भीष्म उठ निर्णय सुनाओ --आचार्य परशुराम राय |
भीष्ठ उठ निर्णय सुनाओ कविता मानसिक हलचल ब्लॉग पर दिनांक 03-04-2010 को देखने को मिली और कुछ प्रतिक्रियाएं भी। पितामह भीष्म से भारतीय राजनीतिक परिवेश को व्यंजित करने का अच्छा प्रयास किया गया है। महाभारत कालीन राजनीतिक परिवेश आज के हमारे भारतीय परिवेश से काफी साम्य रखता है। आज भी राजनीतिज्ञों की प्रतिबद्धता और निष्ठा सबसे पहले अपने और अपने सगे संबंधियों के लिए, फिर बाद में अपनी पार्टी और संगठन के लिए समर्पित है, न कि देश के लिए या अपने देश के नागरिकों के लिए। कई ऐसी दुखद घटनाएं हुईं, जब राजनेता मीडिया के सम्मुख एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के माध्यम से ही एकता की बात करते सुने गए। यद्यपि कि जिस परिवेश को कविता की भावभूमि बनाया गया है, वह नया नहीं है। लेकिन आज भी वह हमारे घाव को हरा कर रही है।कविता पढ़कर पाठक शब्दों की ताजगी से अभिभूत होता सा दिखता है। साथ ही प्रतिनिधि रचनाओं की शब्द योजना पर ध्यान देने की आवश्यकता है ।
इस रचना को कविता न कहकर गीत कहना चाहिए वैसे भाषा में ताजगी पैदा करने का प्रयास किया गया है। कुछ प्रयोग बहुत अच्छे हैं, जैसेः-धर्म की कोई अघोषित व्यंज्जना मत बुदबुदाओ। यह आज के राजनेताओं द्वारा प्रदर्शित विरोध और समर्थन के अस्तित्वहीन कारणों को बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यंजित करता है।
पांडवों को भारतीय जनमानस का प्रतिनिध अथवा राजनीतिक पार्टियों के सुबुद्ध और चिन्तक राजनेताओं की ओर संकेत कर अच्छा प्रयोग किया गया है। वैसे महाभारत में पाण्डवों की अपेक्षा पितामह धर्मसंकट से अधिक घिरे हैं और आज के पितामह भी। पाण्डव तब भी मजबूर थे और उनकों व्यंजित करने वाले अथवा रूपक भारतीय जनमानस या नागरिक भी उसी प्रकार मजबूर। अनेक राजनीतिक दलों और बनती-बिगड़ती सरकारों ने उन्हें किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में लाकर खड़ा कर रखा है। नैतिकता के नाम पर कभी प्रजातंत्र का भूत खड़ा कर दिया जाता है, तो कभी धर्मनिरपेक्षता का। द्रौपदी की चीख पर भी हास्यप्रद अभिनय देखने को मिलता है। एक पक्ष नारियों के उत्पीड़न पर आंसू बहाने का अभिनय करता है, तो दूसरा दुर्योधन अर्थात उत्पीड़कों के समर्थन में तर्कावलि प्रस्तुत करता है और हम भारतीय नुक्कड़ों पर उनकी चर्चा में टाइम पास करते है। सरकारी तंत्र का इस चर्चा में समय व्यतीत हो जाता है। देश की सबसे बड़ी संस्था संसद में असभ्यता का जो स्वरूप देखने को मिलता है, वह मामा शकुनि के पासे के खेल के परिणामस्वरूप भरी सभा में द्रौपदी के चीर हरण से कम नहीं लगता। ये भी अपनी असभ्यता को सभ्यों की तर्कशैली अपनाए हुए मीडिया के सम्मुख दिखते हैं और अपने कृत्य पर स्वयं अपनी पीठ ठोंक लेते हैं। यह बहुत निराशाजनक है कि जिन्हें हम निर्वाचित कर अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं, उनमें से अधिकांश दुर्योधन से भी गिरे हुए हैं। उनकी प्रतिबतद्धता देशवासियों के सरोकार के प्रति नहीं, बल्कि अपने स्वार्थ के प्रति है। अब तो निराशा इतनी बढ़ गई है कि पाण्डव नजर ही नहीं आते या यो कहिए कि उनमें भी दुर्योधन ही दिखाई पड़ते हैं। सत्तर के दशक में इसी निराशा के परिणामस्वरूप मैंने तो कृष्ण तक पर व्यंग्य कर डाला था –
बिक गए सुयोधन के हाथों
ये कृष्ण नई कुछ शर्त लिए
वह खोज रहा है अर्जुन को
अपने कर में गांडीव लिए ।
.................................
पता नहीं वह यक्ष कौन है
जिसकी माया के बल से
मुर्दा बना भीम है लेटा
और युधिष्ठिर ठगे खड़े
इस प्रकार कवि ने भीष्म उठ निर्णय सुनाओ कविता के माध्यम से भारतीय जनमानस की पीड़ा को व्यंजित करने का जोरदार प्रयास किया है। इस पीड़ा के प्रति कवि का क्षोभ भी पूरी कविता में परिव्याप्त है और अपने क्षोभ के तरह-तरह के तीखे वचनों से कवि हर पंक्ति में बार बार पितामह भीष्म के सुप्त पौरूष को जगाने का अथक प्रयास करता दिखता है। यहाँ तक कि अन्त में पितामह भीष्म से निर्णय की याचना करते हुए महर्षि व्यास का आवाहान कर नए भारत के सृजन की बात कह बैठता है, अर्थात् नए निर्माण के प्रति कवि की आशान्विता प्रशंसनीय है।
उक्त सभी बातों के होते हुए भी कवि के क्षोभ की उग्रता के कारण कुछ प्रयोगों की ओर बरबस ध्यान आकर्षित हो जाता है, जैसे – विदुर की तुम न्यायसंगत सीख सुनते क्यों नहीं, भीष्म उठ निर्णय सुनाओं आदि यहां हम भीष्म को न्यायाधीश के रूप में मान रहे हैं। न्यायधीश से उठकर निर्णय सुनाने की बात कहना या विदुर की सीख सुनने जैसी बात से बेहतर होता ‘सीख’ के स्थान पर ‘बात’ शब्द का प्रयोग सार्थक होता और उठ के स्थान पर अब। इसी प्रकार “हृदय में लौह पालना” नया मुहावरा अर्थ को दिशा देने में समर्थ नहीं हो सका है। वैसे बड़े समर्थ कवियों ने प्रचलित मुहावरों को भी अपनी रचनाओं में बड़े ही आकर्षक ढंग से प्रयोग किया है, विशेषकर संत महाकवि गोस्वामी तुलसीदस जी का नाम उल्लेखनीय है।
दूसरे बंद में व्यर्थ की अनुशीलना में आत्म अपना मत तपाओ पंक्ति में अनुशीलना के स्थान पर ‘अनुशीलन’ का प्रयोग ठीक रहता। इस पंक्ति में व्याकरण संबंधी दोष आत्म में आया है। क्योंकि आत्म विशेषण या समास में उपसर्ग के रूप में प्रयुक्त होता है, जबकि यहां संज्ञा के रूप में प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त कई स्थानों पर कविता में प्रवाह (प्रांजलता) अवरूद्ध हो गया है। अन्य कुछ शब्द-योजनागत दोष भी है, जिनसे थोड़ा सजग होकर बचा जा सकता था।
बहुत अच्छा लेख,ओर बहुत अच्छी जानकारी.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत अच्छा लेख,ओर बहुत अच्छी जानकारी.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
समीक्षक का कार्य बहुत कठिन है, बिलकुल तलवार की धार पर चलने के समान. राय जी आपकी टिप्पणी हमेसा की तरह बहुत सधी हुई, संतुलित और सार्थक है.
जवाब देंहटाएंसमीक्षा की आँच हम सब तक पहुँच रही है और बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है. यह ब्लाग पर अभिनव प्रयोग भी है. इसके लिए हम सब मनोज जी के आभारी हें.
@ हरीश प्रकाश गुप्त
जवाब देंहटाएंसच कहा हरीश जी आपने! यह काम तलवार की धार पर चलने समान है। पर हम दिल से आभारी हैं, श्री प्रवीण पाण्डेय जी का जिन्होंने हमें अपनी रचनाओं से बाहर की रचनाओं की समीक्षा प्रस्तुत करने की सहमति दी। हम यह प्रयोग कर रहे हैं ब्लॉग पर। और प्रवीन जी की तरह के ब्लॉगरों का हमें सहयोग और उत्साहवर्धन मिला तो और आगे भी करते रहेंगे।
यह भी सच है कि आचार्य परशुराम जी के प्रयास से समीक्षा की आँच हम सब तक पहुँच रही है और बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है. यह ब्लाग पर अभिनव प्रयोग भी है.
अभी तो हमें इसे समझने के लिए खूब पढाई करनी होगी...
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'पाखी की दुनिया में' पुरानी पुस्तकें रद्दी में नहीं बेचें, उनकी जरुरत है किसी को !
बिक गए सुयोधन के हाथों
जवाब देंहटाएंये कृष्ण नई कुछ शर्त लिए
वह खोज रहा है अर्जुन को
अपने कर में गांडीव लिए ।
.................................
पता नहीं वह यक्ष कौन है
जिसकी माया के बल से
मुर्दा बना भीम है लेटा
और युधिष्ठिर ठगे खड़े
..पांडवों को भारतीय जनमानस का प्रतिनिध अथवा राजनीतिक पार्टियों के सुबुद्ध और चिन्तक राजनेताओं की ओर संकेत कर अच्छा प्रयोग किया गया है। वैसे महाभारत में पाण्डवों की अपेक्षा पितामह धर्मसंकट से अधिक घिरे हैं और आज के पितामह भी। ......
....Bahut Saarthak aalekh....
vartmaan paridrashya ka sateek udghatan...
Bahut shubhkamnayne
बहुत अच्छा लगा यह समीक्षा पढकर।
जवाब देंहटाएंइस तरह की समीक्षा से बहुत कुछ सीखने को मिलता है साथ ही यह भी कहना है कि कविता भी बहुत अच्छी है। और इस समीक्षा द्वारा समझने में आसानी हुई।
जवाब देंहटाएंएक बहुत अच्छी कविता पर उतनी ही अच्छी समीक्षा। प्रवीण जी के चिंतन को परशुराम रय जी ने बहुत अच्छी तरह प्रस्तुत किया है। दोनों को बधाई।
जवाब देंहटाएंकविता की भावना को इतनी गहराई से सम्मुख रखने के लिये मेरा शतशः धन्यवाद । मेरे अपने विचार अब मेरे सामने एक पुस्तक की भाँति खुले हैं । आपके मंच से यह समीक्षा मेरे लिये सम्मान है । सलाह के सारे बिन्दु सार्थक हैं, भविष्य में विकास की अपेक्षा पर खरा उतरना चाहूँगा ।
जवाब देंहटाएंतर्क संगत समीक्षा ..
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