दोस्तों !
आज रविवार है और मैं फुरसत में। लेकिन सामने दीवार पर लटके कलेंडर पर स्याह रंग में दिख रही तारीख थाम रही है कलम। चीख रहा है अंतर्मन। कुछ कह रही आत्मा.... कोई मांग रहा है इन्साफ.... ! कुछ शब्द, कुछ प्रश्न जो कौंध रहे हैं, बाँट रहा हूँ आपसे।
-- करण समस्तीपुरी
पूजा, इबादत, स्मरण किया !
चौखट पर झुकाया सर !
कभी अल्लाह कहा,
कभी बना दिया इश्वर !!
मुझे मंदिर से क्या लेना ?
मस्जिद से क्या लेना ?
चर्च के चर्चे से क्या लेना ???
तेरी मर्जी जहां रखा,
तन में, मन में,
ब्रह्माण्ड के हर कण में !
दिन में, रात में,
फकीरों की जमात में !
पत्थर में, पहाड़ में,
तिल में, तार में !
धर्म की आड़ में,
महीने की पगार में !
हार में, जीत में,
बैर में, प्रीत में !
जीवन में, मरण में,
स्मरण में, विस्मरण में !!
मुझे कोई शिकायत नहीं थी !
ना था कोई गिला !
मैं ने क्या बिगड़ा था ?
फिर क्यूँ तोड़ दिया,
हार में, जीत में,
बैर में, प्रीत में !
जीवन में, मरण में,
स्मरण में, विस्मरण में !!
मुझे कोई शिकायत नहीं थी !
ना था कोई गिला !
मैं ने क्या बिगड़ा था ?
फिर क्यूँ तोड़ दिया,
मेरा घर ??
घर तोड़ के ही रुक जाते,
ऐ मेरे नेक बन्दों,
तुम ने तो मेरा दिल तोड़ दिया !
कर दिए टुकड़े,
मेरे जिगर के टुकड़ों के !!
मैं ने तो महाभारत में भी,
नहीं उठाया हथियार !
बार दिया था अपनी औलाद को,
घर तोड़ के ही रुक जाते,
ऐ मेरे नेक बन्दों,
तुम ने तो मेरा दिल तोड़ दिया !
कर दिए टुकड़े,
मेरे जिगर के टुकड़ों के !!
मैं ने तो महाभारत में भी,
नहीं उठाया हथियार !
बार दिया था अपनी औलाद को,
अल्लाह के हुक्म पे !
और तुम ने मेरे ही नाम पर,
मेरे ही मुकाम पर,
बहा डाला खून की धार ??
वो तो घर ही टूटा था,
मैं झेल लेता !
रह लेता,
गरीब की दुआओं में !
लाचार की आहों में !!
लेकिन कैसे रहूँ,
खून सनी धरा पर ?
जहां नहीं है,
और तुम ने मेरे ही नाम पर,
मेरे ही मुकाम पर,
बहा डाला खून की धार ??
वो तो घर ही टूटा था,
मैं झेल लेता !
रह लेता,
गरीब की दुआओं में !
लाचार की आहों में !!
लेकिन कैसे रहूँ,
खून सनी धरा पर ?
जहां नहीं है,
प्यार, सौहार्द्र, ईमान व भाईचारा !
जहाँ धधक रही बदले की आग !!
वहाँ कैसे रहूँ मैं ?
जहाँ मेरी रियासत की राख पे,
शुरू हुई सियासत !
मेरे नाम पर भी,
होने लगी दहशत !
अब तो मुझे भी,
लगने लगा है डर !
आज तक मेरी कचहरी में,
दुनिया मांगती रही है इन्साफ !
देर या सबेर,
वहाँ कैसे रहूँ मैं ?
जहाँ मेरी रियासत की राख पे,
शुरू हुई सियासत !
मेरे नाम पर भी,
होने लगी दहशत !
अब तो मुझे भी,
लगने लगा है डर !
आज तक मेरी कचहरी में,
दुनिया मांगती रही है इन्साफ !
देर या सबेर,
सब को मिला है न्याय !!
पर मेरे ही साथ अन्याय क्यूँ ?
वर्षों बाद फिर वर्षी आयी !
टीस अभी भी है,
दर्द बांकी है !
फैसला बांकी है,
इन्साफ बांकी है !
अपना हक, मुआबजा, न्याय मांगने,
फिर आया हूँ तेरे दर !
कभी अल्लाह कहा,
कभी बना दिया इश्वर...!!
पर मेरे ही साथ अन्याय क्यूँ ?
वर्षों बाद फिर वर्षी आयी !
टीस अभी भी है,
दर्द बांकी है !
फैसला बांकी है,
इन्साफ बांकी है !
अपना हक, मुआबजा, न्याय मांगने,
फिर आया हूँ तेरे दर !
कभी अल्लाह कहा,
कभी बना दिया इश्वर...!!
Alla tero naam, tatha, kisne dekhi teri soorat,kisne banayi teri moorat,tere poojan ko bhagwaan bana man mandir aalishan, ye do geet yaad dila diye..lekin aapkee rachname behad dard hai, jo uprokt rachnase alahida hai...aapki rachna ek aah hai...
जवाब देंहटाएंकाश ये भावना हमारे नेता भी समझ पाते ...जो अक्सर जनता को मंदिर मस्जिद के नाम पर लड़ाते है..
जवाब देंहटाएंभावुक कविता
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअसल में घर पहले मनुष्य का था।
जवाब देंहटाएंफिर ईश्वर का हुआ।
तोड़ कर अल्लाह का बनाया गया।
फिर तोड़ कर ईश्वर को बसाया गया।
तार्किक क्रम से अब मनुष्य की बारी है।
लेकिन
वह अब उसमें रहने को तैयार नहीं है।
क्यों कि वही
मुकदमा लड़ रहा है कि
घर ईश्वर का है या अल्ला का है!
एक मनुष्य ही निर्णय सुनाएगा
मनुष्य को पता है
निर्णय कुछ भी हो
मनुष्य नहीं मानेगा।
...
...
ऐसे ही चलता रहेगा।
क्यों कि मनुष्य पहले हिन्दू और मुस्लिम है।
.. और उनमें हिन्दू बहुसंख्यक है इसलिए।
काश ये भावना हमारे नेता भी समझ पाते ...जो अक्सर जनता को मंदिर मस्जिद के नाम पर लड़ाते है..
जवाब देंहटाएंrajnish ji se sahmat........
बेहद मार्मिक। मैं भी महफूज जी से सहमत हूं कि काश ये भावना नेता भी समझ पाते।
जवाब देंहटाएंकाश अब हम समझ दार बन जाये, ओर अब हम इन नेताओ के कहने मै आ कर इस् देश को बर्बाद ना करे, बल्कि धर्म को एक तरफ़ रख कर, मिल कर इस देश को आगे ले जाये, ताकि आने वाली पीढी हमारी तरफ़ ना लडे, सुख शांति से रह पाये, ओर जो भी नेता धर्म, जात पात ओर ड्रामे कर के वोट मांगे उसे कभी मत वोट दो, वरना भारत मै बहुत से मंदिर ओर मस्जिदे है...... समभलओ
जवाब देंहटाएंbhagwan ka prashn bilkul waajib hai.
जवाब देंहटाएंkavita neek achhi !! vichaaraneey !!!
जवाब देंहटाएंAaj ke din is sundar aur marmik kavita ke liye dhanyawad.
जवाब देंहटाएंहमें सोचने और विचार करने के लिए प्रेरित करती यह कविता अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंकविता मार्मिक है एवं भाव समेटे है । समझना हमें है ।
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"अपना हक, मुआबजा, न्याय मांगने,
फिर आया हूँ तेरे दर !
कभी अल्लाह कहा,
कभी बना दिया इश्वर...!!"
क्यों तोड़ दिया मेरा घर?
पूछता घूम रहा इधर
जब संभाल नहीं सकता
जब सुधार नहीं सकता
बता नहीं सकता भक्तों को
धर्म का मर्म असल
किस बात का रे तू... ईश्वर ?
Manoj ji jane kitne kale din is desh me aaye....par hum na sudhre....lagta nahi ki sudhrenge...har baar chale jayegnge lekin unhe hi saata me bhejenge....kahte hai ki history apne ko repeat karti hai...agar koi sabak nahi sikhta....
जवाब देंहटाएंwasi kis bare me apane likha tha ki pada nahi ja raha...
बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! अगर इस बात को हमारे देश के नेता समझ पाते फिर सारे समस्याओं का समाधान हो जाता!
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक।
जवाब देंहटाएंरचना अच्छी लगी। बधाई।
जवाब देंहटाएंGood poem.
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील रचना।
जवाब देंहटाएंExcellent poem..ek ek line dil ko chhu gai ...
जवाब देंहटाएंKaran Ji..dis is your one of the best poem...Thanks
बहुत संवेदनशील.
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