-- करण समस्तीपुरी
अब का बताएं.... इत्ते दिन होय गया शहर का धुंआ खाते मगर दिल है कि मानता नहीं.... अबहु ससुर दौर जाता है सरपट गाँव की ओर। अरे गाँव की बाते कुछ और है। मनमोहक हरियाली, लज्जा का आवरण ओढ़े औरत, मिलनसार बुजुर्ग, छैल छबीले युवक मंडली... मतलब एगो अलगे अल्हड़पन होता है, गाँव के परिवेश में। इहाँ शहर में तो एक सूते का घर होता है, एगो रसोई पकाए का कोना आ एकहि गुशलखाना। और वही में जनानी-मर्दानी सब का लाइन लगा रहता है। एक अन्दर है तो दूसरा बाहर से दरवाजा पीट रहा है। और अपना गाँव में देखो कितना आजादी रहता है।
अब वही दिन की बात लीजिये ना। हम भैय्या बहुत दिन पर गए रहे अपनी गाँव। अब तो बताने में कनीक संकोचो हो रहा है। एकदम भोरे-भोर.... नीले गगन के तले... सुबह के पांच बजे... हाथ में लोटा... लोटा में पानी गाछी की ओर चले। अच्छा गाँव की एक और खासियत है। शहर में भले कोई शुभ कार्य में भी साथ ना दे मगर गाँव में गाछियो जाए बखत आपको दू-चार साथी मिल जायेंगे। हम को भी मिल गए। और बहुत दिन पर गए थे सो हाल-समाचार करते बढ़ चले गाछी की ओर। दुन्नु साइड लहलहाते खेत आ बीच मे एकदम संकड़ी पगडंडी। उसी पर हम लोग एकदम रेल-गाड़ी के डब्बे की तरह लाइन से चले जा रहे थे। उधर से अब्दुल चच्चा गाछी से निपट कर लौट रहे थे। अबके कमर थोड़ा झुक गया है। चश्मा के एगो डंडी की जगह सुतरी बाँध कर कान पर चढ़ाए हुए हैं लेकिन बूढी आँखों में अब भी पुराना नेह चमक रहा है। माटी का बधना (एक प्रकार का लोटा जिसमे पानी निकलने के लिए टोटी लगा होता है) पकड़ा हुआ कमजोर हाथ काँप रहा था। आमना-सामना हुआ... दुआ-सलाम भी। लेकिन भोरका पहर ज्यादे देर तो ठहराव नहीं हो सकता है न सो आगे बढ़ने लगे। लेकिन ई सिंगल लाइन एकपरिया पर क्रोसिंग कैसे हो ? हम तो किसी तरह साइड कटा के निकल लिए... लेकिन पीछे और भी डब्बा था आ इधर संभाल-संभाल कर कदम उठाते और रखते अब्दुल चच्चा। एक-दो लड़के तो निकल लिए पर गनेसिया पता नहीं कैसे टकरा गया? अब्दुल चच्चा को तो रामभरोस संभाल लिया मगर उनका हाथ से बधना छूट गया। बधना बेचारा पगडंडी पर ऐसा चारो खाने चित्त गिरा की दुबारा उठ नहीं पाया। बेचारे का इहलीला समाप्त होय गया। लेकिन ई का... दुर्घटना का शिकार बधना को जमीन पकड़े देख अब्दुल चच्चा रामभरोस का हाथ झटक धम्म से खेत में ही बैठ गए... और लगे चिचियाये। हमरा तो कलेजा मुंह को आ गया.... ई अब्दुल चच्चा को का हो गया... ? झट से पीछे मुड़ के गए उका पास। चच्चा तो एकदम कलेजा पीट-पीट कर आठ-आठ आंसू रो रहे थे। हम पूछे का हुआ चच्चा ? चच्चा चिग्घारते हुए बोले, "रे बाबू रे बाबू.... हमरा बधना चला गया रे....! दस बरिस से हमरे साथ था...! अपना-पराया सब साथ छोड़ दिया.... पर ई बधना अभी तक निमाह रहा था.... ई गनेसिया हमरे बधना का जिनगी छीन लिया रे बेटा.... अब हम का लेके रहेंगे रे बाबू... ! ई रमभरोसिया.... रे तू हमरे काहे बचाया... मरे देता हमको गिर कर.... हमरे बधना को तो बचा लेता रे मुद्दैय्या.... अब हम का लेके रहेंगे रे बाप!'' हमने देखा आह तोरी के.... अब्दुल चच्चा तो ऐसा विलाप कर रहे हैं गोया बधना नहीं चच्ची हो। फिर भी हम अपना गीता-ज्ञान बघारने लगे। उको समझाए। "का चच्चा आप भी इतना समझदार होय के ई मामूली बधना के लिए रो रहे हैं...? इन चीजों का तो आना-जाना लगा रहता है। अभी आपको कुछ हो जाता तो?" चच्चा आंसू से तर-बतर घिघियाते हुए बोले, "मर जाने दो हमें... अब बधना बिना भी क्या जीना.... !" हम कहे, "अरे चच्चा ! बधना का क्या है, एक गया दूसरा आएगा...। चलिए अभिये कारी पंडित से नया बधना आपको ख़रीद देते हैं। रोइए मत।" ई पर अब्दुल चच्चा अपना आंसू पोछते हुए बोले, "न रे बेटा.... बात नया बधना का नहीं है। नया तो मिलिए जाएगा। पर हमरा उ बधना तो नहिये मिलेगा न। उका बात जुदा था। उ हमरा सब कुछ देखा हुआ था... हम उका देखे हुए थे। अब तो जो दुसरा आएगा... उ भी हमरा सब कुछ देख लेगा और पता नहीं ई बधना जैसे पचा के रखेगा कि हमरा तन देख कर सौंसे गाँव मे चुगली कर देगा...!" हम्म्म्म.... अब हमरे समझ में आया कि चच्चा फजूल का नहीं रो रहे थे। बात में तो दम था। हमरा पीछे लड़का लोग "चच्चा के तन बधना देखा... बधना के तन चच्चा!" कह-कह के ताली पीट कर हंस रहा था। हम सब को डांटे। सब चुप हुआ। फिर चच्चा को तोख-भरोस दिला के गाँव का रास्ता पकराए।
तभी लखना कहने लगा, "बूढा सठिया गया है। बधना के लिए भी कोई ऐसे रोता है ??? हम उका समझाए, "धुर्र बुरबक! समझा नहीं... चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। मतलब चच्चा बधना के लिए नहीं रो रहे थे। बधना तो सच्चे में फेर से हो जाएगा.... मगर क्या पता वो भी इसी बधने की तरह वफादार होगा? ई बधने पर जो उका विश्वास था उके लिए रो रहे थे चच्चा। सहिये न कह रहे थे चच्चा कि अब तो जो नया आएगा उ भी चच्चा का सबकुछ देखेगा... लेकिन क्या पता कि उसी पुराने बधने की तरह भरोसेमंद होगा... ? तब सब लड़का सब के समझ मे आयी चच्चा की बात। और उसी दिन से ये कहाबत भी बन गयी। नए के प्रति अंदेशा और पुराने वफादार के प्रति विश्वास व्यक्त करने के लिए, लोग अक्सर इस कहावत का प्रयोग करते हैं।
अब का बताएं.... इत्ते दिन होय गया शहर का धुंआ खाते मगर दिल है कि मानता नहीं.... अबहु ससुर दौर जाता है सरपट गाँव की ओर। अरे गाँव की बाते कुछ और है। मनमोहक हरियाली, लज्जा का आवरण ओढ़े औरत, मिलनसार बुजुर्ग, छैल छबीले युवक मंडली... मतलब एगो अलगे अल्हड़पन होता है, गाँव के परिवेश में। इहाँ शहर में तो एक सूते का घर होता है, एगो रसोई पकाए का कोना आ एकहि गुशलखाना। और वही में जनानी-मर्दानी सब का लाइन लगा रहता है। एक अन्दर है तो दूसरा बाहर से दरवाजा पीट रहा है। और अपना गाँव में देखो कितना आजादी रहता है।
अब वही दिन की बात लीजिये ना। हम भैय्या बहुत दिन पर गए रहे अपनी गाँव। अब तो बताने में कनीक संकोचो हो रहा है। एकदम भोरे-भोर.... नीले गगन के तले... सुबह के पांच बजे... हाथ में लोटा... लोटा में पानी गाछी की ओर चले। अच्छा गाँव की एक और खासियत है। शहर में भले कोई शुभ कार्य में भी साथ ना दे मगर गाँव में गाछियो जाए बखत आपको दू-चार साथी मिल जायेंगे। हम को भी मिल गए। और बहुत दिन पर गए थे सो हाल-समाचार करते बढ़ चले गाछी की ओर। दुन्नु साइड लहलहाते खेत आ बीच मे एकदम संकड़ी पगडंडी। उसी पर हम लोग एकदम रेल-गाड़ी के डब्बे की तरह लाइन से चले जा रहे थे। उधर से अब्दुल चच्चा गाछी से निपट कर लौट रहे थे। अबके कमर थोड़ा झुक गया है। चश्मा के एगो डंडी की जगह सुतरी बाँध कर कान पर चढ़ाए हुए हैं लेकिन बूढी आँखों में अब भी पुराना नेह चमक रहा है। माटी का बधना (एक प्रकार का लोटा जिसमे पानी निकलने के लिए टोटी लगा होता है) पकड़ा हुआ कमजोर हाथ काँप रहा था। आमना-सामना हुआ... दुआ-सलाम भी। लेकिन भोरका पहर ज्यादे देर तो ठहराव नहीं हो सकता है न सो आगे बढ़ने लगे। लेकिन ई सिंगल लाइन एकपरिया पर क्रोसिंग कैसे हो ? हम तो किसी तरह साइड कटा के निकल लिए... लेकिन पीछे और भी डब्बा था आ इधर संभाल-संभाल कर कदम उठाते और रखते अब्दुल चच्चा। एक-दो लड़के तो निकल लिए पर गनेसिया पता नहीं कैसे टकरा गया? अब्दुल चच्चा को तो रामभरोस संभाल लिया मगर उनका हाथ से बधना छूट गया। बधना बेचारा पगडंडी पर ऐसा चारो खाने चित्त गिरा की दुबारा उठ नहीं पाया। बेचारे का इहलीला समाप्त होय गया। लेकिन ई का... दुर्घटना का शिकार बधना को जमीन पकड़े देख अब्दुल चच्चा रामभरोस का हाथ झटक धम्म से खेत में ही बैठ गए... और लगे चिचियाये। हमरा तो कलेजा मुंह को आ गया.... ई अब्दुल चच्चा को का हो गया... ? झट से पीछे मुड़ के गए उका पास। चच्चा तो एकदम कलेजा पीट-पीट कर आठ-आठ आंसू रो रहे थे। हम पूछे का हुआ चच्चा ? चच्चा चिग्घारते हुए बोले, "रे बाबू रे बाबू.... हमरा बधना चला गया रे....! दस बरिस से हमरे साथ था...! अपना-पराया सब साथ छोड़ दिया.... पर ई बधना अभी तक निमाह रहा था.... ई गनेसिया हमरे बधना का जिनगी छीन लिया रे बेटा.... अब हम का लेके रहेंगे रे बाबू... ! ई रमभरोसिया.... रे तू हमरे काहे बचाया... मरे देता हमको गिर कर.... हमरे बधना को तो बचा लेता रे मुद्दैय्या.... अब हम का लेके रहेंगे रे बाप!'' हमने देखा आह तोरी के.... अब्दुल चच्चा तो ऐसा विलाप कर रहे हैं गोया बधना नहीं चच्ची हो। फिर भी हम अपना गीता-ज्ञान बघारने लगे। उको समझाए। "का चच्चा आप भी इतना समझदार होय के ई मामूली बधना के लिए रो रहे हैं...? इन चीजों का तो आना-जाना लगा रहता है। अभी आपको कुछ हो जाता तो?" चच्चा आंसू से तर-बतर घिघियाते हुए बोले, "मर जाने दो हमें... अब बधना बिना भी क्या जीना.... !" हम कहे, "अरे चच्चा ! बधना का क्या है, एक गया दूसरा आएगा...। चलिए अभिये कारी पंडित से नया बधना आपको ख़रीद देते हैं। रोइए मत।" ई पर अब्दुल चच्चा अपना आंसू पोछते हुए बोले, "न रे बेटा.... बात नया बधना का नहीं है। नया तो मिलिए जाएगा। पर हमरा उ बधना तो नहिये मिलेगा न। उका बात जुदा था। उ हमरा सब कुछ देखा हुआ था... हम उका देखे हुए थे। अब तो जो दुसरा आएगा... उ भी हमरा सब कुछ देख लेगा और पता नहीं ई बधना जैसे पचा के रखेगा कि हमरा तन देख कर सौंसे गाँव मे चुगली कर देगा...!" हम्म्म्म.... अब हमरे समझ में आया कि चच्चा फजूल का नहीं रो रहे थे। बात में तो दम था। हमरा पीछे लड़का लोग "चच्चा के तन बधना देखा... बधना के तन चच्चा!" कह-कह के ताली पीट कर हंस रहा था। हम सब को डांटे। सब चुप हुआ। फिर चच्चा को तोख-भरोस दिला के गाँव का रास्ता पकराए।
तभी लखना कहने लगा, "बूढा सठिया गया है। बधना के लिए भी कोई ऐसे रोता है ??? हम उका समझाए, "धुर्र बुरबक! समझा नहीं... चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। मतलब चच्चा बधना के लिए नहीं रो रहे थे। बधना तो सच्चे में फेर से हो जाएगा.... मगर क्या पता वो भी इसी बधने की तरह वफादार होगा? ई बधने पर जो उका विश्वास था उके लिए रो रहे थे चच्चा। सहिये न कह रहे थे चच्चा कि अब तो जो नया आएगा उ भी चच्चा का सबकुछ देखेगा... लेकिन क्या पता कि उसी पुराने बधने की तरह भरोसेमंद होगा... ? तब सब लड़का सब के समझ मे आयी चच्चा की बात। और उसी दिन से ये कहाबत भी बन गयी। नए के प्रति अंदेशा और पुराने वफादार के प्रति विश्वास व्यक्त करने के लिए, लोग अक्सर इस कहावत का प्रयोग करते हैं।
वाह करण जी, वाह। का रंग बिखेरे हैं। बहुते बढ़िया।
जवाब देंहटाएंइसमें आपने अपनी पैनी निगाह ख़ूब दौड़ायी है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंaare samastipuri ji! ye kya kiya, ye baat kis kone se nikaal laaye bhai. malooom nahin bechaari ye kahawat kis kone me padi pareeshan ho gai hogi. aapne to ise logon mein aaise parosa k bhai waah kya kehna.
जवाब देंहटाएंMaja aa gaya karanji.
जवाब देंहटाएंवाह करण जी !आजकी प्रस्तुति भी जानदार और शानदार रही ।
जवाब देंहटाएंआज फिर एक नयी कहावत सीखने को मिली । प्रस्तुतिकरण बढिया रहा ।
जवाब देंहटाएंकरण जी,
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया रही आपकी प्रस्तुति..
बस एक ही विनती है....
कृपा करके इस पाराग्राफ़ में लिखा करें तो पढने में सुविधा होगी....
बिलकुल एकसाथ प्रिंटेड होने की वजह से पढना थोडा कठिन हो जाता है..
आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे...
धन्यवाद...
इस रचना का सहज हास्य मन को गुदगुदा देता है। आपके पास हास्य चित्रण की कला है। बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक पोस्ट...गाँव की मिटटी की सौंधी गंध लिए हुए...हँसते हँसते हाल बुरा हो गया,...वाह...
जवाब देंहटाएंनीरज
देसिल बयना बांटने के लिए आभार !!
जवाब देंहटाएंबहुते बढ़िया, अब का तारीफ करें
जवाब देंहटाएंसभी पाठकों का हृदय से आभार ! अदा जी का मार्गदर्शन अनुकरणीय है !! आपकी प्रतिक्रया ही हमारी रचनात्मक ऊर्जा का संबल है!!!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !!!!
चलिए इसी बहाने इस लोकाक्ति से परिचय हो गया।
जवाब देंहटाएं------------------
शानदार रही लखनऊ की ब्लॉगर्स मीट
नारी मुक्ति, अंध विश्वास, धर्म और विज्ञान।
इस रचना ने मन नोह लिया।
जवाब देंहटाएंमन लट्टू हो गया। रचना सौंदर्य की दीप्ति में ढ़ली हुई है।
जवाब देंहटाएंthike hai e ho bar ka kahawat...
जवाब देंहटाएं