप्शन्स” के लिये प्रेरित करते हैं।
*** (मुझे लिंक देना नहीं आता इसलिए नहीं दे पा रहा हूं)
इन सब घटनाओं ने मुझे भीतर से काफी उद्वेलित किया। मेरे मन में कुछ प्रश्न अनायास ही उठ खड़े हुए। टिप्पणी के रूप में मानसिक हलचल पर आए श्री प्रवीण पांडे के आलेख पर छोड़ आया था। वहां कुछ दूसरे प्रश्न भी थे। आइये फुर्सत में आज इस समस्या पर संवाद करें .....
क्या हमारे पालन-पोषण की प्रक्रिया में कोई दोष है ? बड़ा यांत्रिक जीवन हम आज जी रहें हैं। बच्चों की जीवन शैली को हम अपनी इच्छाओं के रिमोट से कंट्रोल से नियंत्रित करना चाहते हैं। पहले बच्चे दादी-नानी की कहानियों से बहुत कुछ सीख लेते थे। वह तो लुप्त-प्राय ही होता जा रहा है। कितने सारे खेलों से शारीरिक-मानसिक और बौद्धिक विकास हो जाया करता था। कोई अगर अतिमेधावी छात्र है, तो उससे बार-बार तुलना कर हम अपने बच्चे का मनोबल तोड़ते रहते हैं।
क्या बच्चे अपने बड़ों की अधूरी आकांक्षाओं को पूरा करने का साधन बन गए हैं ? हमने जो ज़िन्दगी में न पाया वह बच्चे में ढ़ूंढ़ते रहते हैं। अपने से बड़ा और बेहतर बनाने के चक्कर में उस पर अतिरिक्त दवाब डालते हैं। फलतः बच्चों का नैसर्गिक विकास नहीं हो पाता। उसे छुटपन से कृत्रिम ज़िन्दगी जिलाना चाहते हैं।
क्या बच्चे जीवन में जो भी चुनते हैं वास्तव में वह उन्हीं का चुनाव है ? यह नहीं करो, वह करो। डाक्टर नहीं इंजीनियर बनना है तुम्हें। आजकल तो सूचना-प्रौद्योगिकी का जमाना है और तुम ये कला विषय का चुनाव कर रहे हो। कुछ नहीं कर पाओगे जीवन में। यह सब नहीं चलेगा।
क्या बच्चे अपना व्यक्तित्व खोते जा रहें हैं ? हेवी होमवर्क, भारी बस्ते का बोझ, माता-पिता के अरमानों की फेहरिस्त, समाज-परिवार की आशाओं की कतार में कहीं बच्चों का अपना व्यक्तित्व खो गया सा लगता है।
क्या बच्चे को हमारे सिखाने की प्रक्रिया उनके सीखने की प्रवृत्ति कुंद कर रही है ? रटन्त शिक्षा पद्धति, स्कूलों में शिक्षा देने की प्रक्रिया उनके व्यक्तित्व और बौद्धिक विकास को बढ़ाने में कम असरदार साबित हो रहा है। हर दूसरे-तीसरे साल सुनने में आता है कि अब इस नहीं इस पद्धति से मूल्यांकन होगा।
हम अपने बच्चों के साथ कितना समय बिताते हैं ? माता-पिता अपने-अपने दफ्तर के मानसिक और शारीरिक दवाब से रिलैक्सेशन करें या बच्चों के साथ कुछ क्वालिटी का समय बिताएं, चुनाव उनका ही है। दादा-दादी अब साथ में रहते नहीं, तो टी.वी. की शिक्षा और संस्कृति ही उनका विकास कर रहीं हैं। उनके हाथ में विडियो गेम और कम्प्यूटर की की बोर्ड थमाकर अपने दायित्वों की इतिश्री समझ लेते हैं।
शिक्षा का सही उद्देश्य क्या है ? नौकरी दिलवाना, किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में या फिर विदेशी धरती पर, ताकि माता-पिता गर्व से कह सकें मेरी संतान सात अंकों में वार्षिक कमाई कर रही है। या एक अच्छा भारतीय नागरिक बनाना।
प्रश्न और भी कई हैं, होंगे, आपके भी मन में। बताइए। सुझाइए। संवाद को आगे बढ़ाइए।
पैसों की चमक-दमक में पीछे घुटते बचपन,उम्मीदों के बोझ तले गुम होते लड़कपन और हमारी पारिवारिक व शैक्षिक व्यवस्था पर एकसाथ टिप्पणी करती रपट है यह। आभार।
जवाब देंहटाएंमनोज जी आपका पोस्ट पढ़ा तो पाया कि बच्चो कि शिक्षा के स्तर में आये बदलाव (गिरावट कहना शायद अनुचित होगा) के बारे में चिंताएं सभी को होती हैं. एक दिन दूकान पर कुछ खरीदने के लिए खड़ा था और एक 5th या 6th का बच्चा कोई सामान ले रहा था. दुकानदार ने उस सामान का दाम अर्तालिस रुपये बतलाया तो बच्चे ने बरी मासूमियत से पूछा अर्तालिस मतलब thirty eight न अंकल!! सहसा ही मन में ख्याल आ गया कि हम कहाँ जा रहे हैं, किस और बढ़ रहे हैं. बोर्ड कि परीक्षा में 98% लाने के बाद भी विद्यार्थी रोते हैं कि क्लास में टॉप नहीं किये और उनकी हालत ऐसी है कि अर्तालिस को thirty eight समझते हैं. अपनी विकास कि गाड़ी को रोककर ठहरकर अपने अन्दर झाँकने कि जरूरत है. जरूरत है कि हम सचेत हो जाये नहीं तो शायद आज से 25-30 साल के बाद हम ये कहने के लायक भी न रह जायेंगे कि भारत प्रतिभाओं से भरा देश है................
जवाब देंहटाएंउफ़... बहुत दुखद और चिंता का विषय है..
जवाब देंहटाएंघर में बच्चों के बीच नियमित संवाद और बच्चो के रूचि का वातावरण जरुरी है.
मनोज जी, मेरा बताना हास्यास्पद तो है, क्योंकि मैं कम्प्यूटर के मामले में निरक्षर सी हूँ। फिर भी यदि सहायता मिले तो..
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉगस्पॉट पते को देखते हुए बताती हूँ।
ब्लॉगर खोलिए।
वहाँ नई पोस्ट लिखने वाले पृष्ठ पर जाइए।
वहाँ
Title,
Link
के खाने होंगे।
उसके नीचे Add enclosure link होगा, नीले में छोटा सा।
उसके नीचे b i और हरे रंग में एक चिन्ह होगा। (एक ही पंक्ति में और इस हरे चिन्ह के बाद
" insert block quote, फिर ABC आदि होगा। )हरे रंग के चिन्ह पर जब कर्सर ले जाएँगे तो insert link दिखेगा। आपने अपने लेख में जिस भी लेख का लिंक दिखाना हो जैसे आज के लेख में श्री प्रवीण पांडे जी की पोस्ट या “सेफ ऑप्शन्स” , उसे highlight करके हरे रंग के चिन्ह insert link को क्लिक
कीजिए। एक नया बॉक्स खुलेगा, जिसपर Enter URL: लिखा होगा। इसपर पहले से ही http:// लिखा होगा । यहाँ पर आप जिस पोस्ट का जिक्र कर रहे हैं उसका url डाल दीजिए। ok को क्लिक कीजिए। आपका काम हो गया। बस ध्यान रहे http:// दो बार न आ जाए, विशेषकर जब आप url कॉपी करके पेस्ट कर रहे हों तब।
ऐसे ही किसी भी शब्द या वाक्य को हाईलाइट करके b दबाएँगे तो बड़ा या बोल्ड दिखेगा।
आशा है आप अब यह बदलाव कर पाएँगे। यदि समस्या हो तो किसी भी ब्लॉगर मित्र से जी टॉल्क पर पूछ सकते हैं।
बच्चों की आत्महत्या पर मैं भी एक लेख लिख रही थी जो अधूरा है।
आपकी बातों से सहमत हूँ। माता पिता को सबसे अधिक महत्व अपने बच्चे को एक अच्छे, खुश व आत्मनिर्भर मानव बनाने को देना चाहिए।
घुघूती बासूती
ये सारी ख़बरें पढ़, मन इतना व्यथित है कि क्या कहूँ....ये क्या हो रहा है....आपने जितनी समस्याएं बताईं सब सही हैं....पर बच्चों में उतना धैर्य अब क्यूँ नहीं है?...पहले माता-पिता जम कर पिटाई कर डालते थे,बच्चों की और उनके मन में ऐसे खयाल जरा भी नहीं आते थे...आज तो जरा सा मना करो...और वे आत्महत्या कर लेते हैं...दोष पालन पोषण का ही है...एक गहन चिंतन बहुत जरूरी है
जवाब देंहटाएंआपको और आपके परिवार को नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और सही लिखा है आपने जिसे पढ़कर चिंता करने पर मजबूर कर देता है!
बहुत दुखद समचार हैं मगर सरकार आँखें मुँदे हुये है उसे कौन जगायें धन्यवाद
जवाब देंहटाएंएक अनजानी ख़ामोशी,एक अनजाना भय......जाने क्या हो रहा है !
जवाब देंहटाएंबच्चों का जो बनना है ,यह उनहें ही तय करने दिया जाए तो अचृछा होगा ।
जवाब देंहटाएंआपने गंभीर प्रश्न उठाया है । क्या इन प्रश्नों का उत्तर कभी मिल सकेगा । आभार ।
जवाब देंहटाएंआप की पोस्ट ने व्यथित कर दिया, लेकिन कसुर वार ओर हत्यारा कोन है इन सब का ?? सिर्फ़ ओर सिर्फ़ इन के माता पिता, जो आधाई साल के बच्चेको किताबो के बोझ से लाद देते है, बच्चा सांस भी नही ले सकता इन हिटलर टाईप के मां बाप के सामने ओर अन्त मै यही करता है जो आप ने लिखा है
जवाब देंहटाएंमध्य वर्ग, कुछ दशकों तक जूझेगा जब तक सुविधा पर्याप्त अर्जित नहीं कर लेता। तब तक बच्चे पर्फार्म करने के दबाव में पिसेंगे।
जवाब देंहटाएंअगर ८-९ प्र.श. की ग्रोथ रेट १०-१५ साल टिकी तो यह शिक्षा का दबाव समाप्त होगा और बच्चे अपने मन का पढ़ने करने को फ्री होने लगेंगे।
कुल मिला यह पीढ़ी तो झेलेगी ही।
आप द्वारा उठाई गई समस्या, आज आम हो चुकी है। इस पर आत्म मंथन अतिआवश्यक हो गया है। हम इससे बच नहीं सकते।
जवाब देंहटाएंनियमित संवाद, स्वतंत्रता, ...
जवाब देंहटाएंGambhir . Hal nikalna awashak hai..
जवाब देंहटाएंबहुत ही दुखद...
जवाब देंहटाएंबच्चों के साथ, बैठना उनसे बातचीत करना बहुत ज़रूरी है...
घर में सौहाद्र का माहौल बनाये रखना आवश्यक है....
आपकी चिंता जायज़ है । आज व्यक्ति जितना कृत्रिम जीवन जी रहा है, शायद इससे पूर्व किसी युग में नहीं जिया । हर वह व्यक्ति जो अपने दिल की बात सीधे-सीधे दूसरे के सम्मुख रखता है, धोखा खाता है या दूसरों द्वारा परेशानी में डाला जाता है । व्यक्ति अपने मन की बात अपने निकटतम लोगों से भी नहीं कर पाता और उसके आसपास का जो वातावरण है, वहाँ पूरी तरह से बनावटी व्यवहार चल रहा है, जिसमें कोई अपनापन या प्रेम जैसी चीज नजर नहीं आती । हमारे समाज का महत्वाकांक्षी चित्त नन्हें-मुन्नों पर अपनी महत्वाकांक्षाएँ बिना सोचे-समझे थोंपता जा रहा है । आज यदि सबसे ज्यादा किसी चीज की जरूरत है तो वह है व्यक्ति के स्व-विवेक को सम्मान देना । जो हमारे महत्वाकांक्षी चीत्त और राजनीतिक और डिप्लोमेटिक सोच के समाज को आता ही नहीं । ऐसे में व्यक्ति स्वयं को असहाय पाता है, जो बच्चे कृत्रिम नहीं बनना चाहते या समाज के साथ विद्रोह नहीं कर पाते वे आत्महत्या में ही सुरक्षा समझते हैं ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद इस विचारपरक लेख के लिए ।
बहूत कुछ सोचने को कहता है आलेख आपने कुछ प्रश्न भी रखे है और हल भी जो उचित भी है |आजकल बच्चे को बचपन से अत्यधिक लाड (भोतिक वस्तुओ कि पूर्ति )से पाल पोसकर बड़ा कर रहे है उसकी हार जरूरत उसके मांगने के पहले ही पूरी हो जाती है पढाई अपने आप नहीं कर पाता संघर्ष करने कि क्षमता भी नहीं जुटा पाता और ऐसे में असफल होने के बाद कि स्थितियों को वो झेल नहीं पाता और अपने आप को ख़त्म कर लेना आसान लगता है |बच्चे को सिर्फ अपने लोगो का हमेशा सपोर्ट चाहिए रहता है है जो आजकल माता के पास वक्त नहीं है देने को |
जवाब देंहटाएंबच्चों के साथ खेलना.......... उनसे बात करना .......... उनका तनाव कम करना ......... आज कल शिक्षा के साथ ये भी बहुत ज़रूरी है ..........
जवाब देंहटाएंsaamajik vidrupta ko darshaati aankhen kholne waalee prastuti !
जवाब देंहटाएंआत्महत्या का कोई गणित नहीं होता। तनाव , अकेलेपन और कोई रास्ता न समझ में आने पर लोग इसे अपनाते होंगे। आज सफ़लता का भूत इत्ता विकट हो चला गया है कि कोई असफ़ल नहीं होना चाहता। एक असफ़लता लोगों को इस कदर तोड़ देती है कि लोग अपना सामान बांध के चल देते हैं।
जवाब देंहटाएंजीवन अपने आप में अमूल्य है
लिंक लगाना आपको अलग से बतायेंगे। अभी नहीं तो अगले हफ़्ते कोलकता में ही आकर।
आप सबों का आभार। इस विषय पर सार्थक चर्चा हुई।
जवाब देंहटाएंMired Mirage जी का विशेष शुक्रिया तकनीकी जानकारी प्रदान करने के लिए।
अनूप शुक्ल जी का आभार। एक बहुत ही अच्छी रचना का लिंक देने के लिए।
कोलकाता आने की सूचना हर्षित कर गया। प्रतीक्षारत हूं।