-- मनोज कुमार
ओ कैटरपिलर!
तिलियों पर लिखते हैं सब,
मैं लिखूंगा तुझ पर,
ओ कैटरपिलर!
गीत, छंद, नई कविता,
लिखना तितलियों पर,
करना शब्द रचना
नहीं है कोई बड़ी बात।
पर कठिन है,
लेखनी उठाना तुझ जैसों पर,
नहीं जिसकी
अपनी कोई औकात।
तेरे शरीर का खुरदरापन
बारह खंडों में विभाजित तन,
और
सौंदर्य रहित तेरी काया पर,
यदि दो-चार शब्द-चित्र गढूं,
तो शायद
मैं ही पढूं।
फिर भी लिखूंगा तुझ पर,
हे आदिम बुनकर!
ओ कैटरपिलर!
तेरी ठहरी हुई सी
गति में जो माधुर्य है,
तिल-तिल सरकने में
जो संघर्ष है, चातुर्य है,
वह तितलियों की उड़ान में कहां?
यह लाघव जहान में कहां?
नन्हें पांवों
लूप बनाकर
अपनी काया ढोना।
कभी सरल हो-होकर खिंचना,
कभी वक्र हो-होकर झुकना,
गुल-गुलेल होना।
लगता है कैसा?
बौने का हिमालय लांघने के संकल्प जैसा।
तेरी परिभाषा को न सही अभिजात्य शब्द
फिर भी,
अपनी लोच से,
मृदुलता से,
जीतना समर।
ओ कैटरपिलर!
मेंडिबुलर मुखभागों से,
हरी पत्तियां कुतर-कुतर।
किसी तरह भर पाना,
दस भागों का रेल उदर।
इसी लिए,
लोग कहते हैं कि तुम,
पौधों के लिए दुश्मन जैसे।
और फिर उड़ेलते तुम पर,
विषैले रसायन कैसे-कैसे।
तुम्हारे कायान्तरण से,
निकली तितलियां
जिनके नयनों को भाती,
उन्हें तुम्हारी ज़िन्दगी रास नहीं आती।
पर, सभ्यता निखरती है,
तुम्हारे देय संवर कर।
ओ कैटरपिलर!
तिलियों पर लिखते हैं सब,
मैं लिखूंगा तुझ पर,
ओ कैटरपिलर!
गीत, छंद, नई कविता,
लिखना तितलियों पर,
करना शब्द रचना
नहीं है कोई बड़ी बात।
पर कठिन है,
लेखनी उठाना तुझ जैसों पर,
नहीं जिसकी
अपनी कोई औकात।
तेरे शरीर का खुरदरापन
बारह खंडों में विभाजित तन,
और
सौंदर्य रहित तेरी काया पर,
यदि दो-चार शब्द-चित्र गढूं,
तो शायद
मैं ही पढूं।
फिर भी लिखूंगा तुझ पर,
हे आदिम बुनकर!
ओ कैटरपिलर!
तेरी ठहरी हुई सी
गति में जो माधुर्य है,
तिल-तिल सरकने में
जो संघर्ष है, चातुर्य है,
वह तितलियों की उड़ान में कहां?
यह लाघव जहान में कहां?
नन्हें पांवों
लूप बनाकर
अपनी काया ढोना।
कभी सरल हो-होकर खिंचना,
कभी वक्र हो-होकर झुकना,
गुल-गुलेल होना।
लगता है कैसा?
बौने का हिमालय लांघने के संकल्प जैसा।
तेरी परिभाषा को न सही अभिजात्य शब्द
फिर भी,
अपनी लोच से,
मृदुलता से,
जीतना समर।
ओ कैटरपिलर!
मेंडिबुलर मुखभागों से,
हरी पत्तियां कुतर-कुतर।
किसी तरह भर पाना,
दस भागों का रेल उदर।
इसी लिए,
लोग कहते हैं कि तुम,
पौधों के लिए दुश्मन जैसे।
और फिर उड़ेलते तुम पर,
विषैले रसायन कैसे-कैसे।
तुम्हारे कायान्तरण से,
निकली तितलियां
जिनके नयनों को भाती,
उन्हें तुम्हारी ज़िन्दगी रास नहीं आती।
पर, सभ्यता निखरती है,
तुम्हारे देय संवर कर।
ओ कैटरपिलर!
कैटरपिलर!
तुम प्रतीक हो,
बेबस बेचारों के,
मोहताज़ मज़दूरों,
लाचारों के।
हे श्रमजीवी!
करके तैयार,
रंग-विरंगे वस्त्रों का,
रेशमी संसार।
तुम मिटते हो,
पटते हो,
जैसे नींव में पत्थर।
ओ कैटरपिलर!
*** *** ***
Anootha khayal,anoothi rachna! Aise likh pana sachme kathin hai!
जवाब देंहटाएंबहुत सही! कगूरे को सभी देखते हैं। नीव पर किसकी नजर जाती है!
जवाब देंहटाएंपर केटरपिलर का अपना सौन्दर्य है। उसे निहारने को एकाग्रता और समय चाहिये!
आप निश्चय ही अलग लगते हैं बन्धुवर।
(Those who read using feed reader would find other than default color of the blog text difficult to concentrate. For instance this yellow font color makes it difficult to concentrate. Pl look into.)
धन्यवाद। आपके प्रोत्साहन के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंHume to aj pata chala caterpiller ki visesta..kuch alag tarah ka poem padhne ko mila..sachmuch adbhut aur anokha...
जवाब देंहटाएंसीधे सीधे जीवन से जुड़ी कविता। एक अदम्य जिजीविषा का भाव कविता में इस भाव की अभिव्यक्ति हुई है।
जवाब देंहटाएंकैटरपिलर!
जवाब देंहटाएंतुम प्रतीक हो,
बेबस बेचारों के,
मोहताज़ मज़दूरों,
लाचारों के।
हे श्रमजीवी!
करके तैयार,
रंग-विरंगे वस्त्रों का,
रेशमी संसार।
तुम मिटते हो,
पटते हो,
जैसे नींव में पत्थर।
ओ कैटरपिलर!
Bahut bhav purn rachana. Aaj ke samaj ki sachi tasveer prastut karti....
रचनाकार की रचनात्मक सोच का सुन्दर उदाहरण है कैटरपिलर पर कविता
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर. अद्भुत और अलग सोच. कविता भी बिलकुल अलग.
जवाब देंहटाएंउपेक्षित वर्ग के प्रतिनिधि को संवेदना की परिधि में संजोये सुन्दर कविता. काव्य-जगत को नए प्रतीक और बिम्ब देने के लिए, धन्यवाद !!!
जवाब देंहटाएंVery nice poem....
जवाब देंहटाएंvishya vastu ho ya shilp ya sampreshan.... yah kavita meel ka patthar savit hogee.... !
जवाब देंहटाएंओ कैटरपिलर!
जवाब देंहटाएंतिलियों पर लिखते हैं सब,
मैं लिखूंगा तुझ पर,
ओ कैटरपिलर!
आपने अपनी कलम की स्याही से कैटरपिलर को अमर कर दिया है । एक महान कवि ही ऐसी कविता लिख सकता है ।
शब्दों का चयन- उत्कृष्ट
जवाब देंहटाएंभाव - उत्कृष्ट
भाषा - उत्कृष्ट
साहित्यिक सौंदर्य - उत्कृष्ट
महोदय आज की शानदार प्रस्तुति के लिए बधाई ।
बहुत अच्छी कविता पढ़ने को मिली बहुत दिनों के बाद । आपको धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंdhanya dhanya O caterpiller
जवाब देंहटाएंreingte rahne ki wazah se
padti hai tujh par nazar.
Par tumhari maut - pupa ban ke,
deta hai jamn --lavanyamaye
titlion ko
satrangee hote hain jinke par -
pyaar aata hai unpar.
Dhanya ho tum caterpiller-----
Manoj ji, aap ka bhi dhanyawaad jo
iss caterpiler se milaya hai.
SIMPLY MARVELLOUS
तुम्हारे कायान्तरण से,
जवाब देंहटाएंनिकली तितलियां
जिनके नयनों को भाती,
उन्हें तुम्हारी ज़िन्दगी रास नहीं आती।
पर, सभ्यता निखरती है,
तुम्हारे देय संवर कर।
ओ कैटरपिलर!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
caterpilar ko badi hi sundarata se paribhasit kar diya aapne ,ek anokhi rachna padhkar maza bhi aaya .
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएंइस कविता में न सिर्फ कैटरपिलर के माध्यम से श्रमिक वर्ग के महत्व पर प्रकाश डाला गया है बल्कि यह कविता एक प्रकार से निराशावादिता के विरुद्ध आशावादिता का प्रचार है।
जवाब देंहटाएंBahut achii lagi aapki yeh kavita....Bahut khub likha hai aapne catterpillar bebas aur laachaar hote hua bhi kar deta hai resham se bani colourful cloths ka bhandaar....aapki kavita ki kuch panktiyaan jaise "तिल-तिल सरकने में जो संघर्ष है, चातुर्य है, वह तितलियों की उड़ान में कहां?"
जवाब देंहटाएंनन्हें पांवों
लूप बनाकर
अपनी काया ढोना।
कभी सरल हो-होकर खिंचना,
लगता है कैसा?
बौने का हिमालय लांघने के संकल्प जैसा।
Yeh kuch panktiyaan mujhe bahut achhi lagi.
Bahut achha laga padh k...
अद्भुत सुंदर रचना! इतना बढ़िया लिखा है आपने ज़िन्दगी की से जुड़ी हुई और पूरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ जो सराहनीय है! आपकी लेखनी को सलाम!
जवाब देंहटाएंकैटरपिलर!
जवाब देंहटाएंतुम प्रतीक हो,
बेबस बेचारों के,
मोहताज़ मज़दूरों,
लाचारों के।
हे श्रमजीवी!
करके तैयार,
रंग-विरंगे वस्त्रों का,
रेशमी संसार।
तुम मिटते हो,
पटते हो,
जैसे नींव में पत्थर।
ओ कैटरपिलर!...
कैटरपिलर के माध्यम से समाज की विषमता और वर्ग भेद का लाजवाब चित्रण किया है आपने ......... बहुत ही भाव पूर्ण रचना ..........
आपकी लाजवाब सोच
जवाब देंहटाएंवाह...
आपके ब्लाग पर 6 दिसंबर की पोस्ट भी इतनी लाजवाब थी कि मैं चाह कर भी टिप्पणी नहीं कर पाया क्योंकि वो पोस्ट वाकई लाजवाब थी।
शुक्रिया
कैटरपिलर के माध्यम से अशक्त, असहाय लोगों पर लिखी यह कविता काफी मर्मस्पर्शी बन पड़ी है । ये करूणा के स्वर नहीं है । ऐसी निरीह, विवश, और अवश अवस्था में भी उनके संघर्षरत छवि को आपने सामने रखा है । यह प्रस्तुत करने का अलग और नया अंदाज है।
जवाब देंहटाएंओ! कैटरपिलर नाम से शीर्षक के रूप में संबोधित कविता का काव्य-सौष्ठव वर्णनातीत है। सौंदर्यशास्त्रियों ने सौंदर्य रहित काया में भी सुंदरता की अनुपम छटा को अतुलनीय, अद्वितीय जैसे शब्दों से विभूषित किया है। सांगोपांग अध्ययन के पश्चात आपकी उक्त कविता में कैटरपिलर के ठहराव में जिस गति को आपने उदभाषित किया है, उसके अग्रसर होने की अभिव्यक्ति से पूर्ण सहमत हूं। इसके माध्यम से आपने एक कुशल कवि के रूप में कवि-कर्म किया है जिसमें शब्द के अर्थों की निष्पत्ति लालित्य के रूप में हुई है।
जवाब देंहटाएंमानवेतर जीव के माध्यम से जिस मानसिक संकल्पना के आधार पर आपने इस उपेक्षित एवं प्रायः हाशिए पर रहे कैटरपिलर को श्रमजीवियों के दुःख दर्द एवं सामाजिक स्थिति को प्रतिमूर्ति के रूप में अभिव्यक्त किया है निश्चय ही वह प्रशंसनीय है। वर्तमान युग में बदलते सामाजिक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए ‘कैटरपिलर’ मानव समाज के लिए जीवन को जीने के लिए संघर्ष की महत्ता को रेखांकित करता है। अंततः यह कविता ‘अरथ अमित अति आखर, थोरे’ के रूप में पाठक के समक्ष अपना वर्चस्व स्थापित करने में समर्थ सिद्ध हुई है।
अलग है कविता और भावाभिव्यक्ति में सफल भी । सुंदर ।
जवाब देंहटाएंgreat !
जवाब देंहटाएंaapki ye rachna anuthi hai....ek naye prateek ke madhyam se samaj ki vishamtaon ko darshayaa hai.....badhai
जवाब देंहटाएं