पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, "राघोपुर की रामदुलारी का परिवार के विरोध के बावजूद बाबा की आज्ञा से पटना विश्वविद्यालय आना ! रुचिरा-समीर और प्रकाश की दोस्ती ! फिर पटना की उभरती हुई साहित्यिक सख्सियत ! गाँव में रामदुलारी के खुले विचारों की कटु-चर्चा ! शिवरात्रि में रामदुलारी गाँव आना और घरवालों द्वरा शादी की बात अनसुनी करते हुए शहर को लौट जाना ! फिर शादी की सहमति ! रिश्ता और तारीख तय ! अब पढ़िए आगे !! -- मनोज कुमार
प्रजापति बाबू के आँगन में मंडप बंध चुका था। सगे-सम्बन्धियों से घर-दालान में मेला जैसा दृश्य उत्पन्न हो गया था। लाउडस्पीकर पर शारदा सिन्हा का गाना बज रहा था, "अरही ये बन से खरही कटाओल..... वृन्दावन से बिट बांस हो..... !" ठाकुर टोल की युवक मंडली मंडप की सजावट में पसीने बहा रही थी।मंडप के बीच में बैठे नरेश लाल रंग-बिरंगे कागज़ से तरह-तरह का डिजाइन निकाल रहे थे। छोटे-छोटे लड़के हरे-हरे बांस के खम्भों में आंटे की लोई लगा कर डिजाइन चिपका रहे थे। बगल में बन्नो माली फूल की लड़ियाँ सुलझा रहा था।
मुरली बाबू दो नवागंतुकों के साथ आँगन में आये। आँगन में पैर रखते ही बोले, " क्या नरेश बाबू... ! अभी तक आप डिजाइने काट रहे हैं... ? पता है कि नहीं.... कल्हे विवाह का मुहूरत है। सांझ में घिढारी-मटकोर होगा... और अभी तक मंडप का सजावट भी नहीं हुआ है.... धत... तोरी के.... हम भी करने आते हैं कुछ और कहने लगते हैं कुछ...!" मुरली बाबू के हाव-भाव में व्यस्तता की चरमसीमा परिलक्षित हो रही थी। फिर संभाल कर बोले, "भौजी... ! ये देखिये... पटना शहर से आये हैं रामदुलारी के दोस्त। ई है रुचिरा, कालेज में पढ़ाती है और ई समीर पटना के नामी सेठ दीनदयाल जी का लड़का है... । ले जाइए इन्हें रामदुलारी के पास।
रुचिरा और समीर का नाम सुनते ही रामदुलारी खुद वरामदे तक चली आयी। 'रुचिरा जी..... !' उसके मुँह से इतना ही निकला था कि रुचिरा चहक पड़ीं, "अरी.... रामदुलारी........ ! हाये.... ! देखो समीर..... ! कितनी सुन्दर लगी रही है मेरी सहेली.... !! अरी तू ने तो साड़ी भी बड़े सलीके से पहन रखा है... ! सच में..... रामदुलारी ! तू एक ही महीने में कितना निखर गयी रे.... ।" पता नहीं और क्या-क्या कहती हुई रुचिरा सीधा रामदुलारी से लिपट गयी। समीर वहीं खड़ा खड़ा पीतवसना रामदुलारी की स्वर्णिम आभा को शिशुवत निरख रहा था। फिर दोनों कन्धा मिला कर समीर के तरफ पलटी। "आओ न समीर... !" रामदुलारी हौले से कही थी।
रामदुलारी, रुचिरा और समीर को लेकर मैय्या चल पड़ीं। कमरे में पहले से रामदुलारी की मौसी, मामी, छोटकी चाची, ममेरी-मौसेरी बहाने, गाँव की सहेलियां बैठी थीं। कमरे तक पहुँचते ही मैय्या का स्वर गूंजा, "अरे कीर्ति...! लक्ष्मण... ! कुर्सी लाना इधर... । देखो दीदी के दोस्त आये हैं पटना शहर से। "अरे नहीं माँ जी ! रहने दीजिये न। कुर्सी की क्या जरूरत है... ?" कहते हुए रुचिरा रामदुलारी का हाथ पकड़े-पकड़े सामने बिछी कुश के चटाई पर बैठ गयी। रामदुलारी झुकती हुई समीर को देखती रही। तब तक लक्ष्मण लकड़ी वाली एक कुर्सी उठाए आ गया था। "लो बेटा ! तुम इधर बैठो..." दरवाजे से लगे कोने में कुर्सी को सरकाती हुई मैय्या बोली थी। समीर को पहली बार कुछ बोलने का मौका मिला था। उसने कहा, "नहीं-नहीं.... मैं बाहर ही जा रहा हूँ... वो सहाय सिर भी आये हुए हैं।" रामदुलारी चौंक पड़ीं थी, "क्या... प्रो सहाय !"
मैय्या से आग्रह किया रामदुलारी ने। गुरुदेव के पैर छूने हैं। वह दालान पर जायेगी। "नहीं-नहीं... ऐसा न करो बेटा... तू आज बहार कैसे जायेगी.... ? परफेसर साहेब को अंगने में बोला लेते हैं।" "ठीक है मैय्या...," रामदुलारी बोली थी। प्रो सहाय आँगन में खड़े थे। रामदुलारी ने उनके पैर छुए। अपनी प्यारी शिष्या को उठा कर कलेजे से लगा लिया था सहाय बाबू ने। फिर बोले थे, "तू तो इतनी बदमाश न थी रामदुलारी... ! पटना से कब चली आयी.... कुछ भी नहीं बताया... और सीधा शादी का कार्ड भेज दिया... ! खैर तेरा थीसिस तो कम्प्लीट है। इसी साल के अंत में प्रेजेंटेशन और वाइवा होगा.... । फिर तू बन जायेगी डॉ रामदुलारी। रामदुलारी झेंप कर पैर के अंगूठे से आँगन की जमीन कुरेदने लगी थी। प्रो सहाय ने कहा था, "जा बेटी ! तेरा उधर काम होगा। रुचिरा से बातें कर। मैं समीर के साथ थोड़ा गाँव घूम आता हूँ।
रामदुलारी रुचिरा के साथ अपने कमरे मे आ गयी। कमरा खाली हो चुका था। दोनों सहेलियों में अन्तरंग वार्ता छिड़ गयी। रुचिरा जी की आँखों में रामदुलारी कालेज का पहले दिन से लेकर पटना में आखिरी भेंट तक देख रही थी। बातों का सिलसिला ऐसा कि शुरू हुआ तो थमने का नाम ही नहीं। रुचिरा ने बहुत कुरेदा था, "सब कुछ ठीक तो है, रामदुलारी...? तू पटना से यकायक क्यूँ चली आयी ? तू खुश है न.... ? इंजीनियर बांके-बिहारी तुझे पसंद तो है न.... ?" होंठो पर मंद मुस्कान के साथ रामदुलारी आँखे झपका कर सिर को ऊपर-नीचे हिलाती रही। रामदुलारी के इस मुस्कान को रुचिरा परिणय-व्रता का सहज संकोच ही समझ रही थी। फिर उसने पूछा, "अच्छा ! प्रकाश भी आ रहा है न... तू ने उसे भी तो कार्ड भेजा होगा....?" रामदुलारी की कनकाभ कांटी थोड़ी मलिन हो गयी थी, "नहीं, रुचिरा जी... ! मुझे मालुम नहीं.... प्रकाश अब कहाँ है...?" रामदुलारी के होंठ काँपे थे। शायद रुचिरा कुछ समझ चुकी थी। वह स्वर्ण-कुसुम पर शीतवृष्टि नहीं करना चाहती थी। फिर बात बदल दिया।
कुछ देर बाद रामदुलारी सहज हो कर पूछने लगी, "और आपकी क्या योजना है... ?" जवाब में रुचिरा स्वयं और समीर के बीच का सारा वृतांत चेहरे की सजीव भाव-भंगिमा के साथ एक ही सांस में बता गयी थी। फिर दोनों सहेलियों के कहकहे गूंजे थे कमरे में और तभी मामी-मौसी-चाची और ममेरी-मौसेरी बहनों के साथ-साथ कुछ ग्राम-वधुएँ भी आ गयी थी कमरे में।
शादी की तैयारी हो चुकी ! अब बस मिथिलांचल की शादी ही बांकी है ! देखना न भूलें ! अगले हफ्ते इसी ब्लॉग पर !!
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pratiksha agale bhag kee.
जवाब देंहटाएंअच्छा अन्क. अगले अन्क का इन्तज़ार रहेगा.
जवाब देंहटाएंकहानी का प्रवाह बरकरार है।
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी का इंतजार है।
अगली कड़ी का इंतजार है।
जवाब देंहटाएंaaj pahli bar yah kisht padha, bandhne wala lekhan,
जवाब देंहटाएंpadhta hu purani kisht aur intejar karta hu agli kisht ka
वाह बहुत बढ़िया! अब तो बस अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा !
जवाब देंहटाएंसही चल रहा है!
जवाब देंहटाएंआपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया! मैं अपनी गलती मानती हूँ की जेंडर में ज़रा गलती हो गयी! आपसे गुज़ारिश है कि अब आप एक बार फिर मेरी कविता पढ़िए और टिपण्णी दीजिये! मैंने संशोधन कर लिया है! अपना सुझाव देते रहिएगा!
जवाब देंहटाएंhttp://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
IS BHAG KO PADHKAR GHAR ME HUI SHADIYAN YAD AA GAI...
जवाब देंहटाएंis shubh avasar ka sundar chitran ,aage bhi shamil hone aaungi ,sundar
जवाब देंहटाएंsatik chitran ,bilkul aesa lag raha tha padhte huye mano hum bhi us mahoule se jud gaye ,sundar ,doston ka milna khas raha .
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