-- मनोज कुमार
हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवार में जीने वालों को और खासकर जिनका साहित्य से लगाव हो, विभिन्न प्रकार की समस्यायों का सामना करना पड़ता है। हम कई चीज़ों से तालमेल बिठाते हुए लेखन कार्य कर पाते हैं। दफ़्तर का कामकाज, उसका दवाब तो रहता ही है। सृजन करने की आकांक्षा में कई सोच-विचार भी मन में साथ-साथ चलते रहते है। पत्नी, बच्चे, घर की जिम्मेदारियां, इन सबसे लड़ते-उबरते जो समय बच पाता है, उसमें उतना लिख पाना संभव नहीं होता, जितना मन करता है। लिखने के लिए जो शांति चाहिए, जितना धैर्य चाहिए, उसे बटोरने में ही आधी ऊर्जा निकल जाती है। फलस्वरूप अंदर की छटपटाहट और बढ़ जाती है। हो सकता है घर के लोग हमारी इन आदतों से तालमेल बिठा चुके हों, पर अपनी तो लड़ाई ज़ारी ही रहती है, शायद अपने भीतर को तत्वों से।
कई पुस्तकें महीनों पड़ी रह जाती हैं। पढ़ने का समय ही नहीं मिलता। बिना पढ़े कुछ लिखने की प्रेरणा ही नहीं मिलती। कहीं मैंने पढ़ा था कि 10 पेज लिखने के लिए 1000 पेज पढ़ना चाहिए। सच भी है। अच्छा साहित्य दिल-दिमाग दोनों पर प्रभाव छोड़ता है। यह हमारे आचार-विचार दोनों को प्रभावित करता है।
पढ़ने के क्रम में मैं पाता हूँ कि साहित्य जगत में एक ही विषय पर कई तरह के विचार होते हैं। हर रचना में उसके रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है। अब सबका दृष्टिकोण एक समान तो हो नहीं सकता। कई बार जो मान्य दृष्टिकोण बन गया है, उसमें भी बीतते समय के साथ बदलाव संभव है। इस परिवर्तित होते दृष्टिकोण के कारण विवाद होता है, तर्क-वितर्क होता है। यह भी एक स्वस्थ परंपरा है। इन बहसों से शायद अंतिम मूल्य-निर्धारण न हो, पर उस दिशा में कुछ क़दम तो बढ़ ही जाता है। अपनी-अपनी रचनाधर्मिता के प्रति प्रतिबद्धता का निर्बाह हर कोई करता है।
जब हम किसी रचना के सृजन में रत होते हैं तो कई ऐसे तत्व होते हैं जो हमारी सृजन प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, कई तो उनके जन्म का कारण ही होते हैं। जैसे हमारा अध्ययन, हमारा अनुभव, हमारे आस पास का वातावरण (सामाजिक, रातनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, आदि), हमारे संपर्क क्षेत्र, हमारे ईर्द-गिर्द के कुछ ज्वलंत प्रश्न या समस्यायें जिनसे हम रू-ब-रू हो रहे होते हैं। ये सब हमें झकझोड़ते हैं, उद्वेलित करते हैं। फिर हमारा एक दृष्टिकोण बनता है। हम लिखते हैं। रचते हैं। अब ये कारक सबके लिए एक समान हो, ज़रूरी तो नहीं। अलग-अलग भी हो सकते हैं। तो कई बार दृष्टिकोण भी मेल नहीं खाता।
हर किसी के जीवन में कुछ न कुछ प्रेरक शक्तियां होती हैं। कुछ के लिए माता-पिता, तो कुछ के लिए गुरु। वहीं किसी के लिए हालात तो दूसरे के लिए अग्रज। कहीं न कहीं से प्रेरणा तो मिल ही जाती है। फिर जीवन में कई वास्तविकताओं से भी पाला पड़ता है। अपने अच्छे-बुरे अनुभवों से भी हम बहुत कुछ सीखते हैं। जीवन में आगे बढ़ते हैं। इस बीच हम कल्पना का अपना एक संसार भी बनाते रहते हैं। कई बार, वास्तविकता एवं कल्पना दोनों मिलकर, कुछ सृजन के कारक बन जाते हैं। सिर्फ प्रेरणा से सृजन नहीं होता। सृजन के लिए प्रयास तो स्वयं करना पड़ता है। सृजन के लिए एक संतुलित दृष्टि भी आवश्यक है। बहुधा आधुनिक समाज की अतिशय संवेदनशीलता में थोड़ी सी भी नादानी कई भारी भूल बन जाती है।
मैं प्रयास करता हूँ कि मैं जो भी रचता हूँ लोगों को यह लगे कि हमने दिल से लिखा है। और यह सिर्फ मेरे साथ होता हो, ऐसा नहीं है। मुझे तो हर किसी की हर रचना दिल से लिखी लगती है। लगता है जैसे यह उनकी वर्षों की साधना है, जीवन भर का तप है।
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कई पुस्तकें महीनों पड़ी रह जाती हैं। पढ़ने का समय ही नहीं मिलता। बिना पढ़े कुछ लिखने की प्रेरणा ही नहीं मिलती। कहीं मैंने पढ़ा था कि 10 पेज लिखने के लिए 1000 पेज पढ़ना चाहिए। सच भी है। अच्छा साहित्य दिल-दिमाग दोनों पर प्रभाव छोड़ता है। यह हमारे आचार-विचार दोनों को प्रभावित करता है।
पढ़ने के क्रम में मैं पाता हूँ कि साहित्य जगत में एक ही विषय पर कई तरह के विचार होते हैं। हर रचना में उसके रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है। अब सबका दृष्टिकोण एक समान तो हो नहीं सकता। कई बार जो मान्य दृष्टिकोण बन गया है, उसमें भी बीतते समय के साथ बदलाव संभव है। इस परिवर्तित होते दृष्टिकोण के कारण विवाद होता है, तर्क-वितर्क होता है। यह भी एक स्वस्थ परंपरा है। इन बहसों से शायद अंतिम मूल्य-निर्धारण न हो, पर उस दिशा में कुछ क़दम तो बढ़ ही जाता है। अपनी-अपनी रचनाधर्मिता के प्रति प्रतिबद्धता का निर्बाह हर कोई करता है।
जब हम किसी रचना के सृजन में रत होते हैं तो कई ऐसे तत्व होते हैं जो हमारी सृजन प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, कई तो उनके जन्म का कारण ही होते हैं। जैसे हमारा अध्ययन, हमारा अनुभव, हमारे आस पास का वातावरण (सामाजिक, रातनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, आदि), हमारे संपर्क क्षेत्र, हमारे ईर्द-गिर्द के कुछ ज्वलंत प्रश्न या समस्यायें जिनसे हम रू-ब-रू हो रहे होते हैं। ये सब हमें झकझोड़ते हैं, उद्वेलित करते हैं। फिर हमारा एक दृष्टिकोण बनता है। हम लिखते हैं। रचते हैं। अब ये कारक सबके लिए एक समान हो, ज़रूरी तो नहीं। अलग-अलग भी हो सकते हैं। तो कई बार दृष्टिकोण भी मेल नहीं खाता।
हर किसी के जीवन में कुछ न कुछ प्रेरक शक्तियां होती हैं। कुछ के लिए माता-पिता, तो कुछ के लिए गुरु। वहीं किसी के लिए हालात तो दूसरे के लिए अग्रज। कहीं न कहीं से प्रेरणा तो मिल ही जाती है। फिर जीवन में कई वास्तविकताओं से भी पाला पड़ता है। अपने अच्छे-बुरे अनुभवों से भी हम बहुत कुछ सीखते हैं। जीवन में आगे बढ़ते हैं। इस बीच हम कल्पना का अपना एक संसार भी बनाते रहते हैं। कई बार, वास्तविकता एवं कल्पना दोनों मिलकर, कुछ सृजन के कारक बन जाते हैं। सिर्फ प्रेरणा से सृजन नहीं होता। सृजन के लिए प्रयास तो स्वयं करना पड़ता है। सृजन के लिए एक संतुलित दृष्टि भी आवश्यक है। बहुधा आधुनिक समाज की अतिशय संवेदनशीलता में थोड़ी सी भी नादानी कई भारी भूल बन जाती है।
मैं प्रयास करता हूँ कि मैं जो भी रचता हूँ लोगों को यह लगे कि हमने दिल से लिखा है। और यह सिर्फ मेरे साथ होता हो, ऐसा नहीं है। मुझे तो हर किसी की हर रचना दिल से लिखी लगती है। लगता है जैसे यह उनकी वर्षों की साधना है, जीवन भर का तप है।
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Aalekh Achchha hai.
जवाब देंहटाएंLekh hakikat ka Aaina hai.Aacha laga.
जवाब देंहटाएंएक अच्छे आलेख की प्रस्तुति । शुभकामनाएं ...
जवाब देंहटाएंदिल की बात कह दी आप ने !
जवाब देंहटाएंसाधुवाद।
लिखने के लिए जो शांति चाहिए, जितना धैर्य चाहिए, उसे बटोरने में ही आधी ऊर्जा निकल जाती है। फलस्वरूप अंदर की छटपटाहट और बढ़ जाती है। हो सकता है घर के लोग हमारी इन आदतों से तालमेल बिठा चुके हों, पर अपनी तो लड़ाई ज़ारी ही रहती है, शायद अपने भीतर को तत्वों से।
जवाब देंहटाएंBilkul sahi kaha aapne. Aalekh padhkar aisa laga jaise humare apne sabad hon. Aisa hi to ghatit hota hai.
Bahut bathai
सच लिखा है ....... हर कोई अपने दिल से . है ...... और अच्छे साहित्य को दिल से पढ़ना चाहिए .....
जवाब देंहटाएंमनोज जी बहुत सुंदर ओर सही बात कही आप ने, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबेवाकी अच्छी लगी..... दिल से !
जवाब देंहटाएंयह सच है कि जो हम आज रचते हैं वह दशकों का पढ़ा-सोचा समग्र का परिणाम होता है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया कहा आपने।
jee...
जवाब देंहटाएंWanted to know full forms
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