हे देश, तुम्हारे तर्पण में
-आचार्य परशुराम राय
हे देश, तुम्हारे तर्पण में
सूख गयीं सारी नदियाँ
संविधान के काम वृक्ष की
काट-काट कर सारी डालें
मैं तो समिधा बना दिया।
हे देश तुम्हारे तर्पण में
कितनी भर दी इनमें प्यास
कि सारे सागर भी खाली हो गए
उनकी सबकी प्यास बुझाने में।
मीडिया वर्ग है पूछ रहा
अब क्या जवाब दूँ, तुम बोलो
कि राजनीति के जटाजूट में
गंगा कैसी भटक गयी?
आँसू से भरी अंजलि
किसे अर्घ्य दे
तेरे प्रभात के सूरज को
तेरा ही बंदर निगल गया।
लोकतंत्र की ढपली है
है लोकतंत्र का राग,
लाऊँ कहाँ से लोकतंत्र
वह तो कब का स्मगल हो गया।
हे देश, बता तेरे तर्पण में
अब क्या करूँ? अब क्या बोलूँ।
*******
मीडिया वर्ग है पूछ रहा
जवाब देंहटाएंअब क्या जवाब दूँ, तुम बोलो
कि राजनीति के जटाजूट में
गंगा कैसी भटक गयी?
आँसू से भरी अंजलि
किसे अर्घ्य दे
Ati sundar bhaav manoj ji !
देश तुम्हारे तर्पण में
जवाब देंहटाएंकितनी भर दी इनमें प्यास
कि सारे सागर भी खाली हो गए
उनकी सबकी प्यास बुझाने में।
सुन्दर पंक्तियाँ! बेहद ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना!
सुन्दर भावाभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंआपकी कविता पढ़ने पर ऐसा लगा कि आप बहुत सूक्ष्मता से एक अलग धरातल पर चीज़ों को देखते हैं।
जवाब देंहटाएंगहरे भाव लिये अच्छी कविता.
जवाब देंहटाएंसुन्दर रुप मे राय जी ने अपनी बातों को कहा है.
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें.
सुंदर ...
जवाब देंहटाएंमीडिया वर्ग है पूछ रहा
जवाब देंहटाएंअब क्या जवाब दूँ, तुम बोलो
कि राजनीति के जटाजूट में
गंगा कैसी भटक गयी?
आँसू से भरी अंजलि
किसे अर्घ्य दे
तेरे प्रभात के सूरज को
तेरा ही बंदर निगल गया।----------------------बहुत उम्दा रचना-----।
sundar
जवाब देंहटाएंअब क्या बोलूँ????????
जवाब देंहटाएंअद्भूत प्रभाव का काव्य ! लघु छंद में भी प्रबंध-कौशल की प्रतीति हो रही है ! शिल्प में गुप्त झाँक रहे हैं तो ओज के स्वर में दिनकर की हुंकार सुनाई देती है !! व्यवस्था के प्रति के क्षोभ से विद्रोह के तेवर तीक्ष्णतर हो गए हैं. कुछ पक्तियां तो मुझे इतनी अच्छी लगी कि एक बार में ही याद हो गयी ! जैसे.....
जवाब देंहटाएंसंविधान के काम वृक्ष की
काट-काट कर सारी डालें
मैं तो समिधा बना दिया।
कि राजनीति के जटाजूट में
गंगा कैसी भटक गयी?
तेरे प्रभात के सूरज को
तेरा ही बंदर निगल गया।
कवि ने ऐसे अनछुए विम्बों का प्रयोग किया है कि कविता बेहद ही रचक बन पड़ीं है.... ! किन्तु कुछ स्थानों पर मुझे कुछ संशय जैसा है....
कि सारे सागर भी खाली हो गए ......... यहाँ "भी" शब्द मुझे कुछ खटक रहा है.... तथापि छंदपूर्ति के लिए जरूरी भी है !
लोकतंत्र की ढपली है
है लोकतंत्र का राग, ...... सहसा रुकना पड़ रहा है.... ऊपर से अगली पंक्तियों में उपसंहार आ जाने से छंद भी अपूर्ण सा जान पड़ता है..... लगता है कि दो पंक्तियाँ और होनी चाहिए.... !
अब क्या करूँ? अब क्या बोलूँ।..... इतनी प्रभावशाली कविता की अन्त्य-पंक्तियाँ..... लगता है कविता के उत्कर्ष पर कवि जल्दी में आ गए हैं ! खास कर "अब क्या करूँ ?"...... काश कुछ और बात होती..... !!!