समय अपनी गति से बढ़ता गया। अच्छे-बुरे, खट्टे-मीठे, कड़वे-खुशनुमा अनुभवों के साथ रामदुलारी ने स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल कर ही ली। शहर के सबसे प्रतिष्ठित फ्रोफेसर सहाय बाबू के मार्ग दर्शन में उसने शोधकार्य भी प्रारंभ कर लिया था। और इधर रुचिरा स्नातकोत्तर के बाद शोध कार्य पूरा कर रुचिरा से डा. रुचिरा पाडे बन चुकी थी। अब पढ़िए आगे!
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पीएच.डी. करने के बाद रुचिरा शहर के दीं-दयाल कॉलेज मे हिंदी की व्याख्याता नियुक्त हो गयी थी। डा. रुचिरा पांडे की रचनाएं भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। उससे कुछ पारिश्रमिक तो मिल ही जाते थे। पर वह नाकाफ़ी था। इधर प्राइवेट कॉलेज में तनख़्वाह के नाम पर दो हज़ार रुपए थमा दिये जाते थे। कुल जमा तीन-चार हज़ार रुपए में महीना निकालना बड़ा ही मुश्किल का काम था। ऊपर से पिता का क़र्ज़ भी तो चुकता करना था। रुचिरा को पढ़ाने लिखाने में अपना सब झोंक दिया था रुचिरा के पिता रामलालजी ने। राज्य सरकार के दफ़्तर में मामूली कलर्क की नौकरी करते थे। तनख़्वाह ज़्यादा नहीं थी। फलत: क़र्ज़ लेना पड़ा।
रुचिरा सेठ दीनदयालजी के कॉलेज में पढ़ाती थी। हां नारी सशक्तिकरण वाला उसका अभियान आज भी ज़ारी है। एक दिन दीनदयालजी ने उससे कहा कि उनका लड़का हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर कर रहा है। ज़रा उसे गाइड कर दे। तब से वह समीर के घर जाकर उसे गाइड करने लगी थी।
समीर एक दुबला-पतला, मझोले कद का व्यक्ति था। उसकी आंखें बड़ी-बड़ी थीं और वह चश्मा लगाता था। वह स्वभाव से गंभीर और कम बोलने वाला था। पर जब बोलता था तो मीठा ही बोलता था। वह अत्यंत सुसंकृत और सुलझा हुआ आदमी है। वह संवेदनशील भी है और औरतों को सम्मान करना जानता है। वह शराबी भी नहीं है। हकलाकि शराब पीने की विराट क्षमता उसे विरासत में अपने पिता से बचपन से ही मिली है। पर वह आदतन पियक्कड़ नहीं है। परन्तु बैठ जाए, तो जमकर पी सकता है। वह आदतन इश्क मिजाज भी नहीं है, परंतु शरारत से बाज नहीं आता। उसका स्वभाव मजाकिया है और संजीदा भी, पर अपने पिता से अलग है। उसकी तमन्ना थी किसी पत्र-पत्रिका से जुड़ने की और इसी तमन्ना ने उसे हिन्दी साहित्य से स्नातकोत्तर करने को प्रेरित किया।
जब रुचिरा पहले दिन समीर के घर पहुंची थी तो उसने ग़ौर किया कि अध्ययन कक्ष की दीवार पर समीर ने तरह-तरह के पोस्टर सजा रखे थे। समीर ने रुचिरा के चेहरे से नज़र बचाते हुए कहा था, “रुचिराजी! बुरा मत मानिएगा, इतने सारे पोस्टर मेरे स्टडी रूम में हैं। शायद आपको अटपटा लग रहा होगा। पर ये पोस्टर मेरे जीवन और विचार-धारा के प्रतीक हैं।”
“नहीं, बिल्कुल भी बुरा नहीं लग रहा मुझे।” रुचिरा ने कोमल स्वर में जवाब दिया, “दरअसल ये पोस्टर तुम्हारे सृजनशील होने की गवाही दे रहें हैं।”
“थैंक्स!”, समीर की दबी सी आवाज आई थी।
“ये पोस्टर तुम्हारे मानस पटल के प्रतीक हैं। तुम्हारे ये पोस्टर कहानी कहते प्रतीत होते हैं, कुछ तो कविताओं की तरह हैं।” पोस्टरों पर नज़रें फिराते हुए रुचिरा बोली, “इन्हें देखकर तो मुझे ये लग रहा है कि तुम एक कवि हृदय व्यक्ति हो।”
समीर चुप ही रहा पर रुचिरा की नज़र पूरे अध्ययनकक्ष में घूमती रहीं। फिर एक पोस्टर पर जाकर रुक गई। एक बैलगाड़ी पर एक युवा जोड़ा। उसके मन में आया ‘नदिया के पार’, ‘कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया’। वह अनायास बोल पड़ी, उसे नहीं मालूम समीर सुन भी रहा है या नहीं, “आजके युवा का प्रेम अजीबोगरीब भाषा में अभिव्यक्त होता है। आज के युवा को तेज रफ्तार बाइक पसंद है। वह बैलगाड़ी पर भ्रमण की कल्पना नहीं कर सकता।”
मंत्रमुग्ध सी रुचिरा विभिन्न पोस्टरों को देखती रही। एक पोस्टर के सामने रुक कर बोली, “लम्बे-लम्बे बाल रखना, उनकी चोटियां गूंथना और जूड़े में फूल लगाना तो लोग आज भूल ही चुके हैं।”
समीर एकटक रुचिरा को देखता जा रहा था। उसकी बातें उसे प्रभावित कर रही थी। वह मन-ही-मन सोचने लगा, ‘रुचिराजी के सौंदर्य से कविता फूट रही है या काव्यमयी वाणी से सौन्दर्य।’
रुचिरा बैठ गई। उसने उस दिन से ही समीर को हिन्दी के स्नातकोत्तर की तैयारियों में सहायता प्रदान करना शुरु कर दिया।
कुछ ही दिनों में रुचिरा ने महसूस किया कि समीर में साहित्य के प्रति नैसर्गिक लगाव था। वह आज के युवा वर्ग से अलग है। उसके अध्ययन कक्ष का रख-रखाव एक सृजनशील व्यक्ति की घोषणा करते प्रतीत होते थे। समीर के व्यवहार ने रुचिरा को काफी प्रभावित किया। कुछ ही महीनों के बाद उसे लगा कि मन उसका समीर के इर्द-गिर्द ही रमता है। मन उसे जिस ओर ले जाना चाह रहा था वह उचित है या अनुचित रुचिरा इस द्वन्द्व में पड़ गई। उसने समीर के यहां जाना बंद कर दिया।
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( रुचिरा और समीर के बीच क्या हुआ.... क्या यह सम्बन्ध एक गुरु-शिष्य का है या सहज नर-नारी का... पढ़िए अगले हफ्ते इसी ब्लॉग पर !! )
भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||, ॥ 38॥
त्याग पत्र के पड़ाव
कथा अब तरुनाई को प्राप्त कर रही है।
जवाब देंहटाएंKathanak ka mod badal gaya hai .Utsukta hai ki aage kya hoga.
जवाब देंहटाएंवाकई अब देखना है कि आगे क्या होगा । कथानक किस ओर मुड़ता है ।
जवाब देंहटाएंकहानी अच्छे मोड़ पर। अगली कड़ी की प्रतीक्षा।
जवाब देंहटाएंकहानी की यही तो विशेषता होनी चाहिये कि वह हर पल यह उत्सुकता बनाये रहे कि आगे क्या होगा----
जवाब देंहटाएंहेमन्त कुमार
Katha ka rukh badal raha hai.Ab agle hafte ka integar rahega.Dekhna hai ab aage kya hota hai.
जवाब देंहटाएंआप की कहानी अब रोमांटिक मोड ले रही है, लेकिन एक मर्यादा मै रह कर, ओर रुचिराभी अपनी जिम्मेदारी बाखुबी निभा रही है साथ साथ मै
जवाब देंहटाएंकथानक अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी की प्रतीक्षा
जवाब देंहटाएंद्वंद्व से निकलकर उचित निर्णय लेना चाहिए।
जवाब देंहटाएंgood, nice..
जवाब देंहटाएंसुन्दर! जिज्ञासा बन रही है!
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